आखेट महल - 16 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 16

सोलह

बाहर से आने वाले सुविधा और सुरक्षा की दृष्टि से एक साथ झुण्डों में रहना पसन्द करते थे। वे पहले किसी खाली पड़ी जमीन पर अपने डेरे डालते थे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपने रहने की जगह पर पखेरुओं की भाँति लकड़ी-तिनके जोड़-जोड़कर नीड़ बनाना शुरू करते और बाद में सरकारी खौफ से बचने के लिए कॉलोनी को कोई चमकदार नाम दे देते। कभी-कभी ऐसी बस्तियों में उन लोगों के बुत भी लगाये जाते, जिनके नाम पर इनके नाम रखे जाते थे।

संजय नगर, अंबेडकर नगर और जलियाँवाला चौक ऐसी ही बस्तियाँ थीं। यहाँ रहने वाले लोगों को बुलडोजरों से भय नहीं लगता था। किसी-किसी घर पर तरह-तरह के झण्डे लग जाने के बाद ये बस्तियाँ देखने में भी सुन्दर लगने लगी थीं। आखेट महल प्रोजेक्ट में काम करने वाली लेबर और दूसरे आदमी साइट पर से चुरा-उठा कर कभी-कभी रंग-रोशन या कुछ लक्कड़-पत्थर ले आते थे और इनसे भी यहाँ के आशियानों को मजबूती मिलती थी। नरेशभान जैसे ठेकेदार सरस्वती जैसी मजदूरनियों को सीमेन्ट-गारा-चूना जैसी बेकार चीजों के लिए फिजूल रोकते-टोकते नहीं थे। इसी से शेर की माँद के साथ-साथ चूहे-बिल्लियों के ठिकाने भी सुभीते में खड़े होते जा रहे थे। 

बड़े अस्पताल से लगभग दो-तीन फर्लांग की दूरी पर नयी बनी सड़क का जो चौराहा था, उसके चारों ओर की दुकानें बनने से पहले ही बिक चुकी थीं। उनके साथ लगे प्लॉटों के साथ-साथ दुकानों की खरीद-बिक्री भी जोरों पर थी। इनमें अस्सी प्रतिशत दवाइयों की दुकानें ही थीं। कुछ आधी बनी दुकानों में तो लोगों ने आ-आकर बैठना भी शुरू कर दिया था। अभी कहीं चाय और कहीं साग-भाजी बेचने के काम में इन दुकानों को लिया जा रहा था। रावसाहब के ड्राइवर के साले ने भी दवा की दो दुकानों के लिए जुगाड़ बैठा लिया था। उसे कॉलेज में उसके साथ पढ़े दोस्तों ने बताया था कि दवा की दुकान में रम, ब्रांडी, और जिन रखने की छूट भी मिल जाती है। इस सूचना पर वह बहुत उत्साहित था। कस्बे के दोनों सिनेमाघर इस इलाके से काफी दूरी पर थे, इसलिये यहाँ नयी खुली वीडियो की दुकान भी तेजी से दौड़ पड़ी थी। जिस घर में वीडियो चलता था, उसके खिड़की दरवाजों पर मैले और बेढंगे बच्चों की भीड़ लग जाती थी।

रेस्ट हाउस की खिड़की पर भी उस दिन दोपहर में ऐसी ही भीड़ लगी हुई थी, जब रावसाहब के ड्राइवर का साला शहर से आये अपने दोस्तों के साथ सिनेमा देख रहा था। बच्चों के हँसने-चिल्लाने और शोर मचाने से खीजकर जब उसका एक साथी खिड़की के किवाड़ बंद करने के लिए आया तो उसे बच्चों की भीड़ में एक-दो औरतें और युवतियाँ भी दिखायी दे गयीं। उसने दरवाजा बंद करने का ख्याल छोड़ दिया। मैले और बेढंगे बच्चों के लिए खिड़की अक्सर खुली रहने लगी और एकाध मजबूत हाथ-पैर वाली बच्चियों को कोठी में छोटा-मोटा काम मिलने लगा। फर्श की सफाई, कपड़े धोना, बर्तनों की सफाई आदि अनेक काम ऐसे थे जो मर्दों की बनिस्बत औरतें बेहतर ढंग से करती थीं। तो इस तरह क्षेत्र का चहुँमुखी विकास होने लगा। औरतों-युवतियों को भी काम मिलने लगा।

कस्बे के हाईस्कूल के पिछले सालाना जलसे में बड़े रावसाहब ने घोषणा की थी कि हर कक्षा में पाँच बच्चों का दाखिला, जो रावसाहब की सिफारिश पर होता था, उसके लिए एक कमेटी बनायी जायेगी। कमेटी बन गयी थी। रावसाहब की मँझली बहू और विदेशी कम्पनी के एक अफसर की पत्नी के अलावा नरेशभान की माताजी भी इस कमेटी में रखी गयीं। कस्बे के हाईस्कूल पर निरन्तर दबाव बढ़ता जा रहा था, क्योंकि वहाँ आबादी का दबाव बढ़ने से दाखिला चाहने वाले बच्चों की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ती जा रही थी। रावसाहब की अनुशंसा से मिलने वाले दाखिलों का सारा काम नरेशभान के ही जिम्मे आ गया, क्योंकि कमेटी के बाकी मेम्बरों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। नरेशभान हर काम व्यवस्थित ढंग से करने का अभ्यस्त था। अत: जल्दी ही रावसाहब की अनुशंसा प्राप्त करने के लिए आवेदन करने वाले बच्चों के अभिभावकों के लिए भी एक रकम तय की गयी, जो देने पर रावसाहब की गठित की हुई कमेटी अपनी अनुशंसा प्रदान कर देती थी। कस्बे के मध्यमवर्गीय घरों के बच्चों में ऐसे बच्चे, जो अन्यथा किसी स्कूल-कॉलेज में प्रवेश देने के योग्य न पाये जाते, इस रीति से रावसाहब के अनुशंसित छात्र के रूप में प्रवेश पाने लगे। उनके माँ-बाप को भी इस बात का परम सन्तोष होने लगा कि उनके बच्चे बड़े शहरों की भाँति 'डोनेशन' से दाखिला पा रहे हैं। यह बात खुद उनकी अपनी नजरों में उनका स्टेटस उठाने लगी। वे इसका बखान गौरवपूर्ण शैली में अपने मिलने-जुलने वाले लोगों के बीच करने में अपना जीवन धन्य समझने लगते। इस तरह आसपास के सरकारी दफ्तरों के बाबूओं, छोटे-मोटे दुकानदारों व पूँजीपतियों के बच्चे बड़े लोगों के बच्चों की शैली में अपने बच्चों को शिक्षालयों में भेजने का लुत्फ उठाने लगे।

बाजार के बीज तेजी से बनती-बढ़ती दुकानों के बीच एक दिन लोगों ने एक ब्यूटी पार्लर का बोर्ड भी देखा और स्थानीय निवासियों के चेहरों पर बोर्ड पढ़-पढ़ कर ही एक अनोखी चमक आने लगी थी। कस्बे के सौन्दर्यीकरण की दिशा में यह एक अनूठा कदम था। सड़क से आते-जाते लोग आँखों में अजीब चमक भर के बाजार से निकलने लगे थे।

रावसाहब के ड्राइवर के साले की मेजबानी में रेस्ट हाउस में आने जाने वालों का ताँता लगा ही रहने लगा। वह भी नरेशभान के साथ उसके बाकी कामों में तरह-तरह से मदद पहुँचाने लगा था। जैसे नरेशभान रावसाहब का दाहिना हाथ था, वह नरेशभान का दाहिना हाथ बनता जा रहा था। धीरे-धीरे आसपास के लोग उसे भी पहचानने लगे थे और उसके रौब-दाब को भी।

उस दिन आखेट महल के सामने शहर से आकर खड़े हुए ट्रक से सिंटेक्स की पानी की टंकियाँ उतारते समय हादसा हो गया। टंकियाँ बहुत  बड़ी-बड़ी थीं। चार-चार आदमी भी मिलकर आसानी से उन्हें उठा नहीं पाते थे। साइट के रोजाना काम करने वाले आठ-दस आदमी ट्रक खाली करने के काम में लगे हुए थे। तभी एक बड़ी टंकी को उतारते समय न जाने क्या हुआ कि किशोर नाम के एक आदमी पर टंकी गिर पड़ी। आदमी ज्यादा बूढ़ा तो नहीं था, मगर कुछ दिन पहले बीमारी से उठकर आया था। अत: अशक्त-सा था। वह दो-तीन रोज से हल्का-फुल्का काम ही कर रहा था मगर आज शायद उसकी मौत उसे ट्रक के करीब खींच लायी।

मजदूरों में खलबली मच गयी। टंकी गिरने से जाँघ की हड्डी चकनाचूर हो गयी और किशोर को नजदीक के दवाखाने में ले जाते-ले जाते ही उसने दम तोड़ दिया। कहते हैं, टंकी के नीचे रखा हुआ एक बड़ा पत्थर भी टंकी हटाते समय सरक कर नीचे गिरा था जो टंकी के साथ ही गिरे किशोर के सीने पर सीधा गिरा। लहूलुहान हुए आदमी को दवाखाने ले जाने भर में मजदूरों की भीड़ जुट गयी। सब काम छोड़-छोड़कर आ गये। कानाफूसी और बहसबाजी शुरू हो गयी। ठेकेदारों के आदमी लेबर को समझा रहे थे कि बड़े काम में दो-चार हादसे होना तो मामूली बात है मगर मजदूर उत्तेजित थे, ठेकेदारों द्वारा बेरहमी से काम लिए जाने की शिकायत कर रहे थे।

किशोर नाम के इस मजदूर के आगे पीछे यहाँ कोई नहीं था। वह अकेला ही रहता था। अस्पताल से लाश को छुट्टी मिलते ही दस-बारह आदमियों ने जाकर उसका क्रिया-कर्म कर दिया था। रावसाहब के ड्राइवर का साला ऐसे समय नरेशभान के बहुत काम आया। उसने और उसके यार-दोस्तों ने मजदूरों की भरपूर मदद की। वे लोग श्मशान तक भी साथ में गये तथा नरेशभान के कहने पर क्रिया-कर्म का खर्चा भी उन्होंने किया।   मजदूर लोगों ने एक दिन बहुत कोशिश की कि किशोर के जान-पहचान वाले या रिश्तेदार का पता चल जाये किन्तु उसके बारे में कुछ पता न चला, सिवा इसके कि वह भी रेलवे का काम बंद होने के कारण आने वाली लेबर के साथ ही साल भर पहले यहाँ आया था और बाहरी आदमियों के साथ ही यहाँ अकेला रहता था। उसके गाँव-घर का भी ठीक-ठिकाना न था। इसी से ठेकेदार ने शाम तक इंतजार देखकर उसके क्रिया-कर्म का बंदोबस्त कर दिया था। 

शाम के झुटपुटे में दस-बारह आदमी श्मशान से किशोर के मुर्दे को फूँक कर लौट रहे थे। सुनसान इलाके को पार करके वे लोग कस्बे के सिरे पर बने एक चाय के होटल के सामने लगे नल पर हाथ-पैर धो ही रहे थे कि नयी मुसीबत और खड़ी हो गयी।

होटल के बाहर खड़े होकर हाथ-पैर धोते समय एक लड़के ने रूमाल से हाथ पोंछते-पोंछते अपने साथी से कहा-

''यार, मुर्दे को जलाने में कितनी लकड़ी फिजूल में खत्म होती है। दो-चार पेड़ काटने पड़ते हैं, तब जाकर एक आदमी का काम होता है।''

इस बात पर आस-पास खड़े दो-चार लोगों के कान फौरन खड़े हो गये मगर कोई कुछ न बोला। बात आयी-गयी हो गयी। रावसाहब के ड्राइवर का साला बात को सुना-अनसुना करके चाय का गिलास हाथ में पकड़ने लगा जो उसके एक साथी ने उसे दुकान से लाकर दिया था।

लेबर के लोग दो-दो-चार-चार के जत्थे बनाकर अपने-अपने रास्ते जाने लगे। शाम भी गहराने लगी थी। तभी एक लड़के ने रावसाहब के ड्राइवर के साले को उकसाने के अन्दाज में कहा, ''सुना, वो साला मियाँ क्या कह रहा था? कह रहा था, हिन्दुओं में मुर्दा फूँकने का सिस्टम बहुत खराब है। कितनी लकड़ी बरबाद होती है।''

''क्या मियाँ था वो?''

''नहीं-नहीं, जो बोला था वह तो हिन्दू ही था। उसके साथ जो लड़का खड़ा था वह मियाँ था। दोनों यहीं काम करते हैं।'' एक और लड़के ने सफाई-सी देते हुए कहा।

''नहीं उस्ताद, उमर ने ही बोला था।''

''उमर कौन?''

''यहीं कारपेन्टर है उस्ताद। संजय नगर में रहता है।''

''उमर श्मशान में गया था क्या?''

''हाँ, चला गया था। अपने साथ ही तो था। मगर यार बोला वह नहीं था, मैंने सुना, उसके साथ वाला मूँछों वाला आदमी बोला था।'' किसी ने कहा। 

''ऐसा कैसे हो सकता है? वो क्यों बोलेगा! साले उस मियाँ ने ही कही होगी ऐसी बात।''

''नहीं उस्ताद..'' 

''अबे जा साले! तेरी फट रही है क्या उस मुल्ले से, जो उसका पक्ष ले रहा है।'' एक लड़के ने आग में घी डाला।

''यार मैं तो सच्ची बात बता रहा हूँ।''

''सच्ची बात की ऐसी-तैसी। तू चाहे तो चलके अभी पूछ ले, उसी साले हरामी ने कहा था।''

''वह कैसे कहेगा यार! वह तो सीधा-सादा है। कभी कुछ बोलता ही नहीं।''

''साले तेरे नीचे लेटता है वो, जो उसका राग अलापे जा रहा है। चल मेरे साथ.. चल..'' कहते हुए उसने कहने वाले लड़के की कलाई जोर से पकड़ी और लगभग घसीटता-सा उसे आगे-आगे ले जाने लगा।

लड़कों की भीड़ उनके साथ-साथ बढ़ने लगी। लोग तमाशबीन की मुद्रा में हँसी-ठट्ठा करते-करते चल पड़े।

''चल, देख अभी तुझे उसके पास ले चलता हूँ, खुद उसके मुँह से ही कहलवाऊँगा कि उसने क्या कहा है।''

''अब जाने दे यार..'' कहता-कहता वह लड़का अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश करने लगा, जो सच्ची बात कहने पर भी अब कलाई पकड़ने वाले की सख्ती से घबराने लगा था। 

देखते-देखते उस स्थान पर भीड़ बढ़ने लगी। आने-जाने वाले लोग भी उत्तेजना में बोले जा रहे सुरों को सुन-सुनकर चाल धीमी करके वहीं रुक जाते। अँधेरा हो जाने से इधर-उधर धूल-मिट्टी में खेलने वाले और बच्चे भी खेल रोककर वहाँ आ गये और तमाशा देखने लगे। 

रावसाहब के ड्राइवर के साले ने समझदारी और जिम्मेदारी से काम लिया। वह न तो कोई जल्दबाजी करना चाहता था और न ही अपने समाज के एक संस्कार पर ऐसी घटिया टिप्पणी करने वाले को ऐसे ही छोड़ना चाहता था। उसे यह तो यकीन हो गया कि ऐसा निश्चित रूप से कोई मुस्लिम ही कह सकता है। उसने अपने दो-चार गुर्गों को इशारा करके सारी बात समझा दी और उमर नाम के उस कारपेन्टर को बुलाकर रेस्ट हाउस में ले आने की हिदायत दे डाली। ये लड़के रोज मुर्ग-मुसल्लम खा रहे थे तथा काम कोई नहीं था। अपने यार की खिदमत के लिए कई दिनों से तरस ही रहे थे। फौरन लाम पर जाते सिपाही की भाँति गलियों में बिला गये। जाते-जाते उनके चेहरे पर ऐसे वीरोचित भाव थे, मानो वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का बोझ अपने कन्धे पर लेकर उनके रस्मो-रिवाज पर टीका-टिप्पणी करने वाले को सबक सिखाने जा रहे हों।

कुछ देर बाद रेस्ट हाउस में किसी हड़कम्प की भाँति आठ-दस लड़के दाखिल हुए तो उनके साथ ही निरीह-सा दिखने वाला लड़का उमर भी था, जो लगभग एक साल से कारपेन्टरी का काम कर रहा था और अपने चार-पाँच साथियों के साथ एक झोपड़े में रहता था। एक लड़के ने उसकी कलाई को कसकर पकड़ा हुआ था और वे सभी लड़के जोश व उत्तेजना में जो वार्तालाप करते हुए चले आ रहे थे, उससे उमर को सारा माजरा समझ में आ गया था। उसने मिन्नतें की। समझाया कि उसने ऐसा कुछ नहीं कहा था, बल्कि उसके साथ के लड़के सुरेश ने ही कहा था। और सुरेश अब न जाने कहाँ जा चुका था। लड़कों ने उसकी एक न सुनी। वह उमर को लगभग घसीटते हुए रेस्ट हाउस में ले आये।

दरवाजे के भीतर दाखिल होते ही एक लड़के ने जोर से उमर के सिर में चपत जमायी। उमर दर्द से कराह गया। देखते-देखते सभी उस पर पिल पड़े। लड़के मारते समय गर्व का अनुभव कर रहे थे, क्योंकि इस समय वह किसी शरारतपूर्ण मारपीट में संलग्न नहीं थे बल्कि अपने धर्म के रीति-रिवाजों की रक्षा के लिए काम कर रहे थे। एक आदमी ने हिन्दुओं के रस्म-रिवाजों को ललकारा था और बहुत आवश्यक था कि फौरन इस अधर्म का उत्तर दिया जाता। उमर की सफाई देने की तमाम कोशिशें बेकार गयीं। और इतना ही नहीं बल्कि एक लड़के ने तो ललकार कर गुस्से में यहाँ तक कह डाला कि बस्ती में अब अगर कोई चिता जलाने की नौबत आ गयी तो उसमें लकड़ी नहीं, बल्कि उमर जैसे लोगों के कपड़ों को जलाकर आग लगायी जायेगी। 

उमर की आँखों में आँसू आ गये। वह कहता-कहता थक गया कि उसके साथ सुरेश ने ही कहा था, जो भी कहा, पर उसकी किसी ने एक न सुनी। डर व घबराहट के मारे उमर थर्राने लगा और एक बार भयभीत होकर उसने कहा कि वह तो आरम्भ से हिन्दुओं के बीच ही रहा है। उसे यह भी मालूम नहीं कि हिन्दुओं में और मुस्लिमों में क्या अन्तर है। वह तो दोनों को समान मानता आया है।

इस बात पर रावसाहब के ड्राइवर के साले ने एक जोर का अट्टहास किया। बोला—''साला कहता है, इसे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच का अन्तर नहीं मालूम.. अरे चन्दू बता दे इसे अन्तर। दिखा दे, दिखा दे.. बेचारा बहुत भोला है। कहता है मुर्दे को जलाने से पर्यावरण खराब होता है। लकड़ी बेकार जलती है। पेड़ काटने पड़ते हैं साले, जमीन में मुर्दों को गाड़ने से पर्यावरण खराब नहीं होता? मरने के बाद भी आदमी को सड़ने के लिए छोड़ने देने से कोई खराबी नहीं होती? जलाकर अग्नि को सौंप देने से पर्यावरण बिगड़ता है!''

चन्दू और उसके जैसे तमाम लड़के घेरा बनाकर तमाशा देख रहे थे। बेचारा उमर बीचों-बीच जमीन पर बैठा कातरता से इधर-उधर देख रहा था। वह रह-रहकर हाथ जोड़ता था और जाने देने की मिन्नत करता था। वह रह-रहकर पछता रहा था कि वह इंसानियत के नाते वैसे ही अपने दोस्त सुरेश के यहाँ चला ही क्यों गया, जहाँ किशोर को फूँक कर इन लोगों का हुजूम श्मशान से लौट रहा था।

मारपीट कर उमर को रेस्ट हाउस से निकाल देने के बाद जमकर वहाँ दारू पी गयी। रात देर तक कोठी से कहकहों और लतीफों की आवाजें आती रहीं।