आखेट महल - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 1

प्रबोध कुमार गोविल

 

 

जब हमारी सोच वैज्ञानिक होती है तो 

हम धरती से निकले लाल-पीले 

पत्थरों से अपना तन नहीं सजाते 

बल्कि अपने तन-मन की ऊर्जा से 

धरती को सजाते हैं...

 

प्रो. रेखा गोविल

 

 

एक

आखेट महल के परकोटे के सामने आज सुबह से ही चहल-पहल थी। बड़ी मोटर अभी-अभी आकर लौट चुकी थी। ट्रकों में भरकर ढेर सारे कामगार लाये गये थे। परकोटे के किनारे-किनारे महल के एक ओर के हिस्से की खाई, जो अब सूखकर पथरीली बंजर जमीन के रूप में पड़ी थी, चारों ओर से आदमियों से घिरी हुई थी। मर्द, औरतें यहाँ तक कि बच्चे भी थे, सब इधर से उधर आवाजाही में लगे थे। खाई के बीचों-बीच के थोड़े से हिस्से में अब भी जरा-सा पानी था जो काई, गन्दगी और कीचड़ का मिला-जुला गड्ढा-सा बन गया था। इसकी सफाई करके इसे और बड़े तालाब का आकार दिया जाना था। नाप-जोख हो चुकी थी। अब तो कतार-की-कतार औरतें परात ले-लेकर तथा मर्दों के झुंड कुदालें और फावड़ों सहित चारों ओर फैलते जा रहे थे। मजदूरों के चेहरे पर जो उल्लास-सा था, उसका कारण खोजना कठिन था। न जाने क्या था कि जिनके पास कुछ न था उनके पास सन्तोष था। आसपास के ही नहीं, बल्कि दूरदराज के मजदूरों को भी ठेकेदार ट्रकों व ट्रालियों में भर-भरकर ले आये थे। ये वे लोग थे जिन्हें अपनी सुबह, शाम के बारे में तथा शाम को अगले सवेरे के बारे में कुछ मालूम नहीं होता। ये जहाँ होते हैं वहीं इनका घर होता है। जहाँ इनकी भूख होती है, वहीं चूल्हा होता है। ये उन लोगों से बहुत अलग किस्म के लोग होते थे जिन लोगों के लिए ये काम करते थे। 

इन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं होती थी कि उदर में चार ही रोटी जा रही हों तो पाँचवीं जबरदस्ती चूरन-चटनी के सहारे कैसे ठूँसी जाय। इन्हें नहीं मालूम था कि रात पड़ने पर यदि नींद न आये तो कैसे दवा-दारू के बल पर अपने मगज को ‘बेहोस’ किया जाय। इन्हें सात पुश्तों के लायक अन्न जमा जोड़कर अपने नीचे अबेरने का कोई जुनून न था। इन्हें अपने महल-दोमहलों में ढाँचे-ढँचरे जमा करके बीमा कम्पनी की मदद से उस पर कुण्डली मारकर बैठने का कोई जौम न था। ये तो बस इन्सान थे।

फिर भी ये आदमी की जात के तो थे ही। इसी से जब कीकर के पेड़ की पतली डाली पर गठरी के झूले में झूलते अपने सात माह के टुकड़े की चिल्लाहट सुनकर रसवन्ती उसे सम्भालने न टली तो उसका मरद उस पर दाँत पीसने लगा। बार-बार कहता था, ‘छोटका गला फाड़ चिल्ला रहा है, एक बार जाकर उसे सम्भाल क्यों नहीं आती, हरामजादी कहीं की।’

अब रसवन्ती अपने आदमी को कैसे समझाती कि छोटका सिर्फ करीब जाकर दुलरा देने से नहीं चुपाने वाला। उसे भूख लगी है और रसवन्ती को जाकर बोबा देना होगा। उसका आदमी तो, हरामी कहीं का मर्द है न, वो क्या समझेगा कि रसवन्ती बोबा देने गयी तो ठेकेदार का लौण्डा भी पीछे आयेगा। और घड़ी देखने के बहाने बच्चे के दूध का बर्तन देखेगा। बड़ा डर लगता था रसवन्ती को। तलवार की धार पर चलने के समान काम था। जरा-सी हील-हुज्जत पर काम से हटा देने का खटका और लौण्डे की जरा-सी मान लेने पर अपने मरद पर दानव चढऩे का अंदेशा। इधर कुआँ, उधर खाई। बीच की पतली-सी लीक पर चलते मोह-ममता भी निभानी और जी-हुजूरी भी। पेट भी भरना ऊपर से। अपना ही नहीं, अपने मरद का भी।

चढ़ती धूप की गर्मी बढ़ती जाती थी। मरद-मानसों की पेशानियों पर पसीना बढ़ता जाता था। औरतों के कपड़ों पर धूल-धक्कड़ बढ़ता जाता था। दिन चढ़ता जाता था। बढ़ती धूप और गर्मी के साथ-साथ मरदों को तो बदन के लत्ते उतारते चले जाने का सुभीता था पर औरतों को तो सब ढोना था। मरद कुदाल चलाते-चलाते बीच में बीड़ी-तमाखू का दम मारते। चुहलबाजियाँ चलतीं। औरतों का ध्यान धूप की छाँव पर रहता, कब पूरे बारह बजें और परातें छोड़-छोड़ कर चूल्हे-रोटी सम्भालें।

मजदूरी में बूढ़े भी थे, जवान भी, बच्चे भी। अलग-अलग गाँवों के अलग-अलग जात के। हाँ, बस एक बात समान थी कि काम के बाद में कभी किसी ने न देखा कि कहीं कोई औरत पाँव फैलाकर बैठ जाये और मरद चूल्हे में फूँक मार कर दाल गलायें, काम चाहे दोनों दिन-भर साथ-साथ करें, हाड़ बराबर तोड़ें, फिर भी रोटी का ठेका औरत का।

फिर अन्धेर तो चलता ही है। किसी ने कभी नहीं न देखा था कि औरत ठेकेदार हो और मरदों को घुड़के। बस, जैसी कचहरी वैसा न्याय।

ये सब चल रहा था और चलने वाला था, क्योंकि रावले से जरा दूर ये बड़ा झीलनुमा तालाब बनाया जाने वाला था। मजूरों के लिए ये कौन कम बड़ी बात थी कि दो मुट्ठी अनाज का बन्दोबस्त हो रहा था। मजदूर ने मजदूर होकर कोई किसी पे अहसान तो किया नहीं था, जो उन पर रहम खाने वाले होते। सब अपने-अपने पैदा हो जाने का कर्ज चुका रहे थे और अपने-अपने पेट की भट्टी खोद रहे थे। अपने-अपने हलक का कुआँ खोद रहे थे अभागे।

इन्हीं मजदूरों में चार रोज से मिला गौरांबर अब तक इनमें मिल नहीं पाया था। वह सबसे अलग-अलग दिखायी देता था। वह किसी से कुछ बोलता-चालता न था। वह बोली-भाषा से भी उन लोगों में मिलताऊ न था। जरा-सा पढ़ा लिखा भी था। मेहनती कम नहीं था, पर जरा-सा संकोची। उसके साथ के सब लड़के जहाँ अपनी कमीजें और पैंट-पजामे नजदीक के झाड़ों पर टाँग-टाँग काम में पिले हुए थे, वहीं गौरांबर ने अपनी पैंट के पाँयचे बस मोड़कर घुटनों पर चढ़ा रखे थे। कलाई में घड़ी थी, मगर हाथों में कुदाल। बदन पर भी पैदायशी मजदूरों जैसी धूल-मिट्टी जमी न थी। साफ बनियान और चेहरे को भी बीच-बीच में जेब के रूमाल से पोंछते रहने के कारण साफ-सुथरापन। 

जब दोपहर में रोटी की छुट्टी हुई तो बजरी के एक बड़े से ढेर पर छोटे-से पेड़ की छाँव के समीप गौरांबर भी जा बैठा। रोटी तो वह सुबह ही खाकर आया था। अब जब ज्यादातर औरतें व मर्द रोटी खाने में मशगूल थे, वह जेब से सिगरेट निकालकर पीने लगा... और तभी उस पर ध्यान गया थोड़ी ही दूर पर बैठे ठेकेदार के एक चमचे का, जो अपनी मोटरसाइकिल पर टाँग तिरछी किये बैठा इधर-उधर देख रहा था। हाथ के इशारे से गौरांबर को बुलाया उसने। गौरांबर सिगरेट का लम्बा-सा कश खींचकर उठा और कमीज को कन्धे पर डाल धीमी चाल से चलता उसके समीप आया।

‘‘क्या है?’’ अक्खड़पन से कहा उसने।

ठेकेदार के उस सहायक ने एक बार गौर से आपादमस्तक देखा गौरांबर को। फिर बोला—

क्या नाम है बे तेरा?’’

‘‘गौरांबर।’’

गौरांबर को उसका बोलने का यह ढंग रुचा नहीं और इस अरुचि को वह अपने चेहरे पर भी लाया, फिर भी जरा-सा रुक कर बोला—

‘‘क्या काम है?’’

‘‘कौन-से गाँव का है तू?’’

‘‘क्यों, क्या काम है?’’ गौरांबर ने लापरवाही से सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए कहा। ठेकेदार के आदमी ने उसके सवाल का जवाब न देते हुए अगला सवाल जरा और सख्ती से दागा— 

‘‘कब से काम कर रहा है यहाँ?’’

‘‘चार रोज हो गये।’’

‘‘हँ.. तभी..’’ मन-ही-मन घुटते-से स्वर में आदमी बोला, गौरांबर को भी उसका आशय समझ में नहीं आया। फिर भी अपरिचित होने के कारण उसका स्वर उसी तरह लापरवाही का रहा।

‘‘काम क्या है?’’ गौरांबर ने जरा जोर से पूछा।

आदमी ने घूरकर उसे देखा। फिर कड़क होकर बोला, ‘‘कुछ नहीं, जा अपना काम कर।’’ गौरांबर चकित-सा होकर उसे देखने लगा। अब उसके स्वर में थोड़ी संजीदगी भी आयी और नरमी भी। बोला—

‘‘क्या काम है, भाई साहब?’’

लड़के के तेवर बदलते देख आदमी के चेहरे की सख्ती भी हवा हो गयी। जरा गर्मी से बोला—

‘‘जा, अभी ड्यूटी कर। शाम को बोलता हूँ। कहाँ रहता है?’’

‘‘यहीं नजदीक रहता हूँ।’’ कहने के बाद पल-दो पल गौरांबर ठहरा, फिर पलट कर लौट आया।

शाम के पाँच बजते ही वहाँ पर मेला-सा जुट गया। एक दिन को जिन्दगी से हकाल कर श्रमिक लोग अपने-अपने ठीहे लौटने की तैयारी करने लगे। अपने-अपने हाथ का सामान एक ओर रखकर कोई नल पर हाथ-पैर धोने लगा, कोई कपड़े झाड़कर बीड़ी-सिगरेट की तलब से दो-चार होने लगा। औरतें बाल-बच्चों की सम्भाल में जुट गयीं।

गौरांबर भी बराबर के नल पर हाथ-पैर साफ करके रूमाल से सिर पोंछ ही रहा था कि पास में एक मोटरसाइकिल आकर रुकी। वही दोपहर वाला आदमी था। जैसे ही उसने मोटरसाइकिल को खड़ा किया, गौरांबर ने उसे हाथ जोड़ दिये। दोपहर वाली अजनबियत अब न थी और न ही वह अकड़-अक्कड़पन।

थोड़ी ही देर में गौरांबर उसके साथ मोटरसाइकिल पर सवार होकर जा रहा था। आसपास की पगडण्डियों से कतार-की-कतार मजदूर निकल रहे थे। गौरांबर के साथ दिन भर काम करने वाले लोग आश्चर्य से उसे जाता देख रहे थे।

महल के जिस हिस्से के सामने तालाब का काम चल रहा था, उसी दिशा में तीन-चार किलोमीटर के फासले पर एक लम्बे रास्ते को पार करने के बाद मोटरसाइकिल रुकी। थोड़े-से सुनसान क्षेत्र के बाद यहाँ फिर आबादी थी। आस-पास नये मकानों की छोटी-सी बस्ती और सड़क के पास चन्द एक दुकानें। शहर से जरा दूर की ओर का इलाका था यह, जो अब न तो गाँव रह गया था और न ही पूरी तरह शहर से जुड़ा था। नगरपालिका के नल, बिजली और सड़क यहाँ तक आ चुके थे। 

सड़क के किनारे मोटरसाइकिल को एक दुकान के पास खड़ी करके वह आदमी एक पतली-सी गली में दाखिल हो गया। उसके पीछे-पीछे गौरांबर चला जा रहा था। जाते-जाते आदमी दुकानदार को चाय का भी इशारा करता गया था और जैसे ही एक सीढ़ी चढ़कर आदमी छोटे-से कमरे में दाखिल हुआ, एक छोटा लड़का चाय के दो गिलास लेकर पीछे-पीछे ही हाजिर हो गया।

वहाँ पड़ी खाट पर आदमी, जिसका नाम नरेशभान था बैठ गया। उसने गौरांबर को भी बैठने का इशारा किया। दोनों चाय पीने लगे।

चाय का गिलास हाथ में लिये दोनों अभी तक बातचीत का कोई सिलसिला शुरू किये बिना ही बैठे थे कि कमरे के भीतर ओर के दरवाजे से एक औरत ने प्रवेश किया। गौरांबर ने औरत को हाथ जोड़ने की मुद्रा, हाथ में चाय का गिलास लिए-लिए ही बनायी।  

‘‘ये क्या, तुमने फिर चाय बाहर से मँगवा ली?’’

‘‘मैंने तो उसे कहा भी नहीं था, उसने खुद ही भेज दी।’’ आदमी ने कहा। गौरांबर को याद आया कि चाय वाले ने नरेशभान के इशारा करने पर ही चाय भिजवायी थी।

औरत अधेड़ उम्र की आत्मीय-सी लगने वाली महिला थी। वह पास ही एक स्टूल खींच कर बैठ गयी।

बोली, ‘‘काम शुरू हो गया?’’

‘‘हाँ माँजी!’’ नरेशभान ने कहा।

‘‘देखो, मैं कहे देती हूँ, अब खाना बाहर कहीं मत खा आना, मैं यहीं बनवा रही हूँ।’’ औरत ने बड़ी आत्मीयता और स्नेह से कहा।

एकाएक गौरांबर की ओर देखकर वह औरत फिर बोली, ‘‘ये कौन है?’’

नरेशभान एक असमंजस में रहा। फिर बोला, ‘‘तालाब का काम चल रहा है, वहीं काम करने के लिए आया है।’’ 

‘‘क्या नाम है बेटा तुम्हारा?’’ अब औरत सीधे गौरांबर से मुखातिब थी।

‘‘मेरा नाम गौरांबर है। मैं महल की दूसरी ओर की बस्ती में रहता हूँ।’’

इतने बोलने भर से ही औरत समझ गयी कि गौरांबर स्थानीय नहीं है, बल्कि कहीं बाहर से आया है और साथ ही वह थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा भी है।

‘‘ये मजदूरों में काम कर रहा था। मैंने देखा तो समझ गया कि ये मजबूरी में ही काम कर रहा है।’’ अभी इससे कोई बात नहीं हुई है। पर मैं इसे जगह दिखाने लाया हूँ। रावसाहब ने वहाँ पर आदमी रखने को कहा है।

गौरांबर आश्चर्य से देखने लगा। उसे मन-ही-मन प्रसन्नता भी हुई कि यह अजनबी आदमी, जिसे वह ठेकेदार के आदमी के रूप में ही जानता है, उसके लिए बेहतर रोजगार की पेशकश कर रहा है।

सारी बात उजागर हो जाने पर नरेशभान ने गौरांबर को विस्तार से सारी बात समझा दी। महल के कामकाज से ही यहाँ से जरा दूर एक खेत में बने तीन-चार कमरों का अधबना-सा मकान किराये पर लिया गया था, जिसकी मालकिन यह औरत थी। उसी मकान पर केयरटेकर की हैसियत से रखने के लिए नरेशभान गौरांबर को लाया था। यह कमरा, जिसमें अभी वे लोग बैठे हुए थे, भी किराये पर लिया गया था और यहाँ नरेशभान रहने के लिए आने वाला था। दो-चार घर छोड़कर ही वह दूसरा मकान भी था।

‘‘तो तुम बाल-बच्चों को कब तक ले आओगे?’’

‘‘बस, अगले इतवार को जा रहा हूँ।’’

यह सुनते ही औरत के चेहरे पर चमक आ गयी। शायद वह भी अकेलेपन और ऊब की शिकार थी, जिसे अपना यह नया बना घर शीघ्र आबाद करने की उतावली थी। उसे इस बात की खुशी थी कि रावसाहब के बड़े महल के ठेकेदार का सम्बन्धी उसके मकान में आया था और उसके जरिये उस विकसित होती बस्ती में कई छोटे-मोटे काम स्वत: हो जाने की आशा बँधी थी।

‘‘तुम्हारे घर में और कौन-कौन हैं?’’ औरत ने गौरांबर की ओर देखते हुए पूछा।

‘‘मैं तो अकेला हूँ।’’

‘‘माँ-बाप... भाई बहन...?’’