एक अधेड़ प्रेमकथा Ramesh Khatri द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक अधेड़ प्रेमकथा

कहानी रमेष खत्री

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एक अधेड़ प्रेमकथा

जब मैं इस ऑफिस में स्थानान्तरित होकर आया तभी उससे मेरी मुलाकात हुयी, वैसे यह षहर मेरे लिए एकदम नया है, यह अलग बात है कि ‘इस षहर में आने के सपने मैं बरसों से देखता रहा हूँ किन्तु कभी भी मेरे सपनों का षहर मेरे सामने हकीकत बनकर नहीं आ पाया था, मेरी लाख कोषिषों के बाद भी मैं अपना स्थानान्तरण इस षहर में नहीं करवा पाया ।' फिर एक दिन पता नहीं क्या कुछ घटा कि स्वमेव ही मेरा यहाँ स्थानान्तरण हो गया और मैं इस सपनों के षहर में आ गया ।

जब मैंने अपनी ज्वाईनिंग रिपोर्ट डाईरेक्टर की टेबल पर रखी, उस समय वे मुझे कनखियों से देख रहे थे और मैं अनजान बना उन्हें । मेरी ज्वाईनिंग रिपोर्ट को हाथ में लेते हुए वे बोले ‘तो तुम आज ज्वाईन कर रहे हो ...?'

मैंने उनके इस बेतुके से प्रष्न का जवाब देना उचित नहीं समझा । पूर्व की ही तरह उनके कमरे में इधरदृउधर नज़रे घुमाता रहा । इस बीच उन्होने मेरी ज्वाईनिंग रिपोर्ट पर कुछ लिखा और आउट ट्रे में रख दिया । अब वे पूरी तरह से खाली थे । और मैं भी ।

‘अचानक ही यह सब कैसे ?' उन्होने पुनः प्रष्न दाग दिया ।

‘पता नहीं....!' मैंने अपनी नज़रें उन पर केन्द्रित करते हुए कहा ‘‘मुझे तो अचानक ही आर्डर मिला और मैं यहॉँ के लिये निकल पड़ा वैसे अभी मैं इस सबके लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं था ।''

‘वैल अब यहॉँ आ ही गये हो तो.' उन्होंने कुछ रूककर कहा, ‘वैसे यहॉँ तुम्हारा घर भी तो है....?'

‘हाँ... इस षहर में तो नहीं पर पास ही है । यहाँ से कोई साठ किलोमीटर के फासले पर होगा ।' मैं अपनी जगह पर सहज था ।

‘तो अब क्या प्लानिंग है....?' उन्होने फिर प्रष्न के घेरे में घसीट लिया ।

‘कुछ नहीं यहीं रहेंगे और नौकरी करेंगे....'

तभी उन्होने बेल बजा दी, प्यून आकर खड़ा हो गया । ‘देखो, इनको ए एस डी कॉर्डीनेषन के पास ले जाओे....!'

मैं चुपचाप उसके पीछे चल दिया । हम कमरे के बाहर आ गये, वहाँ का रौब दाब खत्म हो गया । अब मैं खुली हवा में सांस ले रहा था । मैं चपड़ासी के साथ आगे बढ़ा तभी मुझे किसी के जोर से हंँसने की आवाज़ सुनाई दी मेरा ध्यान उस आवाज़ के सहारे उस तक चला गया । साधारण सी कद काठी का अधेड़ उम्रधारी अपनी ही किसी बात पर ठहाके लगाता हुआ अहाते से निकल गया ।

मैंने उसे नज़र भर देखा, किन्तु वह तो अपनी ही मस्ती में मस्त तीर की तरह निकल गया । तभी मेरे साथ चल रहा चपड़ासी बोला ‘साहब यह बड़ी ऊँची चीज़ है ।'

अब मेरी नज़र चपड़ासी पर जाकर केन्द्रित हो गई । जो एक अच्छे खासे चलतेदृफिरते इंसान को चीज़ बता रहा था ।

मेरी नज़र को भाँंँपकर वह अचकचा गया । और हम दोनों की नज़रें जुदा हो गई । थोड़ी ही देर में हम लोग एक बड़े से हॉल में दाखिल हुए जहाँ कई टेबिल करीने से लगी थी । उनके सामने रखी कुर्सियां खाली पड़ी थी । लगता है इस हॉल में चार लोगाें के बैठने की व्यवस्था की गई हैं । हम जब उस हॉल में पहुँचे वह खाली था । चारों सीट बाट जोह रही थी । चपड़ासी मुझे एक कुर्सी पर बैठा कर चलता बना ‘साहब अभी आते ही होंगे ।' उसके शब्द मेरे कानों में देर तक घूमते रहे । और मेरे चेहरे पर मुस्कान बनकर पसर गये । मैं सोचने लगा ‘सभी सरकारी दफ्तरों की चाल एक जैसी ही हैं ।'

मैं कुछ देर बाद बाहर निकल आया । हॉल के दरवाजे़ पर चार नेमप्लेट लगी थी । कुछ देर के लिए उन नेमप्लेटोें में उलझकर रह गया ।

मेरी ड्‌यूटी षिफ्ट में लगना आरंभ हो गई । हमारी षिफ्ट सुबह साढ़े पाॅँच बजे से आरंभ होती थी जो दोपहर में बारह चालीस पर समाप्त होती और दूसरी ग्यारह बजे से छः बीस तक, ठीक इसी तरह से तीसरी षिफ्ट चार बजे से चालू होकर रात ग्यारह बीस तक । मैं भी इन तीन षिफ्टों में अपने आपको खपा रहा था । कभी सुबह, कभी दोपहर तो कभी शाम । जीवन का सारा क्रम इस नौकरी में गड़बड़ा गया । लेकिन हमारी परेषानी को कोई समझने वाला कोई नहीं था । खैर ! यह एक अलग बात है । मुझे चाटुकारिता नहीें आती तो हर जगह मुझे इसी तरह की षिफ्ट को झेलना पड़ता जो लोग इसमें माहिर होते हैं वे सब कुछ मेनेज कर लेते हैं । मुझे इस तरह से मेनेज करना नहीं आता । इसमें किसी का दोष नहीं है । सारा दोष मेरा ही है और मैं इसे भली प्रकार स्वीकारता हॅँू । मुझे यह स्वीकार करने में कोई हर्ज भी नहीं है कि चाटुकारिता का कितना असर होता ह,ै यदि आप अपने अधिकारी को खुष कर लेते हैं तो अपने लिए सब कुछ जुटा लेते हैं । सारी सुविधाओें का मुंँह अपने आप खुल जाता है और दूसरे साथियों की निगाहें भी आपके प्रति बदल जाती है । फिर आप अपने आप ही सामान्य से विषेष बनते चले जाते हैं । अपने ही साथियों के बीच, मैं इस तरह से कुछ भी मेनेज नहीं कर पाया लेकिन इसका अफसोस नहीं है मुझे क्योंकि मैं तो अपने ही तरीके से जीवन जीता आया हॅूँ और आगे भी ऐसे ही जीवन चलता रहेगा । इसे आप मेरा ठस स्वभाव मान सकते हैं । पर मैं अब इसी मेें प्रसन्न रहने लगा हॅूँ और अब तो आदत भी बन गई है क्योंकि इस सबको ढोते हुए लगभग पन्द्रह साल बीत गये हैं ।

हालाँंकि इस शहर में आये अभी कुछ दिन ही हुए हैं और मैं यहाँ षिफ्ट में जीवन जीने का आदी हो रहा हूँ । इस नये शहर में सब कुछ नये सिरे से तलाषना है, यह षिफ्ट की ड्‌यूटी काफी समय प्रदान कर देती है और सब कुछ धीरे धीरे व्यवस्थित होता चला जा रहा है । मैं अभी यहाँ के लोगों को समझने की पहली बारहखड़ी ही सीख रहा हूँ । कई बार तो जीता जागता आदमी सामने खड़ा रहता है और उसका नाम काफी समय तक जु़बान पर नहीं आ पाता । यह सब मेरे नयेपन के कारण है । आदमी का मस्तिष्क भी अजब तरह का कम्प्यूटर है जिसमें धीरे धीरे सभी तरह के डाटा फीड होते रहते हैं । अभी मेरा कम्प्यूटर जो अदृष्य में मेरे मानस में लगा है कई सारी नई एन्ट्रीज़ दर्ज करता जा रहा हैं । इसमे हर नये व्यक्ति की इन्ट्‌ी अपने आप ही दर्ज होती जाती है ।

मैं आज भी सुबह की ड्‌यूटी में आया हॅूँ। मेरे सामने के ड्‌यूटी रूम में वही सज्जन विराजे हैं, जो उस दिन काफी जोर से हँंसते हुए तीर से निकल गये थे । न गोल न लम्बोतरा बल्कि इन दोनों के बीच के आकार वाला चेहरा, आंँखों पर लगा चष्मा पुरानेपन को दर्षा रहा था । उपर को बेतरतीब काढ़े हुए बाल, और गोर वर्ण यही सब कुछ था उसके पास । किन्तु अभी तो न जाने क्यो अजीब तरह की गंभीरता धारण किये हुए थे । सुबह साढ़े पांच का समय हो रहा था, और यह सर्दियों के दिन हैं । इसलिये इस सुबह की बेला को गहरी रात में तब्दील कर रहे है ।

मैं हल्की सी नज़र डालकर अपने ड्‌यूटी रूम में आकर बैठ गया । स्टूडियो गार्ड ने थोड़ी ही देर में समाचार पत्रों का एक पुलिंदा लाकर मेरे सामने टेबल पर धर दिया और मैं उनमें नयापन खोजने लगा । जबकि वे तो बासी समाचारों की पोटली थे । ताजे समाचार तो हमारे मीडिया से दिये जा रहे थे । यह सुबह के छः बजे का समय था । मैंने समाचार पत्रों को एक तरफ सरका दिया और अपना ध्यान रेडियो पर आ रहे समाचार पर केन्द्रित कर दिया । लोचिनी अस्थाना अपनी फर्राटेदार आवाज में समाचार पढ़ रही थी ।

तभी एक जोरदार ठहाका ड्‌यूटी रूम को भेदता हुआ निकल गया । मैं कुछ समझ नहीं पाया । यह ठहाका सामने के ड्‌यूटी रूम से आया था । जो बीच के अहाते को चीथकर निकला था । मैं कुछ देर तक उसी ठहाके के साथ अपने को मथता रहा । पर कुछ भी कारण समझ नहीं आया इस ठहाके का । मैंने फिर से अपना ध्यान कल की बासी ख़बरों पर केन्द्रित कर दिया । अब मेरी टेबल पर समाचार पत्र पसरे थे । और उसके एक किनारे पर रेडियो चल रहा था । घड़ी के कांटे रेंगते हुए साढ़े सात से आगे निकल गये थे । आठ बजे का समय इलैक्ट्रानिक मीडिया में लगभग रेस्ट का समय होता है, हालांकि यह वह समय होता है जब समाचार प्रभात चल रहा होता है । पर उद्‌घोषकों को इससे कोई लेना देना नहीं होता । वैसे भी उनको तो किसी से कोई लेनादृदेना नहीं होता, आज के इस बदले दौर में उन्होंने अपने आपको सबसे विमुख कर लिया है । केवल अपने काम से काम रखते हुए सबसे कट ऑफ कर लिया । कुछ तो उसमें भी भारी कोताही बरतने लगे हैं । खैर ! यह उनके कार्य व्यापार का मामला है । पर समाचार प्रभात के समय उद्‌घोषक अपने ट्रांसमीषन बूथ को छोड़कर बाहर आ जाते हैं । उन्हें इस समय पूरे आधे घंटे का बे्र्रक मिल जाता है । इस आधे घंटे में हम नाष्ता पानी का जुगाड़ करते हैं ।

घड़ी की सुईयाँ जैसे ही साढ़े सात के पार हुई, वैसे ही स्टुडियो गार्ड मेरे सामने अवतरित हो गया । वह ब्रेकफास्ट की व्यवस्था करने के लिए कहने लगा। मैंने सौ रूपये का नोट उसके सामने कर दिया । वह मुस्कुराते हुए बोला, ‘साहब, यहाँ पर चंदा प्रथा है, बस नाष्ते का डिसाइड करना होता है और सब अपने अपने हिस्से को देे देते हैं ।' मैं प्रभावित हुआ उसकी बात से । मैने कहा, ‘तो ठीक है, जो तुम्हें उचित लगे ले आओ । किन्तु आज सब कुछ मेरी तरफ से ।'

वह मुस्कुराते हुए ड्‌यूटी रूम से बाहर निकल गया । मैंने भी अपने सामने पसरे पेपर को परे खसका दिया । अब मैं पुनः अपने में लौट आया । बासी समाचारों की दुनिया से निकलते हुए वर्तमान की दुनिया में प्रवेष करना कितना सुखद होता है । रेडियो की मद्धिम आवाज़ कानों में मधुर रस घोल रही थी । सत्तर के दषक के गीातों का जलवा वहाँ बिखरा हुआ था । मैलोडी की उंगली थामे मैंं काफी दूर निकल गया । तभी उद्‌घोषक ने दिल्ली की तरफ लपका दिया और खुद बाहर की ओर लपक लिया । अब रेडियो पर विज्ञापन चलने लगे । सह मैलोडी से बाज़ार में प्रवेष करने का समय था ।

तभी नाष्ते की आमद हुई । वेटिंग रूम की टेबल पर पोहा जलेबी की प्लेटें सज चुकी थी और थर्मस में चाय इन्तज़ार कर रही थी । सभी का । रेडियो पर समाचार प्रभात के साथ हरि संधु थे । मैने अपने बाजे को हाथ में उठाया और वेटिंग रूम की ओर बढ़ गया । स्टुडियो गार्ड और दो उद्‌घोषकों के साथ वे सज्जन भी उपस्थित थे । उनके बीच में मैं ही नया पंछी था । यह मेल मुलाक़ात का समय भी था । नाष्ते के साथ सभी का आपस में परिचय हुआ । तब मुझे उनके बारे में उथली जानकारी मिली । सोम नागर नाम था उनका । चार दषकों को पार करता उनकी उम्र का काफ़िला उन पर अपने निषान छोड़ता हुआ आँखों पर नम्बरों के चष्मे में तब्दील हो गया था । किन्तु उनके चेहरे पर पसरी लाली और आँखों से छलकता मस्तमौलापन उन्हें अपनी ही दुनिया में लीन किये हुए था । साधारण कद काठी का उनका व्यक्तित्व उनकी हँसी के कारण ही ध्यान आकर्षित करता था । इसके अलावा कुछ नहीं था उनके व्यक्तित्व में । मैं देर तक उन्हें ही देखता रहा और सोचता रहा यह आदमी बातदृबात पर इतनी जोर से क्यों हँसता रहता है ? षायद अन्दर से काफी टूटा हुआ हो । उनसे पहली मुलाक़ाता में ही मुझे कुछ कुछ ऐसा आभास हुआ ।

किन्तु उनका मुस्कुराता चेहरा मुझे पूरे समय अपने अपनत्व में बांधे रहा । बात बात में खिलखिलाकर हँसने की उनकी आदत उनसे जुड़ने का कौतुक पैदा करती रही । हम अनजानेपन से बाहर निकल कर अपनत्व की दुनिया में प्रवेष करने लगे ही थे कि तभी उन्होंने अपनी चिर परिचित हँसी के साथ कहा, ‘तो मिस्टर , क्या नाम बताया था तुमने ?'

‘मैं पुनःअपना नाम उगलने को उन्मुख हुआ किन्तु उसमेेंं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं बची थी, बल्कि वे तो उस समय तक महिला उद्‌घोषिकाओं से चुहल करने में व्यस्त हो गये । मैं चाय की चुस्कियों के साथ समाचार प्रभात से जुड़ गया और वह अपनी चुहल से । हँसी के बोदे ठहाके बीच मेें घुलते रहे और चिड़िया की फड़फड़ाहट की तरह फुर्र से दूर निकल़ जाते । ऐसा वह बारदृबार दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करते और उड़ जाते ।

फिर उनसे मुलाकातों का दौर चल पड़ा, हमारी ड्‌यूटी अमूमन साथ साथ लगती रहती और वह भी आमने सामने । वह भी अपनी वाचालता के कारण मेरे मन में जगह बनाते चले गये और मैं न चाहते हुए भी उनके करीब खिंचता चला गया । उनके मुस्कुराते हुए चहरे के पीछे छिपी गहन करूणा कई दिनों के बाद मेरे सामने उजागर हो पाई हालांकि उन्होंने कभी भी इसका जिक्र नहीं किया । वे तो जब भी मिलते मुस्कुराते ही रहते । बातदृबात पर ठहाके लगाना उनकी आदत बन गई थी या कि मजबूरी । मैं समझ नहीं पाया । और न ही मैंने जानने की कभी कोषिष की । किन्तु उस दिन अचानक उनके जीवन के वे पन्ने फड़फड़ा कर खुल गये जिसे उन्होंने खुद अपने से भी छिपा रखा था । और ऊपर से ओढ़ ली थी हँसी की एक झूठी चादर । उनकी हँसी के पीछे छिपी इस भयावहता को देखा पाना काफी दुरूह था पर न जाने कैसे वह दुरूहता अपने आप ही खुलती चली गई ।

उस दिन मुझे किसी ओ.बी. के सिलसिले में उनके घर जाना पड़ा । उनके पिताजी ने बैठक में बिठा दिया और वे खुद अन्दर चले गये । मैं कुछ देर बैठक में बैठा रहा इस बीच उनकी दस वर्षीया बच्ची बैठक में आ गई, मैं थोड़ी देर उससे बात करता रहा । उसकी कोमल हँसी मुझे शीतल चाँदनी सी ठंडक प्रदान कर रही थी और उसकी आँखों में सपनों की बारादरी के फूल महकने लगे थे । तभी वे तौलिया बांधे बैठक में आये, उनके हाथ आटे से सने थे । आते ही वे बोले, ‘लेण्डू, आज इधर कैसे आ टपका ?' मैं कुछ देर उनके चेहरे की ओर देखता रह गया । उस समय उनकी बच्ची भी मेरे पास ही बैठी थी । उसने पहली ही मुलाकात में मुझसे दोस्ती गांठ ली थी । वह कभी मेरा चेहरा देखने लगी तो कभी अपने पिता का । मुझे उनके इस बचकाने प्रष्न का कोई उत्तर नहीं सूझा । मैं उनके चेहरे की ओर देखता रहा । थोड़ी ही देर में उनके पिताजी भी वहीं बैठक में आ विराजे । उन्होंने फिर एक भद्‌दी सी गाली के साथ कुछ पूछा और मैं अवाक रह गया । मैं समझ नहीं पा रहा था कि उनकी बच्ची और पिताजी के सामने मैं उनके इस बचकाने व्यवहार का क्या जवाब दूँ । इस लिए मैं चुप ही बैठा रहा लेकिन वे लगातार मुझे इसी तरह से उकसाते रहे । और फिर बातों ही बातों में पता चला कि इस समय वे खाना बना रहे थे । चूंकि आज रविवार का अवकाष होने की वजह से बच्ची घर पर है नहीं तो अभी तक तो वह स्कूल चली गई होती । मेरे सम्मुख उनके जीवन का एक नया पृष्ठ खुला जिसमें उनके उत्तरदायित्व की लौ फड़फड़ा रही थी । जिसकी आँच तले दबा उनका वर्तमान हमेषा ठहाके मारता था । फूलों की सुवासित गंध चारों तरफ से बैठक में समा रही थी जिसके सहारे हम काफी देर तक बैठे रहे और समय का पता ही नहीं चला । तभी उन्होने अपनी बच्ची को आवाज़ लगाई, ‘कविता....बेटा अन्दर आना !' उनकी आवाज़ के सहारे कविता अन्दर चली गई और मुझे भी पता चला कि इस सुन्दर सी गुड़िया का नाम कविता है ।

वह अन्दर से जब बाहर आई तो उसके हाथ में एक ट्र्‌े थी जिसमें तीन कप रखे थे और एक प्लेट में नमकीन और बिस्किट । उसने प्लेट बैठक में लाकर सेन्ट्र्‌ल टेबल पर रख दी, पिताजी ने मुझसे चाय लेने का आग्रह किया तो मैं उनकी ओर देखने लगा । मानो उन्होने कोई अनहोनी बात कह दी हो । उनके आदेषानुसार मैंने ट्‌े्र से कप तो उठा लिया लेकिन चाय पीने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । इसी बीच वे भी बैठक में आ गये और हमारे साथ चाय में सम्मिलित हो गये । हम तीनों के हाथ में चाय के कप थे और कल्पना खाली थी । मैंने उससे भी चाय लेने का आग्रह किया, तो उन्होने उसके लिए मना करते हुए कहा, ‘यह चाय नहीं पीती....बच्चे तो वैसे भी चाय नहीं पीते ।' और वे ठहाका लगाकर हंँस दिये ।

मैं उनके चेहरे की ओर देखने लगा । उनसेे इस अप्रत्याषित व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी । मैं पिताजी के चेहरे की ओर देखता रहा वहाँ उम्र दराज गंभीरता व्यापी थी । मानो सांझ का सूरज अस्ताचल की तरफ बढ़ रहा हो, जबकि कविता के चेहरे पर फूल के खिलने की सुवासित गंध ठिठोली कर रही थी । मैं पुनः अपने में लौट आया । उनका ठहाका अभी भी बैठक की फर्ष पर पसरा था और हम सभी मौन बैठे थे । चाय की समाप्ति तक सब कुछ सामान्य हो चला । मैंने अपने आने का कारण बताया और साथ ही निदेषक महोदय के निर्देष भी बता दिये । जिसे उन्होंने हंँसी में उड़ा दिये । और मुझे ही कार्य को सम्पन्न करने की सलाह दे दी । मैंने पुनः अनुरोध किया, ‘आप केवल साथ में चले चले बाकी सब कुछ मैं सम्हाल लूुंँगा ।' जिसे भी वे मानने को तैयार नहीं थे बोले, ‘अबे लेण्डू तू समझता नहीं है मेरी अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ है कार्यालय समय के बाद की जिन्हे मैं छोड़ नहीं सकता उस साले निदेषक को क्या पता कि मेरी क्या जिम्मेदारियाँ हैंं ?'

‘उन्हें तो क्या मुझे भी नहीं पता है....पर इससे ऑफिस को क्या लेना ? ऑफिस का काम सही तरीके से चलना चाहिय,े अफसर को तो उससे मतलब है ।' मैंने सहजता से कहा । उनके पिताजी मेरी बात से सहमत हुए और उन्होने भी कहा, ‘अभी तो तुम्हें निर्देषित कार्य को सम्पन्न कर लेना चाहिए, फिर बाद में अधिकारी को अपनी मजबूरियो से अवगत करा देना ।' पिता का धीर गंभीर सुझाव उनके गले उतर गया और वे तैयार हो गये ।

रास्ते भर वे कुनकुनाते रहे । मैं उनके चेहरे की ओर देखता रहा । जहाँ पर क्षोभ के अलावा कुछ भी नहीं था । दो सौ किलोमीटर की लम्बी यात्रा में उन्होंने अपने मन की कई परतें खोल दी थी । जिनमें कई सुख दुःख दर्ज हैं । हालांकि उन्होंने उसकी हवा भी नहीं लगने दी, पर उनकी हर हँसी के पीछे से आती एक बारीक सी आर्त आवाज़ उसी की थी । बैठक में बैठते समय उनके पिताजी ने दबी ज़बान में बता दिया था कि ‘जब से सोम की माँ गुजरी है, घर के सभी काम सोम को ही निपटाने पड़ते हैं ।' उस समय मैं उनके चेहरे की ओर देखता रह गया था । अभी गाड़ी में चलते हुए मैं यहीं सोच रहा हूँ, ‘सुबह की ड्‌यूटी में ये कैसे मैनेज करते होंगे ? साढ़े पाँच बजे तो ऑफिस आ जाते हैं, तो उस दिन फिर कैसे क्या करते होंगे ?'

वे रास्ते भर इधर उधर की बातें करते रहे, किन्तु मेरे मन में तो उनको लेकर ही उधेड़बुन चलती रही । और मैंने एक बार मौका निकालकर पूछ ही लिया, ‘बाऊजी बता रहे थे, घर के सारे काम भी आपको ही निपटाने पड़ते हैं । तो फिर सुबह की ड्‌यूटी में कैसे क्या करते हो ?'

उन्होंने मेरे चेहरे की ओर गोर से देखा और मुस्कुरा दिये । मैं उनकी मुस्कुराहट के सहारे दूर निकल जाता किन्तु तमी उन्होने बोलना आरम्भ कर दिया, ‘अबे लेण्डू........करना क्या है । अपन तो रोज़ सुबह चार बजे उठते हैं । व्यायाम करते हैं और फिर लग जाते हैं काम में सबसे पहले पानी भरना होता है और फिर उसके बाद पूरे घर की झाड़ू लगाना और फिर खाना तैयार करके ऑफिस आ जाता हूँ । पिताजी पीछे से गुड़िया को उठाकर तैयार करके स्कूल भेज देते हैं । उसका टिफिन तो मैं तैयार कर ही आता हूँ ।'

मैं उनकी सहज बयानी का कायल हो गया । उन्होनें अपनी धीरदृगम्भीर आवाज़ में अपनी सुबह की दिनचर्या गिना दी । मैं उनके चेहरे की ओर देखने लगा । वहाँ उम्रदराज़ गम्भीरता व्यापी थी । आसमान में सूर्य अधपके आम सा दिख रहा था । बादलों ने उसे चारों तरफ से अपने लपेटे में ले रखा था । यह सावन के महिने की एक साधारण सी सुबह थी । जो अलसाई सी हमारे इर्द गिर्द टहल रही थी । और हमें पता भी नहीं चला । मैंने फिर से प्रष्न उछालने की हिमाकत की, ‘और गुड़िया की माँ.....वह कहाँ है..?'

मेरे इस प्रष्न ने उनके दबे हुए दुःख को उघाड़कर रख दिया । मेरे चेहरे की ओर न देखते हुए इस बार उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, मानो उनकी आँखों में एक्सरे मषीन लगी हो और वह मेरे शरीर का एक्सरे कर रहे हो । और मेरे अन्दर के किसी चोर को पकड़ना चाह रहे हो । मैं खुद इस प्रष्न को पूछकर उलझ गया । उनके चेहरे पर अब वो पहले जैसी स्फूर्ति नही दिख रही थी । उसके स्थान मुर्दनी व्याप गई । मेरे शब्द हवा में पसर गये, और हमारे बीच एक लम्बा पैथास फैल गया ।

‘उसके बारे में आगे से कुछ मत पूछना.....' उनकी गम्भीर आवाज़ हम दोनों के बीच पसर गई । शब्द कानों को बेधते हुए मन में उतर गये । और मैं अपनी नज़रें इधर उधर घुमाने लगा । आसमान में काले बादलों ने डेरा डाल दिया था । अब सूर्य पूरी तरह से छिप गया और संध्या की झलक छलकने लगी हालांकि यह दोपहर से पहले का समय है । हम ऑफिस की गाड़ी में तेजी से भागे जा रहे हैं । ड्राइवर हमारी बातों से अनजान स्टियरिंग थामे गाड़ी को दौड़ाये जा रहा है । सांँझ की बेला सा दिन पसरा पड़ा है दूर तक फैली सड़कों पर । अब तक बून्दा बान्दी आरंभ हो चुकी थी । और सड़क नहायी सी लगने लगी । जैसी किसी ने नहाने के बाद अपने बालों को सूखने के लिए फैला दिया हो । कुछ ही देर में हमने अपने निर्धारित स्थान पर रिकॉर्डिग की और रात गये लौट आए । उस समय भी उनके पिताजी उनका इन्तज़ार करते हुए मिले ।

उन्हें छोड़ने के बाद लौटते समय ड्राइवर ने अपना मुंँह खोला, ‘आपको इनकी बीबी के बारे में नहीं पूछना चाहिये था....।'

मैं उसकी ओर देखते हुए बोला, ‘मुझे नहीं पता था ।'

‘अच्छा.....ऐसा क्या ?' वह फिर मेरी तरफ देखते हुए गाड़ी ड्राइव करते हुए बोला, ‘इनका अपनी पत्नी से लम्बा विवाद चल रहा है.....बच्ची के जन्म के बाद से ही । जब इनकी माँ भी थी । माँ और पत्नी में बिल्कुल नहीं बनती थी । पत्नी घर के बाहर हो गई । बच्ची को इन्होंने अपने पास रख लिया, पहले माँ थी तो सब कुछ आसानी से चल रहा था । पर जब से इनकी माँ भी नहीं रही तब से परेषानी पैदा हो गई । अब बेटी और घर दोनों ही इनके पल्ले पड़ गया, बूढ़े पिताजी भी क्या करे ?'

उसके द्वारा उछाली हुई जानकारी मेरी आँखों में आकर गड़ गयी । और तभी हम घर पहुँच गये ।

इसके बाद वे मुझसे खुल गये । अब जब भी हमारी ड्‌यूटी साथ में होती तो वे सीधे मेरे पास ही आकर बैठ जाते । अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे घूरते रहते । चष्मे के मोटे ग्लास से झांकती उनकी आँखें और बड़ी दिखाई देती । उनकी आँखों में समाया खालीपन उनके आते ही वातावरण में पसर जाता । और मैं न चाहते हुए भी उसमें सन जाता, जिसको पकड़े दूर तक निकल जाता । हालांकि वे आते ही अपनी उपस्थिति से सबको अवगत करवा देते । थोड़ी थोड़ी देर में उठते ठहाके वातावरण में पसर जाते और उनके होने का अहसास करा देते । पता नहीं क्यों और कैसे बिना किसी कारण के ठहाके लगाना उनकी आदत में शामिल हो गया । शायद उनके अन्दर का रीतापन उनसे ऐसा करवाता रहता हो । और वे हर समय खुष होने की खुषफहमी का प्रदर्षन करने लगते । जबकि अब तक मैं यह अच्छी तरह से समझ गया था कि वे अन्दर से लगभग रीते हुए टूटे हुए है । और जो कुछ भी है उसे अपने आपसे भी छुपाने का प्रयास करते है । छुपाने की इसी प्रक्रिया में ठहाके उनका साथ निभाते हैं ।

अब तक मुझे ऐसा लगने लगा, ‘उनके चेहरे की हँसी बहुत ही पोची और खोखली है ।' मेरी इस धारणा की पूष्टि उनके नज़दीक जाने के साथ होने लगी । अब वे मेरे साथ से पुलकित होने लगे और धीरे धीरे खुलने भी लगे । शायद उन्हें विष्वास होने लगा था कि ‘मैं उनकी तकलीफों का मज़ाक नहीं बनाऊँगा !' क्योंकि इस बीच ऐसे कई अवसर आये जब मैंने मौन रहकर स्थिति को विकट होने से बचा लिया । जबकि मेरे स्थान पर कोई और होता तो जरूर उनके बारे में कुछ न कुछ कह देता । ऑफिस में तो सभी लोग मजे लेने में माहिर होते ही हैं, हर छोटीदृबड़ी बात का रस ले लेकर बखान करते हैं और दूसरों की इज्ज़त से खिलवाड़ करना उनके लिए मामूली बात है । मेरे स्वभाव में इस तरह की बात नहीं है । मैं किसी की कमी और मजबूरी को किसी भी रूप में उजागर करने के पक्ष में नहीं हूँ । कार्यालय के अन्य कर्मचारी जब इस तरह की चर्चाएं करते हैं उस समय मैं वहाँ से हट जाया करता हूँ और किसी भी रूप में उसका प्रतिभागी नहीं बनता । मेरी इसी आदत के चलते उन्होंने मुझमें विष्वास जताया होगा ।

वह सर्दियों की सुबह थी, जब हम दोनों की ड्‌यूटी साथ में थी । वे अपने नियत समय पर ड्‌यूटी पर पहुँच गये, किन्तु मुझे ड्‌यूटी पर पहुँचने में देर हो गयी थी । मैं जब ड्‌यूटी पर पहुँचा उस समय तक सभा आरंभ हो चुकी थी । सुमन अपनी आरंभिक उद्‌घोषणाएं करके समाचारों को हवा में छोड़कर वापस ड्‌यूटी रूम में आ चुकी थी । तभी मैं वहाँ पहुँचा, मुझे देखते ही वो बोली, ‘आज तो नाष्ता पक्का....!' मैं मुस्कुराकर रह गया । हमारे बीच इस तरह की परम्परा रही है । जब भी कोई किसी कारण से लेट हो जाता है तो उसे ड्‌यूटी पर उपस्थित सभी साथियों को सुबह के नाष्ते की ट्रीट देनी पड़ती है । उस समय वह भी ड्‌यूटी रूम में ही बैठे थे और सारी व्यवस्था को सम्हाल रहे थे । मुझे देखते ही हौले से मुस्कुरा दिये । मैंने चुपचाप सौ रूपये का नोट निकालकर स्टूडियो गार्ड को दिया और वह आठ बजे के इन्तजाम में लग गया । नियत समय पर उद्‌घोषिका स्टूडियो के बाहर आई और स्कूटर स्टार्ट कर चली गई । हम लोग काफी देर तक नाष्ते पर उनका इन्तज़ार करते रह,े तब वह बोले, ‘वो साढ़े आठ के करीब आयेंगी । तब तक इन्तज़ार करना बेवकूफी है । हमें नाष्ता करना चाहिए ।' उनके आग्रह पर हमने नाष्ता आरंभ कर दिया, फिर सुमन जब आई उस समय तक हम लोग नाष्ता समाप्त करने वाले थे हालांकि उनके लिए अलग से रख दिया गया । मैंने उनसे कहा, ‘अरे आप कहाँ चली गई थी, आपके आदेष से तो नाष्ते की व्यवस्था की गई ?' सुमन मुझे गहराई से देखने लगी । गोल चेहरा, हल्का सा तांबई रंग, सामान्य से अधिक लम्बाई और भरी हुई काया में वह अति आकर्षक लग रही थी । उनकी गहरी किन्तु बिल्लौरी आँखें जब लगातार मुझे घूरने लगी तो मैंने अपनी नज़रें उनके चहरे से हटा दी । तभी नागर जी का ठहाका माहौल में पसर गया और हम सबका ध्यान उनकी ओर चला गया । वे अपने ठहाके के साथ काफी दूर तक ले गये । हालांकि इस समय भी वो लगातार मुझे ही घुरे जा रही थी । ंऔर मैंने अपनी नज़रें वहाँ से हटा ली ।

उसी दिन मुझे पता चला, नागर जी का इसी सुन्दर सी उद्‌घोषिका सुमन के साथ पिछले काफी दिनों से कुछ गहरी इंटीमेसी है । अन्दर अन्दर चलते इस प्रकरण से अभी तक मैं कैसे अन्जान बना रहा इस बारे में सोचकर ही मुझे आष्चर्य होने लगा । हालांकि इस शहर में स्थानान्तण के बाद जब से मेरी ड्‌यूटी यहाँ लग रही है तब से अधिकांष समय सुमनजी के साथ काम करता रहा हूँ, बेहद सोबर किस्म की यह अधेड़ महिला काफी कम बोलती है किन्तु जब बोलती है तो उसकी गोल होती आँखों सेे अच्छे अच्छों की बोलती बन्द हो जाती है । आज नाष्ते के बाद जब स्टूडियो गार्ड ने इस संबंध से पर्दा उठाया, उस समय मैं उसके चेहरे की ओर देखता रह गया । हालांकि नागर जी के साथ से और उनके हाव भाव से कभी ऐसा आभास नहींं हो पाया । और न ही कभी उन्होंने इस तरह की इन्टीमेसी की ओर कोई इषारा किया ।

और मैं निरा बुद्धू अभी तक भी अनजान बना रहा, जबकि जिस तरह के मीडिया में मैं काम करता आ रहा हूँ, वहाँ तो उड़ती चिड़िया के पंख गिनने की रवायत चली आ रही है । शायद इसलिये भी मुझे इस संबंध पर थोड़ा आष्चर्य हुआ । और अब मेरी समझ में आने लगा क्यों सोमजी की मेरे साथ ही लगातार ड्‌यूटी लगती रही है । और साथ ही सुमन जी की भी । कभी इस चैनल पर तो कभी उस चैनल पर । मैं अपने इस बेगानेपर पर हल्के से मुस्कुरा दिया । शायद सोमजी से निकटता के बीज भी इसी अपनत्व की लीला में छुपे होंगे । या शायद नहींं भी हो सकता है ।

समय की आँच में सब कुछ पकता रहता है, अब तक नागर जी अपने तथा सुमन के सम्बन्धों पर खुलकर बोलने लगे थे । उनके वक्तव्य काफी हार्ष होते, वे अपने आन्तरिक संबंधों को सार्वजनिक करने लगे । इतना ही नहीं वे उनका बखान सबके सामने निर्विघ्नता से करने लगे । पता नहीं उन्हें क्या सूझा, या कि न जाने कौन सी कील उनके अंतस में चुभी हुई तड़पाती रहती । लोग उनकी बातों के मजे लेते और वे रस ले लेकर आन्तरिक संबंधों को खोलते चले जाते । न जाने कौन सा नषा उन पर तारी हो जाता । कई बार मेरे मन में आया भी कि ‘उन्हें अकेले में ले जाकर पूछुं इस बाबत, लेकिन उनकी स्थिति को देखते हुए मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया ।

एक दिन सुबह की ड्‌यूटी में जब पहुँचा तो उनको सामने सोफे पर बैठे हुए पाया । वे सुबह सुबह ही बहुत उदास लग रहे थे । सुमन जी अपना ब्रॉडकास्ट मेटेरियल लेकर स्टुडियो में जा चुकी थी । अब तक वहाँ बची थी उनके परफ्यूम की महक और नागर जी के आँखों की चमक । मैंने उनको देखा तो चेहरे पर हल्की से हँसी पसर गई । जिसे उन्होंने गम्भीरता से पकड़ा और उसके सहारे मुझ तक चले आये । मैंने जैसे ही अपनी कुर्सी पकड़ी वे शुरू हो गये, ‘लेण्डू ऽऽ....हँसता क्या है ! अबे मैंने ये बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं ?'

‘मैं समझा नहीं, आप कहना क्या चाहते हैं ?' मैंने सहज प्रष्न कर दिया ।

‘अबे....तू मुझे क्या चूतिया समझता है, मैंने अच्छे अच्छों को पानी पिलाया है, मैं सब समझता हूँ कहाँ क्या चल रहा है ?' उनके चेहरे पर इन शब्दों से साथ भी हँसी व्यापी थी ।

‘नागर जी, आप सुबह सुबह क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पाया....अगर मुझसे कोई गलती हो गई हो तो बताइये मैं क्षमा मांग लेता हूँ, अगर मेरे किसी कृत्य से आपको ठेस पहुँची है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । किन्तु मुझे बताइये तो आखिर हुआ क्या है ?'

उन्होंने जोर का ठहाका लगाया । मानो माहौल की सारी गम्भीरता को उसी हँसी में उड़ाते हुए वे उठ खड़े हुए और ड्‌यूटी रूम के बाहर निकल गये । मैं भी उनके साथ ही बाहर निकल आया । मेरे मन में इस सबको लेकर काफी हलचल मच रही थी । मुझे अच्छी तरह पता है जाने अनजाने मेंं मुझसे ऐसा कोई कार्य या व्यवहार नहीं हुआ है जिससे उनको ठेस पहुँचे । मैं इसी बारे में जानने को उत्सुक था । किन्तु वे बताने को तैयार नही थे । वे बाहर निकल कर बगीचे में टहलने लगे । अब तक दिन पूरी तरह से निकल चुका था । सूरज की किरणें पौधों पर पड़ रही थी । यह सितम्बर की सुबह थी उमस से भरी हुई । ऐसी ही उमस उस समय मेरे मन में भी घुमड़ रही थी । घास पर ओस की बून्दें पसरी पड़ी थी । वातावरण को नम बनाती हुई । वे तेज तेज कदमों से आगे बढ़ते जा रहे थे और मैं उनके पीछे हाथ में ट्रांजिस्टर पकड़े हुए । वहांँ प्रकाष पारनेरकर अपनी हष्की आवाज़ में भजन गुनगुना रहा था । मैंने उसके कंठ का वाल्युम थोड़ा सा धीमा किया और पूछ बैठा, ‘आपने बताया नहीं.....?'

उन्होंने टहलते हुए ही मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बोले, ‘क्या..ऽ...ऽ......?'

मैने अपनी नज़रें उनके चेहरे पर गड़ा दी । मोटे ग्लास के पीछेे से चमकती आँखों में वीरानी व्यापी थी । मानो खुद से ही कुछ छुपाने का प्रयास करते पकड़ लिया गया हो । उन्होंने अपनी आँखों को छोटा किया और जोर का ठहाका लगाते हुए बोले, ‘क्या यार तू भी हाथ धोकर पीछे ही पड़ गया, आज सुबह सुबह दिमाग खराब हो रहा था इसी के चलते मुँह से न जाने क्या क्या निकल गया । ऐसी कोई बात नहीं है जैसा तू सोच रहा है और सच तो यह है कि तू ही इस ऑफिस में मेरे सबसे करीब है ।'

मैंने फिर साष्चर्य उनकी ओर देखा, उनके चेहरे पर हँसी की किरचे पसरी हुई थी । जिससे उनका तांबई रंग गोरा दिखने लगा था । तभी उन्होंने आँखों पर लगा चष्मा उतारा और उसे रूमाल से साफ करने लगे । शायद वहाँ भी वाष्प के कण इकट्‌ठा हो गये थे । जो विचार उनके अर्न्तमन में हलचल पैदा कर रहे थे । शायद वाष्प का रूप धरकर चष्मे पर जमा हो गये । चष्मे को साफ करते हुए वे मुझे ऐसे लग रहे थे मानो मन को भी साफ कर रहे हो । अब रेडियो में कल्पना झोंकरकर गा रही थी । यह कोई निर्गुणी भजन था । सुबह की इस बेला में इस निर्गूणी भजन को सुनना अच्छा लग रहा था ।

तभी सहसा मैंंने उनके हाथ को अपने हाथ में लेकर हल्के से दाब दिया । उन्होंने मुझे कांख मेें भर लिया, उनकी आँखें छलछला आई और होठों पर पड़ा सब्र का बांध टूटने को आतुर था । किन्तु अबकी बार भी वे अपने मुँह से कुछ नहीं बोले । मैं उनकी आँखों में देखता रहा वहाँ निचाट सूनापन पसरा था । हालांकि यह सितम्बर की एक खुषनुमा सुबह थी और सूरज अपने पूरे लाव लष्कर के साथ उपस्थित हो चुका था । जब उसकी किरणें चुभन पैदा करने लगी तो हम छाव में आ गये । किन्तु अभी भी उनके चेहरे पर सूर्य की कुछ आवारा किरणें कुलांचे भर रही थी । हम कुछ देर तक वहीं खड़े रहे, उनकी आँखों की चमक में समाया सूनापन रिस रहा था । जो माहोल को गंभीर बना रहा था । इसी गंभीरता का हाथ थामे हुए मैंने कह दिया, ‘आज आप अपने मन की कह दीजिये, उसे अन्दर ही अन्दर मत घोटिये नहीं तो नासूर बन जायेगा !'

वे मेरे चेहरे की ओर देखने लगे । सूनी आँखों का इस तरह से देखना मैं सहन नहीं कर पाया, हालांकि उनकी आँखों पर चष्मे का बांध उस सूनेपन को रोकने की कोषिष कर रहा था । मैंने उनका हाथ अपने हाथों मेंं ले लिया । अपनत्व की इस छुअन से उनके अन्दर का बांध भरभराकर ढह गया । और वे फूट पड़े, ‘साली....अपने आपको समझती क्या है, मैंने कितने दिनों तक......क्या क्या नहीं किया.....और अब इस तरह से पल्ला झाड़ रही है ! सारे संबंध समाप्त.....क्या ऐसे होते है ?'

मैं कुछ भी नहीं बोला, केवल उनके चेहरे की ओर देखता रहा । थोड़ा रूककर वे फिर भरभराये , ‘कितने सालों तक ढोता रहा साली को और साथ ही उसकी बूढ़ी माँ को भी......कितना पैसा.....और कितना समय......सब कुछ और आज कहती है ‘कोई बात नहीं करनी है मुझे ' ऐसा कैसे....कोई इतनी आसानी से सब कुछ झाड़ पोछकर अलग थलग हो सकता है । यार बस यही सोच सोचकर.......!' वे बिफरने के करीब थे ।

मैंने होले से उनकी पीठ पर हाथ धर दिया । वे अपनत्व की छुअन से और बिफर पड़े मानो कोई बांध भरभराकर ढह गया उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । जो सारे तटबंधों को तोड़ती हुई भारी तबाही मचाने को आतुर थी । उनका विष्वास ढह गया और बह गया संबंधों का अर्न्तजाल । बगीचे की निस्तब्धता इसे और गाढ़ा बना रही थी ।

हम दोनों काफी देर तक वहीं खड़े रहे, धूप अब पेड़ों की झीरी से हमें छू रही थी । उनके चेहरे पर धूप की किरचें पसरी हुई थी । खिचड़ी बालों पर पसरे धूप के टुकड़े नये चित्रों का निर्माण कर रहे थे । मैं उनके चेहरे की ओर देखने लगा, वहाँ पर गोरेपन और लालिमा के साथ पसरे बिखराव को देखकर स्तब्ध रह गया । किन्तु उनके मन में चल रहे विचारों के काफिले को छू नहीं पाया और वापस लौट आया । वे पनीली आँखों से देखते हुए फिर बोले, ‘साली...ऽऽ...मुझे दुत्कारती है अब....इतने सालों के संबंध को कोई इस तरह से तोड़ देता है क्या....? कितने समय तक मेरी भावनाओं से खेलती रही और अब अपने असली रूप में आ गई मैं ही मूर्ख था जो उसके असली रूप को समझ नहीं पाया और मीठीदृमीठी बातों में लगा रहा । हरामजादी मुझसे कहती रही अपने पिता और बेटी को छोड़ दो , तो हम साथ रह सकते हैं । और मैं उनको छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता....भला ऐसे कैसे हो सकता ?' तभी मेरे मन में ख़याल आया, ‘दिल के टूटने की आवाज़ नहीं होती बस सिर्फ आह निकलती है ।' अभी नागरजी की वहीं आहें निस्तब्ध वातावरण को भेदती हुई काफी आगे निकल गई और पेड़ पौधों के अर्न्तमन में पैठ गई । अब मैंने ट्रांजिस्टर को कान पर लगाते हुए कहा, ‘आप भी जरा सी बात को क्यों नाहक इतना तूल दे रहे हैं, अभी गुस्से में होगी इसलिये कह दिया । वरना उनका भी कौन है ?'

वे मेरे चेहरे की ओर देखने लगे और मैं उनके । हम दोनों वहाँ से चल दिये । अब हम ड्‌यूटी रूम में बैठे थै । समाचार प्रभात ट्रांजिस्टर पर टंग गया था । स्टूडियो गार्ड ने नाष्ते के लिए बुला लिया, आज का नाष्ता न जाने किस की ओर से था । हम सभी पुनः नाष्ते की टेबल पर एकत्रित हो गये । वे आदतन सोफे पर बैठे अपने में खोये हुए ही रहे । सुमन अपनी निर्धारित दिनचर्या के अनुसार घर को निकल गईं । वहाँ उनकी बूढ़ी माँ उनका इन्तज़ार कर रही थी शायद । वे अपने निर्धारित समय पर यानि कि मार्निग न्यूज की समाप्ति पर ही लौटी और सीधे स्टूडियो के लिए कूच कर गई । वे कनखियों से उन्हें स्टूडियो जाते हुए देखते रहे । और मन मसोसकर रह गये ।

थोड़ी देर के बाद वे भी स्टूडियो में चले गये । मैं सब कुछ जानकर भी अनजान बना रहा । किन्तु जैसे ही वे स्टूडियो में गये वैसे ही सुमन जी ड्‌यूटी रूम में आकर बैठ गई । इस समय ट्रांजिस्टर पर पं.भीनसेन जोषी गा रहे थे । मैं अपनी कुर्सी पर बैठा उनको कनखियों से देखता रहा और वे अपने चेहरे के सम्मुख पेपर फैलाकर बैठी रही । किन्तु मैं समझ रहा था उनके मनकी उनके कान नागर जी के पदचाप को ही सुन रहे थे । शायद इन्तज़ार कर रही थी नागर जी के लौटने का । तभी वे स्टूडियो से बाहर आ गये और अपने ड्‌यूटी रूम में प्रवेष कर गये । इधर सुमन जी अपनी कुर्सी से उठी और स्टूडियो के लिए प्रस्थान कर गई । मैं कनखियों से हर गतिविधि को देखता रहा । सोम जी घायल पंछी की तरह फड़फड़ाते रहे । किन्तु सुमन ने उन्हें जरा भी मौका नही दिया । थोड़ी ही देर में वे फिर से मेरे ड्‌यूटी रूम में आकर सोफे पर पसर गये । अब उनकी बेकली का बांध भरभराकर ढह गया, सोफे पर बैठे हुए ही वह बोले, ‘देखा....! आज कितना सती सावित्री बन रही है...इसी सोफे पर मुझसे चिपककर बैठी रहती थी । पूरी ड्‌यूटी के दौरान या तो यहाँ रहती या मुझे स्टूडियो में बुला लेती और आज मुझसे ऐसे दूर भाग रही है....जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी हो गई हो । मैं पिछले सात दिनों से यही तो पूछ रहा हूँ आखिर हुआ क्या है....? किन्तु नहीं बोलती....साली हरामजादी.....अपने आपको समझती क्या है...।'

मैं कुछ नही बोला केवल उनको उबलते हुए देखता रहा । थोड़ी ही देर में वे फिर सोफे से उठे और बाहर निकल गये । अब वे नीम और पीपल के पेड़ के पास खडे शून्य में कुछ ताक रहे थे । मैं ड्‌यूटी रूम के बाहर से उनको देखता रहा । वे काफी देर तक नीम का तना पकड़कर खड़े रहे मानो उसके कान में कुछ कह रहे हो ।

इसी बीच उनका ट्रान्सफर भी हो गया और उनको रिलीव कर दिया गया । इस कार्यालय से जाते हुए भी वे उदास मना ही सुमन को घूरते रहे किन्तु सुमन तो अपनी नज़रे झुकाये हुए दरवाज़े के बाहर निकल गई । और इस तरह वे रूखसत हो गये इस कार्यालय से किन्तु उनकी आत्मा इसी कार्यालय में बसी रही सुमन के अर्न्तमन में । जाते समय भी वे बगीचे के पेड़ पौधों से न जाने क्या क्या बात करते रहे । किसी दार्षनिक ने कहा है कि प्रकृति आपकी सबसे बड़ी राजदार होती है । वे भी अपने मन के राज उसी प्रकृति के हवाले करके चले गये ।

उनके जाने के बाद कहीं कुछ भी बदलाव नहीं आया ऑफिस जैसा था वैसा ही चलता रहा । हाँ जब कभी सुमन की आवाज़ उनको रेडियो पर सुनाई दे जाती तो वे फोन खड़का देते, उससे बात करने के लिए । लेकिन वे फोन पर नहीं आती । काफी देर फोन होल्ड रहने के बाद कट जाता । ऐसा ही कई महिनों तक चलता रहा । ऐसे ही किसी एक दिन सुमन मेरे साथ ड्‌यूटी करते हुए अपने खाली समय में ड्‌यूटी रूम में आकर बैठ गई । मैं उनसे काफी संयमित व्यवहार करता रहा हूँ । न जाने क्यों उनसे मैं इतने दिनों के बाद भी पूरी तरह से खुल नहीं पाया । एक बार जो गाठ मन में पड़ी सो पड़कर रह गई और वह दिनों दिन मजबूत ही होती चली गई । ये अलग बात है कि उनकी ओर से शायद इस तरह की कोई हिच नहीं रही होगी । और यदि रही भी है तो इस बारे में मुझे पता नहीं है । वें उस दिन काफी समय तक ड्‌यूटी रूम में बैठी रही । अक्सर उद्‌घोषक अपनी उद्‌घोषणाएं निपटाकर ड्‌यूटी रूम में आ जाते हैं । वें भी अपने रूटीन में आ रही होंगी । मैं इसी के चलते उनको गंभीरता से नहीं ले रहा था । किन्तु उस समय जब उनको अच्छे मूड़ में देखा तो मैंने सकुचाते हुए पूछा, ‘आप अच्छी खासी नाराज़ है उनसे !'

इस पर पहले तो उन्होंने साष्चर्य मेरी ओर देखा और फिर मुस्कुराकर पूछा, ‘मैं समझी नहीं आप किसकी बात कर रहे हैं ?'

‘आप क्यों मेरे मजे लेने पर तुली हुई है......आप अच्छी तरह से जानती हैं मैं सोम जी के बारे में ही बात कर रहा हूँ ।'

वह अपनी भृकुटी तानते हुए बोली, ‘आप भी किस पागल की बात करने लगे.....अपने अच्छे खासे मूड़ को क्यों खराब करते हैं ?' उन्होंने प्रष्न मेरी आँखों मेें रोप दिया ।

मैं उसी प्रष्न के साथ उनके चेहरे की ओर दोबारा देखने लगा । वहाँ किसी तरह की कोई उत्सुकता नहीं थी अपितु उसके स्थान पर पसरा था एक अजीब तरह का पैथास जो उन्हें अन्दर तक चीथ रहा था । किन्तु उससे वह टूटी नहीं थी अपितु उन्होंने अपने आपको सम्बल की सुई से नाथ रखा था । मैंने फिर हिम्मत करते हुए पूछा, ‘लेकिन अचानक ही बीच में क्या हो गया ? वैसे तो सब कुछ ठीक था और आप भी प्रसन्न थी उनके होने से किन्तु अचानक ही.....!

वह बोली, ‘पत्थर ठीक था......अन्दर क्या पक रहा था उसके बारे में किसी को क्या मालूम.....हमारे बीच तो काफी लम्बे समय से ब्रेकअप हो चुका था किन्तु वह ही चिपके रहे पुनः जुड़ाव की उम्मीद में....! जो संभव नहीं था किसी भी रूप में ।' उन्होने अपनी नज़रें मेरे चेहरे पर केन्द्रित करते हुए मेरा मुआइना करने की प्रिक्रया को पूरा किया और फिर बोली, ‘उस निरे पागल के साथ कोई भी लड़की कितने समय तक जुड़ी रह सकती है....ओह ! माई गॉड, कितना हॉरिबल समय था वह भी ।' उन्होंने अपने दोनों हाथ उठाकर आपस में मिलाते हुए ईष्वर को धन्यवाद दिया । कि जैसे उसने जल्दी ही बुद्धि दे दी और समय रहते सब कुछ समझ में आ गया ।

आपको पता है मेरी मम्मी ने तो पहले ही दिन कह दिया था ‘ तुम इसके साथ भी ज़्यादा दिन निभा नहीं पाओगी' और जल्दी ही उनकी बात सच साबित हुई । आदमी का व्यवहार ही उसका सबसे बड़ा दुष्मन है । वैसे वो आदमी अच्छा है पर मन का बहुत गन्दा है और बोली का तो बस यह समझो कि उससे भी ज्य़ादा, कोई भी सभ्य आदमी आधे घण्टे तक भी उनके साथ खड़ा नहीं रह सकता, फिर कोई कैसे जीवन भर के लिए आँखों देखी मौत चुन ले......!'

मैं आष्चर्यचकित सा उनकी ओर देखता रहा । उन्होंने भी अपनी नज़रे मेरी नज़रों पर गाड़ दी । इसी बीच वह संयत होते हुए फिर बोली, ‘आपको पता है उनकी पहली पत्नी के बारे में ?'

मैंने अनभिज्ञता में आँखें इधर उधर घुमाई । तो वें मुझे जानकारी प्रदान करती हुई सी बोली, ‘वह बेचारी जब इनके साथ ब्याह कर आयी थी उस समय तक लगभग अपढ़ ही थी, दसवीं पास तो कोई पढ़े लिखे की श्रेणी में आता नहीं है । कुछ ही दिनों बाद इनकी माँ के अत्याचारों से वह टूट गई और यह तो थे ही अपनी माँ के भक्त उसके साथ कोई नहीं था । तो वह भी अकेले कब तक सहती रहती । इसी बीच एक बच्ची का जन्म भी हो गया किन्तु फिर भी यह उससे किसी भी तरह से जुड़ नहीं पाये और माँ का अत्याचार पूर्ववत चलता ही रहा, एक दिन थकहार कर चली गई घर से.....लेकिन माँ बेटे में उससे दूध पीती बच्ची भी छुड़ा ली । कितनी क्रूरता.....कोई सोच भी नहीं सकता उस दूध पीती बच्ची को माँ से जुदा कर दिया । ताकि वह इनके अत्याचारों को सहती रहे । पता है उस लड़की ने क्या किया....यहाँ से जाने के बाद उसने अपना ध्यान अपने केरियर के निर्माण में लगाया और एक अच्छा मुकाम हासिल किया । आज वह राज्य सरकार की नौकरी में सेकेण्ड ग्रेड गर्जेटेड अधिकारी है । और इनसे अच्छी पोजिषन में हैं । और यह निरे बुद्धू वहीं के वही......।'

उन्होने अपने मन के गुबार को निकालकर हलकापन महसूस किया । अब उनके चेहरे पर शान्ति की स्पष्ट लकीरें दिखायी दे रही थी ।

मैंने मौन को तोड़ते हुए पूछ लिया, ‘तो फिर आप उनसे कैसे जुड़ गईं....?'

‘यह हमारे बुरे दिनों की दास्तान है.....इसे रहने ही दे तो अच्छा है वरना दर्द की कई परते खुल जायेंगी....।' इतना कह कर वे कुर्सी से उठकर स्टूडियो में चली गई । और मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा । मुझे उनकी आँखों में गीलापन दिखाई दिया , प्रौढ़ावस्था को पार कर चुकी सुमन इस समय मुझे काफी सुलझी हुई लगी ।

कुछ ही दिनों के बाद सुमन ने भी बैंक में कार्यरत एक वृद्ध से जो कि लगभग रिटायरमेंट के करीब पहुँच चुका था और विधुर था, से विवाह कर लिया । और अपना स्थानान्तरण करवाकर इस शहर को हमेषा के लिए छोड़ दिया । उनके चले जाने के बाद इस कहानी का पटाक्षेप हो गया ।

फिर कुछ वर्षों के बाद सोम जी पुनः अपना स्थानान्तरण करवा कर इसी शहर में आ गये । अब वे पहले वाले नागर जी नही रहे थे । उनके चेहरे से हँसी गायब थी और उसकी जगह पसरा रहता था गहन विषाद जिसकी रेखाएँ हमेषा उनके चेहरे पर देखी जा सकती थी । ये अलग बात है कि उनके ठहाकेे अभी भी वातावरण पसरे रहते हैं लेकिन अब उनमें वो खनक नहीं रही जिनके कंगूरे वातावरण को चीथते रहते थे ।

रमेष खत्री

(संपादक नेट मेगजीन साहित्यदर्षन डाट काम)

53/17,प्रतापनगर , जयपुर 302033

e.mail- ramesh_air2012 @rediffmail.com