धन्धे का समय Ramesh Khatri द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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धन्धे का समय

कहानी रमेष खत्री

धन्धे का समय 09414373188

एक झटके के साथ बस चल पड़ी । बस के चलते ही सब कुछ चलायमान हो गया । बस में बैठे यात्री धक्का मुक्की छोड़कर अपने आस पास ही जगह की जुगाड़ में जुट गये । जिसको जहॉँ भी जगह मिली वह वहीं टिकने की जुगाड़ लगाने लगा । किन्तु बस तो पूरी भरी हुई थी । उसमें तो पैर रखने की जगह भी नहीं थी । स्थितियाॅँ कितनी भी दुरूह क्यों न हो जिनको जाना है वो तो कैसे भी करके जायेंगे ही । मजबूरी आदमी से जोे न करवाये वह थोड़ा है, इसीलिए तो कहते हैं आदमी परिस्थितियोंं का दास है ।

जो लोग बस में सीट पर बैठे थे वे ऐसे लग रहे थे मानो किसी राज सिंहासन पर बैठे हो, उनके मन में न जाने कहाॅँ से यह भाव घर कर गया था या कि केवल देखने वाले को ही ऐसा अनुभव हो रहा था । आदमी के मन में भी कैसे कैसे गरूर समाये रहते हैं । जो मौका पाकर अपनी असली जात दिखा देते हैंं । मन की इन्हीं उद्दाम भावनाओं से उसका पिंड कभी नहीं छूटता, ता उम्र वह इनकी ही गिरफ्त में डोलता रहता है । सीट पर बैठे हुए लोग इस समय न जाने कौन से गरूर की नुमाईष कर रहे थे । और पता नहीं यह गरूर भी था या कि बस के हिचकोले उनके शरीर में एक अजीब तरह की मस्ती या दूसरे शब्दों में कहे तो नींद का सरूर पैदा कर रहे थे । कुछ लोग तो खर्राटे भी लेने लगे थे । समझ नहीं आता लोग इतनी जल्दी सो कैसे जाते हैं ?

जिनको नींद आ रही थी वे सो रहे थे, पर कुछ लोग अभी भी उबासी लेने में तल्लीन थे और वे कसमसा रहे थे । पर जिनको बैठने के लिए जगह नहीं मिल पाई वे अपनी तकलीफ भुलाने के लिए आपस में बातें करने में लग गये । हम लोग अक्सर ही ऐसा करते हैं बातों में समय कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता और इसी बहाने वर्तमान की प्रमुख समस्याओं पर अपनी जानकारी का पिटारा भी उलीच देते या भर लेते हैं । ऐसे समय राष्ट्‌्रीय और अर्न्तराष्ट्र्‌ीय घटनाओं पर जानकारियाॅँ ताजा हो जाती है और इन विषयों पर अपनी चिन्ता भी जाहिर कर दी जाती और अपने ज्ञान को साथ ही साथ प्रदर्षित करने का मौका भी मिल जाता । कुंछ लोगों के लिए ऐसे समय राजनीतिक बातें दिल बहलाने का अच्छा बहाना होती है । अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि सफर में कुछ व्यक्ति मुखर हो जाते हैं किन्तु कुछ आत्मलीन, इस बस में देखते ही देखते अच्छा खासा वार्तालाप शरू हो गया है ।

बस अभी शहर से बाहर भी नहीं निकल पाई थी । शहर की वक्राकार सड़क पर रेंगती हुई आगे बढ़ रही थी । कभी दायें हिचकोले खाती तो कभी बायें, कि तभी अचानक चरमराकर रूक गई । ड्‌्राइवर जोर से चिल्लाया, ‘क्यों बे....साले....ले....घर से मरने को निकला क्या.....? अब्...बे.....मेरे मत्थे क्यों आता है...? कहीं और जाके मर.........।'

ड्‌्राइवर के पास वाली सीट पर तीन यात्री बैठे हैं । एक नवविवाहित युगल है जो आपस में बातें करने में तल्लीन है, इन्हें दुनिया जहान से कोई मतलब नहीं है । चढ़ती जवानी का सरूर उनकी आँखों में डोरे की तरह तन रहा है । लगता है अभी तक बीच का आकर्षन गया नहीं है । उनकी बात चीत से आभास हो रहा है, ‘अभी चँन्द्रमुखी वाली स्टेज चल रही है ।' सीट के किनारे बैठा दुबला सा लड़का सिगरेट पीते हुए और दुबला होता जा रहा है ।

स्टेरिंग को हाथ में थामे ड्‌ाइवर मुँह में बीड़ी दबाये इंजिन की तरह धुआँ उगलते हुए गुनगुना रहा है, ‘चोली के पीछे क्या है...चोली के पीछे....।' यह रोड़वेज की एक खटारा बस है जिसके अंजर पंजर बिखरे है । फटी सीट, टूटी छत, शीषा रहित खिड़कियाँ इसकी राम कहानी कह रहीे है ।

बस की अगली सीट आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है, यहॉँ बैठा युगल अपनी हरकतों से सबका ध्यान आकर्षित किये हुए है । समय समय पर बदलती उनकी भाव भंगिमाऍँ बस के हिचकोले के साथ रंग लाती जा रही है । साहबान कभी तो मोहतरमा के गालों पर बिखर आई लटोेें को सवारते हैं, तो कभी देखने वाले की आखों को धोखा देते हुए शरीर के उभारों को नापने की कोषिष करते हैं, लेकिन जब किसी की चोर निगाह उनके इस प्रयास का पीछा करते हुए उनके हाथों की हरकतोंं तक पहुँॅच जाती तो वें मन मसोसकर रह जाते ।

बस फिर हिचकोले खाती आगे बढ़ने लगी । ड्‌्राइवर भी बस की तरह ही लुंज पुज दिखाई दे रहा है । उसके सर पर सफेद बालों का खेत लहलहा रहा है, जिसे उसने गमछे से ढंक रखा है, खरपतवार की ही तरह कहीं कहीं काले बाल दिखाई दे रहे हैं । साधारण कदकाठी का व्यक्ति लक्ष्य पर ऑँँखे टिकाए स्टेरिंग हाथ में थामे इस खस्ताहाल बस को लगातार ठेले जा रहा है । मुँह पर उग आई दाढ़ी दीवार में ठुकी हुई कील सी लग रही है । लहराते होठों से गुनगुनाते हुए वह स्टेरिग पर ऐसे झुका हुआ है मानो किसी ठेले को अपनी पूरी ताकत से खींच रहा हो ।

बस शहर की वक्राकार गलियों को छोड़कर अब खुली सड़क पर आ गई है । चौड़ी और लंबी सड़क दूर तक दिखाई दे रही है । शहर की ऊँची अट्‌टालिकाओं के स्थान पर अब खेत और पेड़ दिखाई देने लगे हैंं । शहर का कोलाहल पीछे छूट गया है, अब चारों तरफ सूनापन और निरवता व्यापी है । बस का आगे का शीषा टेलीविजन की स्क्रीन सा लग रहा है, जहॉँ कई कई आकृतियॉँ एक साथ बन और बिगड़ रही है । बस अपनी गति से आगे बढ़ रही थी कि तभी फिर अचकचाकर रूक गई ।

नाका आ गया था । कन्डक्टर उतरकर दौड़ा पर्ची कटाने को, तभी दरवाज़े पर खड़े लोगों के बीच कोहराम मच गया । कोई दरवाज़े पर खड़े हुए बुजुर्ग की जेब साफ कर गया था । वे दहाड़े मार कर रोने लगे, लगता है उनकी जेब काफी भारी थी तभी तो इस तरह से मातम कर रहे हैं । रोते रोते ही बताते जा रहे थे, ‘लड़की की शादी का इन्तजाम करके वापस गांव जा रहा था और रास्ते में ही सब चला गया....अब उसकी शादी का क्या होगा....?' उनका रूदन मन दहलाने लगा ।

सभी हतप्रभ एक दूसरे को देखते रहे । कुछ उनको सान्तवना देने के लिए उनके पास पहुॅँच गये । इस भीड़ में न जाने कब जेबकट उनकी जेब को हथियाकर चंपत हो गया । अब तो बस उसका रूदन बाकी बचा है । अब पछताने से क्या होगा जब चिड़िया ही खेत चुग गई हो ? पर जिसको पीढ़ा होती है वह तो छटपटायेगा ही अब वह बुजुर्ग अपने आपको ढांढस बंधाने की कोषिष करने का जतन करने लगे ।

तभी कुछ बच्चे उनको फंलागते हुए बस में दाखिल हो गये, कोई पानी के पाउच बेच रहा था, तो कोई भुने हुए भुट्टे, एक बच्चा समोसे कचोरी की आवाज़ लगा रहा था । एक युवा बालोंं के लिए कंघी बेचने आ गया और एक बुजुर्ग कई सारी किताबें लेकर अवतरित हो गये वें सफर के लिये किताबें ही बेच रहे थे । बस के बाहर एक ठेलेवाला इस भरी गर्मी में भी मुंगफली बेच रहा था ।

कंडक्टर नाके से पर्ची कटाकर आ गया, वह भी उस बुजुर्गवार को हिम्मत बंधाते हुए सबको बस में धकियाने लगा । थोड़ी ही देर में बस फिर से चल पड़ी, बस के चलते ही सब कुछ सामान्य सा होने जैसा लगा किन्तु कुछ भी सामान्य नहीं था । जो कुछ भी चल रहा था वह अन्दर ही अन्दर चल रहा था । पर इतना जरूर हुआ अब लोगों के बीच चल रही चर्चा का विषय बदल गया । अब राजनीति से हटकर चर्चा गुण्डागर्दी और चोरी—चकारी पर आकर केन्द्रीत हो गई ।

ड्र्‌ाइवर के साथ वाली आगे की सीट पर बैठा जोड़ा अपने कार्यकलाप में व्यस्त हो गया । अब उसने अपने साथ वाली मोहतरमा का सर गोद मेें रख लिया और वह खुद भी उसके उपर पूरा का पूरा झुक गया मानो उसे भी गहरी नींद आ रही हो, किन्तु वह नींद के बहाने कुछ ओर ही कर रहा था । इस सबके बीच बीच में वह कभी उसके उभारों पर भी अपने हाथ फिरा देता था और जब किसी की चोरे निगाहें उसके इन प्रयासों को पीछा करती हुई उन तक पहुंँचती तो वें हड़बड़ा जाते और फिर से नींद का दिखावा करने लगते । यह सब काफी देर से चल रहा था । युवा जोड़े के साथ किनारे बैठा युवक और सिकुड़कर किनारे खिसक गया था । उसे बैठने भर की भी जगह नहीं बची थी । आदमी की सदाषयता का कैसे फायदा उठाया जाता यह देखा जा सकता है । किस तरह से कसमसाते हुए अतिक्रमण किया जाता है कोई यह महिलाओं से सीखे ।

बस ने अब फिर से रफ्तार पकड़ ली थी, वह तेजी से भागी जा रही थी । दूर दूर तक वक्राकार सड़क दिखाई दे रही थी । जिस पर कभी ही कोई वाहन नज़र आता और वह भी फर्राटे भरता हुआ निकल जाता । ड्र्‌ाइवर अपनी मस्ती में मस्त गाड़ी को भगाये जा रहा है, ‘चोली के पीछे क्या है......चोली के पीछे........?' गाड़ी की रफ्तार के साथ ड्र्‌ाइवर भी मस्ती में आ कर गुनगुनाने लगा । मालवा के समतल खेतों में सोयाबीन पसरा पड़ा है । इसने यहां की सारी पारम्परिक फसलों को लील लिया । धीरे धीरे पूरे ही खेतों पर इसका कब्जा हो गया । अब तो दूर दूर तक सोयाबीन का ही साम्राज्य दिखाई देता है । किस तरह से सोयाबीन ने हमारी पारम्परिक फसलों के बीच सेंध मारी ? और हमें पता ही नहीं चला । काली मिट्‌टी के खेतों के बीच से होती हुई सड़क ऐसे गुजर रही है मानो किसी ने अपनी साड़ी सूखने के लिये डाल दी हो । जिस पर भागते हुए बस इक्कीसवीं सदी में प्रवेष करने को उतावली नज़र आ रही है ।

कि तभी पीछे वाली सीट से बच्चे के रोने की आवाज़ आने लगी । देखते ही देखते वह जोर जोर से रोने लगा । शुरू में तो किसी ने भी उसके रोने को नोटिस नही किया सब अपने आपमें ही खोये रहे । अगली सीट पर बैठा युवा जोड़ा अपनी क्रियाओं में व्यस्त रहा, उनके पास बैठा लड़का और ज्यादा सिकुड़कर किनारे खिसक कर सिगरेट पीने लगा, ड्‌्राइवर अपनी मस्ती में मस्त गुनगुनाते हुए गाड़ी को हाँके जा रहा था कभी वह स्टेरिंग को दाये घुमाता तो कभी बाये और गाड़ी अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी । कंडक्टर अलग अपनी सीट पर बैठा उंघ रहा था । सड़क तेजी से पीछे को भागती जा रही थी, गोया कि उसका कहीं कोई इन्तजार हो रहा हो और वह समय पर न पहुंच पाने की गलती कर बैठी हो सड़क के साथ ही पेड़ भी तेजी से भागे जा रहे थे और पेड़ों का साथ देने के लिए खेत आगे आ गये थे ।

बच्चा अब भी एक सी आवाज़ में ही रोये जा रहा था । अब बस के यात्रियों का ध्यान उस ओर गया । उसको चुप कराने की कई सारी कोषिषें उसकी मांँ के द्वारा की जा रही थी । पर वह और भी ज्यादा ज़िद करके बिफरने लगता था । उसकी मांँ जितनी भी कोषिष करती वह उतना ही ज्यादा बिफरता । बच्चे का इस तरह से लगातार रोना अब खटकने लगा और न चाहते हुए भी उसका रूदन कानोें में चुभने लगा । भला कोई कब तक किसी को नज़र अंदाज कर सकता है और फिर बच्चे की ज़िद तो जग जाहिर है । क्या पता बच्चा ज़िद कर रहा है या फिर किसी और कारण से रो रहा है ।

एक बच्चे के इस तरह रोने से बस के सभी यात्रियोें का ध्यान उस ओर गया तो वें पीछे मुड़ मुड़कर देखने लगे । जहाँं से बच्चे की आवाज़ आ रही थी सभी की ध्यान उसी सीट पर जाकर केन्द्रीत हो गया । हालांकि ड्‌्राइवर पहले की ही तरह गुनगुनाते हुए बस खींचे जा रहा था । वह कभी एक्सीलेटर पर पैर रखता तो कभी ब्रेक पर । तभी सड़क के किनारे झोपड़ियों के झुण्ड दिखाई देने लगे । बस उनकी ओर तेजी से भागती चली जा रही थी । देखते ही देखते बस और झोपड़ियों का फासला कम होता चला गया । ऐसा लगने लगा पूंजीवाद समाजवाद के नजदीक जा रहा है । किन्तु वास्तव मेें ऐसा नहीं था। यह तो सोच का एक सिरा था जो पलक झपकते ही दूर छिटक पड़ा । सड़क किनारे गांव आ गया था, और बस तेजी से भागती उसको पीछे छोड़ती आगे निकल गई । तभी अचानक बस के ब्रेक चरमराए और वह रूक गई । बस के रूकते ही आगे सीट पर सो रहे सज्जन कसमसाकर जागे और अपने पास वाले से पूछने लगे, ‘क्यों, क्या हो गया भाई.....ये बस अचानक क्यों रूक गई ?'

जवाब कंडक्टर ने बड़ी ही बेरूखी से दिया, ‘बांगड़ आ गया है ।'

इस ठसाठस भरी बस में यहां से और पाँंच छः सवारियांँ चढ़ी । कंडक्टर ने दरवाज़ा बंद किया और बस फिर चलने लगी । मैं समझा समाजवाद का स्टेषन आया था अब बस उससे भी आगे जा रही है ।

बस में अभी अभी चढ़ी सवारियों से कंडक्टर ने किराया वसूल किया और पुनः अपनी सीट पर आकर बैठ गया । जब सवारियों ने टिकिट मांगा तो मुस्कुराते हुए बोला, ‘अभी देता हूँं ।' कंडक्टर फिर से उंघने लगा और सवारियांँ अपने लिए जगह तलाषने की जुगत लगाने में मषगूल हो गई । हालाँंकि दरवाजे के ऊपर ही लिखा था, ‘टिकिट लेना यात्री की जिम्मेदारी है, बिना टिकिट पाये जाने पर पांच सौ रूपये जुर्माना अथवा छः मास का कारावास अथवा दोनों ।' यात्री और कंडक्टर दोनों ही अपना अपना फर्ज पूरा कर चुके थे ।

बस तेजी से भागी जा रही थी, बस की गति के साथ ही बच्चे का रोना भी फिर से शुरू हो गया । जब बस रूकी थी, उस समय बच्चे ने कुछ समय के लिये रोना बंद कर चेन की सांस ली थी, किन्तु बस के चलते ही वह फिर से अपने किसी भूले हुए काम को याद कर करके रोने लगा ।

अचानक एक बुजुर्गवार खड़े होकर बोले, ‘अरे भई, इस बच्चे को चुप कराओ, रो...रो कर यह बीमार पड़ जायेगा ।'

तभी पीछे से आवाज़ आई, ‘काका, यह तो चुप होने का नाम ही ले रहा, बहलाने की सारी कोषिष नाकाम होती जा रही है । जितना समझाने की कोषिष करते हैं उतना ही बिफरता जाता है । कुछ समझ नहीं आता कैसे बहलाए ?'

अब फिर से चर्चा का विषय बदल गया, ‘वर्तमान समय में बच्चों की ज़िद और माता—पिता' चर्चा इस विषय पर केन्द्रीत हो गई । कोई माता पिता को दोष देने लगा तो कोई बच्चों में मीन—मेख निकालने लगा । भला दूध पीता बच्चा इसमें कैसे अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकता है समझ से परे है । बातें करते हुए कुछ लोगों के चेहरों पर थकान केे चिन्ह उभरने लगे । मई की इस चिलचिलाती गर्मी में ठसाठस भरी बस का ये सफर थकान भरा तो होगा ही । गर्म हवा के झोंके खिड़की के रास्ते अन्दर प्रवेष कर रहे थे और पसीने को सुखाने में मददगार साबित हो रहे थे । हालांकि गर्म हवा शरीर को झुलसा भी रही थी । पर फिर भी इस समय अच्छी लग रही थी ।

बच्चे के रूदन ने फिर से सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया । न चाहते हुए भी कनखियों से लोग पीछे की ओर देखने लगे, जहांँ से बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी । अब लोगों की आँंखों में एक अजीब तरह का सवाल पैदा होने लगा था । और जिसका जवाब किसी के भी पास नहीं था । आँंखों ही आंँखों मेें हर कोई वही सवाल पूछता और फिर निरूत्तर ही वें आँंखें वापस लौट आती । बच्चे के रोने का सिलसिला जारी था ।

तभी ड्‌्राइवर ने पीछे मुड़ते हुए कहा, ‘ये बच्चा क्यों रोए जा रहा है, चुप क्यों नहीं होता.....अरे भाई, ये बच्चा है या विपक्ष की राजनीति देष को चलाने ही नहीं दे रहा....!' तभी ड्‌ाइवर के चेहरे पर उगी खरपतवार रूपी दाढ़ी में घनापन आ गया, और आंँखों पर लगे चष्में का फ्रेम सुनहरा हो गया, सर पर बाँंधे हुए गमछे ने पगड़ी का रूप धारण कर लिया । उसकी आंँखों में एक अजीब तरह की चमक उभर आई और पूरा का पूरा चेहरा किसी विषेष आभा से दमकने लगा । मानो उसके हाथ में बस का स्टेयरिंग न होकर देष की बागडोर है । तो क्या यह बस नहीं है, एक देष है ? और हम सब सफर कर रहे है या कि यात्रा । कुछ भी समझ में नहीं आ रहा । यह सब वास्तविक भी है या कि अदृष्य में हो रहा है।

बस देवास को पीछे छोड़ चुकी है और भोपाल की ओर तेजी से भागी जा रही है । प्रदेष की राजधानी की ओर दौड़ती इस बस की तेज गति इसे अपनी मंजिल की ओर धेकले जा रही है । मंजिल और बस का फासला धीरे धीरे कम होता जा रहा है । समय और गति के बीच अजीब सी होड़ चल रही है जैसे दोनों एक दूसरे से बाजी मारने को आतुर हो । पर समय ने कब अपने से किसी को आगे निकले दिया है, जों आज निकलने देगा । ठीक तभी चरमराकर बस सड़क के किनारे रूक गई । यह एक ढाबेनुमा होटल है । कंडक्टर ने बस का दरवाज़ा खोलते हुए कहा, ‘बस यहाँं केवल पन्द्रह मीनिट के लिए रूकेगी, सब जल्दी जल्दी अपना काम निपटा लेना । ज्यादा देर नहीं रोकूगाँं....।'

ड्र्‌ाइवर और कंडक्टर दोनों होटल के अन्दर चले गये और काउन्टर के पास रखी कुर्सियों पर पसर गये । होटल के मुच्छड़ मालिक ने छोरे को जोर से आवाज़ लगाई, ‘चल छोरे जल्दी कर, और देख इधर भी ठण्डा पानी लगा जल्दी से.....!'

आठ दस साल का दुबला पतला लड़का मुच्छड़ मालिक की दहाड़ पर इधर उधर भागा फिर रहा है । पानी के दो ग्लास सामने की टेबल पर रख गया । पानी का ग्लास उठाते हुए कंडक्टर बोला, ‘कितनी गर्मी बढ़ गई है, पानी है कि आने का नाम ही नहीं ले रहा ।'

‘पिछले साल तो अच्छा पानी बरस गया था, पता नहीं इस साल क्या होगा ? मौसम का भी कोई भरोसा नहीं रोज रोज बदलता रहता है । अब तो किसी का भी कोई भरोसा नहीं रहा ।' ड्‌्राइवर पानी गटकते हुए बोला ।

अब तक उनके सामने कचौरी और मिठाई की प्लेटें सज गयीं थीं । छोरा छींके में चाय के दो ग्लास लिये चला आ रहा था, तभी कंडक्टर बोला, ‘ऐ चल चाय हटा, इस भयानक गर्मी में चाय पिलाकर मारेगा क्या ? जा पेप्सी के ठण्डे केन ले आ ।'

छोरा चाय के गिलास लेकर वापस ले जाते समय बड़बड़ाने लगा । ड्‌्राइवर ने उसे बड़बड़ाते हुए सुन लिया तो चिल्लाते हुए बोला, ‘क्या बोलता है, भेणचोद.....!'

छोरे ने पीछे मुड़कर देखा और मुस्कुराकर फिर से अपने काम में लग गया । टेबल पर पेप्सी की ठण्डी दो केन आ गई थीं ।

बस आने से पहले वीरान पड़े इस ढाबे में बस के आते ही चहल पहल शुरू हो गई । छोरा भाग भागकर लोगों से आर्डर ले रहा है । उन्हें जल्दी जल्दी सामान लाकर दे रहा है । उधर चाय वाला चाय बनाने में व्यस्त है और इधर मुच्छड़ मालिक सामान देने में और पैसे काटने में । किसी को भी एक मिनिट की फुर्सत नहीं है, ये धन्धे का समय है । शहर के बाहर के ढाबों पर ऐसा ही होता है । बस के आने जाने से ही रौनक आती और जाती है । दरअसल, इन ढाबों का पूरा का पूरा व्यापार बस यात्रियों से चलता है । इस ढाबे पर सरकारी और प्राइवेट दोनों ही तरह की बसें आकर रूकती है । यानि कि मुच्छड़ मालिक का ड्र्‌ाइवरो और कंडक्टरों से अच्छा तालमेल है । सड़क किनारे चार पाँंच खांटें बिछी पड़ी है, दुबला पतला छोरा भाग भागकर लोगों के आर्डर सर्व कर रहा है । कभी उसके हाथ में चाय का छीका है, तो कभी पोहे की प्लेटें पकड़े वह दौड़ रहा है । ,

ड्र्‌ाइवर कंडक्टर ने सामने की प्लेटें खाली कर दी, अब पेप्सी की केन खोलकर गटकने लगे । ठण्डी पेप्सी गले के नीचे उतरते ही राहत देने लगी । दोनों वहाँं से उठकर बाहर आ गये और पान की दुकान पर खड़े हो गये । दुकान पर तेज आवाज़ में रेडियो बज रहा है, ‘चले आना पान की दुकान पे साढ़े तीन बजे....।' कंडक्टर जोर से हँंसा । पान वाला छोरा पान लगाने में व्यस्त है। वें वहीं खड़े खड़े पेप्सी पीते रहे, तभी एक सवारी ने पूछा, ‘भोपाल कब पहुँचेंगे ?' ड्राइवर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बोला, ‘षाम तक...!' वह फिर से पेप्सी पीने लगा, जब खत्म हो गई तो केन नीचे फेंक दी । कंडक्टर दुकान के पीछे चला गया, ड्‌्राइवर ने पान को मुँंह में दबाया और चक्कर बीड़ी का बंडल जेब के हवाले करके बस की तरफ बढ़ गया । कंडक्टर पीछे से जल्दी ही आ गया । उसने भी पान को मुंँह में दबाया और फोरस्क्वायर का पैकेट जेब के हवाले करते हुए सीटी मार दी ।

ड्र्‌ाइवर अपनी सीट पर बैठा हार्न बजा रहा था । यात्री जल्दी जल्दी फिर से बस में चढ़ने लगे । अब फिर से ढाबा खाली हो गया, बस जैसी आई थी वैसी ही ठसाठस भर गई, तभी ड्र्‌ाइवर ने बस को आगे बढ़ा दिया । एक और स्टेषन से विदा लेकर बस अपनी मंज़िल की ओर बढ़ने लगी ।

मौलिक..... अप्रकाषित...... अप्रसारित

रमेष खत्री

संपादक नेट मेगजीन साहित्यदर्षन डाट काम

53/17,प्रतापनगर , जयपुर 302033

(उ) 9414373188

मण्उंपस. RAMESH_AIR2012@REDIFFMAIL.COM