लोकतंत्र के पहरुए.. पद्मा शर्मा Ram Bharose Mishra द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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लोकतंत्र के पहरुए.. पद्मा शर्मा

ग्रामीण राजनीति की दास्तान पद्मा का उंपन्यास-लोकतंत्र के पहरुए!
रामभरोसे मिश्रा
राजनीति सामाजिक जीवन को गहरे से प्रभावित करती है। संविधान द्वारा भले ही जनजाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को संवैधानिक अधिकार दिए जाकर पद आरक्षित कर दिए गए हैं, लेकिन सामंतवाद वंचित वर्ग को उनके अधिकार प्राप्त करने में सदा से अड़चनें पैदा करता है। हालांकि आज के चतुर राजनीतिज्ञ अपने पास हर वर्ग का उम्मीदवार सुरक्षित रखते हैं, जिन्हें वक्त- जरूरत कार्ड की तरह इस्तेमाल कर लेते हैं । स्त्रियां अभी भी राजनीति के क्षेत्र में एहतियात के साथ रखे जाने वाले पात्र हैं, क्योंकि स्त्री की देह के साथ समाज में इज्जत, आबरू, अस्मत जैसे शब्द चस्पा कर के बचपन से ही उसे सामाजिक जीवन ने एक सभय प्राणी के रूप में जीने हेतु प्रशिक्षित किया है। स्त्री का आज के राजनीतिक परिदृश्य में छोटे से कस्बे से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक एक विशेष स्थान मौजूद है, अविवादित तथ्य तो यही है कि अगर सजगता से वे अपना कर्तव्य निभाएं तो लोकतंत्र में उनसे बेहतर कोई नहीं हो सकता। ऐसा दिख भी रहा है।
हिंदी में राजनीति पर बहुत कम कथा साहित्य लिखा गया है। इस कथाभूमि पर हिंदी का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास 'महाभोज' है , जिसे एक लेखिका मन्नू भंडारी ने ही रचा है। अन्य चर्चित उपन्यासों में श्रीलाल शुक्ल का 'विश्रामपुर का सन्त' मैत्रैयी पुष्पा का 'अल्मा कबूतरी' और विभूति नारायण राय का 'किस्सा लोकतंत्र' बडे जबरदस्त उपन्यास हैं। राजनैतिक स्थितियों पर तत्काल में लिखे कथा साहित्य की तलाश करने पर पाठक बियाबान ही पाता है। ऐसे बियाबान में नयी पीढ़ि की एक लेखिका ने सुचिंतित उपन्यास रचने का प्रयास किया है,यह उपन्यास है -लोकतंत्र के पहरुए!
पदमा शर्मा का यह पहला उपन्यास है जो पिछले दिनों सान्निध्य प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित होकर आया है। लेखिका के अनुसार इस उपन्यास पर उन्होंने लगभग दस वर्ष तक शोध और विशेष अध्ययन किया है। उपन्यास के मुख पृष्ठ पर लगभग एक दर्जन लेखकों, संपादकों और समीक्षकों ने अपनी संक्षिप्त टिप्पणियों में उपन्यास के मूल कथ्य और पाथेय के बारे में उत्साही टिप्पणियाँ लिखी हैं। जिनका सार यह है कि यह उपन्यास हिन्दी साहित्य के नए राजनीतिक उपन्यासों में एक विलक्षण व महत्त्वपूर्ण उपन्यास साबित होगा।
उपन्यास का शीर्षक अद्भुत है, जो कथा आरंभ करने से लेकर उपन्यास समाप्त कर देने के बाद तक पाठक के मन में गूंजता रहता है। पाठक विचार करता है कि लोकतंत्र के पहरुए की भूमिका में सुदर्शन तिवारी जैसे घाघ राजनीतिज्ञ को माना जाए या दलित-वंचित वर्ग के जगना को। इस संदर्भ में पुस्तक के आवरण पर प्रकाशित सुप्रसिध्द आलोचक डॉक्टर बजरंग बिहारी तिवारी की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं- " जब लोकतंत्र गहरे संकट में है, तब लोकतंत्र के पहरुए पढ़ना विशेष महत्व रखता है। एक तरफ विनय पाण्डेय तो दूसरी तरफ पंडित सुदर्शन तिवारी । एक पहरुआ... दूसरा संकट।" ( कव्हर पृष्ठ 4)
उपन्यास के कथानक के प्रमुख सोपान में चुनाव में मदद हेतु पंडित सुदर्शन तिवारी द्वारा अपने अलंबरदार जगना को उसके कुनबे के वोट लेने हेतु भेजना, चुनाव में दुश्मनों को खुश करके व बूथ कैपचरिंग आदि तमाम तिकड़मबाजी से चुनाव जीत जाना, अपने भांजे के चरित्र पर उंगली उठाने वाले जगना को सबक सिखाना, जगना द्वारा विपक्षियों के सहयोग से सुदर्शन को छोटी सी मात देना और अंत में सुदर्शन तिवारी का घिनौनी चाल चलना ख़ास मक़ाम है। जिनके साथ उपन्यास की कथा अनेक दिलचस्प मोड़ और आरोह-अवरोह से गुजरती है, पाठक कथा के अंत को उत्सुकता से जानना चाहता है।
पात्रों पर गौर करें तो पाते हैँ कि
इस उपन्यास का एक केंद्रीय चरित्र सुदर्शन तिवारी है, तो दूसरा केंद्रीय चरित्र जगना है। जगना जिसका व्यक्तित्व देखने में असामान्य या असाधारण नहीं है, बल्कि वह किसी भी एक स्वस्थ हट्टे-कट्टे कस्बाई व्यक्ति की तरह दीखता है। वह आदिवासी कबीले से आता है और सदा ही किसी न किसी राजनैतिज्ञ के साथ अपनी पूरी जाति, कबीले और उनके मत सम्बंधी शक्तियों यानी वोटिंग पावर के साथ जुड़ा है। जगना उस तरह के व्यक्तित्व का युवक है जो खूब महत्त्वाकांक्षी होते हैं। ताज्जुब तो यह कि उसकी महत्त्वाकांक्षा खुद को बहुत ऊंची जगह स्थापित करने की नहीं है, बल्कि अपने आका सुदर्शन तिवारी को हमेशा जिताने की हैं, सुदर्शन तिवारी को सबसे ऊंचे स्थान पर बिठाने की हैं और इसके लिए वह किसी के साथ मारपीट करने, बेइज्जत करने, यहाँ तक कि किसी की हत्या तक कर देने को उद्यत रहता है। विपक्षी पार्टियों के मतदाताओं को डराना, धमकाना और विपक्षी प्रत्याशी को अधिक वोट मिलने की संभावना वाले बूथ पर कब्जा कर लेना जगना के बाएँ हाथ का कमाल है। उपन्यास 'किस्सा लोकतंत्र' में विभूति नारायण राय ने दर्शाया है कि ऐसे युवक लंबे समय से समाज मे रहा करते हैं। फिर 'किस्सा लोकतंत्र' के ऐसे पात्रों को अपनी ताकत का बोध होता है तो वह अब तक दूसरों के लिए किए जाने वाले अपने राजनीतिक कदाचार, गुंडागर्दी और बाहुबल को अपने लिए उपयोग करने लगते हैं, ठीक ऐसा ही जगना के साथ होता है। जगना के साथ अच्छा हो या बुरा हर बार उसकी पत्नी सन्तो ही माध्यम बनती है। पहले वह सन्तो को छेड़ने के कारण सुदर्शन के भांजे दामोदर के खिलाफ खड़ा होता है और दामोदर को प्रश्रय देने के कारण वह अंततः सुदर्शन तिवारी के विरोध में ताल ठोक कर खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार कथा के आखिर में भी टिकट मिलने को लेकर जगना पत्नी सन्तो को राजधानी भेजता है और अंततः परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि वह सन्तो के साथ गलत व्यवहार करने वाले उन समस्त लोगों के खिलाफ खड़ा हो जाता है जो किसी भी दल में हो पर स्त्री मात्र के विरोधी हैं।
जगना शारीरिक रूप से हष्ट पुष्ट है, वह छल छिद्र नहीं जानता, लेकिन सुदर्शन तिवारी द्वारा दिया गया हुक्म उसके सिर माथे रहता है। सुदर्शन तिवारी एक पुराने जमींदार हैं, जिनके पास अतिरिक्त रूप में साहूकारी का धंधा भी है यानी वे लोगों को उधार रुपया भी बांटते हैं। वे पत्रकारों को भी खुश रखते हैं तो दूसरी पार्टी के असन्तुष्ट लोगों पर भी नजर रखते हैं। उन्हें पता है कि पैसा और ऊंचा खानदान किसी सीमा तक ही किसी आदमी की मदद कर पाता है। असली मदद जनतंत्र में जनप्रतिनिधि करते हैं और अगर खुद ही व्यक्ति जनप्रतिनिधि बन जाए तो कहना ही क्या! इसीलिए वे राजनीति में प्रवेश कर चुके हैं। सुदर्शन तिवारी की महत्त्वाकांक्षा इस उपन्यास के आरंभ से यही रहती है कि वे किसी न किसी तरह विधायक का चुनाव जीत जाएँ। इसके लिए वे हर तरह की गोटी बिठाते हैं। वे पुलिस वालों को भी समेटते हैं तो एक्साइज वालों को भी, जिससे समय पर वोटर को शराब पिलाई जा सके। वह चुनाव कार्यालय में भी दो चार लोगों को अपना बना कर रखना चाहते हैं, जिससे जिला निर्वाचन अधिकारी की गतिविधियाँ उन्हें पता लगती रहें ।
उपन्यास के नायक के तौर पर देखें तो तीन पात्र सामने आते हैं ... नायक के लिए विचारणीय पहला प्रमुख पात्र सुदर्शन घाघ राजनेता है, जो जरूरत पड़ने पर कट्टर ब्राम्हण होकर भी जाति-पाँति की धारणा को इग्नोर करने में माहिर है। वह भाई-भतीजावाद से ग्रसित ऐसा वास्तविक चरित्र है, जो कि भांजे के चरित्र पर आरोप लगाने वाले जगना को हर मोर्चे पर तोड़के परास्त करना चाहता है।लेकिन नायक की धारणा में सुदर्शन नहीं खप पाता। वहीं दूसरा पात्र जगना जमीन से उठकर आया एक सशक्त चरित्र है, जो अपनी वय पर प्रेम भी करता है और अभिसार भी। अपने संरक्षक के लिए जोखिम भी उठाता है तो जब आबरू पर हमला होता है तो उसी संरक्षक के सामने ताल ठोंक कर खड़ा हो जाता है। भरपूर विवरण होने के बाद भी कथा के नायक की छबि जगना की भी नही बनती। तीसरा पात्र विनय पांडेय ऐसा चरित्र है जो उपन्यास के नायक के रूप में विचार किये जाने योग्य है, क्योंकि हर अध्याय में वह स्वयं या उसका अखबार अथवा न्यूज़ वीडियो की टिप्पणी लोकतंत्र के हित में मौजूद है। उसकी पहुंच नेताओं के भीतरखाने तक है, तो ब्यूरोक्रेसी के तहखाने तक भी उसकी नजर है । वैसे तो विनय पांडेय को लोकतंत्र का पहरुआ भी कहा जा सकता है। फिर भी नायक के रूप अपेक्षित डीटेल्स, उसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी,उसका व्यक्तित्व और द्वंद्व जिस तरह आना चाहिए वह विस्तार से नहीं आ सका है।
नायक के साथ यह दिक्कत भी है कि वह केवल अपने मनोविश्लेषण और अंतर्द्वंद तो साझा कर सकता है, पर दूसरे व्यक्ति का अंतर्द्वंद और मनोविश्लेषण बहन नहीं कर पाता।
विचार विमर्श के बाद यह कहा जा सकता है कि इस उपन्यास की बड़ी विशेषता यही है कि इसमें कोई व्यक्ति नहीं बल्कि समय नायक है। समय जो सब जगह सर्वत्र मौजूद रहता है। लेखिका को यह भी भली प्रकार पता है कि अब नायक समाज में नहीं पाए जाते। लेखिका ने तकनीकी दिक्कत को भाँपते हुए बड़ी दक्षता से समय को नायक चुना है। इस कारण लेखिका ने सफलतापूर्वक पंडित सुदर्शन तिवारी की हवेली, पत्रकार विनय पांडे के आदिवासी आंदोलन, जगना की झोपड़ी और आदिवासी टोला से लेकर फार्म हाउस तक की गतिविधियों को पूरे गहरे विश्लेषण, चरित्रों के अंतर्द्वंद्व और मनोज जगत की गतिविधियों के साथ सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है।
उपन्यास का आरंभ विधायक के चुनाव की तैयारी से होता है और अंत नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव की तैयारी पर खत्म होता है।
उंपन्यास के तीन पुरुष पात्रों के अलावा सन्तो एक प्रमुख स्त्री पात्र है। ग्रामीण संतो का बचपन और किशोरावस्था गांव में बीती है जिसे युवा होते ही उसके भाई के पास शहर भेज दिया गया है।उसका वहाँ आकर भी कौतूहलपूर्ण स्वभाव है-
अमरूद,अमिया, कैंथ, जामुन, जंगल जलेबी,इमली आदि तोड़ने में वह दक्ष थी। सर्र से वह पेड़ पर चढ़ जाती औऱ वहीं बैठे-बैठे फल तोड़कर खाती।(पृष्ठ 61)
शहर में आके उसे सहृदय सखियां मिलती हैं जो उसे शहरी खेल, बातचीत और एटिकेट्स सिखाने लगती हैं। सन्तो की दो एक बार भिड़न्त होकर जगना से प्रेम होने लगता है। प्रेम को प्रकट करती कविताएँ और दोहे इस उपन्यास में एक अलग ही वातावरण तैयार करती हैं।
बाद में वही ग्रामीण संतो एक सुघड़ घरेलू स्त्री बन जाती है। संतो के बारे में जगना कहता है-
यह एक चतुर और घर चलाने वाली औरत है... यह एक गूंगी गाय है, जिसे किसी भी काम में भिड़ादो, न नहीं करती... इस जैसी पतिव्रता दुनिया भर में ढूंढे से न मिलेगी, जिसके लिए पति का आदेश सर्वोपरि है, भगवान से भी और धर्म ग्रंथों से भी बढ़कर...।(पृष्ठ 40)
दरअसल पितृ सत्ता के मनमाफ़िक दबी हुई स्त्री है सन्तो, जिसके इस उपन्यास में विकास की सम्भावनाये बहुत ज्यादा मौजूद थीं। कथा की जरूरत होने पर उपन्यास में अन्य तमाम वास्तविक लगते स्त्री और पुरुष पात्र आए हैं जिनमें करन भी प्रमुख है।
उपन्यास के आरंभ में बुर्जुआ और सामंती शक्तियों के विवरण विस्तार से आए हैं, लेकिन उपन्यास का अंत स्त्री के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार का मार्मिक विवरण देते हुए होता है।
उपन्यास की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है कि जगना जो एक पुराने सक्रिय आदिवासी का छोटा बेटा था, बचपन में ही सुदर्शन तिवारी द्वारा अपनी सेवा में ले लिया गया है, उसे भरपूर भोजन खुराक देकर एक हट्टे–कट्टे व निडर लठैत के रूप में तैयार किया गया है, सुदर्शन उसे अपना प्रतिनिधि बनाकर आदिवासी टोला के लोगों को पटाए रखने का काम भी सौंप चुका है। सुदर्शन तिवारी विधानसभा के चुनाव घोषित होते ही अपनी पार्टी से टिकट का दावा प्रस्तुत करते हैं और समानांतर रूप से चुनाव लड़ने की तैयारियाँ पहले से आरंभ कर देते हैं। वे विपक्षियों को भी साधते हैं। अपनी पार्टी के असन्तुष्ट नेताओं को भी मनाते हैं और अपनी पुरानी नीति के तहत अपनी पार्टी के आला नेताओं को सन्तुष्ट कर टिकट पा जाते हैं। चुनाव की रात उनका भांजा दामोदर नशे में चूर होकर आदिवासी टोले की एक स्त्री यानी जगना की पत्नी का हाथ पकड़ लेता है, जगना और उसका पूरा आदिवासी समाज दामोदर का विरोध करता है और हवेली पर शिकायत भी करता है, लेकिन संतान के प्रेम में अंधे सुदर्शन तिवारी को अपने नाती दामोदर की आंखों में तैर रहे लाल डोरे नहीं दीखते। वासना का पुतला बना दामोदर उन्हें असली रूप में कभी भी नजर नहीं आता। वे दामोदर की खिलाफत करने वाले अपने सदा के वफादार जगना को उसी रात हवालात में बंद करा देते हैं। हवालात का दरवाजा लंबे समय तक नहीं खुलता, तब विपक्षी नेता जगना से समझौता कर उसकी जमानत करा लेते हैं। अब जगना का साहस,उसकी अदम्य निडरता और तिकड़मबाजी का लाभ विपक्षी पार्टी लेने लगती हैं। जगना दूर-दूर तक के गाँव में दौरे करता है और क्षेत्र के छोटे-छोटे मुद्दों को भांप कर सुदर्शन के विपक्षी पार्टी के उम्मीदवार नरेश को उन जगहों पर साथ लेकर पहुँचता है ताकि मतदाताओं को रिझा सके। पंचायत चुनाव में दामोदर भी खड़ा किया जाता है, लेकिन जगना की तिकड़म से दामोदर बुरी तरह परास्त होता है। जगना का हौसला आसमान से टकराने लगता है, जबकि पंडित सुदर्शन तिवारी फुफकारने लगता है। नगर पालिका चुनाव की आहट लग चुकी है और जगना के हवालात में रहते उससे विपक्षियों द्वारा किए गए समझौते के मुताबिक जगना को चेयरमैन का टिकट देने का प्रस्ताव भेजा जाता है। आरक्षण के चलते कस्बे के चेयरमैन का पद स्त्री के लिए सुरक्षित होता है तो जगना अपनी पत्नी का नाम प्रस्तावित करता है। टिकट लेते समय पार्टी शर्त रखती है कि चुनाव लड़ने के खर्च के वास्ते पहले अपने पास कम से कम दो लाख की राशि दिखाओ, जिससे आपके नाम पे विचार कर सकें! जगना पैसे इकट्ठे करने में लग जाता है और अपनी पत्नी को पार्टी के दो सदस्यों के साथ टिकट लेने राजधानी भेज देता है । पत्नी के लौटने की कथा उपन्यास का क्लाइमैक्स है।

इस मूल कथा के समानांतर विनय पांडेय की कथा चलती है, जो आदिवासियों को उनके हक-हकूक के लिए विस्तार से बताता है और उनका एक आंदोलन अपने दम पर खड़ा कर देता है। बाद में उसे इस आंदोलन का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है, उसकी बुरी तरह पिटाई की जाती है, लेकिन वह अपना मार्ग नहीं छोड़ता। मार्ग यानी लोकतंत्र के पहरुए के रूप में अपनी टिप्पणियाँ देना। पूरे उपन्यास में , हर अध्याय में विनय पांडेय की टिप्पणियाँ पढ़ने में बड़ी मजेदार हैं- 'विनय पांडे का बिगुल' और ' विनय उवाच' के माध्यम से विनय अपनी बातें पाठकों तक पहुँचाता है। 'बिगुल' एक साप्ताहिक अखबार है जबकि 'विनय उवाच ' सोशल मीडिया पर अपलोड किए जाने वाले वीडियो स्ट्रिप की शक्ल के छोटे-छोटे समाचार हैं जिनके साथ विनय पाण्डेय की नीर क्षीर विवेकी टिप्पणी भी रहती हैं । उपन्यास का एक आकर्षण विनय पांडेय की यह अखबारी चुटकी औऱ मजेदार वीडियो भी है।

इस उपन्यास को पढ़ने के लिए कई आकर्षण लेखिका ने जुटाए हैं। आदिवासियों की उत्पत्ति की मिथकथाएँ, आदिवासियों के गोत्र से जुड़ी लोक कथाएँ, इस कथा में मूल कथा से जुड़ती हुई ऐसी रोचक प्रस्तुतियाँ हैं जिनको पढ़कर पाठक अपने ज्ञान में वृद्धि ही करता है।
इस तरह लेखिका ने अपनी मूल कथा के इर्द-गिर्द तमाम सामाजिक परिस्थितियां, विभिन्न दंत कथाएँ, निर्वाचन से जुड़ी प्रक्रिया और प्रशासनिक अमले की कार्यवाहियों तथा झूठी शिकायतों और पड़ताल को बड़े कलात्मक अंदाज में प्रस्तुत किया है। उपन्यास पढ़ चुकने के बाद लेखक को लगता है कि वह जगना के साथ चलते हुए एक राजनेता के अंतःपुर से होता हुआ , जिला निर्वाचन कार्यालय की भीतर की बातचीत और मीटिंग को सुनते हुए अंततः सुदूर गाँव में चल रहे मतदान और वहाँ सेंध लगाते राजनीतिज्ञों के प्रतिनिधियों की दास्तान अपने कानों सुनता है।
वातावरण निर्माण की दृष्टि से हम इस उपन्यास को बड़ा सफल कह सकते हैं। चुनाव कराने की तैयारी के कलेक्ट्रेट के दृश्य, जगना के कुनबे का नाच-गान, सुदर्शन की चुनाव तैयारी और जगना के बदले रूप की सक्रियता आदि का लेखिका साक्षात वातावरण खड़ा करती है। लेखिका जगना और संतों के आंतरिक क्षणों का भी बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुतीकरण करती है, इस तरह मनुष्य जीवन के हर पक्ष को लेकर इस उपन्यास में बड़ी सावधानी से दृश्य देखने को मिलते हैं। जिनमें हमारे देश और वर्तमान काल का चित्रण आता है । वहीं आधुनिक सोशल मीडिया फेसबुक, वॉट्स एप , इंस्टाग्राम और यूट्यूब का भरपूर प्रयोग दर्शाया है। (पृष्ठ 43)
जगना के कुनबे के गांव की चौपाल का दृश्य बहुत सघनता से प्रस्तुत किया गया है-
चौपाल क्या थी, छोटी-सी चलती-फिरती हाट थी। पूरे हिंदुस्तान के दर्शन करना हो, तो हिल स्टेशन की माल रोड चले जाइये और ग्राम्य सभ्यता के दर्शन करना हो, तो गांव की चौपाल पर चले जाइये। एक वृद्ध खाट बुनने वाली मूँज को गूँथ रहा था।एक बुजुर्ग रस्सी को बंट रहा था।एक बूढ़ा वहीं बैठा सूत काट रहा है।दूसरी तरफ एक नौजवान कान पर रेडियो लगा कर युग वाणी कार्यक्रम सुन रहा है। थोड़ी दूर पर एक नवयुवक मोबाइल पर गेम खेल रहा है। चौपाल से थोड़ी दूर पर बच्चे जाने कौन सी बोली में गाना गाकर खेल खेल रहे थे।(पृष्ठ 28)
उपन्यास के संवाद न केवल चरित्र की कथा को गति देने वाले हैं, वे राजनीति की भीतरी कलई भी खोलते हैं।
करन कुनबे के लोगों के गोत्र व उत्पत्ति के किस्से व किंवदंतियाँ सुनाता है, तो लगता है हमारे सामने कोई विद्वान अकादमिक चर्चा कर रहा है।
"गोत्र मतलब किली होता है। जैसे संस्कृत में 'कुलश' होता है वैसे ही अपने यहाँ किली होता है।"
किसी ने पूछा, "किली माने क्या होता है?"
वह किसी दार्शनिक की तरह बोला, " किली माने घराना।अपने यहां इसकी उतपत्ति किसी प्राकृतिक पदार्थ से मानी जाती है,जैसे कोई जानवर,पक्षी,जलचर,थलचर और पौधे... आदि पदार्थ से।"
( पृष्ठ 78 ) करन अपने अदिवासी टोले के लोगों के बीच महादेव जी से जुड़ी कथाएं(उन्हें बड़ा देव मानना, उन्हें अपना दामाद मानना),सूरज चन्दा आदि प्राकृतिक देवताओं से जुड़ने की कथाएँ, अदिवासी प्रेम लोक कथाएँ (जिनमें से एक में प्रेमिका एक कुण्ड का जल पी लेने से बाघिन बन जाती है) भी सुनाता है।(पृष्ठ 85-86)
उपन्यास की भाषा हिन्दी की मानक खड़ी बोली है, लेकिन पात्रों और जन सामान्य के संवाद बुंदेली, बृज प्रभावित चम्बल अंचल की भदावरी व आदिवासी बोलियों के मिले-जुले रूप हैं , हालाकि किसी एक भाषा के न होने से हम इस उपन्यास की भौगोलिकता व स्थानीयता नहीं खोज पाते हैं । जब जगना का प्रेमप्रसंग परवान चढ़ता है, तो उपन्यास के उस अध्याय में भाषा भी प्रेमासिक्त हो उठती है । भाषा के लिहाज़ से लेखिका का काम उम्दा है। लेखिका ने लोक में प्रचलित कहावतें, लोकगीत, खबरों के शीर्षक सहित बदलती कहावतें, भजन आदि का भी प्रयोग किया है। इन दिनों टेलीविजन पर प्रवचन सुनकर गाँव में आधुनिक भजन भी गाये जाने लगे हैं । जगना जब गाँव पहुचता है तो मित्रों के अनुरोध पर अपना प्रिय भजन सुनाता है -
जगत में कोई न परमानेंट...
जगत में कोई न परमानेंट।
तेल चमेली चंदन साबुन चाहे लगा लो सेंट।
आवागमन लगा दुनिया में जगत है रेस्टोरेंट। (पृष्ठ 31)
कथा के बीच में सूत्रनुमा वाक्य भी लेखिका ने खूब प्रयोग किये हैं-
सब्र की सवारी पर सवार व्यक्ति कभी नहीं गिरता...न किसी के कदमों में और ना ही किसी की नजरों में। (पृष्ठ 32)
हर किसी पर यकीन नहीं करते क्योंकि नमक और चीनी का रंग एक जैसा होता है । (पृष्ठ 46)
' इंसान जब चिन्तामुक्त रहता है तब उसके मन में प्यार की ग्रन्थि पलती है।'(पृष्ठ 57)
लेखिका ने स्थान-स्थान पर लोकसँस्कृति , लोकगीत व कहावतें, मुहावरों आदि का सहज भाव से प्रयोग किया है ,जो इस उपन्यास को प्रभावशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाते हैं।
भगोरिया में मांदल की आवाज पर नृत्य करते एक झुण्ड के लोग गाते हैं-
अमु काका बाबा नु पोरिया रे
अमु डला डम
तो दूसरे झुण्ड वाले अपना अलग गीत गाते हैं-
बाते की भात मेहंदी बुई भीनी उठी रे गुलाल।
जो मेला बुहने गाँव आया रायसल राजा।।

'जा धरती पर कौन हमाये नरा गड़े हैं।' 'पण्डित जी दूर की कौड़ी थे' (पृष्ठ 16)धरउल, साक्छात हरि औतार (पृष्ठ 41)
' पूरी तरह से जी जान लगा देंगे।' (पृष्ठ 45) 'दिल में एक फांस चुभी हुई थी।'(पृष्ठ 119) ' सौ गुनहगार छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा न मिले.'( पृष्ठ 146)
इसके अलावा स्थानीय बोली व भाषा के टुकड़े भी कई जगह अपनी दमक छोड़ते हैं-
पपड़ीला तिलक और अल्बट्टे लेती चिंताएं; उनकी अंटी से कभी पूरे दाम नहीं निकलते; खदक कर; पर्चा,चर्चा और खर्चा ही चुनाव का आधार है( पृष्ठ 47)
समय काटने के लिए उपन्यास की कथाभूमि के पुराने लोग पहेली नुमा 'ओठपाय' नामक अजनबी सी स्थानीय सूक्तियों का वाचन करने में निपुण हैं-
ताल सरोवर जाई के
कूदि कूदि रहो नहाय।
जल तैरन जाने नहीं
बेई मरिबे के ओठपाय
* *
एक पाय बिल्कुल नहीं
दूजो चोट गयो खाय
भाज्यो डोले भीत पै
बेई मरिबे के ओठपाय (पृष्ठ 39)
विनय पाण्डेय खबरी दुर्घटना सम्वाददाता भर नही है, वह सही अर्थ में पत्रकार है जो उत्कृष्ट साहित्यिक भाषा जानता है।वह अखबार की खबरों के रोचक शीर्षक देता है-
घोड़े की बला तबेले के सिर ;
सौतेले बेटों के बाद सगे बेटों से गुफ्तगू ;(पृष्ठ 51)
विभीषण और जयचंद होने के फायदे(पृष्ठ 87)
जुल्मी अंग्रेज की तरह हैं एसएसटी के नाके (पृष्ठ 88)
इसी प्रकार सुदर्शन के चुनाव जीत जाने के बाद जगना को दूर फेंक देने की नीति पर जारी ऑडियो वीडियो क्लिप में विनय पाण्डेय की प्रतीकात्मक भाषा देखिए -राजा वही रहते हैं बस पालकी के कहार बदल जाते हैं। राजा सदा पालकी में चलते हैं लेकिन उनके कहार बदलते रहते हैं।जिले के एक कद्दावर नेता ने हाल में अपना विश्वस्त कहार बदल लिया है।
( पृष्ठ 100)
मूल रचना जब लोक में जाती है तो बदल जाती है, इसी धारणा के तहत इस उपन्यास में लेखिका ने कविताओं के अंश अपनी सुविधा से बदल कर लिखे हैं। जैसे प्रेम करती संतो को उसकी सखी एक दोहा ला के देती है, जो डॉक्टर के. बी. एल. पांडेय दतिया का दोहा है-मैंने तुमको नयन भर देखा जितनी बार। मेरे मन पंचाग में बस उतने त्यौहार।।( पृष्ठ 71)

इस उपन्यास की कथा पढ़ने पर
पाठक कस्बों गांवों में चलने वाली व्यक्ति केन्द्रित राजनीति और उसमें स्त्री राजनीतिज्ञों की वास्तविक दशा जानकर हतप्रभ रह जाता है।

उपन्यास के संवाद बहुत छोटे हैं, जो क्षिप्र हैं और कथा को गति देने वाले हैं। अनेक संवाद तो पूरा दृश्य ही साकार कर देते हैं।
'किसानों को सिंचाई के लिए पानी देने का टाइम टेबिल अधूरा बना हुआ छोड़ आया हूँ।'
सेल्स टैक्स विभाग के असिस्टेंट कमिश्नर ने भी अपने काम की महत्ता प्रदर्शित की"हम लोग तो एक व्यापारी के यहां छापा डाल कर बैठे थे कि कलेक्टर साहब का इलेक्शन अर्जेन्ट वाला संदेश मिला तो अपने मातहत लोगों को इस निर्देश के साथ छोड़ आया हूँ कि व्यापारी से कम से कम पाँच लाख रुपये ऑनलाइन टैक्स जमा कराके और चालान की कॉपी बनाने के बाद ही बिजनेस प्लेस छोड़ें।'(पृष्ठ 48)
कल्पित घटनाओं के बहाने सिद्धांत व व्यवहार में फर्क यानी
वर्तमान काल की राजनीति की काली कोठरी का भीतरी सच प्रकट करता यह उपन्यास यद्यपि किसी भी निर्वाचन क्षेत्र के किसी नेता पर केंद्रित नहीं हैं, लेकिन उपन्यास पढ़ते समय लगातार एहसास होता है कि यह सभी चरित्र तो हमने देखे हैं या हमारे संपर्क में आए हैं। यह लेखिका के रचनाकार की दक्षता है, रचने की दक्षता है, सृजन का हुनर है जो उन्होंने अपने परिश्रम से अर्जित किया है।

उपन्यास की प्रच्छन्न उपलब्धि कस्बाई व ग्रामीण राजनीति का कच्चा चिट्ठा खोलना भी है। शीर्षक ही सवाल खड़े करता है कि लोकतंत्र के पहरुए कौन हैं! अपने आप को लोकतंत्र के पहरुए बताते जनप्रतिनिधि कैसे चुने जाते हैं? वे
किंन टोटकों को अपनाते हैं? और उनके अंतःपुर में कैसी साजिशें रची जाती हैं? उपन्यास उन सबका विवरण चश्मदीद गवाह की तरह करता है।

विचित्र बात है कि चुनाव की सरकारी प्रक्रिया, राजनीतिज्ञों की तैयारियाँ और आदिवासी संस्कृति का विवरण अलग-अलग विषय हैं, फिर भी लेखिका ने अपने मूल कथानक से जोड़कर उन्हें इस तरह प्रस्तुत किया है कि कोई भी हिस्सा अनावश्यक या बोझल नहीं लगता। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद हमको राजनीतिज्ञों की वास्तविकता का एक और पक्ष दिखता है। सरकारी मशीनरी के उन चुनावी काम काजों का पता लगता है, जो आम आदमी की नजरों से ओझल रहते हैं, लेकिन जिनमें वे अपना जी जान झोंक देते हैं।

आदिवासी युवकों, कार्यकर्ताओं और राजनीति के अलंबरदारों की स्थिति का वास्तविक चित्रण इस उपन्यास में अनेक स्थान पर होता है। लेखिका ने कुछ विवरण लोककथा की तरह लिखे हैं, कुछ अखबारी कथनों की तरह, तो कुछ दृश्य केवल संवादों से ही निरूपित कर दिए हैं। विविध शैलियों में लिखे गए इस उपन्यास के मार्फत हिन्दी साहित्य में उपन्यासकार के रूप में शामिल हुई पद्मा शर्मा और उनका यह उपन्यास 'लोकतंत्र के पहरुए' भारतीय लोकतंत्र और भारतीय राजनीति के इतिहास में बड़ा नाम करेगा ऐसा प्रतीत होता है।

पदमा शर्मा अपने उपन्यासों में कथा साहित्य में समाज के अंतिम जन की पीड़ा का बखान करने और स्त्रियों की वास्तविक दशा को प्रकट करने के लिए ख्यात हैं। उनकी कविताएँ भी स्त्रियों की वास्तविकता खासकर प्रशासनिक और राजनीतिक हलकों में सक्रिय स्त्रियों की यथार्थता बेहिचक प्रस्तुत करती हैं।

पदमा शर्मा का उपन्यास 'लोकतंत्र के पहरुए' विभिन्न पत्रिकाओं में उपन्यास अंश के रूप में प्रकाशित हुआ है तो कुछ व्हाट्सएप ग्रुप्स पर भी उसकी कुछ किश्तें पढ़ने को मिली हैं। इस कारण उपन्यास के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न हुआ था अतएव उपन्यास हाथ में आते ही पढ़ना शुरू किया तो भारतीय किस्सागोई परंपरा की आधुनिक शक्ल सामने आती है। पाठक एक किस्सा आरंभ करता है तो उसमें से दूसरा निकलता है और दूसरे में से तीसरा। इस तरह विभिन्न तरह के किस्से कहानियों, दृश्य, संवाद व विवरणों से होता हुआ पाठक जब उपन्यास के अंत की घटना तक पहुँचता है तो कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह जाता है।

यह उपन्यास गांवों कस्बों में आदिवासी व्यक्ति को राजनीति में आगे करके अपनी रोटी सेंकने वालों के वास्तविक सामन्ती चेहरे प्रकट करता है। अखबार भले ही प्रशंसा में रंग दिए जाएँ लेकिनसत्य यही है कि ग्रामीण राजनीतिज्ञ कभी भी किसी अर्ध साक्षर आदिवासी युवक अथवा किसी स्त्री को किसी महत्त्वपूर्ण पद पर बैठे हुए देखना सहज रूप से स्वीकार नहीं करते। वे उसके मार्ग में कांटे बोते हैं। वे उसे इस तरह तंग और प्रताड़ित करते हैं कि वह वर्षों से सत्ता पर काबिज इन लोगों की हाथ की कठपुतली बनी रहें या वह अपने ऐन्द्रिक बल प्रयोग के द्वारा स्त्री को मानसिक रूप से एहसास दिला देते है कि वह आखिर मादा है। इन सच्चाईयों को पदमा शर्मा ने बहुत सहज तरीके से इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है।
इस उपन्यास में आदिवासी युवक जगना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह सुदर्शन तिवारी का प्रतिनिधि है, उनका खास आदमी हैं, जो चुनाव के अलावा सामान्य दिनों में भी उनके इशारे पर काम करता है, औऱ सच यह है कि किसी कठपुतली को कभी भी मनमर्जी करने की इजाजत नहीं है। उसे तो यह भी एहसास दिलाया जाता है कि उसकी या उसके परिवार की स्त्रियों की अस्मत का कोई महत्त्व नहीं है। मन में जागृति आते ही या कहें उसमें अपनी अस्मिता का बोध होते ही जगना को हवालात भेज दिया जाता है। यद्यपि संगठनबद्ध सामुहिक विरोध प्रकट होने के कारण जगना के साथ थाने में अत्याचार नहीं होता, पर वह जेल से बाहर भी नहीं आ पाता। जेल से बाहर निकला हुआ जगना एक अलग व्यक्तित्व के रूप में समाज और राजनीति में सक्रिय होता है। विपक्षी दल उसे हाथों हाथ लेते हैं और उसे टिकट देने का वादा भी किया जाता है।

टिकट वितरण, नामांकन, वोटिंग, बूथ कैपचरिंग के साथ-साथ चुनाव कराने की सरकारी मशीनरी की गतिविधियों को प्रकट करता पदमा शर्मा का यह उपन्यास एक नए राजनीतिक उपन्यास के रूप में पाठकों के समक्ष आया है। उपन्यास पढ़ते समय पाठक को कभी नहीं लगता कि पदमा शर्मा नई बातें बता रही हैं, लेकिन अखबारों, टेलीविजन चैनलों और समाचार पत्रिकाओं में यदा-कदा पढ़ने को मिलते विवरण के भीतर की मानसिकता मार्मिक अनुभूति और सच्चाईयों को एक किस्से के रूप में पाकर पाठक जाने हुए को ठीक से जानने की प्रक्रिया से गुजरता है। आदिवासियों और स्त्रियों कि ग्रामीण राजनीति में हालत, उसकी वास्तविक अहमियत, उसके वास्तविक मकाम, राजनीति में सत्ता प्राप्ति के बदले दिए जाने वाले बलिदान और सहन किए जाने वाले अत्याचार व शोषण को उपन्यास में महीन तरीके से गूंथा गया है।

यह उपन्यास कभी मन्नू भंडारी के महाभोज की याद दिलाता है, कभी मैत्रेई पुष्पा के उपन्यास अल्मा कबूतरी, तो कभी विभूति नारायण राय के 'किस्सा लोकतंत्र' का आगे का सीक्वल बनता हुआ दिखाई देता है।
इस उपन्यास में पत्रकार की कलम, उसका महत्त्व और संभावनाएँ तथा समाज में उसके आव्हान पर होने वाले आंदोलन या जनमानस के निर्णय को भी गहराई से बताया गया है, लेकिन जिस अंदाज में आदिवासी संस्कृति की कथाएँ आती हैं वह भी सराहनीय हैं।
कुछ स्थानों पर लेखिका ने बहुत विस्तृत दृश्य और संवाद लिख दिए हैं , जिनमें अनेक बार पाठक बोर होने लगता है । करन द्वारा आदिवासियों के उत्पत्ति गोत्र और प्रथाओं के बारे में दिए गए लम्बे विवरण तथा कलेक्टर द्वारा कलेक्ट्रेट में चुनावी तैयारी के लिए दिए गए विस्तृत निर्देश और उनके पालन के दृश्य आदि कुछ प्रसङ्ग ऐसे हैं । हालांकि एक-दो जगह पाठक यथार्थ पढ़ते समय ठिठक जाता है, जैसे करन का पीएससी पास करके एसडीएम नियुक्त होने का उल्लेख , क्योंकि वास्तविकता यह है कि मध्यप्रदेश में पीएससी केवल डिप्टी कलेक्टर के पद की परीक्षा लेती है, शासन भी उम्मीदवार को डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्ति देती है और किसी सब डिवीजन का मैजिस्ट्रेट यानी एस डी एम का प्रभार देना जिले के कलेक्टर के हाथ में होता है, जो अस्थाई दायित्व है ।
इस कथा का चरित्र सुदर्शन तिवारी चुनाव नामांकन में अपने नाम के आगे भैया जोड़कर भैया सुदर्शन तिवारी नामांकन फार्म के नाम से जमा करता है।वैधानिक वास्तविकता यह है कि कोई भी प्रत्याशी अपना नाम नामांकन भरते समय केवल वही नाम दर्ज कर सकता है जो कि मतदाता सूची में अंकित है , अन्यथा उसका नामांकन फार्म निरस्त कर दिया जाता है।
वैसे उपन्यास के विस्तृत अध्ययन और विश्लेषण के बाद कुछ तथ्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं जिनका उल्लेख महत्वपूर्ण है । उपन्यास चुनाव से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह पाठक के सामने आता है, जिसमें चुनाव प्रक्रिया का प्रभाव, गांव में मतदान कराने हेतु पहुंचे मतदान दल की दुर्गति, गांव-गांव में बने अव्यवस्थित आंगनवाड़ी केंद्र, मीडिया के निशाने पर आए नौकरशाह-प्रशासन तंत्र तथा छोटे-छोटे गांवों में सताए जा रहे अध्यापक जैसे कर्मचारियों आदि से संबंधित दास्तानें पूरे अनुसंधान और सुचिंतित दृश्य एवं संवादों के साथ प्रभावशाली ढंग से इस उपन्यास में प्रस्तुत की गई हैं ।
यद्यपि उपन्यास का अचानक और अप्रत्याशित हो जाने वाला अंत पाठक को चौंकाता है और राजनीति में स्त्रियों की अवस्था पर सवाल भी उठाता है तथापि पदमा शर्मा का यह उपन्यास राजनीति, नौकरशाही व पत्रकारिता के बारे में गहरे विमर्श खड़े करता है, अतएव यह हिंदी साहित्य में निश्चित ही एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा।

संक्षेप में यह भी कह सकते हैं पदमा शर्मा का यह उपन्यास भारतीय राजनीति में नवागंतुक आदिवासी युवकों और स्त्रियों के संघर्ष, त्याग और शोषण की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करता है। आशा है यह उपन्यास आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा।

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पुस्तक- लोकतंत्र के पहरुए
(उपन्यास)
लेखिका-पदमा शर्मा
प्रकाशक-सान्निध्य बुक्स दिल्ली
पृष्ठ-180 सजिल्द मूल्य350₹

समीक्षक-
रामभरोसे मिश्रा
11, राधा विहार, स्टेडियम के पीछे, उनाव रोड,दतिया 475661

Mo 9406503435