आखेट महल - 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखेट महल - 4

चार

गौरांबर को न जाने क्या सूझी, तड़के ही घर में ताला लगाकर चाबी अपनी जेब में डालकर निकल लिया। यहाँ तक कि निबटना व हाथ-मुँह धोने-करने के लिए भी वहाँ नहीं ठहरा। क्या पता कब वहाँ दनदनाता हुआ नरेशभान आ जाये। गौरांबर डरपोक नहीं था परन्तु दिन का उजाला होते ही वह कोई बखेड़ा वहाँ खड़ा करने से बचने के लिए वहाँ से निकल लिया।

कोठी के पिछवाड़े कच्चे रास्ते को पार कर वह खेतों की ओर बढ़ गया, जिस पर ट्रकों-गाड़ियों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। खेत के किनारे पानी के एक बड़े से गड्ढे के पास बैठकर गौरांबर निवृत्त हुआ और फिर बड़ी सड़क पर आ गया। 

चाय की एक छोटी सी गुमटी पर बैठकर उसने चाय बनाने को कहा और खुद लोटे में पानी लेकर कुल्ला-दातुन करने लगा।

चाय पीने के बाद गौरांबर कुछ देर ऐसे ही वहाँ बैठा रहा और आने-जाने वाले ट्रकों को देखता रहा। दुकान के पास ही एक हैण्डपम्प था, जिसके इर्द-गिर्द नहाने-धोने वाले ट्रक ड्राइवरों व खलासियों का मेला सा लगा था। आसपास तीन-चार गाड़ियाँ खड़ी थीं।

गौरांबर उस चहल-पहल को देखता रहा। परन्तु थोड़ी ही देर में एक अजब तरह की उदासी उसे घेरने लगी। वह सोचने लगा, इन गाड़ियों और गाड़ी वालों का मकसद क्या है, इनकी जिन्दगी क्या है? किसी की भी जिन्दगी क्या है? जिन्दगी में ठहराव क्यों नहीं है? और जिनकी जिन्दगी में ठहराव है, उनकी जिन्दगी में.. इतना ठहराव क्यों है?

हैण्डपम्प के पास बैठे नहाते-धोते लोगों में हँसी-मजाक चल रहा था। वहाँ से जरा आगे एक पतली-सी पगडण्डी ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर थोड़ी बसी दो-चार झोपड़ियों से मिलती थी। उसी ओर देखकर लोगों में कोई मजाक चल रहा था। गौरांबर की निगाह भी वहाँ गयी। काफी दूर से भी दिखायी दे रहा था कि झोपड़ी में एक ओर बड़ी सी झाड़ी पर चटक लाल रंग की चुनरी फैलाकर सुखायी जा रही थी। कपड़ा सुखाने वाली के तन पर बड़ा सा लहँगानुमा वस्त्र था, परन्तु ऊपरी भाग अनावृत्त था।

गौरांबर तुरन्त समझ गया कि यह सब हँसी-ठट्ठा उसी औरत को लेकर है। सस्ते तरीके से इशारे और मजाक करने वाले खुद भी उसी तरह अनावृत्त थे। उनके अपने बदन पर भी सिर्फ कच्छों या लँगोटों के अलावा और कुछ न था। मगर फिर भी वे सब एक-दूसरे से बेखबर, निश्चिन्त, सड़क के बिल्कुल किनारे, बस्ती के एकदम समीप उस युवती पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनसे लगभग चार फर्लांग की दूरी पर थी और झाड़ी की ओट में थी, सूने जंगल जैसे स्थान में थी। जिसे इतनी दूरी पर बैठे, दूर से दिखायी देते मर्दों से भी ऐसी लाज थी कि कपड़ा सुखाते ही वह उस तरफ पीठ फेरकर खड़ी हो गयी और झाड़ की ओट में हो गयी। 

गौरांबर को हल्की-हल्की भूख भी लग आयी थी। उसने जेब से पाँच का एक नोट निकाला और गुमटी में चाय बना रहे लड़के को एक प्लेट कचौरी भेजने के लिए आवाज दी। साथ ही बराबर वाली पान की दुकान पर बैठे लड़के को सिगरेट का एक पैकेट भेजने के लिए कहा।

नाश्ता करने के बाद गौरांबर ने घड़ी में समय देखा। घड़ी में सात बज रहे थे। पर तभी  उसका ध्यान गया कि घड़ी कल शाम से ही बंद पड़ी है, क्योंकि अभी सात बजे न थे। उसने पास ही खड़े एक ट्रक के ड्राइवर से समय पूछा और चाबी भर के घड़ी मिलाने लगा।

‘‘कहाँ जाना है?’’ ड्राइवर ने उड़ती सी नजर गौरांबर पर डालते हुए पूछ लिया।

‘‘तुम किधर जा रहे हो शाहजी?’’ गौरांबर ने वहाँ बैठे रहने के दौरान ट्रक के खलासियों को उसे ‘शाहजी’ नाम से पुकाते हुए सुन लिया था।

‘‘हम तो बहुत दूर जायेंगे।’’ 

‘‘किस तरफ निकलोगे?’’ गौरांबर ने पूछा।

‘‘तुझे कहाँ जाना है बेटा, बोल, छोड़ देंगे।’’ ड्राइवर ने एकदम से कहा, जो अब तक गौरांबर की उम्र का अंदाजा लगा चुका था।

एकाएक गौरांबर बोला, ‘‘मुझे तो रेलवे स्टेशन तक छोड़ देना। उधर से तो निकलोगे ही।’’ 

‘‘हम शहर में से नहीं निकलेंगे बच्चे! हम तो बाइपास जायेंगे।’’ लम्बे-तगड़े शाहजी ने आत्मीयता से कहा और जवाब का इंतजार किये बिना चाय वाले के पास बढ़ गये, जो उनके लिए गिलास में चाय छानकर उसमें मलाई की बड़ी-सी परत डाल रहा था।

अचानक गौरांबर को न जाने क्या सूझा, वह जेब से पैसे निकालकर गिनने लगा। इस समय उसकी जेब में कुल पैंतीस रुपये थे। थोड़ी सी रेजगारी अलग से पड़ी थी। एक बार मन में आया कि किसी तरह जुगाड़ करके अपने शहर जाने वाली गाड़ी में बैठ जाये। आज अपना घर उसे बुरी तरह याद आने लगा था। 

लगभग साल भर ही होने को आया था, जब वह अपने घर से आया था। इस बीच में उसने घर की कोई खोज खबर भी नहीं ली थी। न कोई खत लिखा था और न किसी दूसरी तरह से ही समाचार भेज पाया था। और उसकी खोज-खबर न होने से घर वाले तो चाहकर भी चिट्ठी-पत्री न लिख पाये थे। न जाने सब कैसे होंगे! 

इन्सान और दूसरे जीवों में बड़ा अन्तर यह है कि इन्सान जिनसे जन्मता है, जिनके बीच जन्मता है, जिनसे रिश्ता लेकर जन्मता है, उनके साथ उम्र भर जुड़ा रहता है। चाहे सद्भाव रख के, चाहे दुर्भाव रख के, पर दूसरे जीव जन्तु बस नाल से अलग होने, शुरुआती दाना पानी मिलने तक ही अपने जन्मदाताओं से जुड़े रहते हैं। बाद में जहाँ अपने डैने उगे या पंजे निकले कि सब समान हो जाता है। हाँ, इतना जरूर है कि वहाँ न कहीं सद्भाव रहता है और न दुर्भाव। सब निर्भाव से ही चलता है।

पर यह दर्शन भी हर इन्सान पर कहाँ लागू होता है? इन्सान के पास पेट के लिए मुट्टी भर अन्न का सुभीता और तन ढाँपने का कपड़ा होना चाहिये। अगर ये नहीं होता तो फिर कोई फरक नहीं होता। इन्सान को भी अपने अम्मा-बाबा वैसे ही बिसरा देने पड़ते हैं, जैसे दूसरे जानवर बिसराते हैं। और असली बात ये है कि ये नहीं होता। सबके पास नहीं होता रोटी और कपड़ा।

कहते हैं, दुनिया हर जीव-जिनावर की हर जरूरत को पूरा करने के लिए काफी है। पर एक भी इन्सान की हवस पूरी करने को पूरी नहीं पड़ती।  इन्सान की हवस पर लगाम नहीं हो तो सारा कुछ किसी एक की जेब में आ जाये, तब भी उसे तसल्ली न हो। और ऐसे ही हवसी कोई एक-दो-चार नहीं, हजारों की तादाद में होते हैं और बस इसीलिए बहुतेरों को दो वक्त चैन से खाने के लिए भी बीसियों टोटके करने पड़ते हैं। अब ये दुनिया तो ऐसी ही है। बस है।

गौरांबर को लाख घर की याद आ रही हो, पर उसका मन यह गवारा नहीं कर पा रहा था कि वह पूरे बरस भर बाद अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के बीच इस तरह खाली हाथ जा खड़ा हो। किराये-भाड़े के पैसे की जोड़-तोड़ तो फिर भी माँग-ताँगकर हो सकती थी, पर ऐसे कैसे चला जाये गौरांबर? सो तय यही रहा कि न जाये। उसने इस विचार को ही मन से निकाल दिया। घर चाहे दो बरस बाद जाये, पर जब जाये तब तो ऐसे, कि माँ-बाप जुदाई की कड़वी घड़ियाँ भूल जायें। उन्हें बेटे की कुछ खुशहाली तो दिखायी दे।

गौरांबर का मन कोठी में भी लौटने को न हुआ। उसने एक स्टेशन की ओर जाता हुआ ट्रक देखा तो उसी में चढ़ लिया। ठीक है, अपने घर न जायेगा पर स्टेशन पर पहुँचकर आसपास के और बहुत से ठीहों-ठिकानों से तो जुड़ जायेगा। भले ही वह उसी शहर में रहे, चाहे कहीं चला जाये।  

नरेशभान का खौफ भी उसके मन से अब तक निकला न था। नरेशभान जैसा तिकड़मी आदमी उसे यूँ ही तो नहीं छोड़ देगा। अपनी बेइज्जती का बदला किसी-न-किसी तरह तो निकालेगा ही। अलग-अलग तरह के विचार गौरांबर को आते-जाते ही रहे।

आखिर उसे भी क्या सूझी! जाकर, बिना कोई आहट-आवाज किये, बत्ती ही जला दी। निपट नंगा नरेशभान कैसे जिनावर से ढंग से उठंगा होकर कपड़ा ढूँढ़ पाया, और सरस्वती? वह भी तो ऐसे ही पड़ी थी। कम्बख्तों ने सोचा था—सुहागरात है हमारी, सवेरे मैं चाय का प्याला लेकर ही उन्हें जगाने जाऊँगा। हरामजादों ने दरवाजा तक उढक़ाने की जरूरत नहीं समझी थी। और अब गौरांबर को जब बत्ती जलने के समय की सरस्वती याद आयी तो उसकी कनपटी लाल हो गयी। सरस्वती का चेहरा धूप में काम करके चाहे काला और झांईदार हो गया हो, पर गौरांबर ने तो जो कुछ देखा, सब ढका रहने वाला ही था न।

स्टेशन के सामने वाले चौराहे से मुड़ता हुआ ट्रक जरा धीमा हुआ तो पीछे की ओर से गौरांबर कूद गया। ट्रक चला गया।

स्टेशन के नजदीक आकर गौरांबर इधर-उधर देखता हुआ भीतर घुस ही रहा था कि उसका हाथ अपनी जेब में गया। और हाथ में आयी कोठी की चाबी।

कहीं ऐसा न हो कि कोठी में कोई आया हो, या और किसी काम से बड़े मालिक ने ही उसे दिखवाया हो तो वहाँ उसकी ढूँढ़ मची होगी। वह आसपास कहीं किसी से कुछ कहकर भी तो नहीं आया था। उसे याद आया कि नरेशभान ने सारी रात काम चलने की बात कही थी। हो सकता है सुबह सब चले गये हों और किसी को उसके वहाँ होने, न होने का अब तक कुछ पता ही न चल पाया हो।

इसी सोच-विचार से गौरांबर अभी खड़ा ही था कि पास में एक रिक्शा आकर रुका। रिक्शे से एक अधेड़-सी औरत और उसके साथ एक बीस-बाईस साल की लड़की उतरी। लड़की शादीशुदा थी, क्योंकि सलवार-कमीज पहने होने पर भी उसके कटे बालों के बीच में सिंदूर की हल्की-सी लाली दिखायी दे रही थी। दोनों ही किसी हड़बड़ाहट में थीं। उतरते ही जल्दी से रिक्शे वाले को पैसे दिये और फिर उतावली-सी होकर अपने सामान को देखने लगी। अधेड़ औरत अपने हाथ का पर्स खोलकर कुछ टटोल रही थी, तभी लड़की आगे बढ़ गयी। वह शायद किसी कुली को दूर से देखकर उस ओर लपकी थी।

‘‘कुली, कुली..’’ उसने दो-तीन बार आवाज लगायी, पर फिर मायूस होकर खड़ी हो गयी, क्योंकि वह कुली उसकी ओर देखे बिना आगे बढ़ गया था।

गौरांबर को न जाने क्या सूझी, पलटकर औरत के पास पहुँचा और बोला, ‘‘कहाँ जाना है, लाइये मैं पहुँचा देता हूँ।’’ औरत के चेहरे पर, अविश्वास और आश्वस्ति का मिला-जुला भाव आया, पर वह भाव नकारात्मक नहीं था। गौरांबर ने दो बड़े-बड़े सूटकेस उठा लिये। उसे सामान उठाता देखकर लड़की भी तेज-तेज कदम उठाती पलटकर चली आयी और उसने बाकी बची एक टोकरी और एक छोटा-सा गत्ते का डिब्बा उठा लिया। आगे-आगे गौरांबर और पीछे-पीछे दोनों महिलाएँ चल पड़ीं।

गौरांबर को अकस्मात् मिल गयी उन महिलाओं से दस रुपये मिले। नोट को जेब में डालकर गौरांबर स्टेशन के बाहर की ओर सीढ़ियों पर जा बैठा।

अब धूप तेज पड़ने लगी थी और गर्मी भी उसी अनुपात में बढ़ गयी थी। छाँव में बैठना गौरांबर को अच्छा लगा। वह कुछ देर अनमना-सा वैसे ही बैठा रहा। फिर थोड़ी ही देर में उसने सरकारी इमारत के उस ठण्डे-से फर्श पर अपने पैर फैला लिये और लेट गया।

कुछ देर उनींदा-सा लेटे रहने के बाद गौरांबर को नींद आ गयी। थोड़ी ही देर में वह गहरी नींद सो गया।

गौरांबर को नींद बहुत जोर से आ रही थी, पर फिर भी वह ज्यादा देर वहाँ सोता न रह सका, क्योंकि अभी-अभी दो गाड़ियाँ शायद एक साथ ही अलग-अलग दिशाओं से आकर प्लेटफार्म पर रुकी थीं, इसलिये भीड़ का एक रेला दरवाजे से निकलता हुआ प्रतीत हुआ। धम-धम की भारी आवाजें और लोगों की चीख-पुकार गौरांबर को सुनायी पड़ने लगी। और फिर एक खोमचेवाला बिलकुल गौरांबर के करीब ही अपनी पेटी जमा कर बैठ गया था, जिससे मक्खियों व उड़ने वाले कीड़ों की तादाद भी वहाँ एकाएक बढ़ गयी। खोमचे में शायद काफी दिन पहले की बनी कोई मिठाई थी, जिस पर खरीद कर खाने वाले ग्राहकों की तुलना में मक्खी-मच्छरों जैसे मुफ्त के ग्राहक ज्यादा आ रहे थे।

गौरांबर ने जेब से रूमाल निकाला और मुँह पर डाल लिया और करवट लेकर खोमचे वाले की ओर पीठ करके लेट गया। वह जबरन कोशिश करके काफी देर वहीं लेटा रहा। गाड़ियों से उतरी भीड़ की रेलमपेल अब काफी कम हो गयी थी, मगर खोमचे वाले के करीब जूता पालिश करने वाले दो लड़के और आ बैठे थे, जिससे अब गौरांबर दीवार और उन लोगों के बीच की काफी सँकरी जगह में ही रह गया था। गौरांबर का मन अब भी उठने को नहीं था। वह दोबारा सोने की कोशिश करने लगा।

दोपहर उतरने लगी थी। धूप में बला की तेजी थी मगर फिर भी वह इलाका रेलवे स्टेशन का होने के कारण अब भी खासा आबाद था। धूप के बावजूद सड़क पर और आसपास की दुकानों पर लोगों की आवाजाही बरकरार थी।

गौरांबर को अब तक भूख भी लग आयी थी। वह स्टेशन से बाहर निकला और सड़क के किनारे की पटरी पर उस ओर चलने लगा, जहाँ एक-दो किलोमीटर जाकर सड़क हाइवे से मिलती थी। हाइवे से कुछ दूर के बाद ही वह बाइपास था, जहाँ से शहर के बाहर-बाहर निकलकर आया जा सकता था। 

बेमन और निरुद्देश्य-सा गौरांबर सड़क पर चलने लगा। उसे काफी देर लेट लेने के बावजूद थकान-सी महसूस हो रही थी। पटरी पर चलते-चलते ही उसे एक ढाबा दिखायी दिया, जो सड़क के किनारे रस्सी से बड़े से बोरे को बाँध कर उसकी छाँव में बनाया गया था। जमीन पर एक ही ईंटों का बना चूल्हा था, जिसके पास एक मोटी-सी औरत बैठी पान चबा रही थी।

गौरांबर के कदम स्वत: उसी तरफ बढ़ गये। नजदीक पहुँचकर गौरांबर औरत से कुछ पूछने वाला ही था कि उसने खुद ही टूटी पुरानी-सी एक चटाई गौरांबर की ओर खिसका दी। पल भर में ही काँसे की एक मुड़ी-तुड़ी और जली हुई थाली में थोड़ा-सा भात और कढ़ी डाल कर उसने गौरांबर की ओर बढ़ा दिया। 

भात बिलकुल ठण्डा था और कढ़ी भी काफी गाढ़ी व जमी हुई-सी थी, इससे गौरांबर को अँगुलियों से उसे सानकर खाने में थोड़ी असुविधा होने लगी।

‘‘मछली का थोड़ा झोल बचा है, दूँ?’’ औरत ने शायद गौरांबर की कठिनाई भाँप ली थी। खुद ही बोल पड़ी और गौरांबर के कुछ कहने से पहले ही उसने करीब रखे बर्तन से ढक्कन हटा कर चमचे से शोरबे के दो बड़े-बड़े चम्मच भात में छोड़ दिये।

गौरांबर ने अँगुलियों से उन्हें सानकर तेजी से खाना शुरू कर दिया। एक और अधेड़-सा आदमी आकर गौरांबर के पास ही बैठ गया। औरत ने उसे भी एक थाली में थोड़ा भात मछली के शोरबे के साथ परोस दिया।

आदमी ने मुँह एक ओर करके जोर से सड़क पर थूका। फिर जोर लगाकर नाक सिनकी और पास में पड़े लोटे से जरा-सा पानी लेकर हाथों में मसल लिया।

उसके थूक का बड़ा-सा थक्का करीब ही जम गया, जिससे उसकी थाली की काफी सारी मक्खियाँ उड़कर उसी ओर चली गयीं। आदमी ने खाना शुरू करने से पहले भात का एक छोटा-सा कौर बनाकर सड़क की ओर फेंका, जिसे देखते ही कुछ दूरी पर बैठा एक पतला मरियल-सा कुत्ता तेजी से उठकर आ गया। कुत्ता मुँह लगाकर भात को सूँघने लगा, फिर हौले-हौले जीभ निकाल कर खा गया। कुत्ते की पीठ के बहुत सारे हिस्से के बाल उड़े होने के कारण वहाँ की जख्मी चमड़ी दिखायी दे रही थी। कुत्ता भात का कौर खाने के बाद सूँघता-सूँघता फिर से उस आदमी के नजदीक आने लगा। आदमी ने फिर से भात का एक कौर बनाया और कुत्ते के सामने उछाल दिया। कुत्ता पलट गया।

औरत बड़ी आत्मीयता से आदमी की ओर देखने लगी। आदमी ने उसकी ओर मुस्कुराकर देखा, फिर जोर से नाक सुड़कते हुए खाने लगा। आदमी की नाक से पानी आ रहा था। उसने खाते-खाते फिर कोहनी से नाक पोंछी। औरत ने मुस्कुराकर गौरांबर की थाली में एक चम्मच शोरबा और डाला।

कुत्ता फिर से गौरांबर और उस आदमी के पास आकर खड़ा हो गया था। कुत्ते ने वहाँ आने से पहले उस आदमी की सिनकी हुई नाक और थूक के थक्के को भी सूँघ कर देखा था। इससे दो-तीन मक्खियाँ कुत्ते के थूथन पर आ बैठी थीं।

पानी का गिलास हाथ में उठा कर गौरांबर हाथ धोने को खड़ा हुआ, तो इधर-उधर देखकर फुटपाथ की दीवार के उस हिस्से की ओर बढ़ गया जहाँ औरत ने पान की पीक थूक-थूक कर लाल रंग का काफी फैला हुआ घेरा-सा बनाया हुआ था। वहीं कुल्ला करके गौरांबर ने रूमाल से मुँह  पोंछा और जेब से दस का नोट निकाल कर औरत की ओर बढ़ा दिया।