आखेट महल - 6 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 6

छः

‘‘अरे, मैं पूछ रहा हूँ कि पब्लिक के बीच में आने में गाँड फटती है तो आते क्यों हैं। अपने घर से बैठे-बैठे टी.वी. पर क्यों नहीं बोलते।’’

‘‘ये देखने आते हैं कि तुम इन्हें वोट दोगे कि नहीं। कहीं तुम पर चर्बी तो नहीं चढ़ गयी। कहीं तुम पर लत्ते तो पूरे नहीं आ गये। कहीं तुम्हारा पेट भरने तो नहीं लगा.. क्योंकि यदि ये सब हो जायेगा तो तुम इन्हें कुर्सी पर बैठकर मौज-मजा नहीं करने दोगे।’’ बूढ़े ने कड़वाहट से कहा।

बात बीच में ही अधूरी रह गयी, क्योंकि माइक पर कोई आदमी आकर बोलने लगा था। उस आदमी ने आकर घोषणा की कि थोड़ी देर में मंत्री जी पधारने वाले हैं। इतना कह कर वह माइक से हट गया। अब माइक से ‘जय संतोषी माता’ पिक्चर का भजन बजने लगा।

औरतें बातचीत छोड़कर तल्लीन होकर सामने देखने लगीं। सामने की ढेरों कुर्सियाँ अब भी खाली थीं। ये सब बड़े-बड़े अफसरों और उनके आदमियों के लिए लगी थीं।

बूढ़ा आसपास के बच्चों की ओर देखता हुआ फिर से बोलने लगा, ‘‘हमारे तुम्हारे पैसे से ये सारे इन्तजाम इसलिये होते हैं कि ये अफसर, हाकिम, इस बहाने हमारे-तुम्हारे दुख-दर्द जानने के लिए यहाँ आयें और हम लोगों से बातचीत करें। पर देखो, ये सब अफसर अभी यहाँ नहीं बैठेंगे। तब बैठेंगे जब मिनिस्टर साहब आ जायें, ये उनके लिए आते हैं।’’

‘‘यहाँ बैठकर क्या करें, अपने चौखटे देखें?’’ एक लड़के ने फिर चेहरा छुपाकर दबी जुबान से कहा। सब लड़के हँस पड़े।

बूढ़ा पूर्ववत् बोलता रहा, ‘‘क्या इस मौके पर यहाँ का कलेक्टर आकर दो बात नहीं कर सकता? क्या ये चीफ मेडिकल ऑफिसर यहाँ बैठकर पूछ नहीं सकता कि हम लोगों को दवा-दारू मिलती है या नहीं?’’

‘‘दारू तो खूब मिलती है।’’ एक लड़के ने फिर शरारत की। मगर इससे बूढ़े के जोश पर कोई लगाम नहीं लगी। वह कहता रहा, ‘‘क्या पुलिस का डी.आई.जी., जो ऐसे ही इधर-उधर घूम रहा है, हमसे आकर हमारी तकलीफें नहीं पूछ सकता? हमारे पैसे से यहाँ इनके लिए कुर्सियाँ लगायी गयी हैं। हम धूप में जमीन पर बैठे हैं पर इनके लिए रंगीन शामियाना लगाया गया है। जैसे ये सब कोई बाराती हों। पर नहीं.. अभी इनमें से कोई नहीं आयेगा। ये यह नहीं करेंगे कि हमारी समस्याएँ सुनकर मिनिस्टर साहब को बतायें। ये तो तभी आकर कुर्सियों पर बैठेंगे जब मिनिस्टर साहब, इनके आका आ जायें। और तभी उठ जायेंगे जब वह उठकर चले जायेंगे। यदि ऐसा ही है तो इनके लिए भी हमारी तरह घास-मिट्टी पर दरी बिछा कर बैठाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती है?’’

‘‘अजी चुप करो, घास जल जायेगी।’’ पीछे से एक और नौजवान का स्वर उभरा। एक बार फिर माहौल हँसी से भर गया।

चम्पा के मरद की बात सही निकली। लौटते समय किसी को ट्रक नहीं मिला। लोग ऐसे ही पैदल अपने डेरे की तरफ लौटने लगे। अलग-अलग झुण्डों में पैदल लौटते हुए भी लोग प्रफुल्लित थे। इधर-उधर देखते, दौड़ते-खेलते बच्चे, औरतें, मर्द सब लौटने लगे।

जिला उद्योग केन्द्र के चारों ओर अब शानदार लॉन बन गया था और पानी के उन बड़े-बड़े हौजों व चूने-बजरी की ढेरियों का नामोनिशान भी नहीं रहा था, जहाँ कभी कूद-कूद कर नहाते थे बच्चे।

पूरे एक सप्ताह बाद आज दिखा था नरेशभान साइट पर। आँखों पर काला चश्मा चढ़ा रखा था, फिर भी सरस्वती से तो मिल ही गयी आँखें। सरस्वती झेंप कर अपना काम करने लगी।

दोपहर की रोटी खाने की छुट्टी हुई तो एक जीप आकर पेड़ के नीचे रुकी। जीप से दो बड़े-बड़े टोकरे उतरे। आते-जाते लोग नजदीक खिसक आये और घेरा बनाकर देखने लगे। एक लड़के ने टोकरों पर ढका हुआ अखबार हटा दिया और दो-दो लड्डू निकालकर वहाँ खड़े लोगों को बाँटने लगा। देखते-देखते सभी लोग यहाँ आकर जमा होने लगे। बच्चों के चेहरे पर प्रसन्नता दौड़ गयी। औरतों में भी अफरा-तफरी मच गयी। कतार से सब आने लगे।

रावसाहब के सबसे छोटे वाले बेटे को, जिसका ब्याह दो महीने पहले हुआ था, वित्त निगम का कर्जा मंजूर हुआ था। उसके कारखाने की लम्बी-चौड़ी जमीन यहाँ से दिखायी देती थी। सड़क पार कई दिन से उसका बोर्ड भी लगा पड़ा था। इसी खुशी में रावसाहब की तरफ से लेबर को यह मिठाई बाँटी जा रही थी। थोड़े ही दिनों में कारखाने की इमारत का काम भी शुरू होने जा रहा था।

यह सब जानते थे कि कारखाने की इमारत बहुत जल्दी पूरी होगी, क्योंकि इसे पूरा करने की एक खास मियाद थी। रावसाहब का बेटा जी-जान से इस काम में जुटा था। ज्यादातर मजदूर उधर जाने को इच्छुक हो गये थे, क्योंकि वहाँ काम तेजी से चलता था, ओवरटाइम काम भी खूब होता था और मजदूरी भी खूब मिलती थी।

रोटी की छुट्टी के बाद जब सब लोग वापस अपने-अपने काम पर आये तो मौका देखकर नरेशभान सरस्वती के पास चला आया। सरस्वती पहले ही ताड़ गयी थी कि नरेशभान उससे कुछ-न-कुछ बात करना चाह रहा है। उसने सोचा, वह अब कोई-न-कोई चक्कर चला कर उसे बुलायेगा। इसलिए वह खुद ही खाँसती-खाँसती पानी पीने के बहाने से उस तरफ चली आयी जहाँ वो हाथ में बड़ा-सा रजिस्टर लिए कुछ पढऩे का नाटक कर रहा था। सरस्वती के करीब आते ही उसने हाथ में लिया रजिस्टर बंद कर दिया।

‘‘कहाँ थी?’’

‘‘लो, मैं कहाँ थी? मैं तो यहीं थी।’’

‘‘हाँ, मैं ही बाहर चला गया था। मालिक ने एक काम से भेज दिया था। आज ही सुबह आया हूँ।’’

‘‘क्या काम है, क्यों बुलाया?’’

‘‘मैंने बुलाया! मैंने कब बुलाया?’’ नरेशभान ने बनते हुए कहा। फिर अचानक बोला, ‘‘अरे हाँ-हाँ सुन, वो दिखायी दिया था क्या तुझे गुण्डा, गौरांबर?’’

सरस्वती ने अजीब-सी आँखों से नरेशभान की ओर देखा, फिर अपनी ओढ़नी का पल्ला अपने दाँतों के बीच में दबा लिया। बोली कुछ नहीं।

‘‘अरी, टुकुर-टुकुर देख क्या रही है। मैंने पूछा, वो दिखा था तुझे?’’

‘‘कौन..?’’

‘‘वही हरामखोर गौरांबर..’’

‘‘हरामखोर या गौरांबर?’’ जान-बूझकर नाटक-सा करते हुए सरस्वती ने कहा।

‘‘देख, मजाक छोड़ सरस्वती। उस दिन तो उस लौण्डे ने सब मूड खराब कर दिया, बोल आज आयेगी?’’

सरस्वती शायद मजाक के मूड में ही थी। यों सरस्वती और नरेशभान में मजदूर और ठेकेदार का रिश्ता था। कहते हैं मजदूर ठेकेदार के हाथ में होते हैं और ठेकेदार जब चाहें, जैसे चाहें उन्हें सताते हैं। पर यहाँ इस समय तो नरेशभान सरस्वती से भीख-सी माँग रहा था। सरस्वती भी मुँह लगी तो थी ही। जरा और उच्छृंखल हो गयी। बोली-

‘‘सोच लो। मैं तो आ जाऊँगी। पर वो फिर तो नहीं आ जायेगा, तुम्हारा दोस्त गौरांबर।’’

नरेशभान एकदम से झेंप गया। पर दूसरे ही पल चेहरे पर सख्ती लाते हुए बोला, ‘‘अरी तू देखना, उसे मैं कैसा छठी का दूध याद दिलाता हूँ। उस सूअर की औलाद का तो वो हाल करूँगा कि जिन्दगी भर कभी किसी औरत के सामने जाने लायक नहीं बचेगा।’’

‘‘छि:! ऐसा क्यों बोलते हो। उस बेचारे ने क्या गलत किया तुम्हारे साथ।’’ 

‘‘गलत नहीं किया? साले ने खड़े..’’ नरेशभान आगे बोलता-बोलता रुक गया। सरस्वती हँस पड़ी।

‘‘तू छोड़ उसकी बात। तू तो बता, आज आयेगी?’’

‘‘कहाँ..’’ सरस्वती ने बेमन से कहा।

‘‘मेरे कमरे पर। आज वहाँ कोई नहीं है।’’

‘‘भाभी को कहाँ भेज दिया?’’ सरस्वती ने धीरे-से पूछा।

‘‘अरी, तू भी भाभी कहती है..’’ नरेशभान ने बहुत ही अजीब ढंग से देख कर अपनी जीभ को होठों के बीच गोल-गोल घुमाया।

सरस्वती लजाकर रह गयी। थोड़ी देर तक सरस्वती कुछ नहीं बोली। फिर अनमनी-सी होकर वापस पीछे की ओर मुड़ती-मुड़ती बोली, ‘‘आज नहीं बाबू!’’

नरेशभान एकदम से क्रोधित हो गया। उसने और कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि सरस्वती सट से आगे निकल गयी। थोड़ी ही दूर पर सरस्वती के साथ की दो-तीन मजदूरिनें मिट्टी की परात हाथ में लिए खड़ी बातें करने लगी थीं। नरेशभान ने ऐसे में सरस्वती को वापस आवाज देना उचित नहीं समझा। बल खाकर लहराता-सा लौट गया।

नरेशभान को सहसा ध्यान आया कि उसने सरस्वती से उस दिन की बात के बारे में ये तो पूछा ही नहीं कि गौरांबर ने उसके साथ वालों में से किसी को कुछ कहा तो नहीं है। हाँ, सरस्वती की बातों से इतना तो निश्चित था कि बात खास कुछ बिगड़ी नहीं है। 

शाम को अपना-अपना काम खत्म करके सब लोग जाने लगे तो किसी को भी, सपने में भी ऐसा गुमान न था कि अगली सुबह यहाँ आते ही ऐसी खबर सुनने को मिलेगी।

सुबह सब मजदूर इसी बात में मशगूल थे। यहाँ तक कि चाय की दुकान पर आने-जाने वाले लोग भी किसी-न-किसी बहाने इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। ये इलाका, जहाँ इस तरह की बात कभी किसी ने न सुनी थी, अब तक शान्त ही समझा जाता था। यहाँ शाम को देर तक भी हाइवे के ट्रकों के कारण आवाजाही रहती ही थी, मगर चोरी-चकारी की तो कभी कोई घटना किसी ने नहीं सुनी थी।

कल रात को यहाँ चोरी हो गयी। हर तरफ यही चर्चा थी। चोरी कैसे हो गयी, किसने की चोरी, क्या सामान चोरी गया, ठीक से किसी को पता न था, मगर थोड़ा-बहुत, कुछ-न-कुछ सभी को पता था। इसी से जितने मुँह उतनी ही बातें हो रही थीं। हर कोई एक-दूसरे से यही बात करता था। और पहले एक-दूसरे से पूछता, और जब ये पता चलता कि सामने वाले को कुछ मालूम नहीं है तो बस, बताना शुरू कर देता।

सबसे ज्यादा जानता था पान वाला, क्योंकि वही रात को सबसे देर तक वहाँ था और सुबह भी जल्दी ही वह अपनी दुकान खोल लेता था। उसी ने सबको बताया।

रात को नरेशभान की मोटरसाइकिल चोरी हो गयी। और केवल इतना ही नहीं, बल्कि जिस समय मोटरसाइकिल गयी, उस पर पीछे मोटी रस्सी से जो ब्रीफकेस बँधा हुआ था, उसमें बीस हजार रुपये भी थे। वह रुपये उसे अगले दिन शहर जाकर बैंक में जमा करवाने थे। 

नरेशभान ने तो सबको यह बताया था कि वह मोटरसाइकिल यहाँ खड़ी करके जरा चाय पीने के लिए बैठ गया था, पर पान वाला और वहाँ खड़ा हर आदमी जानता था कि नरेशभान चाय नहीं, बल्कि दारू पीने कभी-कभी यहाँ आता था। हमेशा मोटरसाइकिल वह चाय वाले की गुमटी से जरा-से फासले पर वहीं खड़ी करता था। पर उस रात न जाने कब और कौन मोटरसाइकिल उठा ले गया और चाय वाले को भी पता तक न चला।

वैसे नरेशभान चोरी होने का जो समय बता रहा था वह भी सच नहीं था, क्योंकि वह वहाँ पर रात को आठ बजे नहीं, बल्कि बारह बजे के बाद आया था। रात को दस बजे के बाद वहाँ आसपास की सब दुकानें बंद हो जाती थीं, परन्तु गाड़ियों के आते-जाते रहने के कारण खाने के ढाबे और चाय की एकाध दुकान खुली रहती थी। कुछ दुकानों पर उनके मालिक लोग या काम करने वाले लड़के खुद सोते थे, इसलिए रात देर हो जाने पर भी वहाँ दो-चार लोगों का जमावड़ा तो हमेशा रहता ही था। 

दोपहर को दो-चार लडक़ों ने तो यहाँ तक खबर उड़ा दी थी कि किसी ने नरेशभान को रात को दारू के नशे में बहुत मारा और उससे रुपयों का बैग छीन लिया। जैसे-जैसे समय गुजरा, बात और मसालेदार होती गयी। ये मजदूर जैसे-जैसे पोखरे और खाई की मिट्टी खोदते थे, वैसे ही बातें भी खोदते थे। और नयी जमीन की तरह बातें भी नयी-नयी निकलती आती थीं।

पुलिस भी आयी थी।  उस समय सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। सबकी बातें बंद हो गयी। चाय वाले और उसके आसपास की कई दुकानों पर बैठे लोगों से पुलिस ने पूछताछ की थी।

सरस्वती के मरद को सरस्वती से ही पता चला कि नरेशभान ने शक में गौरांबर का नाम बताया है।

‘‘गौरांबर कौन?’’ उसके आदमी ने लापरवाही से पूछा।   

‘‘वही लौण्डा, जिसे नयी कोठी पर पिछले दिनों रखा गया था। पहले लेबर में ही था।’’

‘‘कौन..’’ सरस्वती के मरद ने दिमाग पर जोर डालते हुए कहा, उसे अब तक गौरांबर का ध्यान नहीं आया था।

‘‘वो नहीं था एक गोरा-सा लौण्डा? कभी-कभी हाजरी करने भी आता था। और.. और अब तो पाँच-सात दिन से वह काम पर भी नहीं है। पता नहीं कहाँ है।’’ सरस्वती ने खुद ही कहा। वह थोड़ा सकपकाई, क्योंकि उसके मरद ने उसे जरा घूरकर देखा था।

थाने में रपट भी हो ही गयी थी और पुलिस ने यह भी ध्यान से सुन लिया था कि नरेशभान को रुपये और गाड़ी चुराने का पूरा शक गौरांबर पर ही था।

‘शक क्यों था’, जब एकाएक थाने में बैठे थानेदार साहब के एक आदमी ने पूछ लिया तो एकाएक नरेशभान कोई जवाब नहीं दे पाया था। सकपकाकर इतना ही बोला, ‘‘वह चार-छ: दिन से दिखायी नहीं दे रहा है।’’

‘‘जो आदमी चार-छ: दिन की छुट्टी पर जायेगा, वो रास्ता चलते मोटरसाइकिल और रुपये-पैसे ही उड़ा लेगा?’’ आदमी ने गरजकर कहा। 

इस सीधे प्रश्न पर नरेशभान जरा बौखलाकर रह गया। परन्तु इससे अधिक कुछ और नहीं बता सका।

सारी बात रावसाहब तक पहुँचना भी निश्चित था, क्योंकि मामला केवल नरेशभान की मोटरसाइकिल का ही नहीं, बल्कि बीस हजार रुपयों का भी था, जो कि रावसाहब के ही थे। पुलिस वाले मँझली बहू के पेट्रोल पम्प पर भी थोड़ी देर ठहरे थे और वहीं से उन्होंने रावसाहब को फोन किया था। मगर उस समय रावसाहब घर में नहीं थे। घर का और भी कोई आदमी वहाँ नहीं था।

नरेशभान ने शाम को वहाँ आकर मोटरसाइकिल में दो लीटर पेट्रोल भी भरवाया था। और उस समय भाभी साहिबा, अर्थात् रावसाहब की मँझली बहू वहाँ नहीं थीं, सो नरेशभान ने अन्दर ऑफिस में बैठकर दो-एक फोन भी किये थे और वहाँ एक सिगरेट भी पी थी। और इस दौरान रुपयों वाला बैग बराबर मोटरसाइकिल के पीछे बँधा ही रहा था। नरेशभान को बहुत सोचने पर भी यह याद नहीं आ रहा था कि इस दौरान कहीं उसने उस बैग को खोलकर देखा था या नहीं। बैग में रुपये हैं, यह बात भी ज्यादा लोग नहीं जानते थे, क्योंकि नरेशभान कल साइट पर से ही काफी देर बाद गया था। तब तक लेबर तो करीब-करीब सारी ही जा चुकी थी। नरेशभान वहाँ से निकला, तब भी अकेला था। उसके साथ कोई भी आदमी नहीं था। और बहुत सोचने पर भी उसे याद नहीं आ रहा था कि बाद में कोई और ऐसा आदमी उसे मिला हो, जिसे रुपयों के बारे में जानकारी हो।

ले-देकर एक गौरांबर ही ऐसा बचता था कि जो कुछ दिन से यहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। नरेशभान के सिवा कोई दूसरा ठीक से यह जानता भी नहीं था कि वह कहाँ गया है, कब गया है, किससे पूछकर गया है तथा कब तक वापस आयेगा।

खुद नरेशभान को भी पता कहाँ था कि गौरांबर इस वक्त है कहाँ? वह तो केवल यह जानता था कि वह क्यों चला गया।

वैसे नरेशभान मन-ही-मन अच्छी तरह जानता था कि गौरांबर ये काम नहीं कर सकता। जो लड़का उसे रोजगार देने वाले को चोरी से कुकर्म करते नहीं देख सका, वह भला खुद उसकी चोरी क्यों करेगा? पर नरेशभान के दिल में गौरांबर की ओर से जरा कड़वाहट आ गयी थी और बस इसीलिए उसे थोड़ा-बहुत परेशान करने की गरज से उसने गौरांबर का नाम ले दिया था।

मोटरसाइकिल का बीमा था। नरेशभान को खुद आर्थिक नुकसान ज्यादा होने वाला न था। परन्तु रावसाहब के बीस हजार रुपये? और सबसे बड़ी बात यह कि इस इलाके को रावसाहब जिस तरह से पोस रहे थे, हरा-भरा बना रहे थे, वह इसे छोटी-सी बात मानकर भुला देने वाले नहीं थे कि इस इलाके में ऐसी बातें आम हो जायें।

मन-ही-मन नरेशभान को चैन नहीं था। वह बराबर जानता था कि गौरांबर का नाम ले देने भर से कोई बात बनने वाली नहीं है। लड़का जरा मार खायेगा, तंग होगा। ज्यादा-से-ज्यादा इस बहाने उसे हडक़ाकर काम से हटाया जा सकेगा, परन्तु इससे नुकसान की भरपाई तो होने वाली नहीं है। उसके लिए तो कुछ-न-कुछ करना ही होगा।

नरेशभान आज की विकास संस्कृति की वो पौध था, जो बड़े-से-बड़े काम तसल्ली से अंजाम देते हैं, और छोटे-से-छोटे काम में परहेज नहीं करते।

दो दिन सारे इलाके में चर्चा इसी बात की होती रही। पुलिस की गाड़ी का दौरा भी इलाके में बढ़ गया। रात को भी कभी-कभार चक्कर लगाने लगी गाड़ी। एक सिपाही की ड्यूटी मँझली बहू के पेट्रोल पम्प पर भी लग गयी।