चूडीवाली Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चूडीवाली

चूडीवाली

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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चूडीवाली

“अबी तो पहना गई हो।”

“बहूजी, बडी अच्छी चूडियाँ हैं। सीधे बम्बई से पारसल मँगाया है। सरकार का हुक्म है; इसलिए नई चूडियाँ आते ही चली आती हूँ।”

“तो जाओ, सरकार को ही पहनाओ, मैं नहीं पहनती।”

“बहूजी! जरा देख तो लीजिए।” कहती मुस्कराती हुई ढीठचूडीवाली अपना बक्स खोलने लगी। वह पचीस वर्ष की एक गोरीछरहरी स्त्री थी। उसकी कलाई सचमुच चूडी पहनाने के लिए ढली थी।

पान से लाल पतले-पतले होठ दो-तीन वक्रताओं में अपना रहस्य छिपाएहुए थे। उन्हें देखने का मन करता, देखने पर उन सलोने अधरों से कुछबोलवाने का जी चाहता है। बोलने पर हँसाने की इच्छा होती और उसीहँसी में शैशव का अल्हडपन, यौवन की तरावट और प्रौढ की-सीगम्भीरता बिजली के समान लड जाती।

बहूजी को उसकी हँसी बहुत बुरी लगती; पर जब पंजों में अच्छीचूडी चढाकर, संकट में फँसाकर वह हँसते हुए कहती - “एक पान मिलेबिना यह चूडी नहीं चढती।” तब बहूजी को क्रोध के साथ हँसी आजाती और उसकी तरल हँसी की तरी लेने में तन्मय हो जाती।

कुछ ही दिनों से यह चूडीवाली आने लगी है। कभी-कभी बिनाबुलाए ही चली आती और ऐसे ढंग फैलाती कि बिना सरकार के आएनिबटारा न होता। यह बहूजी को असह्य हो जाता। आज उसको चूडीफँसाते देख बहूजी झल्लाकर बोली - “आजकल दुकान पर ग्राहक कमआते हैं क्या?”

“बहूजी, आजकल खरीदने की धुन में हूँ, बेचती हूँ कम।” इतनाकहकर कई दर्जन चूडियाँ बाहर सजा दीं। स्लीपरों के शब्द सुनाई पडे।

बहूजी ने कपडे सम्हाले, पर वह ढीठ चूडीवाली बालिकाओं के समानसिर टेढा करके “यह जर्मनी की है, यह फरांसीसी है, यह जापानी है”

कहती जाती थी। सरकार पीछे खडे मुस्करा रहे थे।

“क्या रोज नई चूडियाँ पहनाने के लिए इन्हें हुक्म मिला है?”

बहूजी ने गर्व से पूछा।

सरकार ने कहा - “पहनो, तो बुरा क्या है?”

“बुरा तो कुछ नहीं, चूडी चढाते हुए कलाई दुखती होगी।”

चूडीवाली ने सिर नीचे किए कनखियों से देखते हुए कहा। एक लहर-सी लाली आँखों की ओर से कपोलों को तर करती हुई दौड जाती थी।

सरकार ने देखा-एक लालसा-भरी युवती व्यंग्य कर रही है। हृदय मेंहलचल मच गई, घबराकर बोले - “ऐसा है, तो न पहनें।”

“भगवान करे, रोज पहनें”, चूडीवाली आशीर्वाद देने के गम्भीरस्वर में प्रौढा के समान बोली।

“अच्छा, तुम अबी जाओ।” सरकार और चूडीवाली दोनों की ओरदेखते हुए बहूजी ने झुँझलाकर कहा।

“तो क्या मैं लौट जाऊँ? आप तो कहती थीं न, कि सरकार कोही पहनाओ, तो जरा उनसे पहनने के लिए कह दीजिए।”

“निकल मेरे यहाँ से।” कहते हुए बहूजी की आँखें तिलमिलाउठी। सरकार धीरे से निकल गए। अपराधी के समान सिर नीचा किएचूडीवाली अपनी चूडियाँ बटोरकर उठी। हृदय की धडकन में अपनीरहस्यपूर्ण निश्वास छोडती हुई चली गई।

चूडीवाली का नाम था विलासिनी। वह नगर की एक प्रसिद्ध नर्तकीकी कन्या थी। उसके रूप और संगीत-कला की सुख्याति थी, वैभव भीकम न था! विलास और प्रमोद का पर्याह्रश्वत सम्भार मिलने पर भी उसेसन्तोष न था। हृदय में कोई अभाव खटकता था, वास्तव में उसकीमनोवृि्रूद्गा उसके व्यवसाय के प्रतिकूल थी।

कुलवधू बनने की अभिलाषा हृदय में और दाम्पत्य-सुख का स्वर्गीयस्वह्रश्वन उसीक आँखों में समाया था। स्वच्छन्द प्रणय का व्यापार अरुचिकरहो गया, परन्तु समाज उससे हिंस्र पशु के समान सशंक था। उससे आश्रयमिलना असम्भव जानकर विलासिनी ने छल के द्वारा वही सुख लेना चाहा।

यह उसकी सरल आवश्यकता थी, क्योंकि अपने व्यवसाय में उसका प्रेमक्रय करने के लिए बहुत-से लोग आते थे, पर विलासिनी अपना हृदय खोलकर किसी से प्रेम न कर सकती थी।

उन्हीं दिनों सरकार के रूप, यौवन और चारित्र्य ने उसे प्रलोभनदिया। नगर के समीप बाबू विजयकृष्ण की अपनी जमींदारी में बडी सुन्दरअट्टालिका थी। वहीं रहते थे। उनके अनुचर और प्रजा उन्हें सरकारकहकर पुकारती थी। विलासिनी की आँखें विजयकृष्ण पर गड गई।

अपना चिर-संचित मनोरथ पूर्ण करने के लिए वह कुछ दिनों के लिएचूडीवाली बन गई थी।

सरकार चूडीवाली को जानते हुए भी अनजान बने रहे। अमीरी काएक कौतुक था, एक खिलवाड समझकर उसके आने-जाने में बाधा न देते।

विलासिनी के कलापूर्ण सौन्दर्य ने जो कुछ प्रभाव उनके मन पर डालाथा, उसके लिए उनके सुरुचिपूर्ण मन ने अच्छा बहाना खोज लिया था,वे सोचते, ‘बहूजी का कुल-वधू-जनोचित सौन्दर्य और वैभव की मर्यादादेखकर चूडीवाली स्वयं पराजय स्वीकार कर लेगी और अपना निष्फलप्रयत्न छोड देगी, तब तक यह एक अच्छा मनोविनोद चल रहा है!’

चूडीवाली अपने कौतूहलपूर्ण कौशल में सफल न हो सकी थी,परन्तु बहूजी के आज के दुर्व्यवहार ने प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी और चोटखाकर उसने सरकार को घायल कर दिया।

अब सरकार प्रकाश्य रूप से उसके यहाँ जाने लगे। विलास-रजनीका प्रभात भी चूडीवाली के उपवन में कटता। कुल-मर्यादा, लोकलाज औरजमींदारी सब एक ओर और चूडीवाली अकेले। दालान में कुर्सियों परसरकार और चूडीवाली बैठकर रात्रिजागरण का खेद मिटा रहे थे, पासही अनार का वृक्ष था, उसमें फूल खिले थे। एक बहुत ही छोटी कालीचिडिया उन फूलों में चोंच डालकर मकरन्द पान करती और कुछ केसरखाती, फिर हृदयविमोहक कलनाद करती हुई उड जाती।

सरकार बडी देर से कौतुक देख रहे थे, बोले - “इसे पकडकर पालतू बनाया जाए, तो कैसा?”

“उहूँ, यह फूलसुंघी है। पींजरे में जी नहीं सकती। उसे फूलों काप्रदेश ही जिला सकता है, स्वर्ण-पिंजर नहीं, उसे खाने के लिए फूलोंकी केसर का चारा और पीने के लिए नकरन्द-मदिरा कौन जुटावेगा?”

“पर इसकी सुन्दर-बोली संगीत-कला की चरम सीमा है; वीणामें भी कोई-कोई मीड ऐसी निकलती होगी। इसे अवश्य पकडना चाहिए।”

“जिसमें बाधा नहीं, बंधन नहीं, जिसका सौन्दर्य स्वच्छन्द है, उस असाधारण प्राकृतिक कला का मूल्य क्या बन्धन है? कुरुचि के द्वारा वहकलंकित भले भी हो जाए, परन्तु पुरस्कृत नहीं हो सकती। उसे आपपिंजरे में बन्द करके पुरस्कार देंगे या दंड?” कहते हुए उसने विजयकी एक व्यंग-भरी मुस्कान छोडी। सरकार की उस वन-विंहंगम कोपकडने की लालसा बलवती हो उठी। उन्होंने कहा - “जाने भी दो, वहअच्छी कला नहीं जानती।” प्रसंग बदल गया। नित्य का साधारणविनोदपूर्ण क्रम चला। चूडीवाली अपने अभ्यास के अनुसार समझती कियदि बहूजी की अपार-प्रमयसम्पि्रूद्गा में से कुछ अंश मैं भी लेती हूँ, तोहानि क्या, परन्तु बहूजी को अपने प्रणय के एकाधिपत्य पर पूर्ण विश्वासथा। वह निष्क्रिय प्रतिरोध करने लगी। राजयक्ष्मा के भयानक आक्रमण सेवह धुलने लगी और सरकार वन-विहंगिनी विलासिनी को स्वाय्रूद्गा करनेमें द्रूद्गाचि्रूद्गा हुए। रोगी की शुश्रूषा और सेवा में कोई कमी न थी, परन्तुएक बडे मुकदमे में सरकार का उधर सर्वस्वान्त हुआ, इधर बहूजी चलबसी।

चूडीवाली ने समझा कि उसकी पूर्ण विजय हुईष पर बात कुछ दूसरी थी। विजयकृष्ण का वह एक विनोद था। जब सब कुछ चला गया,तब विनोद लेकर क्या होगा। एक दिन चूडीवाली से छुट्टी मांगी। उसनेकहा - “कमी किस बात की है, मैं तुम्हारी ही हूँ और सब विभव भीतुम्हारा है।” विजयकृष्ण ने कहा - “मैं वेश्या की दी हुई जीविका सेपेट पालने में असमर्थ हूँ।” चूडीवाली बिलखने लगी, विनय किया, रोई,गिडगिडाई, पर विजयकृष्ण चले ही गए! वह सोचने लगी कि - “अपनाव्यवसाय और विजय की गृहस्थी बिगाडकर जो सुख खरीदा था, उसकाकोई मूल्य नहीं। मैं कुलवधू होने के उपयुक्त नहीं। क्या समाज के पासइसका कोई प्रतिकार नहीं? इतनी तपस्या और इतना स्वार्थ-त्याग व्यर्थहै?”

परन्तु विलासिनी यह न जानती थी कि स्त्री और पुरुष-सम्बन्धीसमस्त अंतिम निर्णय करने में समाज कितना ही उदास क्यों न हो; दोनोंपक्षों को सर्वथा सन्तुष्ट नहीं कर सका और न कर सकने की आशा है।

यह रहस्य सृष्टि को उलझा रखने की कुंजी है।

विलासिनी ने बहुत सोच-समझकर अपनी जीवनचर्या बदल डाली।सरकार से मिली हुई जो कुछ सम्पि्रूद्गा थी, उसे बेचकर पास ही के एकगाँव में खेती करने के लिए भूमि लेकर आदर्श हिन्दू गृहस्थ की-सीतपस्या करने में अपना बिखरा हुआ मन उसने लगा दिया। उसके कच्चेमकान के पास एक विशाल वट-वृक्ष और निर्मल जल का सरोवर था।

वहीं बैठकर चूडीवाली ने पथिकों की सेवा करने का संकल्प किया। थोडेही दिनों में अच्छी खेती होने लगी और अन्न से उसका घर भरा रहनेलगा। भिखारियों को अन्न देकर खिला देने में उसे अकथमीय सुखमिलता। धीरे-धीरे दिन ढलने लगा, चूडीवाली को सहेली बनाने के लिएयौवन का तीसरा पहर करुणा और शान्ति को पकड लाया। उस पथ सेचलने वाले पथिकों को दूर से किसी कला कुशल कंठ की तान सुनाईपडती -अब लौं नसानी अब न नसैहों।

वट-वृक्ष के नीचे, एक अनाथ बालक नंदू को चना और गुड कीदुकान चूडीवाली ने करा दी है। जिन पथिकों के पास पैसे न होते, उनकामूल्य वह स्वयं देकर नंदू की दुकान में घाटा न होने देती और पथिकभी विश्राम किए बिना उस तालाब से न जाता। कुछ ही दिनों में चूडीवालीका तालाब विख्यात हो गया।

सन्ध्या हो चली थी। पखेरुओं का बसेरे की ओर लौटने काकोलाहल मचा और वटवृक्ष में चहल-पहल हो गई। चूडीवाली चरनी केपास खडी बैलों को देख रही थी। दालान में दीपक जल रहा था, अंधकारउसके घर और मन में बलजोरी घुस रहा था। कोलाहल-शून्य जीवन मेंभी चूडीवाली को शान्ति मिली, ऐसा विश्वास नहीं होता था। पास हीउसकी पिंडलियों से सिर रगडता हुआ कलुआ दुम हिला रहा था। सुखियाउसके लिए घर में से कुछ खाने को ले आई थी; पर कलुआ उधर नदेखकर अपनी स्वामिनी से स्नेह जता रहा था। चूडावाली ने हँसते हुएकहा - “चल, तेरा दुलार हो चुका। जा, खा ले।” चूडीवाली ने मनमें सोचा, कंगाल मनुष्य स्नेह के लिए क्यों भीख माँगता है? वह स्वयंनहीं करता, नहीं तो तृण-वीरुध तथा पशु-पक्षी भी तो स्नेह करने के लिएप्रस्तुत है। इतने में नंदू ने आकर कहा - “मां, एक बटोही बहुत थकाहुआ अभी आया है। भूख के मारे वह जैसे शिथिल हो गया है।”

“तूने क्यों नहीं दे दिया?”

“लेता भी नहीं, कहता है, तू बडा गरीब लडका है, तुझसे नलूँगा।”

चूडीवाली वट-वृक्ष की ओर चल पडी। अँधेरा हो गया था।

पथिक जड का सहारा लेकर लेटा था। चूडीवाली ने हाथ जोडकर कहा- “महाराज, आप कुछ भोजन कीजिए।”

“तुम कौन हो?”

“पहेले की एक वेश्या।”

“छिः, मुझे पडे रहने दो, मैं नहीं चाहता कि तुम मुझसे बोलो भी,क्योंकि तुम्हारा व्यवसाय कितने ही सुखी घरों को उजाडकर श्मशान बनादेता है।”

“महाराज, हम लोग तो कला के व्यवसायी है। यह अपराध कलाका मूल्य लगाने वालों की कुरुचि और कुत्सित इच्छा का है। संसार मेंबहुत-से निर्लज्ज स्वार्थपूर्ण व्यवसाय चलते हैं। फिर इसी पर इतना क्रोधक्यों?”

“क्योंकि वह उन सबों में अधम और निकृष्ट है।”

“परन्तु वेश्या का व्यवसाय करके भी मैंने एक ही व्यक्ति से प्रेमकिया था। मैं और धर्म नहीं जानती, पर अपने सरकार से जो कुछ मुझेमिला, उसे मैं लोकसेवा में लगाती हूँ। मेरे तालाब पर कोई भूखा नहींरहने पाता। मेरी जीविका चाहे जो रही हो, मेरे अतिथि-धर्म में बाधान दीजिए।”

पथिक एक बार ही उठकर बैठ गया और आँख गडाकर अँधेरेमें देखने लगा। सहसा बोल उठा - “चूडीवाली?”

“कौन सरकार?”

“हाँ, तुमने शोक हर लिया। मेरे अपराधजनक तमाम त्याग में पुण्यका भी भाग था, यह मैं नहीं जानता।”

“सरकार! मैने गृहस्थ-कुलवधू होने के लिए कठोर तपस्या की है।इन चार वर्षो में मुझे विश्वास हो गया है कि कुलवधू होने में जो मह्रूद्गवहै, वह सेवा का है, न कि विलास का।”

“सेवा ही नहीं, चूडीवाली! उसमें विलास का अनन्त यौवन है,क्योंकि केवल स्त्री-पुरुष के शारीरिक बन्धन में वह पर्यवसित नहीं है,बाह्य साधनों के विकृत हो जाने तक ही, उसकी सीमा नहीं, गार्हस्थ्य जीवनउसके लिए प्रचुर उपकरण प्रस्तुत करता है, इसलिए वह प्रेय भी है औरश्रेय भी है। मुझे विश्वास है कि तुम अब सफल हो जाओगी।”

“मेरी सफलता आपकी कृपा पर है। विश्वास है कि अब इतनेनिर्दय न होंगे” - कहते-कहते चूडीवाली ने सरकार के पैर पकड लिए।

सरकार ने उसके हाथ पकड लिए।