इन्तज़ार Ramesh Khatri द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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इन्तज़ार

कहानी रमेष खत्री 09414373188

इन्तज़ार

पानी की बूंदे झोपड़ी की टीन पर अनवरत गिर रही है , टीन पर हो आये सुराखों के कारण बारिष की बूदें झोपड़ी में घुस आईं । काफी देर से ऐसा अहसास हो रहा है जैसे कोई टीन पर पत्थर फेंंक रहा हो, पूरा कमरा पानी के कारण गीला हो गया है । बरसात का मौसम तो वैसे भी सीला.सीला होता है । आज सुबह से ही मूसलाधार पानी बरस रहा है । आसमान ने काले बादलों की चादर ओढ़ ली है । बीच.बीच मेें बिजली कड़कती है और बादल हाथी की तरह चिंघाड़ने लगते । रामदीन सुराखों वाली छत को देखकर सहम जाता । सुबह से ही वह कमरे के कोने में बैठा गहन चिंता मेें डूबा है । पूरे कमरे में पानी ही पानी हो रहा है, वेसे तो पानी कई दिनों से बरस रहा है पर आज तो सुबह से उसने जरा भी दम नहीं लिया । आधा दिन बीत गया है और अभी तक अन्न का एक दाना भी रामदीन के मुंह में नहीं गया, हालांकि दो बार उसने बगैर दूध की चाय जरूर पी है । अब तो उसकी अंतड़ियां भी भूख के मारे कड़कड़ाने लगी है । वह हिम्मत बटोर कर उठा, मटके के पास गया और एक गिलास पानी गटगटकर पी गया । ऐसे तो काम चलने वाला नहीं है, इस पेट के गड्‌ढे को तो कैसे भी भरना ही होगा, पर आज तो हिम्मत ही नहीं हो रही है । लगातार बरसते पानी ने उसकी हिम्मत को तोड़ दिया वह फिर से एक ही जगह जमकर रह गया ।

बीता हुआ हर एक पल उसकी परेषानी में इजाफा ही करता गया, आज पानी के रूप में विवषता ही उसकी छत पर बरस रही है और इसी विवषता से उसका पूरा कमरा भर गया है । विवषता के कितने रूप उसकी ऑँखों के सामने तनते चले गये । कमरे के कोने में बैठा रामदीन कभी अपने आपको देखता, तो कभी अपने सामने बिखरी विवषता को, सब कुछ उससे षुरू होता और उसी पर आकर खतम हो जाता । समय उसके सामने पहाड़ की तरह तन गया, कमरे के एक कोने में बैठा वह अपने आपको इस पहाड़ से बचाने का यत्न करने लगा । पर उसके सोचने भर से क्या होता है ! समय से आज तक कोई बच पाया है जो रामदीन बच जाता । उसके सामने तो हर पल असंख्य अनुभवों के अणु अपने अन्दर समाहित करके उपस्थित हो रहा है । अंदर की घुटन जब हद से बाहर निकल जाती है तो आदमी का सांँस लेना दुष्वार हो जाता है । रामदीन के चेहरे पर असंख्य झाईयॉँ उभर आई है, बढ़ी हुई दाड़ी खरपतवार की तरह लगने लगी, हडि्‌डयॉँ बाहर को निकल आई, आॅँखें अंदर गड़्‌ड़ोंं में ध्ाँस गई । छह दषक की विवषता उसकी आॅँखों के आगे नाचने लगी ।

रामदीन तेज.तर्रार और फूर्तीला जवान हुआ करता था उन दिनों, पर आज तो समय की बिवाईयॉँ उसके चेहरे पर उग आई है । वह न जाने कौन सी भाव मुद्रा में खोया एकटक छत को निहार रहा है मानो छत के सुराखों के रास्ते ही जीवन की दिषा बदल जायेगी लेकिन इन सुराखों से टपकते पानी के छीटें उसके चेहरे पर गिरते हैं तो उसकी विचार तंद्रा टूटती है, वह अपने चेहरे को पोंछने लगता है । चेहरे पर उग आये षूल उसे चुभने लगते हैं, वह अपने आप पर मुस्कुरा देता है । पानी की बून्दों के साथ उसके अतीत की पोटली खुलने लगती है ।

चौदह साल की उम्र ही रही होगी उसकी, उस रोज़ भी ऐसे ही पानी बरस रहा था तब उसकी झोपड़ी के सामने पुलिस की जीप आकर रूकी, उसमें से एक आदमी ने उतर कर मॉँ को पिता के एक्सीडेंट के बारे में बताया । इस एक्सीडेंट में उसके सर से पिता का साया उठ गया, मॉँ पिता का स्थान लेती हुई घर की घानी में जुत गई । मैट्रिक करने के बाद रामदीन ने माॅँ से कंधा बदल लिया, अब वह मॉँ के स्थान पर घानी में जुत गया । इस सबमें उसका बचपन बिला गया, वह अपनी मॉँ को आराम देना चाहता था । पर नियति को तो कुछ और ही मंजूर था । मॉँ नियति को पहले ही भॅाँप गई थी, उन्हें समय को पढ़ने की आदत थी, तभी तो उन्होने नियति के करवट लेने से पहले ही किसी और का हाथ रामदीन के हाथ में थमा दिया और फिर एक दिन मॉँ भी नियति की कुटिल चाल का षिकार होती हुई पिताजी की दुनिया में सदा सदा के लिए चली गईं । अब माॅँ और पिताजी दोनों ही उसके लिए अतीत बन गये ।

समय ने फिर करवट बदली पर परेषानियों से उसका नाता मजबूत से मजबूत होता चला गया, परिस्थितियाॅँ जरूर बदली पर परेषानियॉँ उसके सामने सुरसा की तरह तनी रही । अब तक चार व्यक्तियों का बोझ उसके कंधों पर आ गया । हालांकि सावित्री सिलार्ई करके घर को कुछ टेका जरूर दे रही थी, पर मंहगाई की मार हौसले पस्त किये थी । ऐसे में कितना भी करो, ऊंँट के मुंह में जीरा ही साबित होता । फैक्ट्‌ी से मिलने वाली तनख्वाह के सहारे मुष्किल से बीस दिन ही रेंग रेंगकर निकल पाते महिने का अंतिम सप्ताह पहाड़ की तरह तना रहता । वह बीतने का नाम ही नहीं लेता, ऐसे में सावित्री की सिलाई मषीन सहारा बनती और परिवार मषीन के पहिये के सहारे दिन काटता । हवा उन दिनों जम जाती, उसके बहने का अहसास ही नहीं होता। यह सब कुछ आदमी की उमंगों से हीे बंधा होता है, उन दिनों ऐसा अहसास होने लगा था, पर हवा तो अपनी ही गति से बह रही थी भला वह किसी के लिए क्यों रूकने वाली है, हवा ही तो आदमी के जीवन का अहम हिस्सा है, इसके बहते रहने से उसमें नया उत्साह पैदा होता है । हाॅँ, इतना जरूर है समयानुसार उसकी दिषा बदलती रहती है । उसके जीवन में हवा अपनी तरह से रस घोलती रही और जीवन की गाड़ी हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ती गयी । रामदीन अपनी हैसियत और सीमित दायरे में बच्चों को खुषियाॅँ प्र्रदान कर रहा था, तो वहीं दूसरी ओर नितिन और भावना जो अब समय के साथ बड़े हो रहे थे, उनको यह सब काफी कम महसूस होता, उनकी अपेक्षा काफी बढ़ गई थी, उम्र के साथ ! इस तरह से रामदीन अपने बच्चों की नज़र में उन्हे जीवन की खुषियॉँ प्रदान करने में सफल नहीं हो पा रहा था । उम्र के साथ उनकी अपेक्षायें बढ़ती जा रही थी । बच्चों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाने का ग़म रामदीन को हमेषा सालता रहता । बढ़ते बच्चों की अपेक्षाएँ तो वैसे भी अनन्त होती है, उनका अपना कल्पना का संसार होता है । अपेक्षाओं का कोई अन्त थोड़े ही है, जितना चाहे बढ़ सकती है, पर बच्चें कहॉँ समझते हैं ?

वे तो चाहते है कि उनकी हर इच्छा तुरंत पूरी हो फिर चाहे जो भी मजबूरी हो यदि किसी कारण से उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती है तो मन को ठेस लगती है, जो उन्हें विचलित करती । इससे परे आदमी की अपनी सीमा होती है, रामदीन भी अपनी नौकरी से मिलने वाली छोटी सी तनख्वाह से अपने परिवार की गाड़ी को धकेल रहा था । नौकरी से मिलने वाली छोटी सी तनख्वाह और अनन्त इच्छाएं, आदमी का दर्द काफी बड़ा होता है, उसे पूरे महीने अपने परिवार को खेना होता है । आदमी की पर्तो को धीरे.धीरे उतारा जाये तो सभी का यही सच उभरकर सामने आयेगा । सात पर्दो के अन्दर आदमी के मन में यही दर्द समाया हुआ है । हम उसके अन्तरमन को न समझकर उसके बाह्‌य रूप को ही देखते रहते हैं ।

हर आदमी अपनी चादर देखकर ही तो अपने पांँव पसारता है तभी वह चैन से रह पायेगा नही ंतो ये अनन्त इच्छायें ंतो उसे रेगिस्तान में भटकाती रहेगी और वह इनके पीछे भागता फिरेगा जिसका कोई अन्त नहीं है ।

रामदीन का फलसफा बच्चों के गले नहीं उतरता, उनका अपना मत था. यदि आदमी कोषिष करे तो अनन्त आसमान को अपनी मुट्‌ठी में कैद कर सकता है ! इसके लिए आदमी को हाथ.पैर मारने पड़ते है ,उसमें यदि इच्छा षक्ति हो तो वह अपनी चादर को अपनी इच्छानुसार फैला सकता है ! हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो वह वहीं का वहीें रूक जाता है उसका विकास एक जगह स्थिर होकर रह जाता है । दरअस्ल आदमी की इच्छा षक्ति ही उसका असली विकास करती है । पुराने और नये विचारों में हमेषा से द्वंद्व चलता आया है और न जाने कब तक चलता रहेगा ? बच्चों का फण्डा रामदीन की समझ से परे था, तभी विचारों मे दरार उत्पन्न हुई और उसने घर में कलह को बो दिया । बच्चे बड़े हो रहे थे, उनके बढ़ते हुए षरीर ने मन में न जाने कैसे.कैसे विचारों को रोप दिया, जो धीरे.धीरे विकराल रूप घारण करने लगे । समय का एक यह पहलू भी उसके सामने खुला जिससे वह गहरे तक आहत हुआ ।

पर समय के बीतने की आवाज नहीं होती, वह चुपचाप बहता रहता है किसी षान्त नदी की तरह हौले.हौले और फिर जाकर सागर में विलीन हो जाता है । नितिन और भावना के व्यवहार में भी समयानुरूप बदलाव महसूस होने लगा, अब तक दोनों अपना बुरा.भला भली भॉँति समझने लगे थे । और वैसे भी लड़कियॉँ तो समय से पहले ही बडी़ हो जाया करती है, गरीब की लड़की तो जंगल की आग की तरह बढ़ती ह,ै भावना कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला, तीखे नैन नक्ष, लम्बे बाल, साधारण कद, गोरा रंग । सुंदर व्यक्तित्व की धनी भावना सत्रहवें में प्रवेष कर गई थी । अब वह अपनी मॉँ के साथ घर के कामों में हाथ बँटाती और अपने खाली समय में सिलाई में भी सहयोग करने लगी । नितिन ने इसी साल इन्टर की परीक्षा दी थी, लम्बोतरे कद का नितिन दुबला पतला ही है । इन्टर की परीक्षा देने के बाद उसने लॉटरी की दुकान पर काम करना षुरू कर दिया है । उसके साथी गर्मी की छुटृटी में यहॉँ.वहॉँ सैर सपाटे की योजना बना रहे थें वहीं नितिन अपने भविष्य को संवारने में जुट गया । कहते हैं खुद को जान लेना बहुत जरूरी होता है, नितिन ने बहुत जल्दी अपनी परिस्थितियों को सूंघ लिया और इसी के अनुरूप लाटरी की दुकान पर काम करने का फैसला कर लिया । वह छुटिृटयों का सदुपयोग करके अपनी आगे की पढ़ाई सुनिष्चित करना चाहता था । वह अपने घर की परिस्थितियों से पूरी तरह से वाकिफ है, उसे पिता के रूप में एक थके हुए बीमार और बूढ़े आदमी का चेहरा दिखाई देता है । वह नहीं चाहता था कि पिता के सामने किसी तरह की परेषानी पेष की जाये और उनकी थकान को और बढ़ाया जाय । एक तरह से वह अपने रिजल्ट का इन्तजार कर रहा था तो वहीं दूसरी ओर समय को अपनी मुट्‌ठी में बाँधने की कोषिष भी कर रहा था ।

जल्दी ही नितिन का रिजल्ट आ गया, वह अच्छे नम्बरों से पास हुआ । घर कुछ समय के लिए खुषी के सागर में डुबकी लगाने को आतुर हुआ ही था कि सावित्री बीमार हो गयी । रामदीन की सीमित आय घर के लिए ही ऊँट के मुंह में जीरे के समान थी ऊपर से सावित्री की बीमारी उसके प्राण लिये जा रही थी । धीरे.धीरे रामदीन आर्थिक चक्र्रव्यूह में फँंसता चला गया, जिससे निकलने का रास्ता उसे दूर.दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था । सावित्री की बीमारी के चलते ही उसने अपनी फैक्ट्‌ी से कर्ज निकलवाकर आनन.फानन में भावना के हाथ पीले कर दिये ं। भावना इस घर से हमेषा हमेषा के लिए विदा होकर चली गयी । भावना के विदा होते ही सावित्री की बीमारी ने विकराल रूप धारण किया, उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा । एक बार सावित्री घर से अस्तपताल के लिए निकली तो एक नये चक्कर ने उसे घेर लिया । सावित्री की बीमारी घर के रहे सहे सामान को लील गयी, इधर रामदीन को दो.दो मोर्चों पर लड़ाई करनी पड़ रही थी, एक तरफ फैक्ट्‌ी तो दूसरी तरफ घर । अब तक नितिन काफी समझदार हो गया था वह हर काम में मदद करता था । वह पूरे समय ही अस्पताल में मॉँ के पास लगा रहता था । इसी साल उसने ग्र्रेजूएषन की परीक्षा दी है, इस बार रिजल्ट का इन्तजार उसे अस्पताल में करना पड़ रहा है ।

नितिन के रिजल्ट के साथ ही सावित्री का भी रिजल्ट आ गया, वह इस दुनिया से हमेषा हमेषा के लिए कूच कर गयी । रामदीन पथराई ऑँखों से देखता रहा, वह खुलकर रो भी नहीं पाया । अपना मन मसोसकर रहने के अलावा उसके पास कुछ भी नहीं बचा था । सावित्री उसको मझधार में अकेला छोड़कर चली गई किन्तु उसकी बीमारी एक बड़े कर्जे का बोझ बनकर रामदीन के पास रह गयी । रामदीन ने अपनी मुटि्‌ठयॉँ भींच ली, ऑँखों पर पलक रूपी बांंध खड़ा कर लिया । समय की यही पुकार थी, उसको तो जीना था नीतिन के लिए । यदि वही टूट जाता तो नीतिन को कौन सम्हालता। रामदीन ने समय की नजाकत को पहचाना और उसीके अनुरूप खुदको ढाल लिया ।

अब नितिन भी नौकरी की तलाष में अखबारों में ‘आवष्यकता' है के विज्ञापनों में खो गया, सालभर की अथक दौड़.धूप के बाद दिल्ली की एक कम्पनी में सुपरवाइजर की नौकरी तलाषने में सफल हो पाया । कम्पनी का क्वाटर, ठीक.ठाक वेतन और अन्य सुविधाओं के साथ मिला अलगाव । अब उसके सामने चुनाव की घड़ी आ गई, एक तरफ पिता का बूढ़ा और षिथिल चेहरा तो दूसरी तरफ सुनहले भवितव्य की उज्वल किरणें, किसको पकड़े और किसको छोड़े ? उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, पर जल्दी ही असमंजस उसके सामने से छंट गया । उसने दिल्ली जाकर नौकरी ज्वाईन करने का अपना फैसला पिता को सुना दिया । उस समय रामदीन को गहरा आघात लगा, वह टूटकर रह गया । इस बार उसके सपनों का महल ताष के पत्तों की तरह भरभराकर ढह गया, उसकी नींव तक दरक गयी । नितिन थके हुए बूढ़े बाप को खर्चा देने का वादा करके अपनी दुनिया संवारने दिल्ली चला गया । इस बार का आघात काफी गहरा था । रामदीन अन्दर तक टूट गया, उसके चेहरे पर झुर्रियॉ उभर आईं । समय एक बार फिर से विकराल रूप घारण करके उसके सामने खड़ा हो गया । एकबार तो उसके मन में आया भी कि वह चीख चीखकर कहे, ‘बस ! अब और नहीं सहा जाता, बहुत हो गया ? एक.एककर सभी मुझे छोड़कर चले गये और मैं उनको जाते हुए देखता रहा पत्थर की किसी मूर्ति की तरह, कभी मैंने अपने मुंह से कुछ नहीं कहा....! पर अब नहीं सहा जाता मुझसे.... अब अकेले नहीं रह सकता मैं ....।' पर उसका गला रूंंध गया, ज़बान तालू से ही चिपककर रह गई, उसके होंठ आपस में जुड़े के जुड़े ही रह गये । उसके हलक से एक षब्द भी नहीं निकल पाया । वह अपनी जगह किसी बुत की तरह खड़ा रह गया । उसकी ऑँखों में आॅँसुओं का सागर लहराया और सारे तटबंधों तोड़कर बहने को आतुर हुआ ही था कि फिर से उसने उन पर पलकों का बांध तान दिया । उस तूफान को रामदीन ने अपनी आॅँखों में ही कैद कर लिया ।

आज इस कमरे के एकान्त में बैठे हुए रामदीन सुराखोंवाली टीन को देखते हुए सोच रहा है, ‘मैं खुद भी तो इस छत की तरह ही तार.तार हॅूँ , मेरे अर्न्तमन में भी तो असंख्य सुराख हो रहे हैं, जिनसे गुजरकर तूफान मेरे अन्तरमन में बवण्डर पैदा कर रहा है । आज मैं जिस मुकाम पर खड़ा हॅूँ वहॉँ बस इन्तजार ही षेष रह गया है । मैं यह भी जानता हॅूँ...... इस इन्तजार का कोई अन्त नहीं, पर मन है कि मानने को तैयार ही नहीं है ....।'

रमेष खत्री

(कार्यक्रम अधिकारी, आकाषवाणी, जयपुर)

संपादक वेब पत्रिका साहित्यदर्षन डाट काम

53/17,प्रतापनगर ,जयपुर 303 906

e.mail- ramesh_air2012@rediffmail.com