आखेट महल - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • साथिया - 139

    एक महीने बाद*अक्षत कोर्ट जाने के लिए तैयार हो रहा था और  साँ...

  • नशे की रात - भाग - 2

    अनामिका ने अपने पापा मम्मी को इस तरह कभी नहीं देखा था कि मम्...

  • अनोखा विवाह - 7

    अनिकेत आप शादी के बाद के फैसले लेने के लिए बाध्य हैं पहले के...

  • अनामिका - 4

    सूरज के जीवन में बदलाव की कहानी हर उस इंसान के लिए है जो कभी...

  • इश्क दा मारा - 35

    गीतिका की बात सुन कर उसकी बुआ जी बोलती है, "बेटा परेशान क्यो...

श्रेणी
शेयर करे

आखेट महल - 2

दो

‘‘सब गाँव में हैं, मैं तो यहाँ काम की तलाश में आया था। काफी दिनों तक कोई काम मिला ही नहीं, फिर महल के काम पर लग गया। मैं एक आदमी के साथ उसके घर पर रह रहा था, यहीं से दो-चार लोग महल आते हैं, उन्होंने ही लगवा दिया।’’

‘‘चलो अच्छा हुआ। पढ़े-लिखे हो कुछ?’’

‘‘दसवीं में फेल हो गया था।’’ गौरांबर ने जरा झिझकते हुए कहा।

‘‘तुम्हारा गाँव कौन-सा है?’’

‘‘बहुत दूर है यहाँ से। बिहार के बॉर्डर पर पड़ता है।’’

‘‘बड़ी दूर चले आये। यहाँ कोई नाते-रिश्तेदार हैं क्या?’’

‘‘रिश्तेदार तो नहीं हैं।’’

‘‘फिर कैसे आना हुआ?’’

इस प्रश्न पर कोई उत्तर गौरांबर न दे सका। औरत ने भी इसे अनदेखा कर दिया। थोड़ी ही देर में वे लोग वहाँ से उठ लिए।  

धीरे-धीरे नरेशभान को गौरांबर के बारे में और जानकारी मिलती चलती गयी। और गौरांबर को भी उस हाड़तोड़ मेहनत से निजात मिल गई। अब गौरांबर नये मकान के पिछवाड़े रहने लगा। वह दिन में नरशेभान के साथ ही साइट पर आता था, पर अब उसे यहाँ मजदूरी नहीं करनी पड़ती थी, बल्कि कभी मजदूरों की हाजिरी या छोटा-मोटा हिसाब-किताब का कोई और काम उसे मिलने लगा। गौरांबर ने भी इस मौके का फायदा उठाया और मेहनत से काम करने लगा।

कभी-कभी नरेशभान गौरांबर को अपने घर भी ले जाता। वहाँ उसका परिवार भी अब आ गया था। उसकी पत्नी थी और एक छोटी बच्ची तथा नरेशभान के पिता भी उन लोगों के साथ रहते थे। गौरांबर उस परिवार में धीरे-धीरे घुलने-मिलने लगा। कभी-कभी नरेशभान की घरवाली उसके लिए खाना भी वहीं परोस देती थी। गौरांबर ने भी अपनी कोठरी में खाने-पीने का थोड़ा-बहुत जुगाड़ कर लिया था।

ढंग से रोजगार से लग जाने और रहने-खाने की ठीक से सुविधा हो जाने के बाद गौरांबर को अब अपने घर की याद आयी। उसने महीनों से घर पर खत तक न डाला था। उसे घर से निकल आये लगभग चार महीने हो रहे थे। घर पर उसकी कितनी फिक्र हो रही थी, ये अब तक उसे आभास न था। लेकिन अब, सब बन्दोबस्त हो जाने के बाद उसे भी शिद्दत से अपने माँ-बाप और छोटे भाई-बहनों का ख्याल आया और उसने मौका मिलते ही घर जाने का विचार मन-ही-मन बनाया।

गौरांबर के इतनी दूर चले आने के पीछे भी एक कारण था। दसवीं में फेल हो जाने के बाद एक-दो साल इधर-उधर बेकार घूमने के दिनों में उसकी पहचान उसके मोहल्ले से जरा दूर रहने वाली एक लड़की से हो गयी थी। लड़की कभी, कई साल पहले स्कूल में भी उसके साथ पढ़ी थी। लड़की से उसका परिचय घनिष्ठ होता चला गया और वे दोनों प्यार में भी पड़ गये। लड़की का बाप रिक्शा चलाता था। गौरांबर बाप की गैरहाजिरी में लड़की के पास आने-जाने लगा और उसी दौरान उसका परिचय लड़की के पिता से हो गया। एक दिन गौरांबर लड़की के घर पहुँचा तो देखा, उसका बाप बीमारी में तपता चारपाई पर पड़ा है। उसे एक सौ चार डिग्री बुखार था और लड़की घबरा कर उसके पास बैठी हुई थी। गौरांबर की जेब में दो-चार रुपये थे। सब उसने लड़की को दे दिये। लड़की पास के एक डॉक्टर से दवा लेने चली गई। जब लौटी तो काफी सहज भी हो गयी थी और कृतज्ञ भी।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी। वह लड़की से बोला, ‘‘बीमारी में घर का खर्चा तो बढ़ेगा ही और आमदनी कुछ होगी नहीं, क्यों न रिक्शा खुद चलाया जाये।’’ लड़की को भला क्या आपत्ति होती। घर में बीमार बूढ़ा बाप, और दूसरा कोई कमाने वाला नहीं। माँ थी नहीं। गौरांबर की पेशकश पर कोठरी के बाहर खड़ा रिक्शा ले जाने दिया।  

गौरांबर सरपट पैडल मारता हुआ रिक्शे को अपने मोहल्ले से बहुत दूर स्टेशन की ओर निकाल ले गया। दो-तीन घण्टे में गौरांबर ने अच्छी कमाई कर ली। किस्मत अच्छी थी, एक के बाद एक सवारियाँ मिलती ही चली गयीं। रिक्शा भी जो अब तक अपने बूढ़े सवार के साथ बेमन से शहर भर में घूमता-फिरता था; आज तरोताजा जवान सवार के साथ मस्ती में आ गया था और जोश-खरोश से दौड़ रहा था। पचपन साल का बूढ़ा दो दिन में जितना कमा पाता था, अठारह साल के गौरांबर ने तीन घण्टे में कमा लिया था। लेकिन तभी न जाने क्या हुआ, सड़क के किनारे खड़े रिक्शे को एक ट्रक ने टक्कर मार दी। संयोग ही था कि गौरांबर उस वक्त रिक्शे पर सवार नहीं था। एक सवारी के पास छुट्टा पैसा न होने के कारण उसने दस का नोट दिया था और गौरांबर रिक्शा सड़क के किनारे रोककर पास की एक दुकान से दस का छुट्टा लेने गया हुआ था। अकेला खड़ा था रिक्शा। ट्रक ने गुजरते समय टक्कर मार दी। साइड से ट्रक तो निकल गया पर रिक्शे का बड़ा नुकसान हुआ। एक ओर का पहिया तो बिलकुल ही पिचक कर दब गया। घबराकर गौरांबर ने रिक्शा उठाया। उलट-पलट कर देखा। उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसकी समझ में न आया कि वह अब जाकर लड़की और उसके बूढ़े बाप को क्या मुँह दिखायेगा, जिनकी रोजी-रोटी का आसरा वही रिक्शा था।

हिम्मत करके गौरांबर रिक्शे को ठेलता हुआ एक दुकान पर ले गया। वहाँ दुकानदार ने सारा मुआयना करने के बाद दो सौ पचहत्तर रुपये की माँग की। गौरांबर की जेब में कुल बाईस रुपये थे। कुछ सोच कर उसने रिक्शा वहीं छोड़ दिया और मरम्मत करने को कह दिया। दुकानदार ने उसे दो दिन बाद आकर रिक्शा ले जाने को कहा।

गौरांबर लड़की के घर की ओर जा रहा था, तो उसके पैरों में जैसे मानो भारी पत्थर बाँध दिये थे किसी ने। वह सोच न पा रहा था कि बीमार बूढ़े की उस बेसहारा बेटी को कैसे मुँह दिखायेगा। कैसे उसका सामना करेगा।

एक बार उसके मन में आया कि वह लड़की से मिले ही नहीं और अपने घर लौट जाये। लड़की उसका घर जानती न थी। यही सोच उसे लड़की के घर की ओर जाने से रोकती थी और अन्तत: वह अपने घर चला गया। किन्तु दिन भर उसका मन किसी काम में न लगा। अनमना-सा वह इधर-उधर घूमता रहा। न उसने इस बारे में किसी को बताया। गुमसुम-सा बैठा रहा। लेकिन उसे लगा शाम होते ही लड़की बेसब्री से इन्तजार करेगी। घबरा कर उसके बारे में न जाने क्या-क्या सोचेगी। बीमार बाप की न जाने क्या दशा होगी। उनके घर में खाने-पीने का न जाने कोई जुगाड़ हो पाया होगा या नहीं।

यही सब बातें उसे परेशान करती रहीं। आखिर उससे न रहा गया। शाम गहराते ही उसकी बेचैनी हद से ज्यादा बढऩे लगी। वह घर में बिना किसी को बताये निकला और लड़की के घर की ओर चल दिया। और तब उसके दिमाग में एक विचार कौंध आया। अपनी कलाई पर बँधी पिता की पुरानी घड़ी उसे आशा की एक किरण के रूप में दिखलायी दी। उसके सहारे ही वह लड़की के घर की ओर बढऩे लगा।

लड़की की आँखों में किवाड़ खोलते ही खुशी की लहर दौड़ गयी। लेकिन जब उसने गौरांबर को मुँह लटकाये खड़ा देखा, तो उसे यकायक किसी संशय ने घेर लिया। साथ में रिक्शा भी न था। उसका माथा ठनका। इससे पहले कि वह कुछ पूछती, गौरांबर रो पड़ा। लड़की आश्चर्य से आँखें फाड़े उसे देखती रही और गौरांबर को रोते देखकर खुद उसका भी गला भर्रा गया।

जैसे-तैसे गौरांबर ने लड़की को पूरी बात बतायी। फिर जेब के रुपये निकाल कर उसके हवाले कर दिये। लड़की मुट्ठी बंद करके दरवाजे से लग गयी। एक पल किंकत्र्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही। फिर उसका ध्यान गौरांबर की ओर गया जो भीगी आँखों से ही हाथ में अपनी घड़ी लिए खड़ा था। लड़की की आँखों से भी अब तक आँसू बहने लगे थे।

लड़की ने घड़ी गौरांबर के हाथ से लेकर वापस उसकी जेब में रख दी और उसका माथा सहलाते हुए उसे भीतर आने का इशारा किया। बूढ़ा पिता सारी बात से बेखबर निश्चिन्त सोया हुआ था।

और देर रात को जब गौरांबर घर वापस आया तो माँ खाना लिए इंतजार में बैठी मिली। पर गौरांबर ने खाना न खाया, माँ कारण पूछती रह गयी।

बस, अगले दिन जब जगा, गौरांबर मन में कोई संकल्प लिए गाड़ी में आ बैठा। उसके बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ। लड़की से वह फिर नहीं मिला।

आज इस बात को पूरे चार महीने हो चुके थे और गौरांबर को रह-रह कर आज अपने घर की याद आ रही थी। लड़की और उसके बूढ़े लाचार बाप की याद आ रही थी।

जमीन पर बिछी दरी पर लेटे हुए गौरांबर ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी पर एक बार हाथ फेरा और फिर गली के खम्भे से आती रोशनी की कतरन में हाथ बढ़ा कर समय देखा। रात के पौने तीन बज रहे थे। करवट बदल कर उसने सोने की कोशिश की।

अगले दिन काम पर गया तो दोपहर को मौका पाते ही उसने नरेशभान से बात की। नरेशभान ने उसकी घर जाने की बात को गम्भीरता से नहीं लिया। उसने मौका देखकर दबी जुबान से दो-तीन बार जिक्र छेड़ा, लेकिन नरेशभान किसी-न-किसी तरह हर बार टालता गया। 

गौरांबर को लगा, शायद नया-नया काम होने की वजह से नरेशभान नहीं चाहता होगा कि वह छुट्टी पर जाये। लेकिन स्वयं गौरांबर का हाल भी अब ऐसा था कि जितना वह काम में मन लगाने की कोशिश करता था, उतना ही रह-रह कर उसे अपने घर की याद सताती थी। उसने अपने घर पर अब तक यही सोचकर चिट्ठी भी न डाली थी कि उसका गाँव जाने का कुछ ठीक हो जाये तभी वह घरवालों को सूचना दे।

मन के किसी कोने में उसे उस लड़की और उसके बेजार बाप का भी ख्याल था, जिन्हें एक तरह से मझधार में ही छोड़ आया था वह। न जाने क्या हुआ होगा। लड़की के पिता की तबीयत कैसी होगी। उन लोगों ने रिक्शे की वापसी के लिए क्या किया होगा। यही सब बातें जब-जब उसके दिमाग में आतीं वह और परेशान हो जाता।

जिस मकान में गौरांबर को रखा गया था, वह आरम्भ में तो लगभग खाली ही पड़ा रहा था पर अब धीरे-धीरे उसमें साज-सजावट की जाने लगी थी। कभी-कभी नरेशभान वहाँ आता और उसके साथ और लोगों की आवाजाही भी लगी रहती थी। यहाँ तक कि एक दिन खुद बड़े रावसाहब भी वहाँ आये थे। बड़ी-सी कार दरवाजे पर आधे घण्टे ठहरी रही। उस दम खेत-खलिहानों के बीच बना वह मकान किसी कोठी सरीखा आबाद हो गया था। रावसाहब के साथ कई लोग आये थे। दो-चार जीपें, मोटरें और भी थीं। सब खाने-पीने का इन्तजाम नरेशभान ने करवाया था। उसी दिन पहली बार गौरांबर ने बड़े रावसाहब को देखा।

पता नहीं बड़े रावसाहब ने गौरांबर को देखा या नहीं। वैसे उसे जानते तो अवश्य ही होंगे। आखिर इतनी बड़ी कोठी पर उसकी ड्यूटी लगी है तो रावसाहब को मालूम तो होगा ही। यही सब सोचता रहा गौरांबर। रावसाहब गौरांबर को बहुत भले और अच्छे इंसान लगे। जैसे देखने में वैसे ही बातचीत में। किस तरह बारीक-सी आवाज में आहिस्ता-से बोलते थे। जिस दम बोलते थे कमरे में सन्नाटा-सा होता था। खूब सुनते थे, कम बोलते थे। और जब बोलते थे तो किसी में माद्दा न होता कि बीच में टोके। सब खामोशी से सुनते थे। चेहरे पर एक चमक भरी हँसी हर वक्त बनी ही रहती।  

और गौरांबर को अच्छी तरह याद है, बड़े रावसाहब ने दारू का गिलास भी हाथ में नहीं उठाया था। वह शरबत ही पीते रहे। या फिर एकाध काजू उठाकर खाते रहे। खाने का खिलवाड़-सा करते रहे।

कोठी में जरूरत का अन्य सामान व फर्नीचर आदि आ जाने के बाद गौरांबर को और भी आराम हो गया था। अब उसे अपने घुटन भरे कमरे में ही जमीन पर दरी डालकर नहीं सोना पड़ता था बल्कि वह बड़े वाले बाहरी कमरे में दीवान पर सोने लगा था। यद्यपि सुबह होते ही अपने यहाँ सोने के सभी चिन्ह, कपड़े आदि वह इस तरह समेट देता कि किसी को भी पता न चले। वह अपना सामान इधर-उधर फैलाने के बजाय अपनी कोठरीनुमा जगह में ही रखता था। बड़े आदमियों का क्या ठिकाना। कब कौन बात पर क्या सोचने लगें, बिगड़ जायें। लगा-लगाया काम हाथ से चला जाये। 

लेकिन यह सब गौरांबर का सोचना भर था। धीरे-धीरे गुलजार होती जाती उस कोठी में गौरांबर की सुख-सुविधाएँ बढ़ती ही जाती थीं। किसी पार्टी-वार्टी के लिए खाने-पीने का इतना सामान आता कि बाद में दो-तीन दिन गौरांबर के लिए कोई कमी न रहती। जब और नौकर-चाकर आते और वहाँ खाने-पीने का प्रबंध देखते तो गौरांबर की हैसियत सुपरवाइजर जैसी होती। उसको भी महत्त्व दिया जाता।

कीमती, भारी परदों से जब वह नौकरों को गीली प्लेटें पोंछते देखता तो धीरे-धीरे वह भी खुलने लगा। रात को दीवान पर सोना और ओढऩे-बिछाने के लिए परदों को इस्तेमाल करना उसके लिए हमेशा का-सा नियम बनता गया।

यही नहीं, बल्कि त्यौहार पर महल के नौकरों को जो नये कपड़ों का एक जोड़ा हर साल दिया जाता था, चन्द दिनों बाद गौरांबर के लिए भी आया।

कभी-कभी गौरांबर को नरेशभान जब काम से अपने साथ इधर-उधर ले जाता तो गौरांबर देखकर हैरान होता कि इन लोगों के शहर में ढेरों ठिकाने हैं। बेहिसाब रसूख-रुतबा है और चारों दिशा में फैला लम्बा-चौड़ा कारोबार है। 

गौरांबर अपने नसीब को सराहता कि उसे अनजाने ही ऐसे लोगों का साथ मिल गया था। वह याद करने की कोशिश करता, सोचता कि जब पहली बार वह नरेशभान से साइट पर मिला था, तब ऐसा क्या हुआ था कि नरेशभान उससे इतना प्रभावित हो गया।

यह बात ठीक थी कि नरेशभान की अनुभवी आँखों ने गौरांबर को पहचान कर, काम देकर कोई गलती नहीं की थी, क्योंकि गौरांबर में समझदारी थी, मेहनत का माद्दा था और सबसे बड़ी बात, ईमानदारी थी।

यही कारण था कि कई हफ्तों तक गौरांबर वहाँ किसी से छुट्टी या घर जाने की बात कर नहीं सका था। उसका घर, घर के लोग और वह बाप-बेटी बराबर उसके ख्यालों में रहते, वह छुट्टी लेकर गाँव जाने की बात को अंजाम न दे पाता।

लेकिन एक दिन उसे इसका भी मौका मिला। और मिला भी तो ऐसे शानदार तरीके से। उसने सपने में भी सोचा न था कि उसे गाँव में अपने लोगों के बीच इस शाही ठाठ से जाने का मौका मिलेगा। गौरांबर बहुत खुश हुआ यह सुनकर।

नरेशभान ने उसे बताया कि अगले महीने रावसाहब कोलकाता जाने वाले हैं और उनके साथ ही नरेशभान और गौरांबर को भी जाना होगा। वहाँ से लौटते समय गौरांबर को अपने गाँव होकर आने की छूट भी मिलेगी और पन्द्रह दिनों की छुट्टी भी। गौरांबर एक मीठे इंतजार में डूब गया।