Gudadi Me Lal Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Gudadi Me Lal

गुदड़ी में लाल

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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गुदड़ी में लाल

दीर्घ निश्वासों का क्रीड़ा-स्थल, गर्म-गर्म आँसुओं का फूटा हुआपात्र! कराल काल की सारंगी, एक बुढ़िया का जीर्ण कंकाल, जिसमेंअभिमान की लय में करुणा ही रागिनी बजा करती है।

अभागिनी बुढ़िया, एक भले घर की बहू-बेटी थी। उसे देखकरदयालु वयोवृद्ध, हे भगवान्‌! कहके चुप हो जाते थे। दुष्ट कहते थे किअमीरी में बड़ा सुख लूटा है। नवयुवक देशभक्त कहते थे, देश दरिद्र है;खोखला है। अभागे देश में जन्म ग्रहण करने का फल भोगती है। आगामीभविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास रखकर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे।

जिस देश का भगवान्‌ ही नहीं; उसे विपि्रूद्गा क्या! सुख क्या!

परन्तु बुढ़िया सबसे यही कहा करती थी - “मैं नौकरी करूँगी।कोई मेरी नौकरी लगा दो।’ देता कौन? जो एक घड़ा जल भी नहीं भरसकती, जो स्वयं उठकर सीधी खड़ी नहीं हो सकती थी, उससे कौन कामकराए? किसी की सहायता लेना पसन्द नहीं, किसी की भिक्षा का अन्नउसके मुख में बैठता ही न था। लाचार होकर बाब रामनाथ ने उसे अपनीदुकान में रख लिया। बुढ़िया की बेटी थी, वह दो पैसे कमाती थी। अपनापेट पालती थी, परन्तु बुढ़िया का विश्वास था कि कन्या का धन खानेसे उस जन्म में बिल्ली, गिरगि और भी क्या-क्या होता है। अपना-अपनाविश्वास ही है, परन्तु धार्मिक विश्वास हो या नहीं, बुढ़िया को अपनेआत्माभिमानका पूर्ण विश्वास था। वह अटल रही। सर्दी के दिनों में अपनेठिठुरे हुए हाथ से वह अपने लिए पानी भरकर रखती। अपनी बेटी सेसम्भवतः उतना ही काम कराती, जितना अमीरी के दिदनों में कभी-कभीउसे अपने घर बुलाने पर कराती।

बाबू रामनाथ उसे मासिक वृि्रूद्गा देते थे और तीन-चार पैसे चबैनीके, जैसे और नौकरों को मिलते थे, मिला करते थे। कई बरस बुढ़ियाके बड़ी प्रसननता से कटे। उसे न तो दुःख था और न सुख। दुकानमें झाडू लगाकर उसकी बिखरी हुई चीजों को बटोरे रहना और बेठेबेठे थोड़ा-घना जो काम हो करना, बुढ़िया का दैनिक कार्य था। उससेकोई नहीं पूछता था कि तुमने कितना काम किया। दुकान के और कोईनौकर यदि दुष्टता-वश उसे छेड़ते भी थे, तो रामनाथ उन्हें डाँट देता था।

बसन्त, वर्षा, शरद और शिशिर की संध्या में जब विश्व की वेदना,जागत्‌ की थकावट, धूसर चादर में मुँह लपेटकर क्षितिज के नीरव प्रान्तमें सोने जाती थी; बुढ़िया अपनी कोठरी में लेटी रहती। अपनी कमाईके पैसे से पेट भरकर, कठोर पृथ्वी की कोमल रोमावली के समान हरीहरीदूब पर भी लेटे रहना। किसी-किसी के सुखों की संख्या है, वहसबको प्राह्रश्वत नहीं। बुढ़िया को बनिए की दुकान में लाल मिर्चे फटकनीपड़ी। बुढ़िया किस-किस कष्ट से उसे सँवारा, परन्तु उसकी तीव्रता वहसहन न कर सकी। उसे मूर्छा आ गई। रामनाथ ने देखा और देखा अपनेकठोर ताँबे के पैसे की ओर। उसके हृदय ने धिक्कारा, परन्तु अन्तरात्माने ललकारा। उस बनिया रामनाथ को साहस हो गया। उसने सोचा, क्याइस बुढ़िया को ‘पेन्शन’ नहीं दे सकता? क्या उसके पास इतना अभावहै? अवश्य दे सकता है। उसने मन में निश्चय किया। ‘तुम बहुत थकगई हो, अब तुमसे काम नहीं हो सकता।’ बुढ़िया के देवता कूच करगए। उसने कहा - ‘ंनहीं-नहीं, भी तो मैं अच्छी तरह काम कर लेतीहूँ।’ ‘नहीं, अब तुम काम करना बन्द कर दो, मैं तुमको घर बैठे दियाकरूँगा।’

‘नहीं बेटा!अभी तुम्हारा काम मैं अच्छा-भला किया करूँगी।’बुढ़िया के गले में काँटे पड़ गए थे। किसी सुख की इच्छा से नहीं, पेन्शनके लोभ से भी नहीं। उसके मन में धक्का लगा। वह सोचने लगी -‘मैं बिना किसी काम किए इसका पैसा कैसे लूँगी? क्या यह भीख नहीं?’

आत्माभिमान झनझना उठा। हृदयतन्त्री के तार कड़े होकर चढ़ गए।रामनाथ ने मधुरता से कहा - ‘तुम घबराओ मत, तुमको कोई कष्ट नहोगा।’

बुढ़िया चली आई। इसकी आँखों में आँसू न थे। आज वह सूखेकाठ-सी हो गई। घर जाकर बैठी, कोठरी में अपना सामान एक ओरसुधारने लगी। बेटी ने कहा - ‘माँ, यह क्या करती हो?’

ंमाँ ने कहा - ‘चलने की तैयारी।’

रामनाथ अपने मन में अपनी प्रशंसा कर रहा था, अपने को धन्यसमझता था। उसने समझ लिया कि हमने आज एक अच्छा काम करनेका संकल्प किया है। भगवान्‌ इससे अवश्य प्रसन्न होंगे।बुढ़िया अपनी कोठरी में बैठी-बैठी विचारती थी, ‘जीवन भर केसंचित इस अभिमान-धन को एक मु ी अन्न की भिक्षा पर बेच देनाहोगा। असह्य! भगवान्‌ क्या मेरा इतना सुख भी नहीं देख सकते! उन्हेंसुनना होगा।’ वह प्रार्थना करने लगी।

‘इस अनन्त ज्वालामयी सृष्टि के कर्ता! क्यातुम्हीं करुणा-निधान हो?क्या इसी डर से तुम्हारा अस्तित्व माना जाता है? अभाव, आशा, असन्तोषऔर आर्तनादों के आचार्य! क्या तुम्हीं दीनानाथ हो? तुम्हीं ने वेदना काविषम जाल फैलाया है? तुम्हीं ने निष्ठुर दुःखों को सहने के लिए मानवहृदय-सा कोमल पदार्थ चुना है और उसे विचारने के लिए, स्मरण करनेके लिए दिया है अनुभवशील मस्तिष्क? कैसी कठोर कल्पना है, निष्ठुर!

तुम्हारी कठोर करुणा की जय हो! मैं चिर पराजित हूँ।’

सहसा बुढ़िया के शीर्ण मुख पर कान्ति आ गई। उसने देखा, एकस्वर्गीय ज्योति बुला रही है। वह हँसी, फिर शिथिल होकर लेटी रही।रामनाथ ने दूसरे ही दिन सुना कि बुढ़यिा चली गई। वेदना-क्लेश-हीन अक्षयलोक में उसे स्थान मिल गया। उस महीने की पेन्शन से उसकादाह-कर्म कराा दिया। फिर एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोला, ‘अमीरी कीबाढ़ में न जाने कितनती वस्तु कहाँ से आकर एकत्र हो जाती हैं, बहुतोंके पास उस बाढ़ के घट जाने पर केवल कुर्सी, कोच और टूटे गहनेरह जाते हैं, परन्तु बुढ़िया के पास रह गया था सच्चा स्वाभिमान-गुदड़ीका लाल।’