बाल साहित्य का पठन पाठान और समाज और परिवार का दायित्व prabha pareek द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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बाल साहित्य का पठन पाठान और समाज और परिवार का दायित्व

            बाल साहित्य का पठन पाठान  और समाज और परिवार का दायित्व  
बच्चों के लिए चारों और विविध भांति की पठन सामग्री का बोल बाला है | सोशल मीडिया, किताबें , अन्य साधनों के द्वारा बच्चों तक अच्छी बातें पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है | समाज का हर वयस्क समझ रहा है कि इन बच्चों का बचपन वैसा नहीं है जैसा हमारा था , पर उनका स्वयं का भी तो वैसा नहीं था जैसा उनके पिता अथवा काका दादा का रहा था | हम अनभिज्ञ नहीं हैं कि हमारे समाज में बच्चों की परवरिश और उनसे जुड़ी सोच को लेकर परिवर्तन बहुत तेजी से हो रहे हैं |जहां बच्चे अपने चारों तरफ हो रहे बदलाव को बहुत जल्दी स्वीकार करते जा रहे हैं अपनाते जा रहे हैं| वहीं हमारे बुजुर्गों की सोच काफी लचीली और सहज स्वीकृति वाली होती जा रही है |
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह बदलाव सुखद है पर सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो समाज विकसित हो रहा है पर सामाजिक मूल्यों को नुकसान भी हो रहा है |इसके साथ जो आपसी पारिवारिक संबंध, हमारी परिवार व्यवस्था जुड़ी है उसे यह बदलाव बहुत प्रभावित कर रहा है| बड़े बुजुर्ग तो ठीक माता पिता भी अपने बच्चों को कुछ समझाने से पहले विचार नजर आते हैं | फिर भी बालकों में उग्रता बढ़ती देखी जा रही है |
यहाँ तक कि हमारी शिक्षा नीति में भी किसी भी तरह की कठोरता , दंड अथवा सजा का प्रावधान अब नहीं है| यह तो सत्य है कि कोई भी बालक अपने मन से किसी काम को तब तक नहीं करेगा जब तक उसकी उसमें विशेष रुचि नहीं होगी | फिर वह कक्षा में पढ़ाई हि क्यों न हो |
आजकल शिक्षकों को कोर्स की पुस्तकों को पढ़ाने के नए नए तरीके खोजने पड़ रहे हैं तो बाल साहित्य के लिए तो नए प्रयासों की आवश्यकता नजर आ ही रही है | क्योंकि दिन पर के 24 घंटों के समय में बालक के ध्यान आकर्षण हेतु अनेक साधन उपलब्ध जो हैं | आजकल बालकों की खिलोनों में ही रुचि समाप्त होती जा रही है यही एक अचरज का विषय है | जिस प्रगति से बच्चों का विकास हो रहा है हमारी कहानियाँ बच्चों की सोच से तालमेल ही कहाँ बिठा पा रही हैं |
मनोरंजन के लिए तो अनेक साधन हैं हिं यदि सामाजिक मूल्यों के लिए बाल साहित्य को स्थान दें तो ऐसे समय में हमारे बाल साहित्य में जो किस्से , कहानी जो कथाएं, जो प्रेरक विषय वस्तु है |उनमें किसी दंड किसी सजा की बात वर्तमान पीढ़ी स्वीकार ही नहीं कर सकती | साथ मिलकर खान ,खेलना ,बांटना, संयम जैसे शब्द बच्चों के लिए नए होते जा रहे हैं | आजकल अधिकांश परिवारों में काम काज में भी कठोर परिश्रम जैसे शब्द जुड़े हुए नहीं नजर आते| इसलिए साहित्य में अगर हम कठोर परिश्रम, लगन जैसे विषयों की बातें करते हैं तो आज के बच्चों को यह पुराने समय की बातें लगती हैं | हमारी बातें उनकी आधुनिक तकनीक के सामने खोखली नजर आने लगती हैं | मैने कुछ पिता देखें हैं जो हमारी लिखी कहानियों को आधुनिक परिपेक्ष में नए ढंग से अपने बच्चों को सुना कर उनका मन बहला देते हैं | धैर्य का जहाँ अभाव है वहाँ “करता गया, करता गया” , जैसा शब्द बेमानी है |
इसलिए हमें यह ध्यान रखना होना होगा कि बाल साहित्य लिखते समय उसकी विषय वस्तु ,उसकी कथा कहानी कुछ इस तरह की हो जो किसी दंड, सजा कठोर परिश्रम कठोर नियमों से बंधी ना हो |जिसमें अनुशासन का अर्थ सहज रूप से समझाया गया हो |हम यदि बात करते हैं कि परिवार और समाज के पठन-पाठन सामग्री के योगदान की तो अब वह समय लगभग समाप्त हो चुका है| जब पिता अथवा माता बैठकर बच्चों को पुस्तकों का वाचन करवाते थे| स्वयं वांचन करते थे | माता-पिता स्वयं अथवा घर का कोई भी सदस्य जब बाल साहित्य की किसी पुस्तक को या अथवा कहानी को पढ़कर सुनाता है| तो उनके शब्दों का उच्चारण उनके शब्दों का भाव अप्रत्यक्ष रूप से भी बच्चे को बहुत कुछ समझा देते हैं और उनमें स्वत: ही पुस्तक को पढ़ने की रुचि पैदा होती है| आजकल बाजार में तरह-तरह की रंगीन आकर्षक पुस्तकें उपलब्ध है| बाल साहित्य के इन पुस्तकों की कीमत माता-पिता के लिए अनुकूल नहीं होती |
एक समय था जब हमारे देश में बच्चों के लिए सस्ता बाल साहित्य उपलब्ध था |उसमें पुस्तक भले रंगीन ना होकर काली सफेद ही होती थी पर वह बाल साहित्य बच्चों के लिए बहुत उपयोगी था| आजकल प्रादेशिक भाषा में पढ़ने वाले बच्चे तो हिंद, इंग्लिश की पिक्चर पुस्तकों से अपने आप ही दूर हो जाते हैं और प्रादेशिक भाषा में जो साहित्य उपलब्ध है वह उन तक पहुंच पा रहा है कि नहीं इससे शिक्षक पर माता-पिता भी
अंजान है|
हमारे समाज में पुस्तक के अदल बदल कर पढ़ने का प्रचलन बिल्कुल समाप्त हो गया है| लाइब्रेरी से मिलने वाली पुस्तक भी बच्चों को आकर्षित तो करती हैं पर घर आकर स्कूल का काम इतना अधिक होता है की लाइब्रेरी से मिली पुस्तक को आराम से बैठकर पढ़ने का समय बच्चों के पास नहीं होता, अक्सर देखा गया है कि वह पुस्तक बिना पढ़े ही लौटा दी जाती हैं| कुछ स्कूल में यह नियम भी होता है कि छात्र छात्रा को लाइब्रेरी से कोई ना कोई पुस्तक लेनी ही है | ऐसे में बच्चा बिना पढ़े ही पुस्तक लौटाने को विवश हो जाते हैं | क्योंकि स्कूल लाइब्रेरी से पुस्तक सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होती है | जिन बच्चों के घर में पढ़ाई का माहौल होता है वह बच्चे अक्सर पढ़ाई के अलावा भी कहानी की किताबें लिए पढ़ते नजर आते हैं पर जिन घरों में इस तरह का वातावरण बिल्कुल नहीं है उन घरों के बच्चों को पढ़ने का शौक भी नहीं है और माता-पिता के पास समय भी नहीं है कि वह उन्हें पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करें |
कभी बच्चा किसी पढ़ी हुई पुस्तक के बारे में कुछ बताना भी चाहता है तो रुचि न होने के कारण माता-पिता उसकी बात नहीं सुनते और जिसका परिणाम यह होता है कि बच्चों को पढ़ने का शौक होते हुए भी वह किताबों , से दूर होता चला जाता है|
इसलिए यदि हम चाहते हैं कि समाज में हमारे आने वाली पीढ़ी बाल साहित्य में रुचि ले उन्हें पढ़े तो यह जरूरी होगा कि हमारी वर्तमान पीढ़ी स्वयं में पढ़ने का शौक बनाए रखें |कुछ खर्च पुस्तकों पर भी नियमित रूप से करें| घर में किताबें होंगी तो बच्चे की रुचि स्वतः ही होने लगेगी| किताबों को सेल्फ में सजाने के लिए नहीं खरीदे और उन्हें बच्चों के सामने रखने का प्रयास करें| किताबों की बातें करें और बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें|
बाल साहित्यकारों का यह दायित्व है कि बाल साहित्य लिखते समय सहज सरल भाषा का प्रयोग करें| व्याकरण की शुद्धियों का ध्यान रखें |सामाजिक नियम मर्यादाओं का पालन करते हुए भाषा का प्रयोग करें |कटु शब्दों से बचें और बच्चों के लिए लिखते समय सजा, दंड, कठोर परिश्रम व अन्य नकारात्मक बातों से दूर रहते हुए साहित्य लिखें
आपने कितने भी प्रेरणादायक कहानी लिखी हो लेकिन जब बच्चे ने किसी को कठोर परिश्रम करते हुए नहीं देखा, किसी किसान को नहीं देखा ,किसी बढई को नहीं देखा किसी मजदूर को दीवार बनाते हुए नहीं देखा तो वह उसके परिश्रम को नहीं समझ सकता| एक छोटा सा उदाहरण है कि आज के युग का बच्चा यदि कभी नंगे पांव घर में भी नहीं चला है तब वह भगवान राम की 14 वर्ष की नंगे पांव वन यात्रा को कैसे महसूस कर सकता है| आज के युग के बच्चे ने यदि पहाड़ों का जीवन पहाड़ों का वातावरण नहीं देखा है तो वह महाराणा प्रताप के त्याग के विषय में कैसे सोच सकता है कैसे कल्पना कर सकता है| विचारणीय है कि आज के समय का बच्चा स्कूल बैग के 4 किलो वजन को अत्यधिक भारी मानकर उसे ढोने का प्रयास करने में अपनी सारी शक्ति लगा देता है| उसकी अधिकांश शक्ति कक्षा में स्थान पाने में खर्च हो रही है| उन बच्चों से हम कठोर परिश्रम, श्रम साध्य काम की या उसकी| बात की भी कल्पना कैसे कर सकते हैं|
माता पिता स्वयं ही पठन पाठन में रुचि लेंगे तभी वह बच्चों को प्रोत्साहित कर सकेंगे | बच्चों के लिए खेल खिलोनों के साथ साथ पुस्तकें भी जरूरी है | शिक्षक भी यदि सप्ताह में एक बार बच्चों से किसी रोचक पुस्तक को कक्षा में जोर से बोल कर पढ़ाए तब भी शायद इस में रुचि जगाई जा सकती है | भोले बच्चे वैसे ही कल्पना लोक में विचरण में मगन हैं उन्हें वास्तविकता के धरातल पर अगर कुछ ल सकता है तो वह है बाल साहित्य |
प्रभा पारीक भरूच 392001