आखेट महल - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 1


एक

आखेट महल के परकोटे के सामने आज सुबह से ही चहल-पहल थी। बड़ी मोटर अभी-अभी आकर लौट चुकी थी। ट्रकों में भरकर ढेर सारे कामगार लाये गये थे। परकोटे के किनारे-किनारे महल के एक ओर के हिस्से की खाई, जो अब सूखकर पथरीली बंजर जमीन के रूप में पड़ी थी, चारों ओर से आदमियों से घिरी हुई थी। मर्द, औरतें यहाँ तक कि बच्चे भी थे, सब इधर से उधर आवाजाही में लगे थे। खाई के बीचों-बीच के थोड़े से हिस्से में अब भी जरा-सा पानी था जो काई, गन्दगी और कीचड़ का मिला-जुला गड्ढा-सा बन गया था। इसकी सफाई करके इसे और बड़े तालाब का आकार दिया जाना था। नाप-जोख हो चुकी थी। अब तो कतार-की-कतार औरतें परात ले-लेकर तथा मर्दों के झुंड कुदालें और फावड़ों सहित चारों ओर फैलते जा रहे थे। मजदूरों के चेहरे पर जो उल्लास-सा था, उसका कारण खोजना कठिन था। न जाने क्या था कि जिनके पास कुछ न था उनके पास सन्तोष था। आसपास के ही नहीं, बल्कि दूरदराज के मजदूरों को भी ठेकेदार ट्रकों व ट्रालियों में भर-भरकर ले आये थे। ये वे लोग थे जिन्हें अपनी सुबह, शाम के बारे में तथा शाम को अगले सवेरे के बारे में कुछ मालूम नहीं होता। ये जहाँ होते हैं वहीं इनका घर होता है। जहाँ इनकी भूख होती है, वहीं चूल्हा होता है। ये उन लोगों से बहुत अलग किस्म के लोग होते थे जिन लोगों के लिए ये काम करते थे।

इन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं होती थी कि उदर में चार ही रोटी जा रही हों तो पाँचवीं जबरदस्ती चूरन-चटनी के सहारे कैसे ठूँसी जाय। इन्हें नहीं मालूम था कि रात पडऩे पर यदि नींद न आये तो कैसे दवा-दारू के बल पर अपने मगज को ‘बेहोस’ किया जाय। इन्हें सात पुश्तों के लायक अन्न जमा जोड़कर अपने नीचे अबेरने का कोई जुनून न था। इन्हें अपने महल-दोमहलों में ढाँचे-ढँचरे जमा करके बीमा कम्पनी की मदद से उस पर कुण्डली मारकर बैठने का कोई जौम न था। ये तो बस इन्सान थे।

फिर भी ये आदमी की जात के तो थे ही। इसी से जब कीकर के पेड़ की पतली डाली पर गठरी के झूले में झूलते अपने सात माह के टुकड़े की चिल्लाहट सुनकर रसवन्ती उसे सम्भालने न टली तो उसका मरद उस पर दाँत पीसने लगा। बार-बार कहता था, ‘छोटका गला फाड़ चिल्ला रहा है, एक बार जाकर उसे सम्भाल क्यों नहीं आती, हरामजादी कहीं की।’

अब रसवन्ती अपने आदमी को कैसे समझाती कि छोटका सिर्फ करीब जाकर दुलरा देने से नहीं चुपाने वाला। उसे भूख लगी है और रसवन्ती को जाकर बोबा देना होगा। उसका आदमी तो, हरामी कहीं का मर्द है न, वो क्या समझेगा कि रसवन्ती बोबा देने गयी तो ठेकेदार का लौण्डा भी पीछे आयेगा। और घड़ी देखने के बहाने बच्चे के दूध का बर्तन देखेगा। बड़ा डर लगता था रसवन्ती को। तलवार की धार पर चलने के समान काम था। जरा-सी हील-हुज्जत पर काम से हटा देने का खटका और लौण्डे की जरा-सी मान लेने पर अपने मरद पर दानव चढऩे का अंदेशा। इधर कुआँ, उधर खाई। बीच की पतली-सी लीक पर चलते मोह-ममता भी निभानी और जी-हुजूरी भी। पेट भी भरना ऊपर से। अपना ही नहीं, अपने मरद का भी।

चढ़ती धूप की गर्मी बढ़ती जाती थी। मरद-मानसों की पेशानियों पर पसीना बढ़ता जाता था। औरतों के कपड़ों पर धूल-धक्कड़ बढ़ता जाता था। दिन चढ़ता जाता था। बढ़ती धूप और गर्मी के साथ-साथ मरदों को तो बदन के लत्ते उतारते चले जाने का सुभीता था पर औरतों को तो सब ढोना था। मरद कुदाल चलाते-चलाते बीच में बीड़ी-तमाखू का दम मारते। चुहलबाजियाँ चलतीं। औरतों का ध्यान धूप की छाँव पर रहता, कब पूरे बारह बजें और परातें छोड़-छोड़ कर चूल्हे-रोटी सम्भालें।

मजदूरी में बूढ़े भी थे, जवान भी, बच्चे भी। अलग-अलग गाँवों के अलग-अलग जात के। हाँ, बस एक बात समान थी कि काम के बाद में कभी किसी ने न देखा कि कहीं कोई औरत पाँव फैलाकर बैठ जाये और मरद चूल्हे में फूँक मार कर दाल गलायें, काम चाहे दोनों दिन-भर साथ-साथ करें, हाड़ बराबर तोड़ें, फिर भी रोटी का ठेका औरत का।

फिर अन्धेर तो चलता ही है। किसी ने कभी नहीं न देखा था कि औरत ठेकेदार हो और मरदों को घुड़के। बस, जैसी कचहरी वैसा न्याय।

ये सब चल रहा था और चलने वाला था, क्योंकि रावले से जरा दूर ये बड़ा झीलनुमा तालाब बनाया जाने वाला था। मजूरों के लिए ये कौन कम बड़ी बात थी कि दो मुट्ठी अनाज का बन्दोबस्त हो रहा था। मजदूर ने मजदूर होकर कोई किसी पे अहसान तो किया नहीं था, जो उन पर रहम खाने वाले होते। सब अपने-अपने पैदा हो जाने का कर्ज चुका रहे थे और अपने-अपने पेट की भट्टी खोद रहे थे। अपने-अपने हलक का कुआँ खोद रहे थे अभागे।

इन्हीं मजदूरों में चार रोज से मिला गौरांबर अब तक इनमें मिल नहीं पाया था। वह सबसे अलग-अलग दिखायी देता था। वह किसी से कुछ बोलता-चालता न था। वह बोली-भाषा से भी उन लोगों में मिलताऊ न था। जरा-सा पढ़ा लिखा भी था। मेहनती कम नहीं था, पर जरा-सा संकोची। उसके साथ के सब लड़के जहाँ अपनी कमीजें और पैंट-पजामे नजदीक के झाड़ों पर टाँग-टाँग काम में पिले हुए थे, वहीं गौरांबर ने अपनी पैंट के पाँयचे बस मोड़कर घुटनों पर चढ़ा रखे थे। कलाई में घड़ी थी, मगर हाथों में कुदाल। बदन पर भी पैदायशी मजदूरों जैसी धूल-मिट्टी जमी न थी। साफ बनियान और चेहरे को भी बीच-बीच में जेब के रूमाल से पोंछते रहने के कारण साफ-सुथरापन।

जब दोपहर में रोटी की छुट्टी हुई तो बजरी के एक बड़े से ढेर पर छोटे-से पेड़ की छाँव के समीप गौरांबर भी जा बैठा। रोटी तो वह सुबह ही खाकर आया था। अब जब ज्यादातर औरतें व मर्द रोटी खाने में मशगूल थे, वह जेब से सिगरेट निकालकर पीने लगा... और तभी उस पर ध्यान गया थोड़ी ही दूर पर बैठे ठेकेदार के एक चमचे का, जो अपनी मोटरसाइकिल पर टाँग तिरछी किये बैठा इधर-उधर देख रहा था। हाथ के इशारे से गौरांबर को बुलाया उसने। गौरांबर सिगरेट का लम्बा-सा कश खींचकर उठा और कमीज को कन्धे पर डाल धीमी चाल से चलता उसके समीप आया।

‘‘क्या है?’’ अक्खड़पन से कहा उसने।

ठेकेदार के उस सहायक ने एक बार गौर से आपादमस्तक देखा गौरांबर को। फिर बोला—

क्या नाम है बे तेरा?’’

‘‘गौरांबर।’’

गौरांबर को उसका बोलने का यह ढंग रुचा नहीं और इस अरुचि को वह अपने चेहरे पर भी लाया, फिर भी जरा-सा रुक कर बोला—

‘‘क्या काम है?’’

‘‘कौन-से गाँव का है तू?’’

‘‘क्यों, क्या काम है?’’ गौरांबर ने लापरवाही से सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए कहा। ठेकेदार के आदमी ने उसके सवाल का जवाब न देते हुए अगला सवाल जरा और सख्ती से दागा—

‘‘कब से काम कर रहा है यहाँ?’’

‘‘चार रोज हो गये।’’

‘‘हँ.. तभी..’’ मन-ही-मन घुटते-से स्वर में आदमी बोला, गौरांबर को भी उसका आशय समझ में नहीं आया। फिर भी अपरिचित होने के कारण उसका स्वर उसी तरह लापरवाही का रहा।

‘‘काम क्या है?’’ गौरांबर ने जरा जोर से पूछा।

आदमी ने घूरकर उसे देखा। फिर कड़क होकर बोला, ‘‘कुछ नहीं, जा अपना काम कर।’’ गौरांबर चकित-सा होकर उसे देखने लगा। अब उसके स्वर में थोड़ी संजीदगी भी आयी और नरमी भी। बोला—

‘‘क्या काम है, भाई साहब?’’

लड़के के तेवर बदलते देख आदमी के चेहरे की सख्ती भी हवा हो गयी। जरा गर्मी से बोला—

‘‘जा, अभी ड्यूटी कर। शाम को बोलता हूँ। कहाँ रहता है?’’

‘‘यहीं नजदीक रहता हूँ।’’ कहने के बाद पल-दो पल गौरांबर ठहरा, फिर पलट कर लौट आया।

शाम के पाँच बजते ही वहाँ पर मेला-सा जुट गया। एक दिन को जिन्दगी से हकाल कर श्रमिक लोग अपने-अपने ठीहे लौटने की तैयारी करने लगे। अपने-अपने हाथ का सामान एक ओर रखकर कोई नल पर हाथ-पैर धोने लगा, कोई कपड़े झाड़कर बीड़ी-सिगरेट की तलब से दो-चार होने लगा। औरतें बाल-बच्चों की सम्भाल में जुट गयीं।

गौरांबर भी बराबर के नल पर हाथ-पैर साफ करके रूमाल से सिर पोंछ ही रहा था कि पास में एक मोटरसाइकिल आकर रुकी। वही दोपहर वाला आदमी था। जैसे ही उसने मोटरसाइकिल को खड़ा किया, गौरांबर ने उसे हाथ जोड़ दिये। दोपहर वाली अजनबियत अब न थी और न ही वह अकड़-अक्कड़पन।

थोड़ी ही देर में गौरांबर उसके साथ मोटरसाइकिल पर सवार होकर जा रहा था। आसपास की पगडण्डियों से कतार-की-कतार मजदूर निकल रहे थे। गौरांबर के साथ दिन भर काम करने वाले लोग आश्चर्य से उसे जाता देख रहे थे।

महल के जिस हिस्से के सामने तालाब का काम चल रहा था, उसी दिशा में तीन-चार किलोमीटर के फासले पर एक लम्बे रास्ते को पार करने के बाद मोटरसाइकिल रुकी। थोड़े-से सुनसान क्षेत्र के बाद यहाँ फिर आबादी थी। आस-पास नये मकानों की छोटी-सी बस्ती और सड़क के पास चन्द एक दुकानें। शहर से जरा दूर की ओर का इलाका था यह, जो अब न तो गाँव रह गया था और न ही पूरी तरह शहर से जुड़ा था। नगरपालिका के नल, बिजली और सड़क यहाँ तक आ चुके थे।

सड़क के किनारे मोटरसाइकिल को एक दुकान के पास खड़ी करके वह आदमी एक पतली-सी गली में दाखिल हो गया। उसके पीछे-पीछे गौरांबर चला जा रहा था। जाते-जाते आदमी दुकानदार को चाय का भी इशारा करता गया था और जैसे ही एक सीढ़ी चढ़कर आदमी छोटे-से कमरे में दाखिल हुआ, एक छोटा लड़का चाय के दो गिलास लेकर पीछे-पीछे ही हाजिर हो गया।

वहाँ पड़ी खाट पर आदमी, जिसका नाम नरेशभान था बैठ गया। उसने गौरांबर को भी बैठने का इशारा किया। दोनों चाय पीने लगे।

चाय का गिलास हाथ में लिये दोनों अभी तक बातचीत का कोई सिलसिला शुरू किये बिना ही बैठे थे कि कमरे के भीतर ओर के दरवाजे से एक औरत ने प्रवेश किया। गौरांबर ने औरत को हाथ जोडऩे की मुद्रा, हाथ में चाय का गिलास लिए-लिए ही बनायी। 

‘‘ये क्या, तुमने फिर चाय बाहर से मँगवा ली?’’

‘‘मैंने तो उसे कहा भी नहीं था, उसने खुद ही भेज दी।’’ आदमी ने कहा। गौरांबर को याद आया कि चाय वाले ने नरेशभान के इशारा करने पर ही चाय भिजवायी थी।

औरत अधेड़ उम्र की आत्मीय-सी लगने वाली महिला थी। वह पास ही एक स्टूल खींच कर बैठ गयी।

बोली, ‘‘काम शुरू हो गया?’’

‘‘हाँ माँजी!’’ नरेशभान ने कहा।

‘‘देखो, मैं कहे देती हूँ, अब खाना बाहर कहीं मत खा आना, मैं यहीं बनवा रही हूँ।’’ औरत ने बड़ी आत्मीयता और स्नेह से कहा।

एकाएक गौरांबर की ओर देखकर वह औरत फिर बोली, ‘‘ये कौन है?’’

नरेशभान एक असमंजस में रहा। फिर बोला, ‘‘तालाब का काम चल रहा है, वहीं काम करने के लिए आया है।’’

‘‘क्या नाम है बेटा तुम्हारा?’’ अब औरत सीधे गौरांबर से मुखातिब थी।

‘‘मेरा नाम गौरांबर है। मैं महल की दूसरी ओर की बस्ती में रहता हूँ।’’

इतने बोलने भर से ही औरत समझ गयी कि गौरांबर स्थानीय नहीं है, बल्कि कहीं बाहर से आया है और साथ ही वह थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा भी है।

‘‘ये मजदूरों में काम कर रहा था। मैंने देखा तो समझ गया कि ये मजबूरी में ही काम कर रहा है।’’ अभी इससे कोई बात नहीं हुई है। पर मैं इसे जगह दिखाने लाया हूँ। रावसाहब ने वहाँ पर आदमी रखने को कहा है।

गौरांबर आश्चर्य से देखने लगा। उसे मन-ही-मन प्रसन्नता भी हुई कि यह अजनबी आदमी, जिसे वह ठेकेदार के आदमी के रूप में ही जानता है, उसके लिए बेहतर रोजगार की पेशकश कर रहा है।

सारी बात उजागर हो जाने पर नरेशभान ने गौरांबर को विस्तार से सारी बात समझा दी। महल के कामकाज से ही यहाँ से जरा दूर एक खेत में बने तीन-चार कमरों का अधबना-सा मकान किराये पर लिया गया था, जिसकी मालकिन यह औरत थी। उसी मकान पर केयरटेकर की हैसियत से रखने के लिए नरेशभान गौरांबर को लाया था। यह कमरा, जिसमें अभी वे लोग बैठे हुए थे, भी किराये पर लिया गया था और यहाँ नरेशभान रहने के लिए आने वाला था। दो-चार घर छोड़कर ही वह दूसरा मकान भी था।

‘‘तो तुम बाल-बच्चों को कब तक ले आओगे?’’

‘‘बस, अगले इतवार को जा रहा हूँ।’’

यह सुनते ही औरत के चेहरे पर चमक आ गयी। शायद वह भी अकेलेपन और ऊब की शिकार थी, जिसे अपना यह नया बना घर शीघ्र आबाद करने की उतावली थी। उसे इस बात की खुशी थी कि रावसाहब के बड़े महल के ठेकेदार का सम्बन्धी उसके मकान में आया था और उसके जरिये उस विकसित होती बस्ती में कई छोटे-मोटे काम स्वत: हो जाने की आशा बँधी थी।

‘‘तुम्हारे घर में और कौन-कौन हैं?’’ औरत ने गौरांबर की ओर देखते हुए पूछा।

‘‘मैं तो अकेला हूँ।’’

‘‘माँ-बाप... भाई बहन...?’’

‘‘सब गाँव में हैं, मैं तो यहाँ काम की तलाश में आया था। काफी दिनों तक कोई काम मिला ही नहीं, फिर महल के काम पर लग गया। मैं एक आदमी के साथ उसके घर पर रह रहा था, यहीं से दो-चार लोग महल आते हैं, उन्होंने ही लगवा दिया।’’

‘‘चलो अच्छा हुआ। पढ़े-लिखे हो कुछ?’’

‘‘दसवीं में फेल हो गया था।’’ गौरांबर ने जरा झिझकते हुए कहा।

‘‘तुम्हारा गाँव कौन-सा है?’’

‘‘बहुत दूर है यहाँ से। बिहार के बॉर्डर पर पड़ता है।’’

‘‘बड़ी दूर चले आये। यहाँ कोई नाते-रिश्तेदार हैं क्या?’’

‘‘रिश्तेदार तो नहीं हैं।’’

‘‘फिर कैसे आना हुआ?’’

इस प्रश्न पर कोई उत्तर गौरांबर न दे सका। औरत ने भी इसे अनदेखा कर दिया। थोड़ी ही देर में वे लोग वहाँ से उठ लिए। 

धीरे-धीरे नरेशभान को गौरांबर के बारे में और जानकारी मिलती चलती गयी। और गौरांबर को भी उस हाड़तोड़ मेहनत से निजात मिल गई। अब गौरांबर नये मकान के पिछवाड़े रहने लगा। वह दिन में नरशेभान के साथ ही साइट पर आता था, पर अब उसे यहाँ मजदूरी नहीं करनी पड़ती थी, बल्कि कभी मजदूरों की हाजिरी या छोटा-मोटा हिसाब-किताब का कोई और काम उसे मिलने लगा। गौरांबर ने भी इस मौके का फायदा उठाया और मेहनत से काम करने लगा।

कभी-कभी नरेशभान गौरांबर को अपने घर भी ले जाता। वहाँ उसका परिवार भी अब आ गया था। उसकी पत्नी थी और एक छोटी बच्ची तथा नरेशभान के पिता भी उन लोगों के साथ रहते थे। गौरांबर उस परिवार में धीरे-धीरे घुलने-मिलने लगा। कभी-कभी नरेशभान की घरवाली उसके लिए खाना भी वहीं परोस देती थी। गौरांबर ने भी अपनी कोठरी में खाने-पीने का थोड़ा-बहुत जुगाड़ कर लिया था।

ढंग से रोजगार से लग जाने और रहने-खाने की ठीक से सुविधा हो जाने के बाद गौरांबर को अब अपने घर की याद आयी। उसने महीनों से घर पर खत तक न डाला था। उसे घर से निकल आये लगभग चार महीने हो रहे थे। घर पर उसकी कितनी फिक्र हो रही थी, ये अब तक उसे आभास न था। लेकिन अब, सब बन्दोबस्त हो जाने के बाद उसे भी शिद्दत से अपने माँ-बाप और छोटे भाई-बहनों का ख्याल आया और उसने मौका मिलते ही घर जाने का विचार मन-ही-मन बनाया।

गौरांबर के इतनी दूर चले आने के पीछे भी एक कारण था। दसवीं में फेल हो जाने के बाद एक-दो साल इधर-उधर बेकार घूमने के दिनों में उसकी पहचान उसके मोहल्ले से जरा दूर रहने वाली एक लड़की से हो गयी थी। लड़की कभी, कई साल पहले स्कूल में भी उसके साथ पढ़ी थी। लड़की से उसका परिचय घनिष्ठ होता चला गया और वे दोनों प्यार में भी पड़ गये। लड़की का बाप रिक्शा चलाता था। गौरांबर बाप की गैरहाजिरी में लड़की के पास आने-जाने लगा और उसी दौरान उसका परिचय लड़की के पिता से हो गया। एक दिन गौरांबर लड़की के घर पहुँचा तो देखा, उसका बाप बीमारी में तपता चारपाई पर पड़ा है। उसे एक सौ चार डिग्री बुखार था और लड़की घबरा कर उसके पास बैठी हुई थी। गौरांबर की जेब में दो-चार रुपये थे। सब उसने लड़की को दे दिये। लड़की पास के एक डॉक्टर से दवा लेने चली गई। जब लौटी तो काफी सहज भी हो गयी थी और कृतज्ञ भी।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी। वह लड़की से बोला, ‘‘बीमारी में घर का खर्चा तो बढ़ेगा ही और आमदनी कुछ होगी नहीं, क्यों न रिक्शा खुद चलाया जाये।’’ लड़की को भला क्या आपत्ति होती। घर में बीमार बूढ़ा बाप, और दूसरा कोई कमाने वाला नहीं। माँ थी नहीं। गौरांबर की पेशकश पर कोठरी के बाहर खड़ा रिक्शा ले जाने दिया। 

गौरांबर सरपट पैडल मारता हुआ रिक्शे को अपने मोहल्ले से बहुत दूर स्टेशन की ओर निकाल ले गया। दो-तीन घण्टे में गौरांबर ने अच्छी कमाई कर ली। किस्मत अच्छी थी, एक के बाद एक सवारियाँ मिलती ही चली गयीं। रिक्शा भी जो अब तक अपने बूढ़े सवार के साथ बेमन से शहर भर में घूमता-फिरता था; आज तरोताजा जवान सवार के साथ मस्ती में आ गया था और जोश-खरोश से दौड़ रहा था। पचपन साल का बूढ़ा दो दिन में जितना कमा पाता था, अठारह साल के गौरांबर ने तीन घण्टे में कमा लिया था। लेकिन तभी न जाने क्या हुआ, सड़क के किनारे खड़े रिक्शे को एक ट्रक ने टक्कर मार दी। संयोग ही था कि गौरांबर उस वक्त रिक्शे पर सवार नहीं था। एक सवारी के पास छुट्टा पैसा न होने के कारण उसने दस का नोट दिया था और गौरांबर रिक्शा सड़क के किनारे रोककर पास की एक दुकान से दस का छुट्टा लेने गया हुआ था। अकेला खड़ा था रिक्शा। ट्रक ने गुजरते समय टक्कर मार दी। साइड से ट्रक तो निकल गया पर रिक्शे का बड़ा नुकसान हुआ। एक ओर का पहिया तो बिलकुल ही पिचक कर दब गया। घबराकर गौरांबर ने रिक्शा उठाया। उलट-पलट कर देखा। उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसकी समझ में न आया कि वह अब जाकर लड़की और उसके बूढ़े बाप को क्या मुँह दिखायेगा, जिनकी रोजी-रोटी का आसरा वही रिक्शा था।

हिम्मत करके गौरांबर रिक्शे को ठेलता हुआ एक दुकान पर ले गया। वहाँ दुकानदार ने सारा मुआयना करने के बाद दो सौ पचहत्तर रुपये की माँग की। गौरांबर की जेब में कुल बाईस रुपये थे। कुछ सोच कर उसने रिक्शा वहीं छोड़ दिया और मरम्मत करने को कह दिया। दुकानदार ने उसे दो दिन बाद आकर रिक्शा ले जाने को कहा।

गौरांबर लड़की के घर की ओर जा रहा था, तो उसके पैरों में जैसे मानो भारी पत्थर बाँध दिये थे किसी ने। वह सोच न पा रहा था कि बीमार बूढ़े की उस बेसहारा बेटी को कैसे मुँह दिखायेगा। कैसे उसका सामना करेगा।

एक बार उसके मन में आया कि वह लड़की से मिले ही नहीं और अपने घर लौट जाये। लड़की उसका घर जानती न थी। यही सोच उसे लड़की के घर की ओर जाने से रोकती थी और अन्तत: वह अपने घर चला गया। किन्तु दिन भर उसका मन किसी काम में न लगा। अनमना-सा वह इधर-उधर घूमता रहा। न उसने इस बारे में किसी को बताया। गुमसुम-सा बैठा रहा। लेकिन उसे लगा शाम होते ही लड़की बेसब्री से इन्तजार करेगी। घबरा कर उसके बारे में न जाने क्या-क्या सोचेगी। बीमार बाप की न जाने क्या दशा होगी। उनके घर में खाने-पीने का न जाने कोई जुगाड़ हो पाया होगा या नहीं।

यही सब बातें उसे परेशान करती रहीं। आखिर उससे न रहा गया। शाम गहराते ही उसकी बेचैनी हद से ज्यादा बढऩे लगी। वह घर में बिना किसी को बताये निकला और लड़की के घर की ओर चल दिया। और तब उसके दिमाग में एक विचार कौंध आया। अपनी कलाई पर बँधी पिता की पुरानी घड़ी उसे आशा की एक किरण के रूप में दिखलायी दी। उसके सहारे ही वह लड़की के घर की ओर बढऩे लगा।

लड़की की आँखों में किवाड़ खोलते ही खुशी की लहर दौड़ गयी। लेकिन जब उसने गौरांबर को मुँह लटकाये खड़ा देखा, तो उसे यकायक किसी संशय ने घेर लिया। साथ में रिक्शा भी न था। उसका माथा ठनका। इससे पहले कि वह कुछ पूछती, गौरांबर रो पड़ा। लड़की आश्चर्य से आँखें फाड़े उसे देखती रही और गौरांबर को रोते देखकर खुद उसका भी गला भर्रा गया।

जैसे-तैसे गौरांबर ने लड़की को पूरी बात बतायी। फिर जेब के रुपये निकाल कर उसके हवाले कर दिये। लड़की मुट्ठी बंद करके दरवाजे से लग गयी। एक पल किंकत्र्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही। फिर उसका ध्यान गौरांबर की ओर गया जो भीगी आँखों से ही हाथ में अपनी घड़ी लिए खड़ा था। लड़की की आँखों से भी अब तक आँसू बहने लगे थे।

लड़की ने घड़ी गौरांबर के हाथ से लेकर वापस उसकी जेब में रख दी और उसका माथा सहलाते हुए उसे भीतर आने का इशारा किया। बूढ़ा पिता सारी बात से बेखबर निश्चिन्त सोया हुआ था।

और देर रात को जब गौरांबर घर वापस आया तो माँ खाना लिए इंतजार में बैठी मिली। पर गौरांबर ने खाना न खाया, माँ कारण पूछती रह गयी।

बस, अगले दिन जब जगा, गौरांबर मन में कोई संकल्प लिए गाड़ी में आ बैठा। उसके बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ। लड़की से वह फिर नहीं मिला।

आज इस बात को पूरे चार महीने हो चुके थे और गौरांबर को रह-रह कर आज अपने घर की याद आ रही थी। लड़की और उसके बूढ़े लाचार बाप की याद आ रही थी।

जमीन पर बिछी दरी पर लेटे हुए गौरांबर ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी पर एक बार हाथ फेरा और फिर गली के खम्भे से आती रोशनी की कतरन में हाथ बढ़ा कर समय देखा। रात के पौने तीन बज रहे थे। करवट बदल कर उसने सोने की कोशिश की।

अगले दिन काम पर गया तो दोपहर को मौका पाते ही उसने नरेशभान से बात की। नरेशभान ने उसकी घर जाने की बात को गम्भीरता से नहीं लिया। उसने मौका देखकर दबी जुबान से दो-तीन बार जिक्र छेड़ा, लेकिन नरेशभान किसी-न-किसी तरह हर बार टालता गया।

गौरांबर को लगा, शायद नया-नया काम होने की वजह से नरेशभान नहीं चाहता होगा कि वह छुट्टी पर जाये। लेकिन स्वयं गौरांबर का हाल भी अब ऐसा था कि जितना वह काम में मन लगाने की कोशिश करता था, उतना ही रह-रह कर उसे अपने घर की याद सताती थी। उसने अपने घर पर अब तक यही सोचकर चिट्ठी भी न डाली थी कि उसका गाँव जाने का कुछ ठीक हो जाये तभी वह घरवालों को सूचना दे।

मन के किसी कोने में उसे उस लड़की और उसके बेजार बाप का भी ख्याल था, जिन्हें एक तरह से मझधार में ही छोड़ आया था वह। न जाने क्या हुआ होगा। लड़की के पिता की तबीयत कैसी होगी। उन लोगों ने रिक्शे की वापसी के लिए क्या किया होगा। यही सब बातें जब-जब उसके दिमाग में आतीं वह और परेशान हो जाता।

जिस मकान में गौरांबर को रखा गया था, वह आरम्भ में तो लगभग खाली ही पड़ा रहा था पर अब धीरे-धीरे उसमें साज-सजावट की जाने लगी थी। कभी-कभी नरेशभान वहाँ आता और उसके साथ और लोगों की आवाजाही भी लगी रहती थी। यहाँ तक कि एक दिन खुद बड़े रावसाहब भी वहाँ आये थे। बड़ी-सी कार दरवाजे पर आधे घण्टे ठहरी रही। उस दम खेत-खलिहानों के बीच बना वह मकान किसी कोठी सरीखा आबाद हो गया था। रावसाहब के साथ कई लोग आये थे। दो-चार जीपें, मोटरें और भी थीं। सब खाने-पीने का इन्तजाम नरेशभान ने करवाया था। उसी दिन पहली बार गौरांबर ने बड़े रावसाहब को देखा।

पता नहीं बड़े रावसाहब ने गौरांबर को देखा या नहीं। वैसे उसे जानते तो अवश्य ही होंगे। आखिर इतनी बड़ी कोठी पर उसकी ड्यूटी लगी है तो रावसाहब को मालूम तो होगा ही। यही सब सोचता रहा गौरांबर। रावसाहब गौरांबर को बहुत भले और अच्छे इंसान लगे। जैसे देखने में वैसे ही बातचीत में। किस तरह बारीक-सी आवाज में आहिस्ता-से बोलते थे। जिस दम बोलते थे कमरे में सन्नाटा-सा होता था। खूब सुनते थे, कम बोलते थे। और जब बोलते थे तो किसी में माद्दा न होता कि बीच में टोके। सब खामोशी से सुनते थे। चेहरे पर एक चमक भरी हँसी हर वक्त बनी ही रहती। 

और गौरांबर को अच्छी तरह याद है, बड़े रावसाहब ने दारू का गिलास भी हाथ में नहीं उठाया था। वह शरबत ही पीते रहे। या फिर एकाध काजू उठाकर खाते रहे। खाने का खिलवाड़-सा करते रहे।

कोठी में जरूरत का अन्य सामान व फर्नीचर आदि आ जाने के बाद गौरांबर को और भी आराम हो गया था। अब उसे अपने घुटन भरे कमरे में ही जमीन पर दरी डालकर नहीं सोना पड़ता था बल्कि वह बड़े वाले बाहरी कमरे में दीवान पर सोने लगा था। यद्यपि सुबह होते ही अपने यहाँ सोने के सभी चिन्ह, कपड़े आदि वह इस तरह समेट देता कि किसी को भी पता न चले। वह अपना सामान इधर-उधर फैलाने के बजाय अपनी कोठरीनुमा जगह में ही रखता था। बड़े आदमियों का क्या ठिकाना। कब कौन बात पर क्या सोचने लगें, बिगड़ जायें। लगा-लगाया काम हाथ से चला जाये।

लेकिन यह सब गौरांबर का सोचना भर था। धीरे-धीरे गुलजार होती जाती उस कोठी में गौरांबर की सुख-सुविधाएँ बढ़ती ही जाती थीं। किसी पार्टी-वार्टी के लिए खाने-पीने का इतना सामान आता कि बाद में दो-तीन दिन गौरांबर के लिए कोई कमी न रहती। जब और नौकर-चाकर आते और वहाँ खाने-पीने का प्रबंध देखते तो गौरांबर की हैसियत सुपरवाइजर जैसी होती। उसको भी महत्त्व दिया जाता।

कीमती, भारी परदों से जब वह नौकरों को गीली प्लेटें पोंछते देखता तो धीरे-धीरे वह भी खुलने लगा। रात को दीवान पर सोना और ओढऩे-बिछाने के लिए परदों को इस्तेमाल करना उसके लिए हमेशा का-सा नियम बनता गया।

यही नहीं, बल्कि त्यौहार पर महल के नौकरों को जो नये कपड़ों का एक जोड़ा हर साल दिया जाता था, चन्द दिनों बाद गौरांबर के लिए भी आया।

कभी-कभी गौरांबर को नरेशभान जब काम से अपने साथ इधर-उधर ले जाता तो गौरांबर देखकर हैरान होता कि इन लोगों के शहर में ढेरों ठिकाने हैं। बेहिसाब रसूख-रुतबा है और चारों दिशा में फैला लम्बा-चौड़ा कारोबार है।

गौरांबर अपने नसीब को सराहता ।