आखेट महल - 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 4


चार

गौरांबर को आज तीसरा दिन था इसी तरह से भटकते हुए। वह रात को सोने के लिए कभी रेलवे स्टेशन पर आ जाता, कभी बस स्टैण्ड के सामने वाले कृष्ण मंदिर में। मंदिर के पिछवाड़े की ओर एक छोटा-सा चौक था, जहाँ दिन में वीरान रहता था, मगर रात होते ही आसपास के भिखारी या बेघरबार लोग एक-एक करके डेरा जमाने लगते। आज भी रात घिरते ही गौरांबर यहीं आ गया था। अजीब-सी हालत हो गयी थी। तीन दिन से बदन पर वही कपड़े पहने हुए था। नहाने, मुँह धोने की सुध भी नहीं थी। जेब के पैंतीस रुपये खाने-चाय में थोड़े-थोड़े करके खर्च हो गये थे। बस दो रुपये का एक नोट और थोड़ी-बहुत रेजगारी जेब में पड़ी थी। शाम को गौरांबर ने कुछ न खाया। बस एक बीड़ी का बण्डल जरूर खरीदा था, जो इस समय जेब में था।

रात आठ बजे की आरती हो जाने के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते थे और उसके बाद एकाध हवाखोरी करने के इरादे से आने वाले लोगों को छोड़कर मंदिर प्राय: वीरान-सा ही हो जाता था।

इस समय भी पीछे वाले चौक में केवल चार जने थे। कोने वाली पत्थर की बेंच पर एक बूढ़े ने कब्जा जमाया हुआ था, जिसके पास एक गठरी की शक्ल में थोड़ा-बहुत असबाब भी था, जिसे उसने सिर के नीचे लगा रखा था और वह सरेशाम से ही वहाँ आकर लेटा हुआ था। उसी के पास बेंच से जरा दूर जमीन पर पगला-सा लड़का पड़ा था, जो रोज ही शाम होते ही वहाँ आ जाता था। लड़का शक्ल से ही पागल दिखायी देता था, पर उसका चेहरा ऐसा था कि हर समय वह हँसता हुआ दिखायी देता था। यदि पहली बार कोई उस लड़के को देखे तो उसे वह सामान्य-सा ही दिखता था, मगर थोड़ी ही देर में पता लग जाता था कि वह पागल है या कम से कम मंदबुद्धि है। लड़के के बदन पर कोई कपड़ा नहीं था। उसके पास कपड़े की कतरनों और चीथड़ों का ढेर-सा पड़ा था, जिससे लगता था कि लड़का शायद अपने कपड़ों को फाड़कर उतार देता था। मंदिर के अहाते में कोई-न-कोई भक्त उसके तन पर कोई चिथड़ा डाल देता था, परन्तु उसकी आदत के कारण वह रह नहीं पाता था। इस समय शायद किसी ने उसे नंगेपन से बचाने के लिए उस पर इतना उपकार किया था कि पॉलिथीन के बड़े-से थैले को चीकर उसकी कमर के गिर्द लपेटकर गाँठ लगा दी थी। लड़के ने उसके ऊपर से कपड़े की कतरन, रस्सी, फटे कागज और न जाने क्या-क्या बाँध रखा था।

उस लड़के के ठीक विपरीत दिशा में एक बेहद जर्जर अशक्त बुढिय़ा टाँगें पसारे बैठी थी। बुढिय़ा की उम्र बहुत अधिक थी और उसे आँखों से भी ठीक दिखायी नहीं देता था।

उससे जरा दूर पर गौरांबर भी दीवार की टेक लगाये बैठा था। यह हिस्सा अपेक्षाकृत साफ-सा था और काफी सारे मैदान से जरा ऊँचा भी था। गौरांबर को यहाँ बेहद निरीह और निराश्रित लोगों के बीच आ बैठना अखर रहा था। किन्तु वह दो दिन स्टेशन पर सोने के बाद आज फिर इसी स्थान पर चला आया था, क्योंकि एक तो यह जगह अपेक्षाकृत शान्त और सूनी थी, दूसरे यहाँ नल पास में होने से पानी की सुविधा भी थी। मंदिर की दीवार को फाँद कर पीछे की ओर नीचे उतरने पर एक गंदा सा नाला बहता था, जहाँ सुबह शौचादि के लिए भी जगह थी। स्टेशन पर सोने पर सुबह जल्दी ही दैनिक कर्म के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी और हर एक स्थान पर सवेरा होते ही भीड़-भाड़ हो जाती थी।

एक-दो घण्टे बाद जब रात गहरी हुई, वहाँ और भी बहुत सारे लोग इधर-उधर से आ लेटे थे। कुछ के पास बिछाने को चादर या चटाई आदि भी थी जिससे पता चलता था कि लोग रोजाना इसी जगह सोने के लिए आया करते हैं।

अहाते में दो बड़े-बड़े पेड़ थे। एक पीपल का था और दूसरा नीम का। इस समय ठंडी हवा चलने से वहाँ गर्मी का प्रकोप कम हो चुका था और वातावरण में काफी तरावट आ गयी थी। हर घण्टे के बाद उस स्थान पर और अन्धकार छा जाता था, क्योंकि आसपास की बस्ती की कोई-न-कोई बत्ती डूब जाती थी।

गौरांबर को, आज न जाने क्यों, नींद नहीं आ रही थी। इसका एक कारण तो यह था कि आज शाम उसने खाना नहीं खाया था। सुबह भी खाने के नाम पर उसे एक ढाबे में थोड़ा-सा दाल-भात ही मिला था। बीड़ियाँ एक के बाद एक वह कई पी चुका था। काफी देर करवटें बदलने के बाद भी जब गौरांबर को नींद न आयी तो यकायक वह उठकर बैठ गया। इधर-उधर देखकर वह उठा और पानी के नल के नजदीक उसने भरपेट पानी पिया। फिर वह अपनी जगह ही आ बैठा। कोने वाली बुढिय़ा ने सूखी-सी दो रोटियाँ खाने के बाद रोटी के बचे हुए टुकड़े और उनके ऊपर पड़ी हुई कोई बासी तरकारी वहीं किनारे, एक अखबार के कागज में पड़ी, छोड़ दी थी। गौरांबर उस पर एक उड़ती-सी नजर डालकर वापस अधलेटा हो गया। तभी उसका ध्यान सामने कुछ दूरी पर लेटे हुए तीन आदमियों पर गया, जिनमें से बीच वाला लेटे-लेटे ही सिगरेट पी रहा था। गौरांबर उठा और उसके करीब आकर माचिस माँगी।

गौरांबर बीड़ी जलाकर वापस पलट ही रहा था कि उस आदमी ने कुछ भाँप कर सवाल कर दिया—

‘‘कहाँ रहते हो भाई..’’ फिर शायद वह आदमी अपने सवाल की निरर्थकता पर खुद ही झेंप गया और हल्के अँधेरे में भी गौरांबर की घड़ी की ओर इंगित करके बोला, ‘‘ये घड़ी सम्भाल कर रखना प्यारे, इधर एक-से-एक हरामी लोग हैं।’’

गौरांबर ने उसकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और कोई जवाब दिये बिना वापस अपनी जगह पर आ बैठा। काफी देर तक वह वैसे ही बैठा रहा। लगभग सभी लोग सो चुके थे। पागल लड़का भी अस्त-व्यस्त-सा पाँव फैलाये अब गहरी नींद में था। बूढ़े ने सोते-सोते भी अपनी पोटली गर्दन के नीचे काफी अच्छी पकड़ में ले रखी थी। बुढिय़ा बेखबर सो रही थी। उसके करीब रोटी के चंद टुकड़े और बासी तरकारी अब भी पड़े थे।

अगले दिन सुबह ही गौरांबर फिर रेलवे स्टेशन के लिए चल पड़ा। सुबह एक जगह चाय पीने और आलू की बासी पकौड़ियाँ खाने में उसकी जेब के रहे सहे पैसे भी खत्म हो गये। बीड़ियाँ कुछ अब भी बाकी थीं।

गौरांबर की हालत अजीब-सी हो गयी थी। चार-पाँच दिन से दाढ़ी के बाल भी बढ़ गये थे। लम्बे-लम्बे बाल सूख और उलझकर और बेतरतीब हो गये थे। गौरांबर यद्यपि स्टेशन की ओर इसी उम्मीद में आया था कि वहाँ थोड़ा-बहुत बोझा ढोकर उसे शायद दस-बीस रुपये दिन-भर में मिल जायें, परन्तु स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते उसका धैर्य जवाब दे गया। उसने स्टेशन के बाहर ही एक बूढ़े-से कुली को बैठे देखा, तो उसके नजदीक आकर उसके सामने अपने हाथ की कलाई घड़ी बढ़ा दी।

कुली आश्चर्यचकित होकर गौरांबर की ओर देखने लगा। दो पल को उसकी आँखों में अविश्वास का भाव आया, परन्तु अगले ही क्षण वह अपनी जेबें टटोलकर देखने लगा।

‘‘कितने में दोगे?’’

‘‘तुम कितने पैसे दोगे?’’

‘‘मेरे पास तो पचपन रुपये हैं।’’ कुली ने कुर्ते की जेब बाहर की ओर उलटते हुए कहा।

गौरांबर का चेहरा बुझ गया। थोड़ी-सी उम्मीद बटोर कर उसने कहा, ‘‘अस्सी रुपये दोगे?’’

कुली ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया और जल्दी-जल्दी डग भरता हुआ एक गली की ओर चला गया। गौरांबर उसके साथ-साथ उसके पीछे चलता गया। वहाँ एक चाय की दुकान पर पहुँच कर कुली ने चाय बनाने वाले आदमी से अपनी भाषा में कोई बात कही। आदमी ने गौरांबर की ओर देखते हुए टूटी-सी एक दराज से बीस रुपये का नोट निकाल कर कुली की ओर बढ़ा दिया। कुली ने झटपट अपने हाथ के नोटों में बीस का नोट मिलाकर गौरांबर की ओर बढ़ा दिया। बोला, ‘‘लो, पचहत्तर रुपये हैं। इतने ही हैं मेरे पास।’’

गौरांबर ने बिना गिने रुपये जेब में रखे और घड़ी उस बूढ़े से कुली के हवाले कर दी, जिसकी आँखों में घड़ी पाते ही खासी चमक आ गयी थी। गौरांबर झट से पलट लिया। पीछे से आवाज आयी। कुली उसी से कह रहा था-

‘‘चाय पियेगा क्या?’’ गौरांबर जाता-जाता रुक गया। कुली बड़े अपनेपन से बैठता हुआ बोला—‘‘अपनी ही दुकान है।’’

गौरांबर चुपचाप बैठ गया। कुली ने गौरांबर को बीड़ी भी पिलाई। गौरांबर को लगा कि अब शायद बातों ही बातों में यह बूढ़ा घड़ी बेचने का कारण भी पूछेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। बल्कि बूढ़ा तो चाय पीते हुए इधर-उधर की बातें करते-करते भी घड़ी के जिक्र से बचना चाहता-सा प्रतीत हो रहा था। उसे शायद यह चिन्ता थी कि कहीं गौरांबर फिर से घड़ी बेचने का अपना इरादा बदल न ले और उससे घड़ी माँगने न लगे। पर ऐसा भी नहीं हुआ।

जल्दी-जल्दी चाय पीकर गौरांबर वहाँ से उठ लिया। बूढ़ा कुली देर तक गौरांबर को जाते हुए देखता रहा।

गौरांबर के दो-तीन दिन फिर मजे में बीते। वह दिन भर इधर-उधर टाइम पास करके सोने के लिए उसी मंदिर वाले चौक में आ जाता था। दूसरे दिन उसने स्टेशन के सामने वाले सिनेमाघर में दोपहर के शो में ‘दीवाना तेरे नाम का’ पिक्चर देखी।

आज मंदिर के नल पर मौका देखकर वह नहा भी लिया था। अपने कमीज और पैंट उसने साबुन के बिना ही पानी से रगड़-रगड़ कर धो भी लिए थे। मंदिर के पिछवाड़े वाले इसी चौक की दीवार पर उसने अपने कपड़े सूखने के लिए डाल दिये और पेड़ के नीचे एक पत्थर का सिरहाना लगाकर इत्मीनान से लेट गया।

उनींदा-सा होकर गौरांबर हाथ आँखों पर रखे लेटा ही हुआ था कि एक आहट पर उसने आँखें घुमाकर देखा, सामने से एक औरत प्रसाद का कागज हाथ में लिए उसकी ओर बढ़ी चली आ रही थी। औरत ने पुडिय़ा से थोड़ा-सा प्रसाद निकाल कर गौरांबर को दिया, जिसे उसने दोनों हाथों की अंजुरि बनाकर ले लिया। औरत चली गयी।

तीन-चार दिन मंदिर में सोने के कारण गौरांबर की जान-पहचान वहाँ सोने के लिए आने वाले दो-एक आदमियों से हो गयी। वे लोग भी उसकी तरह परदेसी थे और काम में नये-नये ही आये थे। उनमें से एक पास की मिठाई की दुकान में काम करता था। सुबह चार बजे से रात को दस बजे तक दुकान में काम रहता था। उसके बाद सोने के लिए वह यहाँ आ जाता था।

‘‘मिठाई की दुकान में सोने के लिए जगह नहीं है क्या?’’ गौरांबर ने उत्सुकतावश वैसे ही पूछ लिया था।

‘‘जगह तो है, पर वहाँ और भी कई लोग सोते हैं। फिर वहाँ सोने पर मालिक चाहे जब काम के लिए उठा लेता है। भट्टी रात भर चलती है कभी-कभी तो।’’

‘‘और वहाँ सोने पर कभी-कभी इसे नौकर लोग तंग करते हैं। ये बेचारा नया है न, कुछ नहीं कह पाता।’’ उसके साथ के आदमी ने अपनी ओर से कहा। पहले वाला आदमी यह सुनकर झेंप गया।

एक दिन रात को गौरांबर फिर उसके साथ पास के बाजार में पिक्चर देखने चला गया। पिक्चर हॉल के पास ही छोटे से वीडियो हॉल में तीनों ने पिक्चर देखी। गौरांबर ने ऐसी खुली और भद्दी पिक्चर पहली बार देखी थी। और उसे लगा कि नरेशभान और सरस्वती जैसे लोग ही ऐसी पिक्चरों में काम करते होंगे।

नरेशभान का ख्याल आते ही उसका ध्यान इस बात पर गया कि उसे वहाँ से भागे हुए पूरा सप्ताह ही बीतने को आ रहा था। इस बीच वहाँ न जाने क्या हुआ होगा? गौरांबर ने तो जाकर वहाँ की खोज-खबर तक न ली थी। कोठी की चाबी अब भी उसके पास थी, जिसे कपड़े धोते समय उसने जेब से निकाल कर अपनी चड्डी के नाड़े में डाल लिया था। चाबी का ख्याल आते ही गौरांबर ने झट से टटोल कर चाबी को हाथ लगाकर देखा। चाबी पाकर उसे सुरक्षित-सा महसूस हुआ। मन-ही-मन गौरांबर ने निश्चय किया कि उसे एक बार जरूर कोठी जाकर देखना चाहिये। इतने दिन तक कोठी बंद पड़ी तो नहीं रह सकती। न जाने क्या हुआ हो। हो सकता है, रावसाहब के यहाँ कोठी की दूसरी चाबियाँ भी हों। बड़े आदमियों के पास सब तालों की चाबियाँ होती हैं।

गौरांबर ने अपने यहाँ इन नये दोस्तों को अपने बारे में कुछ नहीं बताया था, सिवाय इसके कि वह भी इस शहर में नया-नया आया है और काम की तलाश में है।

रात आयी तो गौरांबर को वहाँ ठहरना पल-पल मुश्किल-सा लगने लगा। उसे लगा, जल्दी से सवेरा हो तो वह वापस जाकर कोठी के हालचाल देखे। अब जो भी होगा, देखा जायेगा, ऐसे ही विचार गौरांबर के दिलो-दिमाग में बन गये थे। और बात पुरानी हो जाने पर गौरांबर के लिए उतनी खौफनाक भी नहीं रह गयी थी। नरेशभान भी संभवत: अब तक सब भूल चुका होगा, यही भरोसा था उसे।

पगले लड़के ने पॉलिथीन की वह थैली फाड़-फाड़ कर फिर चिन्दी-चिन्दी कर डाली थी और वह ऐसे ही पसरा पड़ा था। उसने सोने से पहले शायद इधर-उधर से कुछ बीन-बीन कर खाया था, जिसकी जूठन अब भी उसके इर्द-गिर्द फैली बिखरी पड़ी थी। एक कुत्ता दुम हिलाता हुआ उसके चारों ओर की जूठन चाट-चाट कर खा रहा था। कुत्ते ने जाते-जाते टाँग उठा कर बिलकुल पगले लड़के के ऊपर ही पेशाब कर दिया। गौरांबर का ध्यान उधर चला गया।

कहते हैं, कुत्ता कभी भी जीवित व्यक्ति से इस तरह का व्यवहार नहीं करता। वह किसी खंभे या दीवार के सहारे ही लघुशंका का निवारण करता है। पर कुत्ते ने जो व्यवहार अभी-अभी पागल लड़के के साथ किया था, वह गौरांबर ने अपनी आँखों से देखा था। या तो कुत्ता पागल था या फिर उसने बिना दिमाग के इंसान को पत्थर की दीवार ही समझा था। पागल लड़के की गर्दन और छाती भीग गयी।

एक पल को गौरांबर चौंक कर सिहर गया। उसे ये ख्याल आया- कहीं पागल लड़का परलोक तो नहीं सिधार गया?

परन्तु पागल लड़के ने भीगी गर्दन को हाथ से मसल कर करवट ले ली थी, अपने इसी दुनिया में होने का पुख्ता सबूत दे दिया था।

गौरांबर ने गर्दन घुमा कर सोने की कोशिश की।

अगले सवेरे मन्दिर के सामने वाले गेट से निकल कर चाय की दुकान तक जाते-जाते गौरांबर बहुत अनमना-सा था। शायद उसने रात को नींद में कोई सपना देखा था।

उसे याद आया, वर्षों पहले जब अपने गाँव में वह स्कूल में पढ़ता था, तो एक रोज मास्टर साहब ने बताया कि यदि आदमी ठूँस-ठूँस कर खाना खा ले तो उसे सपने आते हैं। या फिर वह किसी बात से चिंतित या डरा हुआ हो, तो भी सपने आते हैं। उसने कहीं ये भी सुना था कि बहुत गहरी नींद हो तब भी सपने आते हैं। लेकिन सुनने से क्या। सुनने को तो उसने ये भी सुना था कि कुत्ता जीवित आदमी पर कभी पेशाब नहीं करता।

गौरांबर ने सपने में देखा था कि उसका सारा शरीर एकाएक बिलकुल सफेद पड़ गया है। बिलकुल संगमरमर-सा सफेद चमकदार जैसे पत्थर की कोई शिला हो। वह जमीन पर चित्त पड़ा हुआ है और उसके दोनों हाथ दोनों दिशाओं में फैले हुए हैं। कहीं से उड़ कर दो छोटे-छोटे पक्षी आये हैं और वे गौरांबर के कन्धे पर बैठ गये हैं। फिर पक्षियों ने उड़-उड़ कर आसपास में तिनके जमा करने शुरू कर दिये हैं और वे गौरांबर के हाथ और सीने के बीच बगल वाली जगह में तिनके रखकर घोंसला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। गौरांबर को बेचैनी-सी होती है और वह करवट बदल कर तिनके गिरा देना चाहता है, परन्तु उसे न जाने क्या हुआ है कि वह करवट बदल नहीं पा रहा। वह उसी तरह जड़ लेटे रहने को विवश है। पक्षियों का जोड़ा तेजी से उड़-उड़ कर तिनके रखता जा रहा है और अब गौरांबर की बगल में काफी घना घोंसला बन गया है। उसका भारीपन गौरांबर महसूस कर रहा है। पर तभी अचानक जोर से बारिश आती है और पानी की बड़ी-बड़ी बूँदें उसके ऊपर गिरने लगती हैं। धीरे-धीरे पानी के वेग से उसकी बगल में जमा तिनकों का घोंसला बहने लगता है और सरक कर दूर चला जाता है। लेकिन तभी जोर से चीख-पुकार करते दोनों पक्षी वहाँ आ जाते हैं और अपने घोंसले का विनाश देखकर ऊँची आवाज में चिल्लाने लगते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि नर पक्षी उड़कर गौरांबर के माथे पर आ बैठता है और अपनी पैनी और मजबूत चोंच से उसके सिर के बाल खींच-खींच कर उखाडऩे लगता है। गौरांबर सब सहने के अलावा और कुछ नहीं कर पाता। मादा पक्षी भी अपनी जगह से उड़कर गौरांबर के सिर के करीब आती है और उसके उखड़े हुए बालों को चोंच में दबा-दबा कर फिर उसी जगह पर जमाने लगती है। देखते-देखते गौरांबर की बगल में फिर एक बड़ा और काला-सा घोंसला तैयार हो जाता है। मादा पक्षी घोंसले में आ बैठती है और उनींदी, अलसाई-सी आँखों से नर पक्षी की ओर देखती है। थोड़ी देर में गौरांबर को अपनी बगल में संगमरमर जैसे सख्त और सफेद गोल-गोल अण्डों का एहसास होता है।

गौरांबर से अब रहा नहीं जाता। वह चीखकर जोर लगाता हुआ उठ खड़ा होता है और उसके उठंगा होते ही बगल में रखे अण्डे लुढ़कते हुए उसके सीने से नीचे फिसलने लगते हैं और फूट जाते हैं। अण्डों से निकला लिसलिसा गाढ़ा-गाढ़ा द्रव गौरांबर के बदन पर फैल जाता है।

सोकर उठने के बाद से ही गौरांबर अनमना-सा था और नल पर हाथ-मुँह धोकर मन्दिर के बाहर आने के समय तक उसकी कोठी लौटने की इच्छा मर चुकी थी। चाय और दो सख्त टोस्ट खाने के बाद गौरांबर बाजार में से घूमता हुआ फिर से इधर-उधर भटकने लगा। घड़ी बेचने के बाद से जेब में आया खजाना भी अब धीरे-धीरे खाली होने लगा था। बाजार में निरुद्देश्य घूमते हुए गौरांबर ने जहाँ कहीं किसी दुकानदार को फुरसत में अकेला खड़ा पाया, वहीं हिम्मत करके भीतर जाकर काम माँगने की कोशिश भी की। मगर उसे कहीं भी सफलता नहीं मिली। दुकानदार उसकी बात ध्यान से सुनते, उसे आपाद मस्तक देखते, फिर निर्विकार भाव से कह देते कि उनके पास कोई काम नहीं है। गौरांबर यह समझ नहीं पाता कि जिन लोगों के पास काम है ही नहीं, उन्हें पूरी दास्तान सुनने में भला क्या दिलचस्पी हो सकती है। लेकिन हर आदमी पूरी बात सुनने के बाद ही जवाब देना पसन्द करता था। या तो उस अपेक्षाकृत छोटे शहर के दुकानदारों की स्वाभाविक वृत्ति थी या फिर गौरांबर की बात करने की क्षमता।

बहरहाल, आज तीसरे पहर तक भी उसे कहीं कोई काम नहीं मिला। काफी देर तक घूमने-भटकने के बाद उसने एक ठेले पर खड़े होकर दो-तीन केले खाये, फिर न जाने किस उम्मीद में स्टेशन की ओर चल दिया।

स्टेशन के बार तक आते ही उसका नसीब फिर थोड़ी देर के लिए जाग उठा। एक बड़ा-सा ट्रक वहाँ आकर अभी-अभी रुका था, जिसका ड्राइवर गाड़ी से उतरकर खलासी लड़के के साथ रस्सियाँ खुलवा रहा था। गौरांबर चुपचाप वहीं खड़ा होकर देखने लगा। ट्रक में बहुत-सी लकड़ी की बड़ी-बड़ी पेटियाँ थीं, जिन्हें उतारने के लिए वह अकेला खलासी लड़का पर्याप्त नहीं था। ड्राइवर ने उसे एक एकटक घूरते हुए देखा तो मदद के लिए इशारे से उसे भी बुला लिया। पेटियों को ट्रक से उतरवा कर स्टेशन के बगल वाले गोदाम की सीढ़ियों पर भी रखवाना पड़ा।

घण्टा भर बीतते-बीतते फिर गौरांबर की जेब में पच्चीस रुपये थे।

स्टेशन पर अन्दर आकर सामान उठाने में वहाँ के लाइसेंसधारी कुली एतराज करते थे और किसी बाहरी व्यक्ति को सामान उठाने नहीं देते थे। परन्तु ट्रक के साथ उसे भी ट्रक का खलासी ही समझ कर वहाँ घूम रहे कुलियों ने कुछ नहीं कहा और गौरांबर की कमाई हो गयी।

गौरांबर स्टेशन के भीतर चला गया। स्टेशन पर कोलाहल था। शायद अभी-अभी किसी गाड़ी के आने का सिग्नल हुआ था। गौरांबर वहाँ एक बैंच पर बैठ गया और यात्रियों की भागादौड़ी देखने लगा। एक-दो मिनटों में ही गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ लगी। गौरांबर को अचम्भा हुआ, जब उसने देखा कि गाड़ी धीमी होते ही दो-तीन कुली गाड़ी के साथ दौड़ते-दौड़ते पायदान से लटक गये। इनमें एक वही कुली था, जिसे गौरांबर ने अपनी घड़ी बेची थी।

सवारियों के उतरने के बाद, सामान की रेलमपेल और कुलियों के मोल भाव के बाद जब वहाँ थोड़ी शान्ति हुई, गौरांबर की आँख उस बूढ़े कुली से मिली। कुली भी तुरन्त ही उसे पहचान गया। दोनों ने साथ-साथ बैठकर बीड़ी पी। बीड़ी कुली ने ही पिलायी।

कुली को बातों-बातों में जब यह पता चला कि गौरांबर के पास न रहने की जगह है और न ही काम का ठिकाना, तो उसने कुछ सोचकर उसे अपने साथ आने को कहा। वह आगे-आगे चलता हुआ उसे स्टेशन के छोर के पास बने एक छोटे-से कमरे की ओर ले गया। गौरांबर को, फुर्ती-से चलता हुआ वह बूढ़ा, इस समय किसी देवदूत जैसा लग रहा था। परन्तु उम्मीद और सद्भाव की ये घड़ी ज्यादा देर कायम न रही। कुली चलता-चलता एक ऐसे दरवाजे पर पहुँच कर ठिठक गया, जिस पर बाहर से ताला लगा हुआ था। गौरांबर के साथ-साथ कुली भी हताश हो गया।

‘‘ठीक है, तू मुझे कल सुबह नौ बजे यहीं मिल जाना।’’

गौरांबर ने बड़ी उम्मीद से बूढ़े की ओर देखा तथा उसकी बात की सहमति में सिर हिला दिया। गौरांबर के बिना कोई अभिवादन किये ही वह कुली अभिवादन का जवाब देने की मुद्रा बनाकर प्लेटफॉर्म की सीढ़ियाँ चढ़ गया और आँखों से ओझल हो गया।

उसके जाने के बाद गौरांबर ने बंद दरवाजे के ऊपर लगा बोर्ड पढ़ा। वह शायद रेलवे के किसी कैंटीन ठेकेदार की जगह थी। गौरांबर मन-ही-मन उस जगह की अवस्थिति को गुनता हुआ वहाँ से चल पड़ा।

आज रात गौरांबर मन्दिर के चौक में नहीं गया। वह स्टेशन पर ही ठहर गया। उसने खाना भी स्टेशन के नजदीक एक ढाबे पर खाया।

रात को स्टेशन के बगल वाले गोदाम के सामने के लम्बे गलियारे में गौरांबर ने अपना डेरा जमाया। वहाँ करीब ही लाइट के दो बड़े-बड़े हण्डे जल रहे थे। नजदीक ही चार-पाँच आदमी एक चादर बिछा कर ताश खेल रहे थे। एक-दो कुली भी टाँगें पसारे बीड़ी पी रहे थे।

गौरांबर ने कमीज उतार कर उसे गोल लपेट कर उसका सिरहाना बना लिया और लेट गया। गर्मी काफी थी। उमस भी बहुत ज्यादा बढ़ गयी। बादलों की ओर देखकर ऐसा लगता था कि रात में थोड़ी-बहुत बारिश जरूर होगी। थोड़ी देर तक ऐसे ही लेटे रहने के बाद गौरांबर ताश खेलने वाले लडक़ों के और नजदीक खिसक आया और सिर को हाथ का सहारा देकर करवट से लेटा-लेटा उन लोगों का खेल देखने लगा।

आधा घण्टा गुजरा होगा कि बारिश होने लगी। थोड़ी ही देर में सारा गलियारा पानी से भीग गया, क्योंकि इस हिस्से में छत नहीं थी। वहाँ सोये सारे लोग उठ-उठ कर स्टेशन के भीतरी हिस्से में तितर-बितर हो गये। गौरांबर भी उठकर गोदाम के दरवाजे के छज्जे के नीचे आ गया। छज्जे के पास दीवार से लगकर बड़े-बड़े बोरों के पार्सल पड़े हुए थे। गौरांबर की आँखों में नींद भरी हुई थी। उसने किनारे के एक बोरे के पास आकर अपनी पैंट उस पर बिछा दी और कमीज को सिरहाने लगाकर बोरे पर लेट गया।

रात के करीब ग्यारह ही बजे होंगे कि गौरांबर की आँखें फिर खुलीं। देखा, एक पुलिसवाला सामने खड़ा था। उसके डण्डा टाँगों पर छुआते ही गौरांबर उठ बैठा। आँखें मलते हुए गौरांबर ने सामने देखा। पुलिस वाला उसी तरह खड़ा था। डण्डा फटकारते हुए बोला—

‘‘ऐ लड़के, चलो बाहर यहाँ से।’’

गौरांबर ने कातर दृष्टि से देखा। बोला, ‘‘बाहर बारिश हो रही है हवलदार जी! सोने दो।’’

‘‘कहाँ हो रही है बारिश। सब उठकर चले गये। बन्द हो गयी बारिश। चल बाहर।’’ कहते-कहते हवलदार ने अपने हाथ का डण्डा गौरांबर की पीठ के निचले भाग पर छुआ दिया। गौरांबर फुर्ती से उठ बैठा और अपने कपड़े समेटने लगा। बोरे से कूदकर उसने चप्पल पहनी और वहाँ खड़ी एक कार के समीप जाकर अपने कपड़े पहनने लगा। जाते-जाते पुलिस वाले को गौरांबर ने घूरती निगाहों से देखा और मन-ही-मन एक वजनदार गाली दी।

इधर-उधर देखकर गौरांबर स्टेशन की इमारत से बाहर ही निकल आया। आँखों से नींद पूरी तरह भाग चुकी थी। स्टेशन के बाहर की चहल-पहल भी आहिस्ता-आहिस्ता कम होने लगी थी।

गौरांबर के कदम पास ही के सिनेमाघर के सामने की ओर खुली दो-तीन दुकानों की तरफ बढ़ गये। वहाँ पान-बीड़ी की एक दुकान अब भी खुली थी। गौरांबर ने वहाँ पहुँच कर बीड़ी का बण्डल खरीदा और एक बीड़ी सुलगा कर वहीं खड़ा हो गया। पास ही शो छूटने के इन्तजार में एकाध दुकान अब तक खुली थी।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी। वह रिक्शे वाले के पास आकर खड़ा हो गया।

रिक्शे पर बैठा लड़का प्रश्नवाचक निगाहों से उसकी ओर देखने लगा।

‘‘अंबेडकर नगर के पल्ली पार चलेगा?’’

‘‘पल्ली पार कहाँ..?’’

‘‘वहीं, हाइवे पर।’’

‘‘हाइवे पर कितना आगे जाओगे?’’

‘‘पेट्रोल पम्प के पास छोड़ देना।’’

‘‘बारह रुपये होंगे।’’

‘‘अबे जा, बारह रुपये होंगे।’’ गौरांबर ने उपेक्षा से कहा।

‘‘दस रुपये देने हैं?’’ रिक्शे पर बैठे लड़के ने मोल भाव करते हुए कहा।

‘‘ज्यादा है।’’ गौरांबर ने बीड़ी का धुआँ छोड़ते हुए कहा। रिक्शे पर बैठा लड़का काफी छोटा था और देहाती था। इसी से गौरांबर ने जरा अकड़ कर उससे बात की।

‘‘अजी ज्यादा कहाँ है, सारी चढ़ायी चढऩी पड़ेगी। ऑटो रिक्शा वाले तो वहाँ के बीस रुपये लेते हैं। इस समय तो कोई जायेगा भी नहीं। वहाँ से खाली आना पड़ता है।’’

‘‘ऑटो रिक्शा वाले का तो पेट्रोल जलता है। तेरा क्या जायेगा, ठीक बोल, छ: रुपये लेगा?’’ गौरांबर ने पुलिस वाले का क्रोध इस निरीह-से लड़के पर निकालते हुए कड़क और ऊँचे स्वर में कहा।

आखिर आठ रुपये में बात तय हो गयी। गौरांबर लपककर रिक्शे पर चढ़ गया। रिक्शा मुड़कर सड़क पर आया और तेजी से चल पड़ा।

रात के बारह बजने वाले थे। सडक़ों पर अँधेरा और सन्नाटा एक साथ फैला पड़ा था। कहीं-कहीं इक्का-दुक्का वाहन आते-जाते दिखायी दे जाते। कहीं-कहीं सड़क की लाइटें भी न होने से बहुत ही सुनसान लगता था। काफी खराब रास्ता था। सड़क भी जगह-जगह से टूटी और उखड़