आखेट महल - 18 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 18

अठारह

 

गौरांबर ने देखा, प्लेटफॉर्म पर एक बेंच के पास छोटे-छोटे दो बक्से लिए और एक औरत चुपचाप बैठी है। औरत में जरूर कुछ-न-कुछ ऐसा था कि गौरांबर को एक बार देखकर फिर दोबारा उधर देखना पड़ा। औरत ने अपनी साड़ी का पल्ला सिर पर काफी खींचकर ले रखा था और साड़ी की बारीक किनारी कानों के ऊपर से लपेट कर दूसरे हाथ में ले रखी थी। गौरांबर को अजीब-सा लगा। इस समय न तो ऐसी ठंड थी जिसके कारण वह सिर को इस तरह से लपेटे और न ही वह इतनी प्रौढ़ा या वृद्ध थी कि पुराने तरीके से साड़ी पहनने की बात लगी। इस बात ने गौरांबर की नजरें उस पर गड़ा दीं। औरत वास्तव में बड़ी सुन्दर-सी थी। और सच मायनों में वह औरत नहीं बल्कि कोई लड़की ही लग रही थी, जिसने साड़ी पहनकर जबरन अपनी उम्र को अधिक बना रखा हो।

प्लेटफॉर्म पर लगे पोस्टरों और बोर्डों को पढ़ता-पढ़ता गौरांबर कनखियों से उसकी ओर देखता हुआ बिलकुल उसके समीप चला आया। आसपास कोई न था। दूर काफी फासले पर इक्का-दुक्के लोग बैठे थे तथा एकाध खोमचे वाले आ जा रहे थे। गौरांबर को इस तरह अकेली लड़की देखकर रोमांच-सा हो आया। लड़की रह-रह कर उचटती-सी निगाह गौरांबर पर डाल लेती थी। किन्तु लड़की बिलकुल भी डरी-सहमी नहीं थी। एक-दो बार गौरांबर की आँखें भी लड़की की आँखों से मिल गयीं। गौरांबर के तन में झुरझुरी सी दौड़ गयी। लड़की की आँखों में भय का कोई चिन्ह न देखकर गौरांबर का हौसला बढ़ा। वह दीवार की सूचनाओं व आरक्षण बोर्डों आदि को पढ़ता हुआ लड़की के करीब आ बैठा। लड़की अपने साथ के छोटे बक्स पर बैठी थी, जो खाली पड़ी बेंच के बिलकुल पास था। गौरांबर बेंच पर आ बैठा। वह अब भी कनखियों से लड़की की ओर देख लेता था। लड़की ने हल्की-सी आहट पर अपना सिर दूसरी ओर घुमाया परन्तु फिर उसी तरह बैठ गयी। लड़की कभी अपने सामान की ओर देखती थी और कभी बेचैनी से प्लेटफार्म के दूसरे सिरे की ओर देखती थी, मानो उसे किसी के आने का इंतजार हो या कोई उसके साथ हो।

गौरांबर खड़ा हो गया और उसके समीप से गुजरता हुआ हल्के से बुदबुदा कर बोला, ''गाड़ी आने में कितनी देर है?''

गौरांबर को किसी गाड़ी के बारे में नहीं मालूम था। उसने तो अनुमान से ऐसे ही सवाल कर दिया था। ''तीन बजे आयेगी'' लड़की ने कहा।

गौरांबर लड़की को बोलता देखकर फिर से चलता-चलता रुक गया। उसने सामने रेलवे स्टेशन की बड़ी-सी घड़ी की ओर देखा, जिसमें पौने दो बजे थे। लड़की को सहज होकर बोलते देख गौरांबर का हौसला कुछ और बढ़ गया। लड़की काफी सुन्दर थी। गौरांबर ने धीरे से कहा—''काफी जल्दी आ गयीं आप।''

अब लड़की चौंक कर गौरांबर की ओर देखने लगी। उसके चेहरे पर भय के-से चिन्ह भी उभर आये। वह कुछ बोली नहीं। गौरांबर तुरन्त अपने  आप में लौटा। वह बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया। वैसे भी दूर से तीन-चार आदमियों का एक परिवार-सा जिसमें बच्चे भी थे, उसे उसी तरफ आता दिखा। एक भरपूर नजर लड़की पर डालकर वह आगे बढ़ गया।

गौरांबर सुबह खाना खाकर ही घर से निकला था, फिर भी उसे हल्की भूख लग आयी। वह स्टेशन के दरवाजे से निकलकर बाहर सड़क पर आया और सामने बने चाय के होटलों में से एक की ओर बढ़ने लगा। 

गौरांबर ने होटल के भीतर बैठकर एक प्लेट कचौरी का आर्डर दिया और इत्मीनान से मेज पर पड़ा अखबार उठाकर देखने लगा। होटल में भीड़-भाड़ नहीं थी। दोपहर का समय होने से तेज धूप और आलस-उनींदेपन का एक आलम चारों ओर फैला था।

गौरांबर चाय पी रहा था कि उसका ध्यान होटल के काउंटर पर गया, जहाँ एक लड़का अभी-अभी आकर खड़ा हुआ था। लड़का होटल वाले से दस रुपये का छुट्टा माँग रहा था। होटल वाला रेजगारी व चिल्लर नोटों की दराज में झाँक कर देखने लगा और लड़के ने दस का कड़क नोट हाथ में लिए-लिए होटल में बैठे लोगों पर उड़ती-सी निगाह डाली। लड़के की निगाह एकदम से गौरांबर पर आकर ठिठक गई। लड़का लगभग चौंकने के ही अंदाज में उधर देखने लगा, जहाँ गौरांबर बैठा आराम से चाय पी रहा था। लड़के ने धूप का चश्मा आँखों पर लगा रखा था। वह नोट और रेजगारी की बात एकदम से भुलाकर तेजी से लपक कर गौरांबर की ओर बढ़ा, और लगभग गिरता-सा ही उसके सामने पड़ा।

गौरांबर झटके से खड़ा हो गया। उसे भी करंट-सा लगा। उसके हाथ के कप से चाय छलक कर रह गयी। वह एकाएक सोच भी नहीं सका कि क्या हुआ। उसका बचपन का दोस्त, जो उसके गाँव में था, उसके सामने खड़ा था। 

उसने चश्मा उतार कर जेब में रखा और लगभग झिंझोड़ डालने की मुद्रा में ही गौरांबर को कन्धे से पकड़कर गले से चिपटा लिया। दोनों के ही आश्चर्य का पारावार न रहा। वे सोच भी नहीं सकते थे कि इतने समय बाद इस अनजान शहर में वे एक-दूसरे को इस तरह मिलेंगे। गौरांबर ने जल्दी से एक और चाय लाने के लिए कहा और उसके सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। दोनों ही एक-दूसरे से लगातार प्रश्नों की बौछार करते हुए ज्यादा-से-ज्यादा जानने को उत्सुक थे। यहाँ कैसे आ गया, कब आ गया, कहाँ रह रहा है, से लेकर साथ में और कौन-कौन है, तक।

लेकिन गौरांबर के उत्साह को उस समय एकाएक झटका-सा लगा जब उसके दोस्त नील ने उसे बताया कि उसने गौरांबर के बारे में अखबार में पढ़ा भी था और उसका फोटो भी देखा था। गौरांबर मासूमियत से सिर झुकाकर बैठ गया। वह जल्दी-जल्दी उसे सच बताने लगा कि किस तरह वह खबर पढ़ते ही उसने गौरांबर को ढूँढ़ना चाहा था। किन्तु वह आ न सका। गौरांबर मन-ही-मन अनुमान लगाने लगा कि उसके दोस्त को उसके दोस्त को उसके बारे में क्या और कितना मालूम पड़ा है।

''तू फिर पुलिस के लॉकअप से कहाँ चला गया था..'' का जवाब गौरांबर कुछ नहीं दे सका। न ही उससे उसकी कुछ पूछने की हिम्मत ही हुई। वह यह सब भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया कि इस शहर में उसका मित्र कहाँ था और क्या कर रहा था। वह यह जानकर एक अपराध बोध से ग्रसित हो गया कि उसका दोस्त उसके बारे में सब जान चुका है। 

गौरांबर की बढ़ी हुई दाढ़ी के लिए भी पूछा नील ने। पर वह कोई माकूल जवाब न दे पाया। दोस्त ने भी अपने आप अन्दाजा लगा लिया, जो उचित समझा।

पन्द्रह-बीस मिनट तक दोनों तेज गति से बातें करते रहे, फिर नील ने प्रश्नवाचक मुद्रा में उसे देखा। वह जानना चाहता था कि गौरांबर कहाँ रहता है। क्या करता है। उसने घड़ी पर निगाह डालते हुए हाथ पकड़कर गौरांबर को उठाया और दोनों होटल के काउंटर की ओर बढ़ चले।

नील ने उसे बताया कि वह आज ही वापस गाँव जा रहा है, और अभी तीन बजे उसकी गाड़ी है। दोनों साथ-साथ बाहर निकले और गौरांबर के इस बालसखा ने देखा, गौरांबर सड़क पर बाहर निकलते ही फूट-फूट कर रो पड़ा। महीनों का संचित क्लेश आज भाई जैसे दोस्त का कन्धा सामने देखकर जैसे झरना बन गया। नील ने उसे कन्धे से लगाकर उसके बालों में हाथ फेरा और सांत्वना देते हुए बोला—''चल, तू भी मेरे साथ चल। हम वापस घर चलेंगे।''

''पर अभी, इसी वक्त..''

''हाँ इसी वक्त.. तीन बजे की गाड़ी से। मैं तेरा टिकट भी खरीद लाता हूँ।'' 

'किन्तु..''

''क्या उलझन है? अभी तो चल तू। मैं भी हमेशा के लिए वापस लौट रहा हूँ, सामान के साथ। यदि तेरा कुछ है तो..''

''कुछ नहीं है, पर..''

''कुछ नहीं है तो लौट चल गौरांबर। मेरा भी मन यहाँ नहीं लगा। मैं यहाँ तुझे अकेला छोड़कर नहीं जाऊँगा।''

''मैं अभी नहीं जा सकता नील। तुझे पता है न पुलिस का सारा चक्कर.. फिर घर पर भी किसको क्या कहेंगे!''

''किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं है। तू चल बस!''

''नहीं-नहीं.. तू नहीं जानता। मैं बहुत फँसा हुआ हूँ। तू जा। मैं बाद में चिट्ठी लिखता हूँ तुझे।''

''पर तेरा पता-ठिकाना कहाँ है.. किसके साथ रहता है। क्या करता है।''

नील ने बेचैनी से घड़ी देखी, तीन बजने में पाँच मिनट बाकी थे। गौरांबर ने उसकी बेचैनी भाँप कर कहा,

''यार, तू भी ठहर जा, मेरे साथ चल.. हम कुछ दिनों में साथ-साथ वापस चलेंगे।''

नील ने हड़बड़ी में अब और समय गँवाना उचित नहीं समझा। बिना किसी लाग-लपेट के उसने गौरांबर को बताया कि उसने यहाँ शादी कर ली है। और उसकी पत्नी भी उसके साथ है। यह सुनते ही दोनों हाथों में हाथ डाले प्लेटफॉर्म की ओर बढ़े। गाड़ी भी आकर खड़ी हो गयी थी। दोनों साथ-साथ लगभग भागते से पीछे की ओर दौड़ते चले गये। सामने डिब्बे के समीप एक औरत बेचैनी से नील की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके पहुँचते ही झटपट सामान उठाकर दोनों एक डिब्बे में जा बैठे। समय इतना कम था कि गाड़ी ने छूटने के लिए सीटी दे दी। 

गौरांबर खिड़की में बैठे नील के साथ गठरी-सी बनी अपनी भाभी को दुलार और आदर से देखने लगा। अबकी बार भाभी से गौरांबर की नजर मिली तो उसने भय या संकोच से आँखें झुकायी नहीं बल्कि गहरी नजर से अपने पति के उस दोस्त को देखने लगी जो धीरे-धीरे रेंग रही गाड़ी के साथ  दौड़ता-सा आ रहा था। नील की आँखों में भी आँसू थे।

जाती गाड़ी को देखता रहा गौरांबर समझ गया था कि अब उसकी जिन्दगी की गाड़ी उसके गाँव शायद कभी नहीं जायेगी, गाड़ियों की दिशा और रफ्तार, उनमें सवार लोग कभी तय नहीं करते। इसे तय करता है गाड़ी चलाने वाला और गौरांबर की गाड़ी भी अब नीली छतरी वाले के हाथों में ही तो थी।