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अाँधी

आँधी

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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आँधी

चन्दा के तट पर बहुत-से छतनारे वृक्षों की छाया है, किन्तु मैं प्रायःमुचकुंद के नीचे ही जाकर टहलता, बैठता और कभी-कभी चाँदनी मेंऊँघने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी,किन्तु वह कुछ बोलती न थी. वह टहट्ठों की बनी हुई मूसदानी-सी एकझोपडी थी, जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा-सा कालालडका पेट के बल पडा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुएभगवान की अनन्त करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों केसामने आ जाता। मैं सथिया को कभी-कभी कुछ दे देता था, पर वहनहीं के बराबर। उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था। अन्य मुसहरोंकी तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्तीसे दूर रहने में सुविधा थी, वह मुचकुंद के फूल इकट्ठे करके बेचती, सेमरकी रुई बीन लेती, लकडी के गट्ठे बटोरकर बेचती, पर उसके इन सबव्यापारों में कोई और सहायक न था। एक दिन वह मर ही तो गई।

तब भी कलाई पर से सिर उठाकर, करवट बदलकर अँगडाई लेते हुएकलुआ ने केवल एक जम्भाई ली थी। मैने सोचा - स्नेह, माया, ममताइन सबों की भी एक घरेलू पाठशाळा है, जिसमें उत्पन्न होकर शिशु धीरे-धीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार औरविशेषता से वह आकर्षक होता है सही, किन्तु, माया-ममता किस प्राणीके हृदय में न होगी। मुसहरों को पता लगा - वे कल्लू को ले गए।

तब से इस स्थान को निर्जनता पर गरिमा का एक और रंग चढ गया।मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूम-फिरकर भी जैसेमुचकुंद की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ अधिकसरसता थी। मेरा हृदय हल्का-हल्का-सा हो रहा था। पवन मे मादकसुगन्ध और शीतलता थी। ताल पर नाचती हुई लाल-लाल किरणें वृक्षोके अन्तराल से बडी सुहावनी लगती थीं। मैं परजाते के सौरभ में अपनेसिर को धीरे-धीरे हिलाता हुआ कुछ गुनगुनात चला जा रहा था। सहसामुचकुन्द के नीचे मुझे धुआँ और कुछ मनुष्यों की चहल-पहल का अनुमानहुआ। मैं कुतूहल से उसी ओर बढने लगा।

वहाँ कभी एक सराय भी थी, अब उसका ध्वंस बच रहा था।दो-एक कोठरियाँ थी, किन्तु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं परपथिक ठहरते।

मैंने देखा कि मुचकुन्द के आस-बास दूर तक एक विचित्र जमावडाहै। अद्‌भुत शिविरों की पांति में यहाँ पर कानन-चरों, बिना घरवालों कीबस्ती बसी हुई है।

सृष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया, किन्तु इन अभागोंको कोई पहाड की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत नहुई और न इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भीअपने चलते-फिरते घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते है। मैंसोचने लगा - ये सभ्य मानव-समाज के विद्रोही हैं, तो भी इनका एकसमाज है। सभ्य संसार के नियमों को कभी न मानकर भी इन लोगों नेअपने लिए नियम बनाए हैं। किसी भी तरह, जिनके पास कुछ है, उनसेले लेना और स्वतन्त्र होकर रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार केलिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय रहता है। ये अच्छे घुडसवार और भयानकव्यापारी है। अच्छा, ये लोग कठोर परिश्रमी और संसार यात्रा के उपयुक्तप्राणी है, फिर इन लोगों ने कहीं बसना, घर बनाना, क्यों नहीं पसन्दकिया? - मैं मन ही मन सोचता हुआ धीरे-धीरे उनके पास होने लगा।

कुतूहल ही तो था। आज तक इन लोगों के सम्बन्ध में कितनी ही बातेंसुनता आया था। जब निर्जन चन्दा का ताल मेरे मनोविनोद की सामग्रीहो सकता है, तब आज उसका बसा हुआ तट मुझे क्यों न आकर्षितकरता? मैं धीरे-धीरे मुचकुंद के पास पहुँच गया। उसीक एक डाल सेबँधा हुआ एक सुन्दर बछेडा हरी-हरी दूब खा रहा था और लहँगा-कुरतापहने, रूमाल सिर से बाँधे हुए एक लडकी उसकी पीठ सूखे घास केमट्ठे से मल रही थी। मैं रुककर देखने लगा। उसने पूछा - घोडा लोगे,बाबू?

नहीं - कहते हुए मैं आगे बढा था कि एक तरुणी ने झोपडे सेसिर निकाल कर देखा। वह बाहर निकल आई। उसने कहा - आप पढनाजानते हैं?

हाँ, जानता ता हूँ।

हिन्दुओं की चिट्ठी आप पढ लेंगे?

मैं उसके सुन्दर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था। कलाकी दृष्टि; ठीक तो बौद्ध-कला, गान्धार-कला, द्रविडों की कला इत्यादि नामसे भारतीय मूर्ति-सौन्दर्य के अनेक विभाग जो हैं; जिससे गढन का अनुमानहोता है। मेरे एकान्त जीवन को बिताने की सामग्री में इस तरह का जडसौन्दर्य-बोध भी एक स्थान रखता है। मेरा हृदय सजीव प्रेम से कभीआह्रश्वलुत नहीं हुआ था। मैं इस मूक सौन्दर्य से ही कभी-कभी अपनामनोविनोद कर लिया करता। चिट्ठी पढने की बात पूछने पर भी मैं अपनेमन में निश्चय कर रहा था कि वास्तविक गान्धार प्रतिमा है या ग्रीसऔर भारत का इस सौन्दर्य में समन्वय है।

वह झुंझलाकर बोली - क्या नहीं पढ सकोगे?

चश्मा नहीं है, मैंने सहसा कह दिया। यद्यपि मैं चश्मा नहीं लगाता,तो भी स्त्रियों से बोलने में न जाने क्यों मेरे मन में हिचक होती है।मैं उनसे डरता भी था, क्योंकि सुना था वे किसी वस्तु को बेचने के लिएप्रायः इस तरह तंग करती हैं कि उनसे दाम पूछनेवाले को लेकर ही छूटनापडता है। इसमें उनके पुरुष लोग भी सहायक हो जाते हैं, तब वह बेचाराग्राहक और भी झँझट में फँस जाता। मेरी सौन्दर्य की अनुभूति विलिनहो गई। मैं अपने दैनिक जीवन के अनुसार टहलने का उपक्रम करने लगा;किन्तु वह सामने अचल प्रतिमा की तरह खडी हो गई। मैंने कहा - क्याहै?

चश्मा चाहिए? मैं ले आती हूँ।

ठहरो, ठहरो, मुझे चश्मा न चाहिए।

कहकर मैं सोच रहा था कि कहीं मुझे खरीदना न पडे। उसने पूछा- तब तुम पढ सकोगे कैसे?

मैंने देखा कि बिना पढे मुझे छुट्टी न मिलेगी। मैंने कहा - लेआओ, देखूँ, सम्भव है कि पढ सकूँ। उसने अपनी जेब से एक बुरीतरह मुडा हुआ पत्र निकाला। मैं उसे लेकर मन-ही-मन पढने लगा।

लैला...,तुमने जो मुझे पत्र लिखा था, उसे पढकर मैं हँसा भी और दुःखतो हुआ ही। हँसा इसलिए कि तुमने दूसरे से अपने मन का ऐसा खुलाहुआ हाल क्यों कह दिया। तुम कितनी भोली हो। क्या तुमको ऐसा पत्रदूसरे से लिखवाते हुए हिचक न हुई। तुम्हारा घूमनेवाला परिवार ऐसी बातोंको सहन करेगा? क्या इन प्रेम की बातों में तुम गम्भीरता का तनिक भीअनुभव नहीं करती हो? और दुखी इसलिए हुआ कि तुम मुझसे प्रेमकरती हो। यह कितनी भयानक बात है। मेरे लिए भी और तुम्हारे लिएभी। तुमने मुझे निमंत्रित किया है प्रेम के स्वतन्त्र साम्राज्य में घूमने केलिए, किन्तु तुम जानती हो, मुझे जीवन के ठोस झँझटों से छुट्टी नहीं।

घर में मेरी स्त्री है, तीन-तीन बच्चे है, उन सबों के लिए मुझे खटनापडता है, काम करना पडता है। यदि वैसा न भी होता, तो भी क्या मैंतुम्हारे जीवन को अपने साथ घसीटने में समर्थ होता? तुम स्वतन्त्र वनविहंगिनी और मैं एक हिन्दू गृहस्थ; अनेकों रुकावटें, बीसों बन्धन। यहसब असम्भव है। तुम भूल जाओ। जो स्वह्रश्वन तुम देख रही हो - उसमेंकेवल हम और तुम हैं। संसार का आभास नहीं। मैं एक दिन और जीर्णसुख लेते हुए जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का समन्वय करने का प्रयत्नकर रहा हूँ। न मालूम कब से मनुष्य इस भयानक सुख का अनुभव कररहा है। मैं उन मनुष्यों में अपवाद नहीं हूँ, क्योंकि यह सुख भी तुम्हारेस्वतन्त्र सुख की सन्तति है। वह आरम्भ है, यह परिणाम है। फिर भीघर बसाना पडेगा। फिर वही समस्याएँ सामने आवेंगी। तब तुम्हारा यहस्वह्रश्वन भंग हो जाएगा। पृथ्वी ठोस और कंकरीली रह जाएगी। फूल हवामें बिखर जाएँगे। आकाश का विराट्‌ मुख समस्त आलोक को पी जाएगा।

अँधकार केवल अँधकार में झुँझलाहट-भरा पश्चा्रूद्गााप, जीवन को अपनेडंकों से क्षत-विक्षत कर देगा। इसलिए लैला! भूल जाओ। तुम चारयारीबेचती हो। उससे सुना है, चोर पकडे जाते हैं, किन्तु अपने मन का चोरपकडना कहीं अच्छा है। तुम्हारे भीतर जो तमको चुरा रहा है, उसे निकालबाहर करो। मैंने तुमसे कहा था कि बहुत-से पुराने सिक्के खरीदूँगा, तुमअबकी बार पश्चिम जाओ तो खोजकर ले आना। मैं उन्हें अच्छे दामोंपर ले लूँगा। किन्तु तुमको खरीदना है अपने को बेचना नहीं, इसलिएमुझसे प्रेम करने की भूल तुम न करो।

हाँ, अब कभी इस तरह पत्र न भेजना, क्योंकि वह सब व्यर्थ है।- रामेश्वर

मैं एक साँस में पत्र पढ गया, तब तक लैला मेरा मुँह देख रहीथी। मेरा पढना कुछ ऐसा ही हुआ, जैसे लोग अपने में बर्राते हैं। मैंनेउसकी ओर देखते हुए वह कागज उसे लौटा दिया। उसने पूछा - इसकामतलब?

अधरों में कुंचित हँसी, आँखों में प्रकाश भरे प्रज्ञासारथि ने मुझेदेखते हुए कहा - आज मेरी इच्छा थी कि आपसे भेंट हो।

मैंने हँसते हुए कहा - अच्छा हुआ कि मैं प्रत्यक्ष ही आ गया।नहीं तो ध्यान में बाधा पडती।

श्रीनाथजी! मेरे ध्यान में आपके आने की सम्भावना न थी। तोभी आज एक विषय पर आपकी सम्मति की आवश्यकता है।

मैं भी कुछ कहने के लिए ही यहाँ आया हूँ। पहले मैं कहूँ किआप ही आरम्भ करेंगे?

मेरी इच्छा होती थी कि वे किसी तरह भी यहाँ से चले जाते; तो भीमुझे उन्हें उ्रूद्गार देने के लिए इतना तो कहना ही पडा कि - आप कच्चेअदृष्टवादी हैं। आपके जैसा विचार रखने पर मैं तो इसे इस तरहसुलझाऊँगा कि अपराध करने में और दंड देने में मनुष्य एक-दूसरे कासहायक होता है। हम आज जो किसी को हानि पहुँचाते हैं, या कष्ट देतेहैं, वह इतने ही के लिए नहीं कि उसने मेरी कोई बुराई की है। होसकता है कि मैं उसके किसी अपराध का यह दण्ड समाज-व्यवस्था केकिसी मौलिक नियम के अनुसार दे रहा हूँ। फिर चाहे मेरा यह दण्डदेना भी अपराध बन जाए और उसका फल भी मुझे भोगना पडे। मेरेइस कहने पर प्रज्ञासारथि हँस दिया और कहा - श्रीनाथजी, मैं आपकीदण्ड-व्यवस्था ही तो करने आया हूँ। आप अपने बेकार जीवन को मेरीबेगार में लगा दीजिए। मैंने पिण्ड छुडाने के लिए कहा - अच्छा, तीनदिन सोचने का अवसर दीजिए।

प्रज्ञासारथि चले गए और मैं चुपचाप सोचने लगा। मेरे स्वतन्त्रजीवन में माँ के मर जाने के बाद यह दूसरी उलझन थी। निश्चित जीवनकी कल्पना का अनुभव मैंने इतने दिनों तक कर लिया था। मैंने देखाकि मेरे निराश जीवन में उल्लास का छींटा भी नहीं। यह ज्ञान मेरे हृदयको और भी स्पर्श करने लगा। मैं जितना ही विचारता था, उतना ही मुझेनिश्चिंतता और निराशा का अभेद दिखलाई पडता था। मेरे आलसी जीवनमें सक्रियता की प्रतिध्वनि होने लगी। तो भी काम न करने का स्वभावमेरे विचारों के बीच में जैसे व्यंग्य से मुस्करा देता था।

तीन दिनों तक मैंने सोचा और विचार किया। अन्त में प्रज्ञसारथिकी विजय हुई, क्योंकि मेरी दृष्टि में प्रज्ञासारथि का काम नाम के लिएतो अवश्य था, किन्तु करने में कुछ भी नहीं के बराबर।

मैंने अपना हृदय दृढ किया और प्रज्ञसारिथ से जाकर कह दियाकि - मैं पाठशाला का निरीक्षण करूँगा, किन्तु मेरे मित्र आनेवाले हैं औरजब तक यहाँ रहेंगे, तब तक तो मैं अपना बँगला न छोडूंगा, क्योंकि यहाँउन लोगों के आने से आपको असुविधा होगी। फिर जब वे लोग चलेजाएँगे, तब मैं यहीं आकर रहने लगूँगा।

मेरे सिंहली मित्र ने हँसकर कहा - अबी तो एक महीने यहाँ मैंअवश्य रहूँगा। यदि आप अभी से यहाँ चले आवें तो, बडा अच्छा हो,क्योंकि मेरे चहते यहाँ का सब प्रबन्ध आपकी समझ में आ जायगा। रहगई मेरी असुविधा की बात, सो तो केवल आपकी कल्पना है। मैं आपकेमित्रों को यहाँ देखकर प्रसन्न ही होऊँगा। जगह की कमी भी नहीं।

मैं ‘अच्छा’ कहकर उनसे छुट्टी लेने के लिए उठ खडा हुआ; किन्तुप्रज्ञसारथि ने मुझे फिर से बैठाते हुए कहा - देखिए श्रीनाथजी, यहपाठशाला का भवन पूर्णतः आपके अधिकार में रहेगा। भिक्षुओं के रहनेके लिए तो संघाराम का भाग अलग है ही और उसमें जो कमरे अभीअधूरे हैं, उन्हें शीघ्र ही पूरा कराकर तब मैं जाऊँगा और अपने संघ सेमैं इसकी पक्की लिखा-पढी कर रहा हूँ कि आप पाठशाला के आजीवनअवैतनिक प्रधानाध्यक्ष रहेंगे और उसमें किसी को हस्तक्षेप करने काअधिकार न होगा।

मैं उस युवक बौद्ध मिशनरी की युक्तिपूर्ण व्यावहारिकता देखकरमन-ही-मन चकित हो रहा था। एक क्षण भर के लिए उस सिंहली कीव्यवहार-कुशल बुद्धि से मैं भीतर-ही-भीतर ऊब उठा। मेरी इच्छा हुई किमैं स्पष्ट अस्वीकार कर दूँ; किन्तु न जाने क्यों मैं वैसा न कर सका।

मैंने कहा-तो आपको मुझमें इतना विश्वास है कि मैं आजीवन आपकीपाठशाला चलाता रहूँगा!

प्रज्ञसारथि ने कहा - शक्ति की परीक्षा दूसरों ही पर होती है; यदिमुझे आपकी शक्ति का अनुभव हो, तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। औरआप तो जानते ही है कि धार्मिक मनुष्य विश्वासी होता है। सूक्ष्म रूपसे जो कल्याण-ज्योति मानवता में अन्तर्निहित है, मैं तो उसमें अधिक-से-अधिक श्रद्धा करता हूँ। विपथगामी होने पर वही सन्त हो करके मनुष्यका अनुशासन करती है, यदि उसकी पशुता ही प्रबल न हो गई हो, तो।

मैं काँप उठा - अपने प्राणों के भय से नहीं किन्तु लैला के साथ अदृष्टके खिलवाड पर और अपनी मूर्खता पर। मैंने प्रार्थना के ढंग से कहा- लैला, मैंने तुम्हारे मन को ठेस लगा दी है, इसका मुझे बडा दुःखहै। अब तुम उसको भूल जाओ।

तुम भूल सकते हो, मैं नहीं! मैं खून करूँगी। - उसकी आँखों

में ज्वाला निकल रही थी।

किसका, लैला! मेरा?

ओह नहीं, तुम्हारा नहीं, तुमने एक दिन मुझे सबसे बडा आरामदिया है। हो, वह झूठा। तुमने अच्छा नहीं किया था, तो भी मैं तुमकोअपना दोस्त समझती हूँ।

तब किसका खून करोगी?

उसने गहरी साँस लेकर कहा - अपना या किसी... फिर चुप होगई। मैंने कहा - तुम ऐसा न करोगी, लैला! मेरा और कुछ कहने कासाहस नहीं होता था। उसी ने फिर पूछा - वह जो तेज हवा चलती है,जिसमें बिजली चमकती है, बरफ गिरती है, जो बडे-बडे पेडो को तोडडालती है।... हम लोगों के घरों को उडा ले जाती है।

आँधी! - मैंने बीच ही में कहा।

हाँ, वही मेरे यहाँ चल रही है! - कहकर लैला ने अपनी छातीपर हाथ रख दिया।

लैला! - मैंने अधीर होकर कहा।

मैं उसको एक बार देखना चाहती हूँ। - उसने भी व्याकुलता सेमेरी ओर देखते हुए कहा।

मैं उसे दिखा दूँगा; पर तुम उसकी कोई बुराई तो न करोगी? -मैंने कहा।

हुश! - कहकर लैला ने अपनी काली आँखें उठाकर मेरी ओरदेखा।

मैंने कहा - अच्छा लैला! मैं दिखा दूँगा।

कल मुझसे यहीं मिलना। - कहती हुई वह अपने घोडे पर सवारहो गई। उदास लैला के बोझ से वह घोडा भी धीरे-दीरे चलने लगा औरलैला झुकी हुई-सी उस पर मानो किसी तरह बैठी थी।मैं वहीं देर तक खडा रहा और फिर धीरे-दीरे अनिच्छापूर्वकपाठशाला की ओर लौटा। प्रज्ञासारथि पीपल के नीचे शिलाखंड पर बैठेथे। मिन्ना उसके पास खडा उनका मुँह देख रहा था। प्रज्ञासारथि कीरहस्यपूर्ण हँसी आज अधिक उदार थी। मैंने देखा कि वह उदासीन विदेशीअपनी समस्या हल कर चुका है। बच्चों की चहल-पहल ने उसके जीवनमें वांछित परिवर्तन ला दिया है। और मैं?

मैं कह चुका था, इसलिए दूसरे दिन लैला से भेंट करने पहुँचा।देखता हूँ कि वह पहले ही से वहाँ बैठी है। निराशा से उदास उसकामुँह आज पीला हो रहा था। उसने हँसने की चेष्टा नहीं की और न मैंनेही। उसने पूछा - तो कब, कहाँ चलना होगा? मैं तो सूरत में उससेमिली थी! वहीं उसने मेरी चिट्ठी का जवाब दिया था। अब कहाँ चलनाहोगा?

मैं भौंचक-सा हो गया। लैला को विश्वास था कि सूरत, बम्बई,काश्मीर वह चाहे कहीं हो, मैं उसे लिवाकर चलूँगा ही और रामेश्वर सेभेंट करा दूँगा। सम्भवतः उसने परिहास का यह दण्ड निर्धारित कर लियाथा। मैं सोचने लगा - क्या कहूँ।

लैला ने फिर कहा - मैं उसकी बुराई न करूँगी, तुम डरो मत।

मैंने कहा - वह यहीं आ गया है। उसके बाल-बच्चे सब साथहैं! लैला, तुम चलोगी?

वह एक बार सिर से पैर तक काँप उठी! और मैं भी घबरा गया।मेरे मन में नई आशंका हुई। आज मैं क्या दूसरी भूल करने जा रहाहूँ? उसने सँभलकर कहा - हाँ चलूँगी, बाबू! मैंने गहरी दृष्टि से उसकेमुँह की ओर देखा, तो अंधड नहीं किन्तु एक शीतल मलय का व्याकुलझोंका उसकी घुंघराली लटों के साथ खेल रहा था। मैंने कहा - अच्छा,मेरे पीछे-पीछे चली आओ!

मैं चला और वह मेरे पीछे थी। जब पाठशाला के पास पहुँचा,तो मुझे हारमोनियम का स्वर और मधुर आलाप सुनाई पडा। मैं ठिठककरसुनने लगा - रमणी-कण्ठ की मधुर ध्वनि! मैंने देखा कि लैला की आँखेंउस संगीत के नशे में मतवाली हो चली हैं। उधर देखता हूँ तो कमलोको गोद में लिये प्रज्ञासारथि भी झूम रहे हैं। अपने कमरे में मालती छोटे-से सफारी बाजे पर पीलू गा रही है और अच्छी तरह गा रही है। रामेश्वरलेटा हुआ उसके मुँह की ओर देख रहा है। पूर्ण तृह्रिश्वत! प्रसन्नता कीमाधुरी दोनों के मुँह पर खेल रही है! पास ही रंजन और मिन्ना बैठेहुए अपने माता और पिता को देख रहे हैं! हम लोगों के आने की बातकौन जानता है। मैंने एक क्षण के लिए अपने को कोसा; इतने सुन्दर संसारमें कलह की ज्वाला जलाकर मैं तमाशा देखने चला था। हाय रे-मेराकुतूहल! और लैला स्तब्ध अपनी बडी-बडी आँखों से एकटक न जानेक्या देख रही थी। मैं देखता था कि कमलो प्रज्ञासारथि की गोद से धीरे-से खिसक पडी और बिल्ली की तरह पैर दबाती हुई अपनी मां की पीठपर हँसती हुई गिर पडी, और बोली - मा! और गाना रुक गया। कमलोके साथ मिन्ना और रंजन भी हँस पडे। रामेश्वर ने कहा - कमलो, तूबली पाजी है ले! बा-पाजी-लाल कहकर कमलो ने अपनी नन्हीं-सीउंगली उठाकर हम लोगों की ओर संकेत किया। रामेश्वर तो उठकर बैठगए। मालती ने मुझे देखते ही सिर का कपडा तनिक आगे की ओर खींचलिया और लैला ने रामेश्वर को देखकर सलाम किया। दोनों की आँखेंमिली। रामेश्वर के मुँह पर पल भर के लिए एक घबराहट दिखाई पडी।

फिर उसने सँभलकर पूछा - अरे लैला! तुम यहाँ कहाँ?

चारयारी न लोगे, बाबू? - कहती हुई लैला निर्भीक भाव सेमालती के पास जाकर बैठ गई।

मालती लैला पर एक सलज्ज मुस्कान छोडती हुई, उठ खडी हुई।लैला उसका मुँह देख रही थी, किन्तु उस ओर ध्यान न देकर मालतीने मुझसे कहा - भाई जी, आपने जलपान नहीं किया। आज तो आपही के लिए मैंने सूरन के लड्डू बनाए हैं।

तो देती क्यों नहीं पगली, मैं सवेरे ही से भूखा भटक रहा हूँ -मैंने कहा। मालती जलपान ले आने गई। रामेश्वर ने कहा - चारयारीले आई हो? लैला ने हाँ कहते हुए अपना बैग खोला। फिर रुककर उसनेअपने गले से एक ताबीज निकाला। रेशम से लिपटा हुआ चौकोर ताबीजकी सीवन खोलकर उसने वह चिट्ठी निकाली। मैं स्थिर भाव से देख रहाथा। लैला ने कहा - पहले बाबूजी, इस चिट्ठी को पढ दीजिए। रामेश्वरने कम्पित हाथों से उसको खोला, वह उसी का लिखा हुआ पत्र था। उसनेघबराकर लैला की ओर देखा। लैला ने शान्त स्वरों में कहा - पढिएबाबू! आप ही के मुँह से सुनना चाहती हूँ।

रामेश्वर ने दृढता से पढना आरम्भ किया। जैसे उसने अपने हृदयका समस्त बल आने वाली घटनाओं का सामना करने के लिए एकत्र करलिया हो; क्योंकि मालती जलपान लिए आ ही रही थी। रामेश्वर ने पूरापत्र पढ लिया। केवल नीचे अपना नाम नहीं पढा। मालती खडी सुनतीरही और मैं सूरन के लड्डू खाता रहा। बीच-बीच में मालती का मुँह देखलिया करता था। उसने बडी गम्भीरता से पूछा - भाईजी, लड्डू कैसे हैं?

यह तो आपने बताया नहीं, धीरे-से खा गए।

जो वस्तु अच्छी होती है, वही गले में धीरे-से उतार ली जातीहै। नहीं तो कडवी वस्तु के लिए थू-थू करना पडता। मैं कह ही रहाथा कि लैला ने रामेश्वर से कहा है - ठीक तो! मैंने सुन लिया। अबआप उसको फाड डालिए। तब आपको चारयारी दिखाऊँ।

रामेश्वर सचमुच पत्र फाडने लगा। चिन्दी-चिन्दी उस कागज केटुकडे की उड गई और लैला ने एक छिपी हुई गहरी साँस ली, किन्तुमेरे कानों ने उसे सुन ही लिया। वह तो एक भयानक आँधी से कमन थी। लैला ने सचमुच एक सोने की चारयारी निकाली। उसके साथएक सुन्दर मूंगे की माला। रामेश्वर ने चारयारी लेकर देखा। उसने मालतीसे पचास के नोट देने के लिए कहा। मालती अपने पति के व्यवसायको जानती थी, उसने तुरन्त नोट दे दिए। रामेश्वर ने जब नोट लैला कीओर बढाए, तभी कमलो सामने आकर खडी हो गई - बा...लाल...रामेश्वर ने पूछा, क्या है रे कमलो?

पुतली-सी सुन्दर बालिका ने रामेश्वर के गालों का अपने छोटे-से हाथों से पकडकर कहा - लाल-लाल...लैला ने नोट ले लिए थे। पूछा-बाबूजी! मूंगे की माला नलीजिएगा?

नहीं।

लैला ने माला उठाकर कलमो को पहना दी। रामेश्वर नहीं-नहीं कररहा था, किन्तु उसने सुना नहीं! कमलो ने अपनी मां को देखकर कहा- मां... लाल... वह हँस पडी और कुछ नोट रामेश्वर को देते हुए बोली- तो ले लो न, इसका भी दाम दे दो।

लैला ने तीव्र दृष्टि से मालती को देखा; मैं तो सहम गया था।

मालती हँस पडी। उसने कहा - क्या दाम न लोगी?

लैला कमलो का मुँह चूमती हुई उठ खडी हुई। मालती अवाक्‌,रामेश्वर स्तब्ध, किन्तु मैं प्रकृतिस्थ था।

लैला चली गई।

मैं विचारता रहा, सोचता रहा। कोई अन्त न था - ओर-छोर कापता नहीं। लैला, प्रज्ञासारथि-रामेश्वर और मालती सभी मेरे सामने बिजलीके पुतलों से चक्कर काट रहे थे। सन्ध्या हो चली थी, किन्तु मैं पीपलके नीचे से न उठ सका। प्रज्ञासारथि अपना ध्यान समाह्रश्वत करके उठे।

उन्होंने मुझे पुकारा - श्रीनाथजी! मैंने हँसने की चेष्टा करते हुए कहा -कहिए!

आज तो आप भी समाधिस्थ रहे।

तब भी इसी पृथ्वी पर, था। जहाँ लालसा क्रन्दन करती है,दुःखानुभूति हँसती है और नियति अपने मिट्टी के पुतलों के साथ अपनाक्रूर मनोविनोद करती है; किन्तु आप तो बहुत ऊँचे किसी स्वर्गिक भावनामें...ठहरिए श्रीनाथजी! सुख और दुःख, आकाश और पृथ्वी, स्वर्ग औरनरक के बीच में है वह सत्य, जिसे मनुष्य प्राह्रश्वत कर सकता है।

मुझे क्षमा कीजिए! अन्तरिक्ष में उडने की मुझमें शक्ति नहीं है।मैंने परिहासपूर्वक कहा।

साधारण मन की स्थिति को छोडकर जब मनुष्य कुछ दूसरी बातसोचने के लिए प्रयास करता है, तब क्या वह उडने का प्रयास नहीं?

हम लोग कहने के लिए द्विपद हैं, किन्तु देखिए तो जीवन में हम लोगकितनी बार उचकते हैं, उडान भरते हैं। वही तो उन्नति की चेष्टा, जीवनके लिए संग्राम और भी क्या-क्या नाम से प्रशंसित नहीं होती? तो मैंभी इसकी निन्दा नहीं करता; उठने की चेष्टा करनी चाहिए, किन्तु...आप यही न कहेंगे के समझ-बूझकर एक बार उचकना चाहिए;किन्तु उस एक बार को - उस अचूक अवसर को जानना सहज नहीं।

इसीलिए तो मनुष्यों को, जो सबसे बुद्धिमान प्राणी है, बार-बार धोखाखाना पडता है। उन्नति को उसने विभिन्न रुपों में अपनी आवश्यकताओंके साथ इतना मिलाया है कि उसे सिद्धान्त बना लेना पडा है कि उन्नतिका द्वन्द्व पतन ही है।

मैं लडकों को पढाने लगा। कितना आश्चर्यजनक भयानक परिवर्तनमुझमें हो गया। उसे देखकर मैं ही विस्मित होता था। कलुआ इन्हीं कईमहीनो से मेरा एकान्त साथी बन गया। मैंने उसे बार-बार समझाया, किन्तुवह बीच-बीच में मुझसे घर चलने के लिए कह बैठता ही था। मैं हताशहो गया। अब वह जब घर चलने की बात कहता, तो मैं सिर हिलाकरकह देता - अच्छा, अभी चलूंगा।

दिन इसी तरह बीतने लगे। वसन्त के आगमन से प्रकृति सिहरउठी। वनस्पतियों की रोमावली पुलकित थी। मैं पीपल के नीचे उदासबैठा हुआ ईषत्‌ शीतल पवन से अपने शरीर में फुरहरी आ अनुभव कररहा था। आकाश की आलोक-माला चंदा की वीथियों में डुबकियाँ लगारही थी। निस्तब्ध रात्रि का आगमन बडा गम्भीर था।

दूर से एक संगीत की - नन्हीं-नन्हीं करुण वेदना की तान सुनाईपड रही थी . उस भाषा को मैं नहीं समझता था। मैंने समझा, यह भीकोई छलना होगी। फिर सहसा मैं विचारने लगा कि नियति भयानक वेगसे चल रही है। आँधी की तरह उसमें असंख्य प्राणी तृण-तूलिका केसमान इधर-उधर बिखर रहे हैं। कहीं से लाकर किसी को वह मिला हीदेती है और ऊपर से कोई बोझे की वस्तु भी लाद देती है कि वे चिरकालतक एक-दूसरे से सम्बद्ध रहें। सचमुच! कल्पना प्रत्यक्ष हो चली। दक्षिणका आकाश धूसर हो चला- एक दानव ताराओं को निगलने लगा। पक्षियोंका कोलाहल बढा। अन्तरिक्ष व्याकुल हो उठा! कडवाहट में सभी आश्रयखोजने लगे; किन्तु मैं कैसे उठता! वह संगीत की ध्वनि समीप आ रहीथी। वज्रनिघोष को भेदकर कोई कलेजे से गा रहा था। अँधकार में,साम्राज्य में तृण, लता, वृक्ष सचराचर कम्पित हो रहे थे।

कलुआ की चीत्कार सुनकर भीतर चला गया। उस भीषण कोलाहलमें भी वही संगीत-ध्वनि पवन के हिंडोले पर झूल रही थी, मानोपाठशाला के चारों ओर लिपट रही थी। सहसा एक भीषण अर्राहट हुई।

अब मैं टार्च लिये बाहर आ गया।

आँधी रुक गई थी। मैंने देखा कि पीपल की बडी-सी डाल फटीपडी है और लैला नीचे दबी हुई अपनी भावनाओं की सीमा पार करचुकी है।

मैं अब भी चंदा-तट की बौद्ध पाठशाला का अवैतनिक अध्यक्ष हूँ।प्रज्ञासारथि के नाम को कोसता हुआ दिन बिताता हूँ। कोई उपाय नहीं।

वही जैसे मेरे जीवन का केन्द्र है।

आज भी मेरे हृदय में आँधी चला करती है और उसमें लैला कामुख बिजली की तरह कौंधा करता है।

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