माटी के गीत Ram Bharose Mishra द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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माटी के गीत

हरि कृष्ण 'हरि' का बुंदेली कविता संग्रह 'माटी के गीत' न केवल ग्रामीण संस्कृति की मार्मिक अभिव्यक्ति करता है, बल्कि सामाजिक सरोकारों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। इस संग्रह की 93 कविताएँ बुंदेलखंड के लोकजीवन, रीति-रिवाज, संस्कृति, आस्था और बदलते सामाजिक परिवेश की झलक प्रस्तुत करती हैं।

गाँव और संस्कृति का चित्रण

इस संग्रह की कविताओं में गाँव के प्रति कवि की आत्मीयता स्पष्ट रूप से झलकती है। कवि गाँव को एक ऐसे स्थान के रूप में देखता है, जो कभी 100% मनुष्यता का प्रतीक था, जहाँ जातिवाद और असमानता के लिए कोई स्थान नहीं था। किंतु आज वही गाँव बाहुबलियों, भ्रष्ट मुखियाओं और सामाजिक बुराइयों से ग्रसित होता जा रहा है।

'मुखिया और दाऊ' – सामाजिक विडंबना पर प्रहार

कवि की कविता 'मुखिया और दाऊ' (पृष्ठ 22) गाँव के भ्रष्ट नेताओं और बाहुबलियों को कठोर फटकार लगाती है—

> मुखिया जो न सटी, दाऊ जो न सटी।

दोऊ जने गांवों में  पारे हो पटी।।

कवि उन असामाजिक तत्वों की आलोचना करता है जो गाँव में वैमनस्य और अराजकता फैला रहे हैं। निर्धन वर्ग की बेटियाँ असुरक्षित हैं और बाहुबली उत्पात मचा रहे हैं—

> निर्धन की बहू बिटिया दिखें गैल घाट।

तुमरे गुरन्दा मचाते उत्पात।। गम्मा की घटना भोर छह  बजे घटी !!

यह कविता सामाजिक चेतना को जगाने का प्रयास करती है और गाँववासियों को एकजुट होकर अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का आह्वान करती है।

‘चलो गाँव चले' – बदलाव की पुकार

कवि गाँव के बिगड़ते हालात को देखकर उद्वेलित होता है और वास्तविक सौन्दर्य प्रकट करने , गाँव  के गुण  लोगों को बताने में मदद करने , गाँव की बदनामी मिटाने के लिए गाँव चलने का आव्हान करते हुए आगे आने को कहता है—

> चलो गांव चले ! मुखिया ने कर दव  बदनाम, चलो गांव चले।

वह बताता है कि पहले गाँव में पंचायतें ईमानदारी से चलती थीं, लेकिन अब भ्रष्टाचार और स्वार्थ ने उनकी पवित्रता को दूषित कर दिया है—

> गांव के पटेल द्वारे बड़ी सी  अथाई  । जापे  बैठ करके पंचायतें निपटाई।।

बुंदेली आभूषण और बुन्देली संस्कृति का गौरव

कवि गाँव की संस्कृति, रीति-रिवाजों और पारंपरिक आभूषणों का भी बड़ी आत्मीयता से चित्रण  करते हुए कहता है—

> मुंदरी, चुरा और पटेला, रतन चौक महीना! तरह तरह के पहरे  गोरी सोने  चांदी के गहना।।

बाला, पायल, कमर की पेटी, तोडले तुसी कजरिया। बाजूबंद और चला बुलाकर, पेज एंट्री काकरिया।। (पृष्ठ 16)

यह कविता स्पष्ट करती है कि कवि बुंदेलखंड की सांस्कृतिक धरोहर से कितना प्रेम करता है और चाहता है कि यह पहचान नष्ट न हो। भले महिलाएं इन जेवरों को न पहनें , लेकिन इनके नाम तो जानें , अगली पीडी सीखे , गर्व करे !

सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्य

कवि केवल गाँव और संस्कृति के गौरवगान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाज में व्याप्त बुराइयों की भी कड़ी आलोचना करता है। वह अपनी कविताओं में भ्रष्टाचार, अन्याय, जातिवाद और अराजकता जैसी समस्याओं पर करारा प्रहार करता है।

'माटी के गीत' बुंदेली कविता के परंपरागत ढांचे से अलग हटकर एक समकालीन चेतना से जुड़ा हुआ संग्रह है। इसमें गाँव की मिट्टी की सुगंध, उसकी संस्कृति, रीति-रिवाजों और देवस्थानों का भावनात्मक चित्रण तो है ही, साथ ही वर्तमान सामाजिक समस्याओं और विकृतियों पर भी तीखा प्रहार किया गया है। यह संग्रह न केवल बुंदेली साहित्य को समृद्ध करता है, बल्कि ग्रामीण समाज को आत्ममंथन करने के लिए भी प्रेरित करता है।

-राम भरोसे मिश्र

समीक्षक परिचय -

*एम ए हिंदी साहित्य

*निजी महाविद्यालय आलमपुर व् सेंवड़ा में प्राध्यापक उपरांत सेवा निवृत्त

*लगभग १ सौ समीक्षा लेख प्रकाशित

*सम्पर्क -११ राधा विहार स्टेडियम के पास दतिया mp 475661           MO. 9406503435