आखेट महल - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 2


दो

नयी कोठी पर आज सुबह से ही गहमा-गहमी थी। इस कोठी को आबाद हुए साल भर होने को आया था, मगर इसका नाम नयी कोठी ही पड़ गया था। यही नाम सबकी जबान पर चढ़ गया था।

गौरांबर का मन अब यहाँ के कामकाज में रम गया था। रावसाहब को कोई-न-कोई व्यस्तता आते जाने के कारण कोलकाता जाने का समय नहीं मिला था और उसे छ: महीने तक अपने गाँव जाने का मौका नहीं मिला था। पर अब यहाँ की जिन्दगी ने उसे अपना गाँव भी भुला दिया था और गाँव में उसके साथ पेश आया हादसा भी।

गौरांबर की धीरे-धीरे कायापलट होने लगी थी। अब उसके हाथ में पैसा भी भरपूर रहने लगा था। उसे बड़े लोगों के दस्तूर समझ में आने लगे थे। यहाँ छोटी-मोटी पार्टियाँ आये दिन होती रहतीं। और उन्हीं को अंजाम देने में जेब में रुपये-पैसे भी आने लगे थे। अब शायद ही कभी गौरांबर को यहाँ अकेला रहना पड़ता। कोई-न-कोई यहाँ बना ही रहता उसके यार-दोस्तों की फेहरिस्त भी अच्छी-खासी बन गयी थी।

नरेशभान और रावसाहब के दूसरे आदमियों के साथ शराब और कबाब की पार्टी उड़ाने वाला गौरांबर इन चीजों का शौकीन भी तेजी से होता चला जा रहा था। अब उसकी जेब में महँगी सिगरेट हर वक्त रहने लगी थी। दिन में जिस दिन साइट पर नहीं जाना होता था, कई-कई घण्टे ताश का खेल जमता था। वीरान कोठी और उसके सारे ऐश गौरांबर के हिस्से में आ गये थे। कभी भी गौरांबर ने यह सब सोचने की जरूरत न समझी कि आखिर इतना बेशुमार पैसा कहाँ से आता है, क्यों आता है और आये दिन जिन लोगों को यहाँ लाया जाता है, उनका अन्तत: क्या काम है? क्यों उन पर इतना लुटाया जाता है, खर्च किया जाता है। दुनिया में चारों तरफ दिखायी देने वाले इस विरोधाभास पर ज्यादा सोचने की गौरांबर की उम्र भी कहाँ थी। परन्तु फिर भी, उसके अपने बीते दिन तो उसके साथ थे।

वे दिन कोई कैसे उसकी यादों से मिटा सकता था, जब जेब में चार रुपये की पूँजी लेकर वह अपने परिचय की उस लड़की से घर गया था और अगले दिन उसके बाप की बीमारी के कारण दिन भर सारे शहर में रिक्शा चलाता घूमा था।

गौरांबर उस बात को, उस हादसे को लगभग भुला चुका था, पर न जाने क्यों, वह लड़की उसे अब भी कभी-कभी याद आती थी। लेकिन लड़की को अब याद करने में एक बड़ा फर्क था। अब लड़की उसके लिए वह जज्बा नहीं रह गयी थी, जिसके वशीभूत वह उन लोगों की मदद करने में अपने आपको भुला बैठा था। अब तो उसे बस लड़की याद आती थी। लड़की की बातें याद आती थीं।

वो कैसी उम्र थी। उसमें सड़क पर चलते समय किसी लड़की के सामने से गुजरने मात्र से कैसा-कैसा अनुभव होता था। लड़की को एक नजर देख पाने के लिए कैसी बेचैनी का अनुभव किया करता था गौरांबर।

और अब! इस कोठी के ऐशो-आराम ने उसके लिए लड़की की परिभाषा ही बदल डाली थी। यहाँ वह शराब पीने लगा था, मांस खाने लगा था। और उसे अपने मुल्क, अपने वतन का कोई वाकया याद आता था, तो सब गड्ड-मड्ड हो जाता था। वह तय नहीं कर पाता था कि उसके साथ क्या अच्छा हुआ, क्या बुरा हुआ।

एक रात गौरांबर सोया हुआ कि कोठी के बाहर घण्टी बजी। रात के बारह बजे से ज्यादा का समय था। इस समय कौन हो सकता है, सोचता हुआ गौरांबर बिस्तर से निकलकर बाहर आया और दरवाजे की ओर बढ़ा। इसके पहले कि वह चप्पल पैरों में डालकर, गैलरी की बत्ती जलाकर बाहर का दरवाजा खोलता, घण्टी एक बार और बजी। इस बार काफी जोर से बजी। गौरांबर को झल्लाहट हुई। लगभग दौड़ता सा वह दरवाजे की ओर बढ़ा।

दरवाजे पर नरेशभान था। लेकिन नरेशभान इस समय? और वह भी मोटरसाइकिल के बिना क्योंकि गौरांबर को मोटरसाइकिल की आवाज नहीं आयी थी। या, यदि वह लाया भी होगा तो जरा दूर पर ही खड़ी की होगी उसने। इस समय नरेशभान का आ जाना वैसे तो बहुत ज्यादा आश्चर्य की बात न थी, क्योंकि कई बार कई कामों से महल के लोगों का यहाँ आना जाना लगा ही रहता था, परन्तु गौरांबर के लिए सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात यह थी कि वह अकेला नहीं था।

उसके साथ में एक औरत थी। गौरांबर रात की इस घड़ी औरत को नरेशभान के साथ देखकर चौंक गया। औरत ने मुँह पर अपनी ओढऩी से बड़ा सा पल्ला लेकर ओट की हुई थी, इसलिए गौरांबर उसका चेहरा नहीं देख पाया, फिर भी इतना तो वह समझ ही गया था कि यह औरत नरेशभान की घरवाली तो नहीं हो सकती। फिर ये कौन, जैसा प्रश्न गौरांबर के चेहरे पर बना ही रहा।

नरेशभान सहज होने की कोशिश कर रहा था, पर सहज वह भी था नहीं।

‘‘ला यार, जरा ठण्डा पानी पिला।’’ नरेशभान ने माहौल को सहज बनाने की गरज से कहा।

गौरांबर को नरेशभान का एक परायी औरत के सामने इस तरह बोलना पसन्द नहीं आया, पर फिर भी वह चुपचाप उठ गया और पहले फ्रिज के पास गया और फिर न जाने क्या सोचकर पलटकर बाहर आ गया। फ्रिज में पानी भरकर रखा नहीं गया था। उसे शायद याद आया। भीतर वाले नल से एक लोटा भरकर गौरांबर बाहर पहुँचा और नरेशभान को थमा दिया।

नरेशभान ने जरा सख्त नजरों से गौरांबर को देखा। शायद उसे यह पसन्द नहीं आया था कि गौरांबर ने उसे नल से पानी का लोटा भरकर दे दिया। जबकि उसे अच्छी तरह मालूम था कि कोठी में नयी क्रॉकरी भी वक्त-जरूरत के लिए काफी मात्रा में थी और पानी के लिए मटके भी रखे हुए थे।

पर इस समय नरेशभान कुछ बोला नहीं। चुपचाप लोटा ले लिया और ऊपर से हलक में डालकर पानी पीने लगा। नरेशभान को शायद बहुत जोर से प्यास लगी थी। उसने लोटा पूरा खाली कर दिया। खाली लोटा गौरांबर को लौटाते-लौटाते उसने औरत की ओर देखते हुए पूछ लिया,     

‘‘पानी पीना है?’’

औरत ने हाँ या ना में कोई जवाब नहीं दिया। पर गौरांबर खुद खाली लोटा लेकर दोबारा भरने चला गया। इस बार जाने उसे क्या सूझी, साथ में एक काँच का गिलास भी लेता आया। उसने गिलास में पानी भर के उस औरत की ओर बढ़ा दिया, जो अब तक संकोच की सिमटी गठरी सी बैठी थी।

औरत ने पानी पीने के लिए मुँह का घूँघट जरा हटाया तो गौरांबर को उसका चेहरा दिखा।

गौरांबर चौंक गया। यह तो साइट पर काम करने वाली मजदूरनी सरस्वती थी। हालाँकि अब साइट पर जाने का काम गौरांबर को कभी-कभी ही पड़ता था, पर इसको वह कैसे भूल सकता था। इसके साथ तो शुरू के दिन खुद सारा दिन गौरांबर ने मजदूरी की थी। और वैसे भी कुँआरे लड़के को एक बार देखी हुई औरत को पहचानने में कहाँ भूल होती है।

गौरांबर के मुख पर अजीब-सा भाव आ गया। इस समय यह सरस्वती नरेशभान के साथ कैसे चली आयी? खूब याद था गौरांबर को, जब अपने छोटे से बेटे को कपड़े के झूले से बाँधकर साइट पर काम करने आती थी वह। और इसका तो मरद भी वहीं काम पर था। ये यहाँ क्यों आयी है? और न जाने क्या-क्या सोचता गौरांबर, कि नरेश खुद ही बोल पड़ा-

‘‘कल सुबह ट्रक जुलूस के लिए भेजने हैं। इसलिए रावसाहब ने आज सारी रात काम चलाने को कहा है। वहाँ बिजली के हण्डों में काम हो रहा है। ओवर-टाइम बुलवाया है लेबर को। ट्रक लादकर जा रहे हैं। सुबह तक काम चलेगा।’’

‘‘ओवरटाइम काम हो रहा है? इस समय...!’’ गौरांबर ने लापरवाही से कहा। उसे यह अजीब सा लग रहा था कि सरस्वती यहाँ क्यों आयी है। मन-ही-मन वह नरेशभान को भी आड़े हाथों ले रहा था.. साला, सारी रात काम करने आया है।

पर प्रकट में कुछ नहीं बोला गौरांबर।

नरेशभान ने कमीज उतारकर दरवाजे की चौखट पर टाँगते हुए कहा, ‘‘दो-एक घण्टे आराम करके मुझे भी वहीं जाना है। कल भी सारे दिन भागमभाग रहेगी। इसी से जरा कमर सीधी करने चला आया हूँ।’’

गौरांबर ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। अनमने ढंग से दीवान से अपनी चादर उठाकर वह बाहर की ओर जाने लगा। दीवान उसने नरेशभान के लिए खाली कर दिया। अपनी चादर समेटकर भीतरवाली अपनी कोठरी में ले गया।

एक-दो मिनट बाद ही गौरांबर को न जाने क्या सूझी, कोठरी से एक पुरानी, पतली-सी दरी उठाकर वापस बैठक में आया और सरस्वती की ओर इशारा करके बोला, ‘‘इसके लिए दूसरे कमरे में बिछा दूँ?’’

सरस्वती, जो अब तक दीवान से थोड़ी दूरी पर दीवार से सटी खड़ी थी, सकुचाकर और परे सरक गयी। नरेशभान के चेहरे पर गुस्से के चिन्ह दिखायी दिये। वह एकाएक दीवान से नीचे कूदकर गौरांबर के नजदीक आया और उसका हाथ पकड़कर उसे अपने साथ ठेलता-सा कमरे से बाहर ले आया। फिर फुसफुसाता हुआ बोला—

‘‘साले, क्यों कचरा रहा है!’’ कहकर नरेशभान ने गौरांबर को आँख से एक भद्दा इशारा करके उसका हाथ दबा दिया।

गौरांबर के लिए नरेशभान का यह रूप सर्वथा नया था। वह इस तरह गौरांबर से कभी नहीं बोला था। दारू के नशे में भी नहीं। बड़ा अटपटा सा लगा उसे। फिर भी उसके चेहरे पर उदासीनता का भाव ही बना रहा।

‘‘जा, तू सो। आराम करने दे।’’ कहकर नरेशभान वापस कमरे की ओर लपका। जाते-जाते गौरांबर की ओर देखकर बोला, ‘‘तुझे गर्मी चढ़े तो आजा तू भी उतार ले...’’

नरेशभान तो वापस पलटकर फुर्ती से कमरे में चला गया, पर गौरांबर को क्रोध आ गया। दो क्षण वहीं खड़ा रहा, फिर खा जाने वाली नजरों से देखता हुआ धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर चला गया और बत्ती बुझाकर जमीन पर लेट गया।

नरेशभान ने भी बाहर के कमरे की बत्ती बुझा दी। फुसफुसाने की आवाजों से गौरांबर ने ताड़ लिया कि सरस्वती भी नरेशभान के साथ ही है। गौरांबर ने उस तरफ से ध्यान हटाकर करवट लेकर लेकर सोने की कोशिश की।  

परन्तु नींद गौरांबर की आँखों से गायब हो चुकी थी। चढ़ती उम्र का लड़का था। आज एकाएक समझ में आया उसे कि महल के आदमियों की सीमा क्या है। उसने तो कभी सपने में भी यह ख्याल नहीं किया था कि रहने-खाने की बढिय़ा सुविधा और मुफ्त की शराब का ये मोल चुकाना होगा उसे। उसे ऐसे रंगमहल की चौकीदारी करनी होगी, जहाँ गुलछर्रे उड़ाने मालिक के लोग आयेंगे।

हद हो गयी। गौरांबर की मुट्ठियाँ भिंच गयीं। उसने सोचा, वह कल ही बड़े मालिक से जाकर यह सब कह देगा। उसके दिमाग में सरस्वती का छोटा-सा बच्चा घूम गया, जिसे काम के बीच-बीच में सम्भालने व दूध पिलाने वह जाती थी। उस जैसे लड़के को यह सब कभी नागवार नहीं गुजरा था कि यहाँ मांस-मदिरा का सेवन होता है, ताश और मौज मस्ती चलती है। यह तो इस उम्र के सब लड़के करते ही हैं और उन्हें भाता भी है, परन्तु यह... यह रण्डीबाजी यहाँ होती रहे और गौरांबर पहरेदार की तरह पड़ा सोता रहे? आखिर फर्क क्या हुआ उसमें और रण्डियों के दलाल में। और इस नरेशभान की हिम्मत तो देखो, उसे भी बुला रहा है, वह उत्तेजित हो गया।

नहीं, हर्गिज नहीं, गौरांबर के नथुने फड़कने लगे। मुट्ठियाँ कस के आगा-पीछा सोचे बिना निकलकर बैठकखाने पहुँच गया और उसने खट्ट से बिजली का खटका दबा दिया।

लाइट जलते ही नरेशभान हक्का-बक्का रह गया। उसे सपने में भी ये उम्मीद नहीं थी। लाइट जलते ही सरस्वती भी छिटककर, दीवान से उतरकर खड़ी हो गयी। नरेशभान गुस्से से देखता गौरांबर की ओर लपका। पास में पड़ा मेज का एक कवर एकदम से अपनी कमर पर लपेटकर नरेशभान ने गौरांबर की ओर देखा तो वह गुस्से से काँप रहा था। नरेशभान की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। फिर भी हिम्मत करके बोला—

‘‘ये क्या बदतमीजी है! लाइट क्यों जला दी?’’

‘‘साहब, माफ करना। ये यहाँ नहीं चलेगा।’’ गौरांबर ने आवाज को बेहद नम्र बनाने की भरसक कोशिश करते हुए भी दृढ़ता से कहा। उसने इस समय जान-बूझकर ‘साहब’ शब्द का प्रयोग किया। जबकि अब तक वह नरेशभान के काफी मुँह लग चुका था और प्राय: उसे बाऊजी ही कहता था।

‘‘साले, क्या बकवास करता है! तेरी ये मजाल..’’ क्रोध से पागल होते नरेशभान ने गौरांबर को डाँटते हुए कहा।

‘‘गाली मत दो बाऊजी, आप मुझे यहाँ से निकाल दो, फिर चाहे जो करना।’’

‘‘हरामी, तेरी ये औकात.. साले सड़क पर पड़ा था, मैंने उठाकर तुझे बंगले में पहुँचाया।

‘‘खामोश!’’ गौरांबर चीखा, ‘‘खबरदार, और किसी को भी कभी ऐसा मत उठाना, वरना हम सड़क के आदमियों का हाथ तुम पर उठ जायेगा।’’ गौरांबर गुस्से से काँपने लगा था.. और उसने मुश्किल से अपने को जब्त किया हुआ था।

गौरांबर को गुस्से में देखकर नरेशभान जरा घबराया। झटपट अपने कपड़े पहनने लगा। सरस्वती भी भयभीत सी दीवार से लगी खड़ी थी।

‘‘बहुत धर्मात्मा बन रहा है। सुबह होने दे। देख तेरी क्या दुर्गति करवाता हूँ। साले को थाने में बंद करवाके डण्डे पड़वाऊँगा, तब पता चलेगा। बैठे-बैठे नौकरी मिल गयी न, इसलिए भाव खा रहा है!’’ नरेशभान बड़बड़ाता जा रहा था। पर गौरांबर ने अब अपना गुस्सा जब्त कर लिया था और वह चुप था।

तेजी से नरेशभान बाहर निकल गया। घबराकर सरस्वती भी उसके पीछे-पीछे दौड़ी। अन्धेरे में दोनों के बाहर निकलते ही गौरांबर ने धड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया और आकर बिस्तर पर पड़ गया।

अब तक वह काफी उत्तेजित था। अब उसे सुबह तक यहाँ से नौकरी चले जाने का भय सताने लगा था, पर उसे अपने किये पर कोई पश्चाताप नहीं था।

घर से यहाँ आकर उसे शहरी चीजों के मामले में हवा जरूर लगी थी, परन्तु इतना अब भी उसे बर्दाश्त नहीं था कि सारी रात ऐसी रंगरेलियाँ चलें और वह उनका मूक दर्शक बने।

बहुत देर तक गौरांबर को नींद नहीं आयी। न जाने क्या-क्या सोचता रहा। बार-बार यह सोचकर घबराहट होती थी कि सुबह न जाने क्या हो। क्या पता इस अपमान का बदला नरेशभान किस तरह ले। वह नरेशभान की पहुँच और उसके रसूख से भली-भाँति परिचित हो चुका था। आज उसे उस कोठी में मिली सब सुख सुविधाएँ फीकी और बेजान नजर आ रही थीं..।

गौरांबर तड़के जल्दी ही उठ गया। नींद से जागते ही उसे रात की घटना याद आ गयी। सब-कुछ किसी ताजा देखे सपने सा उसे ज्यों-का-त्यों याद था। नरेशभान, जिसे वहाँ नौकरी दिला देने के कारण वह अब तक बहुत मान देता था और मन ही मन उसका कृतज्ञ रहता था, कल उसके सामने निपट नंगा हो गया था।

गौरांबर का मन कह रहा था कि अपराध या अनैतिकता में ज्यादा बल नहीं होता। ये वो आभरण हैं कि जो इन्हें धारण किये रहता है वह गर्दन सीधी तानकर ज्यादा देर तक नहीं चल पाता। हो सकता है कि नरेशभान भी सारी बात को भुला दे और सुबह सब सामान्य हो जाय। पर गौरांबर को यह भी मालूम था कि नेकी और बदी में जब ठनती है तो लड़ाई बहुत लम्बी चलती है और अन्त चाहे जो भी हो, नेकी को एक बार तो नेस्तनाबूद होने के कगार पर आना ही पड़ता है। और अन्त भी, सिनेमा के परदे पर या किस्से कहानियों में चाहे नेकी के हक में जाये, हकीकत की दुनिया में तो दर-दर ठोकरें खाने का काम नेकी के ही हक में आता है। इसी से वह भयभीत था।

खैर, इन सब बातों से गौरांबर का लेना-देना क्या। उसकी बला से, चाहे कोई भी कुछ भी करे, सबके अपने-अपने कर्म हैं, अपने धर्म हैं, अपने-अपने नसीब। लेकिन हाँ, इतना गया-गुजरा वह नहीं है कि बगल में गोश्त की दुकान चलती रहे और उसे दुर्गन्ध न आये।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी, तड़के ही घर में ताला लगाकर चाबी अपनी जेब में डालकर निकल लिया। यहाँ तक कि निबटना व हाथ-मुँह धोने-करने के लिए भी वहाँ नहीं ठहरा। क्या पता कब वहाँ दनदनाता हुआ नरेशभान आ जाये। गौरांबर डरपोक नहीं था परन्तु दिन का उजाला होते ही वह कोई बखेड़ा वहाँ खड़ा करने से बचने के लिए वहाँ से निकल लिया।

कोठी के पिछवाड़े कच्चे रास्ते को पार कर वह खेतों की ओर बढ़ गया, जिस पर ट्रकों-गाड़ियों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। खेत के किनारे पानी के एक बड़े से गड्ढे के पास बैठकर गौरांबर निवृत्त हुआ और फिर बड़ी सड़क पर आ गया।

चाय की एक छोटी सी गुमटी पर बैठकर उसने चाय बनाने को कहा और खुद लोटे में पानी लेकर कुल्ला-दातुन करने लगा।

चाय पीने के बाद गौरांबर कुछ देर ऐसे ही वहाँ बैठा रहा और आने-जाने वाले ट्रकों को देखता रहा। दुकान के पास ही एक हैण्डपम्प था, जिसके इर्द-गिर्द नहाने-धोने वाले ट्रक ड्राइवरों व खलासियों का मेला सा लगा था। आसपास तीन-चार गाड़ियाँ खड़ी थीं।

गौरांबर उस चहल-पहल को देखता रहा। परन्तु थोड़ी ही देर में एक अजब तरह की उदासी उसे घेरने लगी। वह सोचने लगा, इन गाड़ियों और गाड़ी वालों का मकसद क्या है, इनकी जिन्दगी क्या है? किसी की भी जिन्दगी क्या है? जिन्दगी में ठहराव क्यों नहीं है? और जिनकी जिन्दगी में ठहराव है, उनकी जिन्दगी में.. इतना ठहराव क्यों है?

हैण्डपम्प के पास बैठे नहाते-धोते लोगों में हँसी-मजाक चल रहा था। वहाँ से जरा आगे एक पतली-सी पगडण्डी ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर थोड़ी बसी दो-चार झोपड़ियों से मिलती थी। उसी ओर देखकर लोगों में कोई मजाक चल रहा था। गौरांबर की निगाह भी वहाँ गयी। काफी दूर से भी दिखायी दे रहा था कि झोपड़ी में एक ओर बड़ी सी झाड़ी पर चटक लाल रंग की चुनरी फैलाकर सुखायी जा रही थी। कपड़ा सुखाने वाली के तन पर बड़ा सा लहँगानुमा वस्त्र था, परन्तु ऊपरी भाग अनावृत्त था।

गौरांबर तुरन्त समझ गया कि यह सब हँसी-ठट्ठा उसी औरत को लेकर है। सस्ते तरीके से इशारे और मजाक करने वाले खुद भी उसी तरह अनावृत्त थे। उनके अपने बदन पर भी सिर्फ कच्छों या लँगोटों के अलावा और कुछ न था। मगर फिर भी वे सब एक-दूसरे से बेखबर, निश्चिन्त, सड़क के बिल्कुल किनारे, बस्ती के एकदम समीप उस युवती पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनसे लगभग चार फर्लांग की दूरी पर थी और झाड़ी की ओट में थी, सूने जंगल जैसे स्थान में थी। जिसे इतनी दूरी पर बैठे, दूर से दिखायी देते मर्दों से भी ऐसी लाज थी कि कपड़ा सुखाते ही वह उस तरफ पीठ फेरकर खड़ी हो गयी और झाड़ की ओट में हो गयी।

गौरांबर को हल्की-हल्की भूख भी लग आयी थी। उसने जेब से पाँच का एक नोट निकाला और गुमटी में चाय बना रहे लड़के को एक प्लेट कचौरी भेजने के लिए आवाज दी। साथ ही बराबर वाली पान की दुकान पर बैठे लड़के को सिगरेट का एक पैकेट भेजने के लिए कहा।

नाश्ता करने के बाद गौरांबर ने घड़ी में समय देखा। घड़ी में सात बज रहे थे। पर तभी उसका ध्यान गया कि घड़ी कल शाम से ही बंद पड़ी है, क्योंकि अभी सात बजे न थे। उसने पास ही खड़े एक ट्रक के ड्राइवर से समय पूछा और चाबी भर के घड़ी मिलाने लगा।

‘‘कहाँ जाना है?’’ ड्राइवर ने उड़ती सी नजर गौरांबर पर डालते हुए पूछ लिया।

‘‘तुम किधर जा रहे हो शाहजी?’’ गौरांबर ने वहाँ बैठे रहने के दौरान ट्रक के खलासियों को उसे ‘शाहजी’ नाम से पुकाते हुए सुन लिया था।

‘‘हम तो बहुत दूर जायेंगे।’’

‘‘किस तरफ निकलोगे?’’ गौरांबर ने पूछा।

‘‘तुझे कहाँ जाना है बेटा, बोल, छोड़ देंगे।’’ ड्राइवर ने एकदम से कहा, जो अब तक गौरांबर की उम्र का अंदाजा लगा चुका था।

एकाएक गौरांबर बोला, ‘‘मुझे तो रेलवे स्टेशन तक छोड़ देना। उधर से तो निकलोगे ही।’’

‘‘हम शहर में से नहीं निकलेंगे बच्चे! हम तो बाइपास जायेंगे।’’ लम्बे-तगड़े शाहजी ने आत्मीयता से कहा और जवाब का इंतजार किये बिना चाय वाले के पास बढ़ गये, जो उनके लिए गिलास में चाय छानकर उसमें मलाई की बड़ी-सी परत डाल रहा था।

अचानक गौरांबर को न जाने क्या सूझा, वह जेब से पैसे निकालकर गिनने लगा। इस समय उसकी जेब में कुल पैंतीस रुपये थे। थोड़ी सी रेजगारी अलग से पड़ी थी। एक बार मन में आया कि किसी तरह जुगाड़ करके अपने शहर जाने वाली गाड़ी में बैठ जाये। आज अपना घर उसे बुरी तरह याद आने लगा था।

लगभग साल भर ही होने को आया था, जब वह अपने घर से आया था। इस बीच में उसने घर की कोई खोज खबर भी नहीं ली थी। न कोई खत लिखा था और न किसी दूसरी तरह से ही समाचार भेज पाया था। और उसकी खोज-खबर न होने से घर वाले तो चाहकर भी चिट्ठी-पत्री न लिख पाये थे। न जाने सब कैसे होंगे!

इन्सान और दूसरे जीवों में बड़ा अन्तर यह है कि इन्सान जिनसे जन्मता है, जिनके बीच जन्मता है, जिनसे रिश्ता लेकर जन्मता है, उनके साथ उम्र भर जुड़ा रहता है। चाहे सद्भाव रख के, चाहे दुर्भाव रख के, पर दूसरे जीव जन्तु बस नाल से अलग होने, शुरुआती दाना पानी मिलने तक ही अपने जन्मदाताओं से जुड़े रहते हैं। बाद में जहाँ अपने डैने उगे या पंजे निकले कि सब समान हो जाता है। हाँ, इतना जरूर है कि वहाँ न कहीं सद्भाव रहता है और न दुर्भाव। सब निर्भाव से ही चलता है।

पर यह दर्शन भी हर इन्सान पर कहाँ लागू होता है? इन्सान के पास पेट के लिए मुट्टी भर अन्न का सुभीता और तन ढाँपने का कपड़ा होना चाहिये। अगर ये नहीं होता तो फिर कोई फरक नहीं होता। इन्सान को भी अपने अम्मा-बाबा वैसे ही बिसरा देने पड़ते हैं, जैसे दूसरे जानवर बिसराते हैं। और असली बात ये है कि ये नहीं होता। सबके पास नहीं होता रोटी और कपड़ा।

कहते हैं, दुनिया हर जीव-जिनावर की हर जरूरत को पूरा करने के लिए काफी है। पर एक भी इन्सान की हवस पूरी करने को पूरी नहीं पड़ती। इन्सान की हवस पर लगाम नहीं हो तो सारा कुछ किसी एक की जेब में आ जाये, तब भी उसे तसल्ली न हो। और ऐसे ही हवसी कोई एक-दो-चार नहीं, हजारों की तादाद में होते हैं और बस इसीलिए बहुतेरों को दो वक्त चैन से खाने के लिए भी बीसियों टोटके करने पड़ते हैं। अब ये दुनिया तो ऐसी ही है। बस है।

गौरांबर को लाख घर की याद आ रही हो, पर उसका मन यह गवारा नहीं कर पा रहा था कि वह पूरे बरस भर बाद अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के बीच इस तरह खाली हाथ जा खड़ा हो। किराये-भाड़े के पैसे की जोड़-तोड़ तो फिर भी माँग-ताँगकर हो सकती थी, पर ऐसे कैसे चला जाये गौरांबर? सो तय यही रहा कि न जाये। उसने इस विचार को ही मन से निकाल दिया। घर चाहे दो बरस बाद जाये, पर जब जाये तब तो ऐसे, कि माँ-बाप जुदाई की कड़वी घड़ियाँ भूल जायें। उन्हें बेटे की कुछ खुशहाली तो दिखायी दे।

गौरांबर का मन कोठी में भी लौटने को न हुआ। उसने एक स्टेशन की ओर जाता हुआ ट्रक देखा तो उसी में चढ़ लिया। ठीक है, अपने घर न जायेगा पर स्टेशन पर पहुँचकर आसपास के और बहुत से ठीहों-ठिकानों से तो जुड़ जायेगा। भले ही वह उसी शहर में रहे, चाहे कहीं चला जाये। 

नरेशभान का खौफ भी उसके मन से अब तक निकला न था। नरेशभान जैसा तिकड़मी आदमी उसे यूँ ही तो नहीं छोड़ देगा। अपनी बेइज्जती का बदला किसी-न-किसी तरह तो निकालेगा ही। अलग-अलग तरह के विचार गौरांबर को आते-जाते ही रहे।

आखिर उसे भी क्या सूझी! जाकर, बिना कोई आहट-आवाज किये, बत्ती ही जला दी। निपट नंगा नरेशभान कैसे जिनावर से ढंग से उठंगा होकर कपड़ा ढूँढ़ पाया, और सरस्वती? वह भी तो ऐसे ही पड़ी थी। कम्बख्तों ने सोचा था- सुहागरात है हमारी, सवेरे मैं चाय का प्याला लेकर ही उन्हें जगाने जाऊँगा। हरामजादों ने दरवाजा तक उढक़ाने की जरूरत नहीं समझी थी। और अब गौरांबर को जब बत्ती जलने के समय की सरस्वती याद आयी तो उसकी कनपटी लाल हो गयी। सरस्वती का चेहरा धूप में काम करके चाहे काला और झांईदार हो गया हो, पर गौरांबर ने तो जो कुछ देखा, सब ढका रहने वाला ही था न।

स्टेशन के सामने वाले चौराहे से मुड़ता हुआ ट्रक जरा धीमा हुआ तो पीछे की ओर से गौरांबर कूद गया। ट्रक चला गया।

स्टेशन के नजदीक आकर गौरांबर इधर-उधर देखता हुआ भीतर घुस ही रहा था कि उसका हाथ अपनी जेब में गया। और हाथ में आयी कोठी की चाबी।

कहीं ऐसा न हो कि कोठी में कोई आया हो, या और किसी काम से बड़े मालिक ने ही उसे दिखवाया हो तो वहाँ उसकी ढूँढ़ मची होगी। वह आसपास कहीं किसी से कुछ कहकर भी तो नहीं आया था। उसे याद आया कि नरेशभान ने सारी रात काम चलने की बात कही थी। हो सकता है सुबह सब चले गये हों और किसी को उसके वहाँ होने, न होने का अब तक कुछ पता ही न चल पाया हो।

इसी सोच-विचार से गौरांबर अभी खड़ा ही था कि पास में एक रिक्शा आकर रुका। रिक्शे से एक अधेड़-सी औरत और उसके साथ एक बीस-बाईस साल की लड़की उतरी। लड़की शादीशुदा थी, क्योंकि सलवार-कमीज पहने होने पर भी उसके कटे बालों के बीच में सिंदूर की हल्की-सी लाली दिखायी दे रही थी। दोनों ही किसी हड़बड़ाहट में थीं। उतरते ही जल्दी से रिक्शे वाले को पैसे दिये और फिर उतावली-सी होकर अपने सामान को देखने लगी। अधेड़ औरत अपने हाथ का पर्स खोलकर कुछ टटोल रही थी, तभी लड़की आगे बढ़ गयी। वह शायद किसी कुली को दूर से देखकर उस ओर लपकी थी।

‘‘कुली, कुली..’’ उसने दो-तीन बार आवाज लगायी, पर फिर मायूस होकर खड़ी हो गयी, क्योंकि वह कुली उसकी ओर देखे बिना आगे बढ़ गया था।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी, पलटकर औरत के पास पहुँचा और बोला, ‘‘कहाँ जाना है, लाइये मैं पहुँचा देता हूँ।’’ औरत के चेहरे पर, अविश्वास और आश्वस्ति का मिला-जुला भाव आया, पर वह भाव नकारात्मक नहीं था। गौरांबर ने दो बड़े-बड़े सूटकेस उठा लिये। उसे सामान उठाता देखकर लड़की भी तेज-तेज कदम उठाती पलटकर चली आयी और उसने बाकी बची एक टोकरी और एक छोटा-सा गत्ते का डिब्बा उठा लिया। आगे-आगे गौरांबर और पीछे-पीछे दोनों महिलाएँ चल पड़ीं।

गौरांबर को अकस्मा