आखेट महल - 5 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 5

पाँच

आखेट महल के चारों ओर के परकोटे के जिस तरफ बड़े तालाब की खुदाई का काम चल रहा था, उस पूरी-की-पूरी जमीन को काँटोंदार तार की बाढ़ से घेर दिया था। कई मील तक फैला हुआ लम्बा-चौड़ा इलाका था। चारों तरफ खबर फैली हुई थी कि इस तालाब के पूरा बन जाने के बाद इसके किनारे खूबसूरत बगीचा बनाया जायेगा और फिर इस सारे स्थान को बनावटी झील का रूप देकर सजा दिया जायेगा। आखेट महल के एक बड़े भाग में होटल बनाने की चर्चा भी जोरों पर थी।

इस सारे काम के लिए बड़े मालिक रावसाहब तो पैसा पानी की तरह बहा ही रहे थे, सरकार भी काफी रुपया दे रही थी। महल में आवाजाही रखने वाले हाकिमों के गुर्गे बताते थे कि इस सारे कारोबार में दस टका रुपया सरकार देगी, और दस टका रावसाहब। बाकी का अस्सी टका हिस्सा एक बड़ी विदेशी फर्म देगी जिसे होटल बनाने व आसपास के इलाके के सजाने-सँवारने के भी कई काम मिले थे। लोगों ने खुद देखा कि कई बार विदेशी लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ और गोरे-गोरे लोग रावसाहब के यहाँ आते रहते थे। वहाँ खूब मेहमानदारी होती थी। और खुद रावसाहब क्या परदेसों में कम रुतबा रखते थे? वह भी तो सालों तक विदेशों में रह आये थे। लोग कहते थे कि बाहर के कई मुल्कों में कई जगह उनके बँगले थे और कई कारोबार थे। रावसाहब परदेसों के दौरे पर तो हवाई-जहाज में चढ़कर इतनी ‘बेर’ जाते थे जितनी ‘बेर’ वहाँ काम करने वाली मजदूरिनें दिन में साइट पर काम करते समय अपने छोरों को बोबा देने भी नहीं जा पाती थीं। उनका टाइम था। उनके पैसे बँधे थे, पर राव-उमरावों का क्या बँधा होता है कुछ? सब खुला था।

विदेश की एक बड़ी फर्म ने तो साइट से जरा दूर पर अपने लिए एक दफ्तर की जगह भी खरीद ली थी। वहाँ भी एक शानदार इमारत बननी शुरू हो गयी थी। फर्म ने बड़ा-सा रंगीन बोर्ड भी वहाँ टाँग दिया था।

इसी तालाब और बगीचे के लिए जो जगह घेरी गयी थी, उसके जरा दूर के एक बड़े हिस्से पर कई मजदूरों ने अस्थायी झोपड़ियाँ खड़ी कर ली थीं। कुछ ने लकड़ी के खाँचे बनवाकर टाट और प्लास्टिक के छावन डाल लिए थे। कुछ लोगों ने कामचलाऊ टेंट जैसे खड़े कर लिए थे। और कुछ ने, जिनके घर-परिवार में मरद-मानस ज्यादा थे, इससे भी आगे बढ़ कर, ईंट-पत्थरों की अवैध छोटी-मोटी दीवारें भी खड़ी करनी शुरू कर दी थीं।

ज्यादातर मजदूर शहर की पुरानी बस्ती से आते थे। ठेकेदार का बन्दोबस्त शहर के दो-तीन हिस्सों से ट्रक में मजदूरों को भर-भरकर लाने का भी था। काम इतना बड़ा था कि अपार आदमियों की जरूरत रहती थी। और जरूरत के समय अपार आदमी रहते थे। सबसे बढिय़ा बात ये थी कि मर्दों-औरतों को पगार तो मिलती ही थी, जरा-जरा से बच्चों-लडक़ों को भी पैसे मिल जाते थे।

शाम को झुण्ड-के-झुण्ड कामगार जब अनाज और नकद रुपये पाते और हँसते-बोलते डेरे से लौटते तो विदेशी फर्म को बड़ी दुआएँ देते। इस कारोबार में इतना रुपया फैला था, कि मजदूरों के लिए सब सुविधाएँ आसपास ही मुहैया होने लगी थीं। देसी दारू के दो-तीन ठेके आसपास ही खुुल गये थे। राशन-पानी भी सब मिलने लगा था। शहर में जाने की जरूरत अब बात-बात पे नहीं पड़ती थी।

फर्म के दफ्तर के पास ही चार-पाँच पानी के नल भी लग गये थे, जहाँ पीने और नहाने-धोने का पानी चौबीसों घंटे मिल जाता था। इस इलाके में पहले पानी की भी बड़ी किल्लत थी। बरसात होती तो कुओं-बावड़ियों को पानी मिलता। बरसात खत्म होती तो बहकर सब चला जाता। न तो रावसाहब को और न ही सरकार को, पहले ये ख्याल किसी को नहीं आया था कि मजदूरों से पोखर खुदवा दें और आसपास दो-चार हैण्डपम्प लगवा दें। अब कम्पनी ने सब करवा छोड़ा था।

एक पेट्रोल पम्प भी था जिस पर खासी भीड़-भाड़ रहने लगी थी। सबसे बड़ा अजूबा तो यही था कि पेट्रोल पम्प पर जितने लोग पेट्रोल या तेल लेने आते, उससे दस गुने ज्यादा तो उसे देखने आते थे। अब रावसाहब के मँझले बेटे की बहू वहाँ बैठने लगी थी। उसकी सफेद गाड़ी वहाँ एक ओर खड़ी रहती। मँझली बहू ज्यादातर काँच के दफ्तर में ही बैठी रहती थी। बाहर तेल देने वाले लोग दूसरे थे। पर फिर भी वहाँ के बेशुमार मजदूरों के लिए बहू की तेल की यह दुकान एक बड़े आकर्षण से कम नहीं थी। आते-जाते शोहदे लड़के और औरतें भी रुक-रुक शीशाघर से बहू को देखा करती थीं। बहू कभी-कभी अपने कुत्ते को भी अपने साथ लाती।

जब से बहू ने यहाँ बैठना शुरू किया था, तभी से सबको पता चला था कि यह पेट्रोल पम्प रावसाहब के ही मालिकाना हक में है। पहले तो लोग यही समझते थे कि तेल का कारोबार सिर्फ तेली का। और जब से शीशाघर के कोने में एक तिपाई पर टेलीविजन सेट आया था, तब से तो यह पेट्रोल पम्प और भी अजूबा बन गया था। अब ढेरों लोग यहाँ इसी मकसद से जमा रहते। बहू बड़ी अच्छी थी स्वभाव से। कभी किसी को मना नहीं करती थी। बस कभी-कभार जो कोई भी सामने पड़ जाये उससे छोटे-मोटे काम करवा लिया करती थी। कभी किसी से टिफिन धुलवा लेती तो कभी किसी क्रिकेट मैच देखकर खुश हो रहे छोकरे से जूठी हड्डियाँ दूर फिंकवा देती। लोग ये छोटे-मोटे काम बड़ी जिम्मेदारी से करते थे। मँझली बहू को लोग सरकार से कम नहीं समझते थे, और कम थी भी कहाँ। गणेश, मोहन और रामअवतार अब जानते थे कि सरकार ने उनके गाँव में जो टेलीविजन नेहरू केन्द्र पर लगवाया था, वह पन्द्रह-बीस रोज चलकर ठप्प हो गया था। उसके बाद वह कभी ठीक नहीं हुआ, बल्कि बाद में तो उसकी तिपाही मेज भी इधर-उधर के कामों में काम आने लगी थी। जबकि मँझली बहू का यह टी.वी. हमेशा टिप-टॉप चलता था और ऊपर से रंगीन। अब भला गणेश, मोहन और रामअवतार की क्या दिलचस्पी हो सकती थी सरकार में।

रामअवतार को अच्छी तरह याद था। आज से पाँच साल पहले गाँव के स्कूल में आठवीं क्लास में वह इसीलिए फेल हो गया था कि परीक्षा में सवाल आया था—कपिल देव कौन है और बस! रामअवतार को क्या मालूम कि कपिल देव कौन है? फेल हो गया। आज रामअवतार स्कूल नहीं जाता। ट्रक से पत्थर खलाता है पर उसे मालूम था कि कपिल देव कौन है। और उसे ये भी मालूम था कि कपिल देव एक्शन के जूते पहनता है। कपिल देव पामोलिव से दाढ़ी बनाता है।

पन्द्रह-बीस दिन पहले रामअवतार चाय की गुमटी के पिछवाड़े वाले वाले नाई के पास दाढ़ी बनवाने गया तो जोर देकर उससे बोला था कि पामोलिव से बना। और नाई ने भी डेढ़ की जगह पूरे तीन रुपये लिए थे। रामअवतार की दाढ़ी, मूँछ और बगल साफ करने के।

देखते-देखते ही उस इलाके की रौनक दिन दूनी, रात चौगुनी बढऩे लगी थी। बड़ी सड़क के आसपास जो और सडक़ें बनाने के निशान लगा-लगाकर सरकार ने सालों से छोड़ रखे थे, उनमें से कई पर काम शुरू हो गया था। एक तो पूरी बन गयी थी, जो परकोटे के पीछे की तरफ गोलाई से होती हुई संजय नगर को अंबेडकर कॉलोनी से जोड़ती थी। जो सड़क बन चुकी थी, उसके इर्द-गिर्द दुकानें भी उठनी शुरू हो गयी थीं। लोग कहते थे, रावसाहब के बहुत से आदमियों को यहाँ दुकानें सस्ते में मिली हैं। लकड़ी के काम और तैयार फर्नीचर की बड़ी-सी दुकान, जो अब कुछ समय बाद चालू ही होने वाली थी, वहाँ तो रावसाहब के घर के लोगों को कई बार आते-जाते देखा भी गया था। थोड़े ही दिन पहले ही फोन भी आ गया था।

रावसाहब के साथ जब भी कोई विदेशी मेहमान आता तो एक बार साइट पर जरूर आता। बड़ी लम्बी-सी गाड़ी चमकती हुई सड़क से उतर कर पीली-पीली बजरी पर चलती हुई साइट पर आ जाती और मेहमान गाड़ी में से उतर कर रावसाहब या उनके परिवार के किसी और आदमी के साथ चहल-कदमी करता घूमता।

ऐसे में पहाड़सिंह को बड़ा मजा आता। वह काम-धाम छोड़कर वहीं आकर खड़ा हो जाता। उसे अंग्रेजी बोलते हुए ये गोरे-चिट्टे मेहमान खूब अच्छे लगते थे। वह उनकी इंग्लिश को बड़े ध्यान से सुनता। कभी-कभी तो पहाड़सिंह उनकी बातों में ऐसा तल्लीन हो जाता था कि पहाड़सिंह का मुँह भी परदेसी मेहमान के साथ-साथ चलने लगता। क्या ठसके-से बोलते थे ये गोरे-गोरे लोग।

पहाड़सिंह खाते-पीते घर का लड़का था, पर मैट्रिक पास नहीं कर पाया। तीन साल लगातार फेल हुआ। हमेशा अंग्रेजी में। उसे अंग्रेजी कभी समझ में नहीं आयी। स्कूल में इंग्लिश के मास्टर साहब उसे कसाई जैसे लगते थे। 

यहाँ पर काम के लिए उसे उसका जीजा ले आया था। कहकर ये लाया था कि कोई ढंग का काम लगवायेगा। पर बाद में पहाड़सिंह को पता चला कि जीजी की चौथी डिलीवरी के कारण छोटे तीनों को सम्भालने की खातिर उसे ले आया था जीजा। बाद में यहाँ मजदूरी में लगा दिया। बहन चो.. ये काम करवाना था तो पहाड़सिंह यहीं आता? लेकिन लगा काम छोड़कर कौन वापस जाता।

सरस्वती तीन-चार दिन से काम पर नहीं आयी थी। उसका मरद रोज झोपड़ी से निकलने से पहले उससे पूछता, पर वह मना कर देती, कहती, तबीयत ठीक नहीं है। उसका मरद पास आकर उसका माथा छूकर देखता, फिर कहता, ‘ताप-वाप तो है नहीं, चलना है तो चल।’ पर सरस्वती बहाना करती, ‘बदन टूटता है।’ उसका आदमी निकल जाता। पर जब तीन-चार दिन इसी तरह हो गये तो उसके आदमी का माथा ठनका।

‘‘क्या री, कब तक पड़ी रहेगी ऐसे?’’

‘‘पड़ी क्या अपनी मर्जी से हूँ। रोग लग गया तो ये छोटका भी दुख पायेगा।’’ दो-एक दिन छोड़ दो मुझे।

‘‘अरी, मैंने तो चार दिन से छोड़ रखा है। पर अब आज नहीं छोडूँगा तुझे।’’ कहता-कहता उसका मरद बाहर निकलने लगा। फिर न जाने उसे क्या याद आया, एकदम से पलट कर बाहर जाता-जाता मुड़कर भीतर आया। बोला—‘‘ऐ, क्या बात है, कोई चक्कर तो नहीं है! फिर तो तोप नहीं दागने वाली तू?’’ कहते-कहते उसने लेटी हुई सरस्वती के पेट पर हाथ धर दिया।

‘‘हट! तोप मैंने दागी कि तूने दागी। मैं क्या अपनी मर्जी से दागूँगी तोप..’’ कहकर सरस्वती बुरी तरह से लजा गयी। उसका आदमी हँसता हुआ तीर की तरह बाहर निकल गया।

दरअसल सरस्वती डर गयी थी। वह तो ठेकेदार के आदमी नरेशभान के साथ हर्गिज कोठी पर न जाती। वो हरामी तो कई हफ्तों से दाना फेंक रहा था। परन्तु उस दिन तो उसने बड़ी मजबूरी खड़ी कर दी। इसलिए मन मारकर सरस्वती को जाना पड़ा। 

नरेशभान ने सरस्वती को बताया था कि यहाँ से नब्बे किलोमीटर दूर एक फार्म हाउस पर काम चल रहा है और उसे यहाँ से लेबर भेजनी है। वहाँ पर कई महीने काम चलने वाला है। और एक तरह से सरस्वती को नरेशभान ने धमकी ही दे डाली थी कि यदि उसने नरेशभान की बात न मानी, तो वह सरस्वती के मरद को वहाँ भिजवा देगा। 

सरस्वती डर गयी। वह अपने मरद को अच्छी तरह जानती थी। वह झट से उसे यहीं पड़ी छोड़कर वहाँ जाने को तैयार हो जाता। और आप तो लाटसाहब वहाँ मजे से गुलछर्रे उड़ाता और सरस्वती यहाँ बच्चे को लेकर खटती। उसके मर्द को दारू की भी खासी लत थी और सरस्वती साथ न हो तो उसके लिए रोटी से भी बढ़ कर दारू हो जाती थी। इसी से मन मारकर सरस्वती ने नरेशभान की बात मानी। उसके साथ जाने को तैयार हो गयी। अब जो भी हो, कम-से-कम मरद यहीं उसके पास तो बना रहेगा, यही सोचा सरस्वती ने..। और इसके आगे और कुछ न सोचा। और रही बात अपनी आबरू-अस्मत की, तो ये नरेशभान खुद भी तो शादीशुदा है। इसकी औरत यहीं रहती है इसके साथ। जब हरामी वो मेरे साथ मुँह काला करने को मरा जा रहा है तो मैं ही कौन दूसरी दुनिया की हूँ। खुद उसका अपना मरद कौन कम है। मिले मौका, छोड़ेगा भला? फिर..!

लेकिन अब उस रात के बाद नरेशभान चार-पाँच दिन से उसे मिला नहीं था। वह साइट पर भी नहीं आया। भला हो उस शरीफ से लड़के गौरांबर का, जिसने जलती भट्टी पर पानी के छींटे मारकर उसे करतूत से बचा लिया। नरेशभान न जाने कहाँ चला गया था।

दो दिन और सरस्वती डर के मारे ठठ मारकर पड़ी रही। फिर उसने काम पे जाना शुरू कर दिया। और चार-छ: दिन गुजरे कि सरस्वती सब भूल गयी।

यहाँ से दस किलोमीटर दूर जो जिला उद्योग केन्द्र की नयी बिल्डिंग बनी थी, उसका उद्घाटन खूब धूमधाम से हो गया। यहाँ लगे कई मजदूरों में से कई ने उस इमारत पर भी काम किया था, इसलिये उन्हें बड़ा चाव था पूरी बनी, रंगरोगन सहित इमारत को देखने का। कितने ही दिन मैदान में उस बिल्डिंग की नींव खुदने के बाद से उन लोगों का डेरा रहा था। कई घर महीनों तक वहीं बसे रहे थे। उन लोगों का नहाना-धोना, खाना-पीना सब उसी अहाते में होता था। और उसकी छत पड़ जाने पर तो बड़ा आराम हो गया था। रात को सोने के लिए सीमेन्ट की साफ-सुथरी पक्की जगह मिल गयी थी। बहुत-सों ने तो फर्श, प्लास्टर और खडंजा के दिनों में टट्टी-पेशाब को भी वहीं आना शुरू कर दिया था, औरतों ने कितने ही दिन गीत गा-गाकर वहाँ रातें गुजारी थीं। शाम होते ही जुगनुओं की तरह चारों ओर चूल्हे जल जाते थे। और चम्पा की ये छोकरी तो पैदा भी वहीं हुई।

वो दिन भी खूब याद है सबको। कितनी हालत बिगड़ी थी चम्पा की। एक बार तो जान की बाजी लग गयी थी। पर बाद में फूलकली ने आकर सब सम्भाल लिया था। चम्पा को दो दिन तक खून गया था और फूलकली ने किसी वैद्य-डॉक्टर को हाथ तक न लगाने दिया। दुमंजिले के कोने वाले स्टोर में, जिसमें सीमेंट की बोरियाँ रखी रहती थीं, सब निबट गया। कितना आड़े हाथों लिया था सबने चम्पा के मर्द को। शादी के सातवें महीने ही सब जंजालों में फँसा दिया उसे। कुल पन्द्रह बरस की चम्पा और अठारह बरस का वो खुद। लेकिन सब हो गया और अब तो उसकी बिटिया घुटनों भी चलने लगी थी।

तो भला चम्पा की इच्छा क्यों न होती उस बिल्डिंग को देखने जाने की। उस दिन जब ठेकेदार के आदमी ने कहा था कि पाँच ट्रक लोग जायेंगे वहाँ पर, तो चम्पा भी झट से तैयार हो गयी थी। उसके मरद ने उसे समझाया कि उद्घाटन के बाद वहीं से जुलूस भी निकलेगा। लौटते समय ट्रक नहीं मिलेगा, पैदल आना पड़ेगा, फिर भी चम्पा नहीं मानी थी। चलने को तैयार हो गयी थी।

जिस दिन सुबह जाना था, उससे पहली रात साइट पर सारी रात काम चला था। लेबर को ओवरटाइम पर बुलाया गया था, ताकि काम में हर्जा न हो। चम्पा ने खुशी-खुशी सब काम किया था।

जिला उद्योग केन्द्र का फीता काटने को जो मिनिस्टर साहब आने वाले थे, उन्हें भी सबने देखा था। रावसाहब के छोटे बेटे की शादी में भी आये थे। बिलकुल पास से देखे हुए थे कई लोगों के तो।

जब एक के पीछे एक कतार बाँधे पाँचों ट्रक वहाँ पहुँचे तो वहाँ मेला सा लग गया था। दूर से दिखायी दे रहा था। बिल्डिंग को खूब सजाया गया था। सामने एक बड़ा पंडाल लगा था। चारों ओर रस्सियों के बाड़े बनाकर घेरे गये थे, औरतों और मरदों के अलग-अलग बाड़े थे।

ट्रक से कूद-कूद कर सारे के सारे उस ओर दौड़े थे। मगर यह दौड़ ज्यादा उत्साहवद्र्धक नहीं रही थी, क्योंकि उन सबको पंडाल के बाहरी हिस्से में काफी दूर पर ही जगह मिली थी। ये नहीं, कि आगे की सब जगह भर गयी थी। सारी खाली पड़ी थी। बीसियों कुर्सियाँ खाली थीं। आगे लाल दरी बिछी हुई जगह थी, बहुत सारी खाली थी, पर वहाँ खड़े पुलिस वालों ने उन लोगों को वहीं रोककर बैठा दिया था। ज्यादातर को पास में ही बैठना पड़ा। लडक़ों-नौजवानों ने भाग-दौड़ करके दरी के पास वाला हिस्सा हथिया लिया था और एक-दो तो दरी पर चढ़ भी बैठे थे, मगर बीच-बीच में वहाँ से निकलने वाले पुलिस वाले अपने डण्डों से उनके पैरों के जूते-चप्पलों को फटकारते दरी से ऐसे अलगाते थे, जैसे कोई भालू शहद के छत्ते से मक्खियों को दूर रख रहा हो।

राधा, चम्पा, बावरी, गोरी और उन जैसी दूसरियों को ये समझ में नहीं आया कि आगे इतनी जगह तो है, उन्हें इतनी दूर पंडाल के बाहर क्यों बैठाया गया है। शायद इस जगह वो कारीगर बैठेंगे जिन्होंने पलस्तर किया होगा, या रंग-रोगन किया होगा। चम्पा राधा ने तो मिट्टी, पत्थर ढोये थे बस।

चम्पा एकटक दुमंजिले के उस कोने को देखे जा रही थी, जहाँ उसकी बिटिया पैदा हुई थी। कम से कम चम्पा की तो इच्छा थी ही कि उसे आगे जाकर उसको देखने दिया जाय। पर पुलिस वाले ही पुलिस वाले थे चारों तरफ।

पहाड़सिंह गणेश से कह रहा था कि ये रस्सी के बाड़े इसलिए लगाये जाते हैं कि हम भीतर न आ पायें।

‘‘भीतर न आ पायें तो हमें लाये क्यों हैं?’’

‘‘इसलिये कि खूब लोग दिखें। अभी सामने से टी.वी. वाले लाइट डालेंगे कि नहीं। रोजाना देखता नहीं है, नेताजी को दिखाने के बाद लोगों का रेवड़ दिखाते हैं कि नहीं।’’ 

उन लडक़ों के करीब बैठा एक बुजुर्ग जो उन दोनों की बातें चुपचाप सुन रहा था एकाएक बोल पड़ा, ‘‘अब ये रस्सी के बाड़े इसलिये लगाते हैं कि हम-तुम बिना भाषण सुने न भाग जायें। पहले जब नेताजी बोलते थे तो इसलिये लगाते थे कि हम-तुम उन्हें करीब से देखने के लिए घेरा तोड़कर मंच पर न चढ़ जायें।’’

उसकी बात पर सारे लड़के हँस पड़े। एक शरारती-सा लड़का बोल पड़ा ‘‘और ये लाठी ले-लेकर पुलिसिये क्यों खड़े करते हैं?’’

‘‘क्योंकि हम-तुम उन्हें मारने-कूटने के लिए कहीं हमला न कर बैठें, जो भाषण देने आते हैं।’’   

‘‘इतने डरते हैं तो आते क्यों हैं!’’

‘‘क्या?’’