आखेट महल - 12 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 12

बारह

खेतों में ले जाकर काट के फेंक दें, कौन पकड़ने वाला है। साला हरामी, वो एक आदमी तो मुंशी को कह कर गया है कि सुबह मैं आ जाऊँगा जल्दी। चाबी भी साले ने हमारे सामने ही एक अखबार के कागज में लपेट कर कोने की मेज की दराज में डाल ली थी। महाबदमाश हैं साले.. बस बेटा! ये ही समझ, तेरे-मेरे पिछले जनम के कुछ हिसाब-किताब बाकी थे कि मेरा माथा घूम गया। मैंने कहा, शरीफ लड़का रहने-कमाने आ गया, उसकी ये दुर्गति। बस.. फिर तो जो हुआ तेरे सामने ही है।

गौरांबर रात को देर तक दादा की ये कहानी ऐसे सुनता रहा जैसे किसी जादूगर के सामने हिपनॉटाइज करके ला बैठाया गया हो। और उसकी आँखें अविरल आँसुओं से बहने लगीं। छत पर आराम से लेटा हुआ यंत्रचालित-सा उठा और चलकर शंभूसिंह के पायँताने की ओर जाने लगा जो बगल में ही अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे।

''क्या हुआ तुझे..?''

''कुछ नहीं दादा!'' कहता हुआ गौरांबर शंभूसिंह के पैरों के पास बैठ गया और उन्हें छू-छूकर माथे से लगाने लगा।

''अरे, ये क्या कर रहा है बेटा.. उठ.. उठ.. ये क्या..'' कहकर शंभूसिंह भी झटके से उठ गये और पैरों की ओर बैठे गौरांबर को कन्धे से पकड़कर गले से लगा लिया। गौरांबर अब जोर-जोर से हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा। और शंभूसिंह उसे गले से लगाये-लगाये चुपचाप उसकी पीठ सहलाते रहे। काफी देर बाद जाकर सहज हो पाया गौरांबर।

दूध के दो गिलास हाथों में लिए सीढ़ियों से चढ़ती हुई रेशम देवी छत पर आयीं तो सामने का दृश्य देखकर हक्की-बक्की रह गयीं। शंभूसिंह बिस्तर पर बैठे थे और गौरांबर उनके गले से लगा हुआ चिपटा हुआ था। शंभूसिंह उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेर रहे थे।

रेशम देवी की आँखों से जरा-सा खारा पानी दूध के गिलास में टपक गया। ठीक ऐसी ही तो रात थी, जब अभिमन्यु रावसाहब से काम के लिए मिलकर आया था और उन्होंने इन्कार कर दिया था। शाम से देर रात तक मुँह फुलाकर बैठा रहा था और खाना भी नहीं खाया था उसने। और ठीक इसी तरह रात को अपने पिता के गले लगकर रोया था। एक-दूसरे को दिलासा-सा देते बैठे रहे थे बाप-बेटे।

दूध के गिलास दोनों को पकड़ा कर पल भर भी ठहरी नहीं रेशम देवी। उन्हें भी तो अपने रुलाई के वेग पर काबू पाना था। नाल में उतरते ही हिचकियाँ छूट पड़ी थीं उनकी। आँचल से मुँह पोंछती नीचे पहुँची थीं और देर तक अभिमन्यु के कमरे में बैठी रही थीं।

गौरांबर का बस चलता तो आसमान पर चमकते चन्द्रमा से कह देता कि मेरे गाँव पहुँच कर मेरे माँ-बाप को और परदेस में झाँक कर इस बूढ़े के जवान बेटे को ताक कर आ, और हमें कल फिर मिलना। पर गौरांबर का बस कैसे चलता? चाँद तो बादल के एक छोटे से टुकड़े के साथ खेलने में मस्त था। सो गया थोड़ी ही देर में गौरांबर, और सो गये शंभूसिंह भी। सो गयीं नीचे एक उमस भरे कमरे में रेशम देवी भी। सबको सुबह जागना भी था।

अगले दिन दोपहर को नहा-धोकर जब गौरांबर रोटी खाने बैठा तो पतली-सी नली से चूल्हे को फूँक देती रेशम देवी उड़ती राख के बीच से आँखें मिचमिचाती हुई पूछ बैठीं, ''क्या कह रहे थे रात को दादा तुझे, बेटा?''

गौरांबर ने चौंक कर देखा। एक पल को संकोच से दोहरा हो गया, फिर धीरे-से बोला, ''मुझे कैसे लाये, क्यों लाये, बता रहे थे।'' गौरांबर के मुँह से न जाने कैसे निकला।

''बेटा, ये बहुत टूटे हुए हैं। अब कोई चोट न झेलेंगे। तू ही ध्यान रखना अब।'' रोटी फुलाते हुए रेशम देवी ने कहा।

''माँजी, ये जनम तो ये जनम, अगर अगले जनम कागज पर लिखने की कोई रीत हो, तो दादा के नाम कर जाऊँगा मैं, लिखकर।'' गौरांबर के मुँह से न जाने कैसे निकला।

रेशम देवी ने रोटी गौरांबर की थाली में डाल दी और आटे की छोटी-सी लोई हथेली में लेकर ऐसे गोलाने लगीं, ऐसे गोलाने लगीं जैसे कोई गोल वसुन्धरा बन जायेगी, और किसी छोर पर दिख जायेगा अभिमन्यु।    

गौरांबर लोटा उठाकर पानी पीने लगा। रेशम देवी आँसू पीने लगीं।

कई दिन तक गाँव में कोई नहीं जान पाया गौरांबर के गाँव में होने की बात। दिन निकलते रहे, सारे आराम और तसल्ली के बीच गौरांबर को इस बात का धड़का लगा ही रहता कि पुलिस लॉकअप से भागने की बात को आखिर कब तक पचाया जा सकेगा। रोज शाम को शंभूसिंह की वापसी के साथ ही गौरांबर के हृदय में घटनाक्रम का अगला खुला वर्क देखने की जिज्ञासा बलवती होती मगर शंभूसिंह रोज की तरह आते ही दुनियादारी की बातों में ही रम जाते। अपनी ओर से बात चलाकर गौरांबर कभी कुछ न पूछता।

शंभूसिंह ने ही एक दिन गौरांबर को बताया था कि रेंगने वाले जानवरों की जान केवल उनके कलेजे में ही नहीं होती। उनके अंग-अंग में होती है। उनका कोई अंग काटकर फेंक दो तो वह भी अपनी ताकत-भर छटपटाता है, तब कहीं जाकर शान्त होता है।

और हमारे देश के राजे-रजवाड़े भी रेंगने वाले जानवरों की ही भाँति थे। इन्हें खत्म नहीं किया जा सकता था। इन्हें अंग-अंग काटा जाता था और फिर हर अंग अपनी जान छटपटाता था। लोग बहुत ऊब गये थे छटपटाहट से। आखिर कोई गिलगिला जन्तु धरती पर छटपटायेगा तो धरती को भी एक घिनौनी पीड़ा तो होगी ही। लोग चाहने लगे थे कि इस सबसे निजात हो जाये। पर ऐसी बातों से निजात कोई एक पीढ़ी के सोचते-करते तो होती नहीं है। पीढ़ियाँ गुजर गयीं। किसी परकोटे की पथरीली दीवारों के बीच पैदा होने वाले आदमी, आदमी के मन-आँगन की फुलवारी की पुलक कहाँ समझते थे। वे तो मकबरों में ही पैदा होते थे। इसी से तो लोग मन-ही-मन उन्हें दुतकारने लगे थे।

तभी, जब आम लोगों ने सियासती बातों में दखल देकर, रोजमर्रा की शासनवृत्ति से जंग छेड़ी तो उसे कोने-कोने में प्रतिसाद मिला। लोग सोचने लगे, राजवृत्ति से जनवृत्ति बेहतर है और सारे काम मेल-मिलाप से, मिल-बैठकर होने चाहिये। रेंगने वाले जानवरों के दाँत तोड़े गये। पूँछेंं उखाड़ी गयीं। विष झुलसाये गये और जनतंत्र आ गया। 

अपनी ही रौ में, आसमान को तकते हुए शंभूसिंह जब कहते चले जाते थे तो गौरांबर ध्यान से सुनता अवश्य था, पर उसे बाद तक पता न चलता कि जनतंत्र कैसे आ गया।

गौरांबर की इच्छा थी कि आँगन में बेकार पड़ा ट्रेक्टर वह चलाना सीख ले और किसी तरह ये काम आये। मगर शंभूसिंह की ओर से गाँव में बाहर न निकलने की पाबन्दी अब तक उस पर थी। गौरांबर चमचमाते ट्रेक्टर को बड़ी हसरत से देखा करता था। कच्चे आँगन के चारों ओर उसने जमीन खोद-खोदकर क्यारियाँ बना डाली थीं और उनमें छोटे-छोटे अंकुर भी फूटने लगे थे। रेशम देवी को भी बहुत भाता था यह सब।

घर बैठा-बैठा गौरांबर जब कभी उकता जाता था तो वह अभिमन्यु के कमरे में रखी हुई उसके कॉलेज के समय की किताबें उठा-उठाकर पढ़ने लगता। बहुत सारा पढ़ डाला था उसने। एक दिन दोपहर में बैठे-बैठे अचानक गौरांबर को याद आया कि जब वह पुलिस थाने में था तो अखबार का एक रिपोर्टर आकर उससे सारी बात करके गया था। गौरांबर को कुछ पता न चला था कि उस रिपोर्टर ने बाद में क्या किया और अखबार में गौरांबर की सच्चाई को भी जगह मिली अथवा नहीं।

बाद में इस बात का जिक्र उसने एक दिन शंभूसिंह से भी किया। शंभूसिंह उसकी बात सुनकर किसी गहरे सोच में डूब गये थे।

और बाद में एक दिन कहीं से ढूँढ़ कर उस अखबार की कतरन भी तलाश लाये थे, जिसमें रावसाहब के रेस्ट हाउस में जिस्मफरोशी होने की खबर का छोटा-सा खण्डन छपा हुआ था। और कुछ न था, केवल यह छपा था कि जिस्मफरोशी की बात बेबुनियाद पायी गयी है। उसमें गौरांबर, नरेशभान या किसी और का भी कोई जिक्र नहीं था।

''हरामियों ने मामला रफा-दफा कर दिया होगा और बात खत्म कर दी होगी।'' शंभूसिंह ने कहा। गलत आदमी को बंद करके रखने में उन्हें भी तो खतरा रहता ही है।

''लेकिन..'' और गौरांबर के असमंजस को बोलने से पहले ही शंभूसिंह ताड़ गये। बोले, ''हाँ, तुम्हारी शंका सही है। वहाँ से भागकर आने की गलती तो हमने की है, इसलिए खतरा टला नहीं है।''

''लेकिन मैं..'' थोड़ा संकोच से गौरांबर ने कहा, ''मैं कोई काम करना चाहता हूँ दादा! बैठे-बैठे मेरा मन नहीं लगता।''

शंभूसिंह किसी सोच में डूब गये। फिर बोले, ''दरअसल बात ये है कि गाँव बहुत छोटा है। यहाँ किसी के पास कोई काम नहीं है। ज्यादातर आदमी लोग खेतों पर चले जाते हैं और औरतें घर के काम में लगी रहती हैं।''

''मैं वापस चला जाऊँ दादा?''

''कहाँ?''

''शहर में, कहीं काम पर।''

''क्यों, क्या यहाँ हमारे पास नहीं रहेगा तू?''

''ये बात नहीं है दादा! यहाँ आप लोगों के सिवा मेरा और कौन है। मगर कुछ-न-कुद काम तो करना ही होगा। ऐसे कब तक चल सकता है!''

ये सारी बातचीत रेशम देवी को भी भायी नहीं थी। पर किया भी नहीं जा सकता था कुछ। ये सवाल तो खुद उनके बेटे ने भी कभी उठाया था और अपनी छोटी-सी अलग दुनिया तलाशने ऐसे ही एक दिन वह निकल गया था। फिर गौरांबर तो पराया था। उससे किसी भी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं था। क्या कह सकता था कोई भी। लड़के से अपराध न भी हुआ हो, पुलिस की नजरों में तो गुनहगार था ही। गाँव में रोके रखने पर भी कभी कोई विपत्ति आ सकती थी।  

''लेकिन जायेगा कहाँ तू..!''

शंभूसिंह एक बार फिर गम्भीर हो गये। उनके चेहरे की कठोर रेखाओं से लग रहा था कि उनके मन में कोई बात है। केवल और केवल यही बात नहीं थी कि दया-ममता या बेटे की यादवश गौरांबर को खतरे से निकाल लाये थे। मन-ही-मन कुछ और भी चल रहा था, जिसे गौरांबर से कहा नहीं जा सकता था।

दादा के असमंजस को गौरांबर ने अपने प्रति उनके लगाव के ही रूप में देखा और वह इससे ज्यादा कुछ भी भाँप नहीं सका। अन्दर-ही-अन्दर शंभूसिंह भी किसी आग में जल रहे हैं, ये गौरांबर कहाँ भाँप सका था। इतने दिन तक उनके साथ बैठते-उठते खाते रहते भी जिस बात की भनक भी शंभूसिंह ने गौरांबर को लगने न दी थी, वह भला इतनी आसानी से कैसे गौरांबर को वे बता देते। और अभी गौरांबर को उन्होंने दुलराया-सहलाया ही था, उसका जिगर कहाँ टटोला था। पराये लड़के को अपनी ज्वाला की लपटों से खेलने के लिए भेजने से पहले उसकी भी थाह ली जानी भी तो जरूरी थी।

लेकिन अभी किसी भी तरह गौरांबर को कुछ बताना उन्होंने उचित नहीं समझा। वे ये भी जानते थे कि अब लड़के का जी यहाँ से उचाट हो चुका था और वह किसी भी दिन, किसी भी तरह से यहाँ से पलायन कर सकता है। फिर भी उन्होंने गौरांबर को एकाध दिन ठहरने की सलाह दी और यह कहा कि वे स्वयं उसके लिए शहर में कहीं कोई काम तलाश करेंगे।

गौरांबर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। किसी भी कशमकश का आभास तक पाये बिना उसने शंभूसिंह की बातों को सिर-माथे पर लिया। एक दो दिन फिर सब सामान्य रहा।

लेकिन इस बात के होने के अगले ही दिन गौरांबर ने घर में, माहौल में एक बदलाव-सा देखा। शंभूसिंह तो रोजाना की भाँति खाना खाकर सुबह आठ-नौ बजे घर से निकल गये। परन्तु गौरांबर को घर में सन्नाटा-सा महसूस होने लगा। उस दिन कुएँ से पानी लेकर जब वह नहा-धोकर कमरे में आया तो रेशम देवी को पूजा में तल्लीन पाया। वह रोज की तरह उसके नहाते ही गरम रोटी परोसने के लिए रसोई में चूल्हे के पास मुस्तैद नहीं बैठी थीं। शायद कुछ त्यौहार-व्यौहार हो, यह सोचकर गौरांबर अकेला बैठा रहा। और कुछ देर बाद रेशम देवी की आवाज आयी, ''गौरांबर, रसोई में थाली ढकी है, लेकर खा ले।''

गौरांबर को आश्चर्य-सा हुआ। वह धीरे-धीरे उठ कर रसोई में गया और एक थाली से ढक कर रखी गयी दूसरी थाली उसने उठा ली। बाजरे की रोटी, अरबी की सब्जी और उड़द की दाल थी। गौरांबर चुपचाप खाने बैठ गया।   

रेशम देवी बिना कुछ बोले पानी का लोटा भरकर उसके पास रख गयीं और फिर कमरे में जा बैठीं।

जैसे-तैसे गौरांबर ने खाना खाया और कुएँ के पास रखी बाल्टी से पानी लेकर हाथ धोये। पलटकर वह अभिमन्यु के ही कमरे में आ बैठा, जहाँ दिन के समय अक्सर वह रहा करता था। उसने दीवार का सहारा लेकर पैर फैला लिए और रेशम देवी के आज के व्यवहार के बारे में सोचने लगा। वैसे इतना अनुमान वह सहज ही लगा पा रहा था कि हो न हो, यह सब गौरांबर के जाने के लिए कहने से ही हुआ है। दोनों लाचार माँ-बाप अपने निपट अकेलेपन में अपने बेटे अभिमन्यु की तस्वीर उसमें देखने लगे हैं।

गौरांबर का खाट पर इस तरह बैठे-बैठे सोचना एकाएक खण्डित हो गया जब उसने देखा कि रेशम देवी उसके सामने खड़ी हैं। गौरांबर फौरन उठकर सीधा बैठ गया। रेशम देवी उसे गहरी निगाह से देख रही थीं। आज से पहले कभी गौरांबर ने उन्हें इस तरह एकटक देखते नहीं पाया था। वह घबरा-सा गया।

''तो तूने जाने का इरादा कर लिया है!'' रेशम देवी बोलीं।

''माँजी, इरादा करने जैसी तो कोई बात नहीं है। मगर कुछ-न-कुछ काम तो करना ही होगा।''

''तुझे काम की क्या परवाह है, यहाँ रोटी की क्या कमी है!''

''ये बात नहीं है। मगर मुझे खाली बैठे-बैठे क्या शोभा देगा माँजी! दादा इस उमर में इतना काम करते हैं, इतनी भागदौड़ करते हैं और मैं यहाँ बैठा-बैठा आराम से खाता रहूँ?''

''दादा की उमर की बात मत कर।'' रेशम देवी काफी सख्त और खुरदरी आवाज में बोलीं। गौरांबर उनके स्वर के इस आरोह पर हैरान रह गया। उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली।

''दादा को अभी बूढ़ा नहीं होना है बेटा। वह बूढ़े नहीं होंगे।''

''क्या कह रही हैं माँ जी! बूढ़े क्यों नहीं होंगे? वे तो..'' आगे कुछ न बोल पाया वह।

रेशम देवी ने ही कहना जारी रखा, ''वो रात के अँधेरे में जान जोखिम में डालकर तुझे इसलिये नहीं लाये थे कि तू चार दिन मेहमान बनकर यहाँ रहे और फिर अपने रास्ते चला जाये।''

''फिर किसलिये लाये थे माँजी..'' गौरांबर को किसी रहस्य के उजागर होने की आशा-सी हुई।

''तू उस मुंशी फूलसिंह को जानता नहीं है। उसने पैदा होने के बाद से इतना पानी नहीं पिया जितनी दारू पी है। वो मुंशी है, पर सात कोस पार जाकर कभी उसकी हवेली देख, महल-सी है। उस रात ये नहीं जाते तो वह तुझे जान से मार डालता। सुबह तेरी हड्डियाँ कुत्ते झिंझोड़ते हुए मिलते और कहीं किसी के चेहरे पर शिकन तक न आती। उसने नरेशभान से बहुत पैसा लिया था तुझे ठिकाने लगाने का।''

''लेकिन.. पर.. आप ये सब..'' गौरांबर के हलक से शब्द नहीं फूट रहे थे। उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि रेशम देवी ये सब कैसे  जानती हैं। उसकी स्मृति में पुलिस थाने की कोठरी का वह दृश्य कौंध गया जब बूटों की खटखट के साथ ही दारोगा-सा दिखने वाला वह भयानक आदमी आया था। गौरांबर का हाथ स्वत: ही अपने सिर पर चला गया जहाँ अभी-अभी ठीक हुई चोट का केवल निशान बाकी था।

''ये तो मैं मानता हूँ कि दादा अवतार की तरह मुझे बचाने आये और यह अहसान..''

''अहसान की बात मत कर। दादा तुझे बचाने को नहीं आये।'' रेशम देवी ने लगभग चीखकर ही कहा। फिर गहरी साँस छोड़कर बोलीं—''कोई किसी को बचाने नहीं आता। सब अपने-अपने आपको बचाने आते हैं। दादा ने बहुत कुछ देखा है। इस उमर में, जब मरद घर पर पड़े-पड़े हाथ-पैरों पर जनानियों से तेल-मालिश करवाने लग जाते हैं, दादा का हाथ आज भी हथौड़े जैसे पड़ता है। वो चाहें तो आज चार अभिमन्यु खड़े कर दें।''

सामने खड़ी माँ समान, गौरवर्ण इस स्त्री के मुँह की बात से गौरांबर हतप्रभ रह गया। कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ ऐसा जरूर है जो इन दोनों शान्त-से दिखने वाले गृहस्थों को सुलगा रहा है। गौरांबर को दो दिन पहले तक जो घर किसी आम्र-कुँज में घिरी कुटिया-सा शान्त लगता था, वही एकाएक अंगारों की नींव पर खड़ी किसी भट्टी सदृश लगने लगा, जिसमें आदमी भुन रहे थे।

रेशम देवी गौरांबर के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ चुकी थीं और उनके चेहरे से लगता था कि वे आज दो टूक बात कहने के मूड में थीं। गौरांबर ने उन्हें हमेशा अपने काम में लगी रहने वाली एक ममतामयी घरेलू नारी के ही रूप में पाया था, जो सुबह के साथ ही मंद-मंद हवा के झोंके की तरह घर के हर कोने को सुवासित करती है। जो घर की गाय से लेकर आले में सजे ठाकुर जी तक का एकसार ध्यान रखती है। जिसे बछड़े की सानी से गौरांबर के नाश्ते तक की फिक्र रहती है।

पर आज गौरांबर साक्षात् देख रहा था कि हवा के इस झोंके-सी नारी में हवा के तेज झोंके की भाँति किसी अंगारे को भीषण दावानल बनाने की ललक भी है। 

''अम्मा साहब और ठाकुर साहब, इनके माँ-बाप यदि इनके साथ न होते तो ये भी अब तक या तो कहीं चंबल के बीहड़ों में होते या फिर दूसरा जन्म लेकर तेरी तरह अन्याय से लड़ रहे होते।''

''मुझे पूरी बात बताइये माँ जी!'' गौरांबर ने विनम्रता से कहा।

रेशम देवी ने एक गहरी साँस छोड़ी और गौरांबर की जिज्ञासा को तौलने लगी। तभी दरवाजे पर जोर का खड़का हुआ, और माँ जी गौरांबर को वहीं बैठा छोड़कर बाहर आयीं।

आँगन पार करके रेशम देवी ने दरवाजा खोला तो साइकिल हाथ में लिए बूढ़ा-सा पोस्टमैन खड़ा था जो एक मैला, मुड़ा-तुड़ा सा लिफाफा रेशम देवी के हाथ में पकड़ा कर चला गया। लिफाफे की लिखावट बड़ी कँपकँपाकर लिखी गयी इबारत थी जो अब लिफाफे के काफी मैला हो जाने के कारण और भी धुँधली हो गयी थी। लिफाफा लेकर रेशम देवी फिर उसी कमरे में चली आयीं और वहीं कुरसी पर बैठकर उसे खोलकर पढ़ने लगीं।

बहुत लम्बी चिट्ठी थी। चार-पाँच बड़े कागज। उसी तरह धुँधली-धुँधली लिखावट में और कागजों का कहीं कोना खाली नहीं छोड़ा गया। रेशम देवी के चेहरे पर सैकड़ों रंग आये और गये, चिट्ठी को पढ़ने के दौरान। गौरांबर सामने बैठा-बैठा उधर से ध्यान हटाकर खिड़की की ओर देख रहा था, जिससे बकरियों का झुंड जाता हुआ दिखाई दे रहा था। एक लड़की हाथ में लकड़ी लिए अपने चुन्नी के पल्ले को कमर में खोसे हुए बकरियों के पीछे-पीछे जा रही थी। गौरांबर दूर तक उस दृश्य को निहारता रहा। बकरियाँ बहुत ही आज्ञाकारी की भाँति एक गोल में रहती थीं और जहाँ जिस तरफ से कोई बकरी अपनी गर्दन जरा उठा कर घेरे से अलग दिखने की कोशिश करती थी, लड़की उसी दिशा में कदम बढ़ा देती थी। लड़की रह-रहकर झुकती और अपनी पिण्डली खुजलाती थी।

रेशम देवी की तल्लीनता में जरा कमी आते देखकर गौरांबर ने पूछ लिया, ''क्या अभिमन्यु की चिट्ठी है?''

रेशम देवी ने एक पल को कागजों से नजर उठाकर गौरांबर की ओर देखा, फिर धीरे-से इन्कार में सिर हिला दिया। वह फिर पढ़ने में मगन हो गई। गौरांबर ने देखा, लड़की एक पेड़ के पास पहुँच कर उसकी जड़ के किसी उभरे हुए भाग पर बैठ गयी और अब जोर से दोनों हाथों से अपनी पिण्डलियों को खुजला रही थी। उसकी बकरियाँ अब छितरा कर इधर-उधर फैल गयी थीं। एक-दो तो छोटे-छोटे झाड़नुमा कीकर और खेजड़े के पेड़ों पर उठंगी हो गयी थीं।

चिट्ठी पढ़ने के बाद रेशम देवी ने सम्भालकर वह चिट्ठी फिर उसी लिफाफे में डालकर रख दी, और बोलीं—''तेरा मन यहाँ नहीं लग रहा था न, अब ठहर जा, कल दादा को कहीं बाहर जाना पड़ेगा। तुझे भी ले जायेंगे साथ। तेरा मन यहाँ अकेले में नहीं लग रहा, ये तो वह भी देख रहे थे, पर इसी चिट्ठी का इन्तजार था उन्हें।''

गौरांबर की समझ में यह गोरखधन्धा कुछ न आया, पर उसे इस बात की खुशी थी कि उसे कल यहाँ से बाहर निकलने को मिलेगा। बन्दिश महलों में भी हो, बन्दिश ही होती है।

गौरांबर उस बात की बाबत पूछना भी भूल गया, जो चिट्ठी आने से पहले रेशम देवी उसे बताने जा रही थीं। वह शाम का इन्तजार करने लगा। उसे शंभूसिंह के लौटने का इंतजार था। उसे कल की प्रतीक्षा थी।