कोमल की डायरी - 16 - प्यास लगी है Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

कोमल की डायरी - 16 - प्यास लगी है

सोलह

प्यास लगी है
                                   बुधवार, दस मई 2006

              आज सुमित और जेन दोनों की चिट्ठी आई है। सुमित बहुत परेशान है, अपने से नहीं, जेन से। जब से जेन 'राधेरमन सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता' की निदेशक हो गई है सुमित की नींद हराम हो गई है। आदमी जाने कौन कौन से सपने पाल लेता है? वर्षों साथ पढ़ने के बाद सुमित के मन में जेन के लिए कोई सपना पलता रहा। जेन के राधेरमन की योजना में सम्मिलित हो जाने से सुमित को चोट पहुँची है। उस आघात को जेन भी अनुभव करती है। अपनी चिट्ठी में उसका भी उल्लेख किया है। वह कहती है, मैं विवश हूँ। पिता हैं नहीं, माँ एक विद्यालय में लिपिक है। मुझे अपने पाँवों पर खड़ा होना है। राधेरमन ने मुझे एक लाख का आफर दिया। मैं इनकार न कर सकी। रुपए की ज़रूरत सब को पड़ती है, मुझे भी है। दो महीने में एक लाख बहुत कम नहीं होते। पहली मई को प्रतियोगिता कराकर फुर्सत मिली है। एक फर्म को परिणाम तैयार करने को दे दिया है। इस बीच मेरा अधिकांश समय राधेरमन के साथ ही बीता। सुमित इसीलिए नाराज़ है। उसके ताप को मैं भी अनुभव करती हूँ पर.....। कोमल दा, बहुत अकेली हो गई हूँ। सुमित से मैं मन की बात कह लेती थी। अब मैं यदि कुछ कहती हूँ तो वह विश्वास नहीं करता। राधेरमन ने प्रतियोगिता के कोष से एक लाख निकलवाकर मेरे खाते में जमा करा दिया है। मेरा मन हाहाकार कर रहा है। रात में बिस्तर पर जगती रहती हूँ। माँ पूछती है तुझे क्या हुआ है? मैंने आपके काम में हाथ बँटाने का वादा किया था पर मैं कुछ न कर सकी। क्षमा कर देना। मेरा परिवार अभाव में पला था। मैं अभाव से मुक्ति चाहती थी। गाँधी जी की मूर्ति पार्क में अब भी पूछती होगी। न मैं बहादुर की मदद कर सकी, न रौताइन काकी की और न हरखू की ही। आप यही सोच लीजिएगा जेन स्वार्थी लड़की थी, नितान्त स्वार्थी। सम्पत्ति बटोरने की लालसा मेरे मन में पल रही थी। अब भी है। मैं वह सब नहीं कर सकती कोमल दा, जो आप कर रहे हैं। यहाँ यह भी बता दूँ कि मेरे बाबा के बाबा राजा देवी बख्श की सेना में रहते हुए अँग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए थे। किस गाँव के निवासी थे? हम लोगों को इसका ज्ञान नहीं है। मैं गोण्डा से लौट कर आई तो माँ ने बताया था। मेरे पर बाबा को उनकी माँ ने किसी प्रकार पाला। मेहनत-मजदूरी कर उन्होंने अपनी जिन्दगी काट दी। बाबा जब बड़े हुए भाग कर कराँची गए। एक कम्पनी में दरबानी की। पाकिस्तान बनने पर कराँची से भाग कर दिल्ली आए। पूरा परिवार काट दिया गया था। बाबा ने दिल्ली में फिर घर बसाया। ठेला लगाया। मेरे पिता को उन्होंने पढ़ाया लिखाया। शादी की। पिता जी ने बी०ए० पास कर लिया था। ट्रेनिंग ली। उन्हें प्राइमरी में अध्यापक की नौकरी मिल गई। मैं जब पैदा हुई तो बहुत खुश हुए। माँ बताती है कि वे अक्सर कहते थे कि जयन्ती को पढ़ा लिखा कर योग्य बनाऊँगा। पर मैं पाँच ही वर्ष की हुई थी कि पिता जी एक दुर्घटना के शिकार हो गए। उन्हें एक ट्रक ने टक्कर मार दी थी। मैं छोटी थी। मौत का अर्थ अच्छी तरह नहीं जानती थी। बहला फुसला कर मामा मुझे अपने घर ले गए। पूरे दिन रोती रही मैं। घर जब लौट कर आई तो माँ बहुत दुखी थी। माँ भी इण्टर तक पढ़ी थी। उसे एक स्कूल में बाबू का काम मिल गया। गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। माँ बराबर याद दिलाती कि बापू तुझे अच्छी तरह पढ़ाना चाहते थे। पिता की इस इच्छा को जानकर मेरा मन बल्लियों उछल जाता। मैंने मन लगाकर पढ़ना शुरू किया। छात्रवृत्ति और माँ के वेतन से पढ़ाई का खर्च आसानी से निकल जाता। दिल्ली में चार-पाँच सौ रुपये तो बस, टेम्पू आदि के किराए में लग जाते। मैंने जमा रुपये कभी देखा नहीं था। जब एक लाख का चेक मेरे खाते में जमा हुआ, मेरी भावनाओं के पंख लग गए। मानती हूँ मैं एक कमज़ोर नारी हूँ। जे.एन.यू. की पढ़ाई ने मुझे बिन्दास ज़रूर बना दिया पर सामाजिक कार्यों के लिए जूझने का साहस वह कहाँ दे पाई? विश्वविद्यालय परिसर में क्रान्ति की गंगा बहती है पर कितने विद्यार्थी आग में कूदने का साहस रखते हैं? दूध बादाम पीकर, छोला-भात खाकर क्रान्ति की चर्चा करना आसान है पर तृणमूल पर तीन बजे दिन में दातून करना, लावा चूड़ा और सत्तू पर गुज़र करना, बिना खाए पिए जेठ की धूप में नंगे सिर सरयू के कछार में लोगों को खड़े होने के लिए तैयार करना कितना कठिन है? अपने कैरियर की चिन्ता छोड़ कितने लोग सामाजिक कार्यों में जुटे ? यह शोध का विषय है। आपने अभी प्रारम्भ ही किया है। कमजोरों को अपने पैरों पर खड़ा करना कितना कठिन है? कोमल दा, आप सुमित को समझाइए। एक चिट्ठी ज़रूर लिखिएगा जिसमें मेरी स्थिति का विवरण देते हुए उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराइए। वह तो मेरी बातों को हँस कर टाल देता है। उसे चोट लगी है कोमलदा। मैं अनुभव करती हूँ। कहीं वह अपना संतुलन न खो बैठे? ले दे कर वही एक था जिससे मैं अन्तरंग बातें कर सकती थी। अब मैं उससे कुछ कहती हूँ तो वह मज़ाक समझता है। मैंने दिल्ली में पाँच जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन किया था। साक्षात्कार भी दिया। मेरा चयन नहीं हुआ तो टूट गई मैं। उसी बीच राधेरमन की चिट्ठी आ गई। एक सप्ताह बाद वे स्वयं आ गए। मैंने उनकी योजना में निदेशक का पद स्वीकार कर लिया। सुमित ने मना किया था पर मैं पैसे की भूखी थी। इनकार न कर सकी। सुमित मुझसे बोलता तो है पर एक अजनबी की तरह। एक दिन तो वह देर तक अकारण हँसता रहा। मैं काँप गई। उसको कहीं कुछ हो गया तो..... कोमल दा, आप ही एक सहारा हैं। ज़रूर लिखिएगा उसे.... ज़रूर ।' क्या सुमित की पीड़ा अर्थहीन है? मैं सोचने लगा। कैसे समझाऊगाँ उसे ? उसने भी मुझे चिट्ठी लिखी है। वह नहीं चाहता था कि राधेरमन जैसे घाघ के साथ जेन काम करे। पढ़े लिखे लोग गलत लोगों के हाथ का लिखौना बनजाएँ? उनकी योजनाओं में सहभागी बनें। जिनके खिलाफ खड़ा होना है उन्हीं की चाकरी कर क्या हम कोई बदलाव कर सकेंगे? सुमित की सोच क्या गलत है? सोच विचार करता रहा। हमें अपने कार्यक्रम की तैयारी करनी है। हम लोग प्रदर्शन की तैयारी में जुटे थे। रौताइन काकी भी प्रसन्न थीं। वे स्वयं प्रदर्शन की अगुवाई के लिए तैयार थीं। कहती थी ज़िन्दगी किसी सार्थक काम में लगे, यह अच्छी बात है। बाघों को यह बात खल रही थी। बाघ एक नहीं कई थे। उनकी भी बैठकें होने लगीं। प्रदर्शन न होने पाए इसके लिए बाघ सन्नद्ध होने लगे। काकी मुँहफट थीं तुरन्त जवाब दे देतीं। बाघों ने पहले उन्हें घेरा। समझाया, 'कहाँ के पचड़े में पड़ रही हो।' कर काकी टस से मस न हुई। बाघों को अखर गया। एक बेवा औरत की यह हिम्मत ! सभी बाघ बौखला उठे। काकी को धमकियाँ मिलने लगीं। एक दिन बहादुर दौड़ा हुआ आया। बताया काकी आज रात गायब हो गईं। वे स्वेच्छा से कहीं गई होंगी, ऐसा अनुमान करना कठिन था। फिर भी बहादुर के साथ मैं उनके रिश्ते नाते में खोजता रहा। कहीं उनका पता न चल सका। प्रदर्शन की तैयारी का प्रश्न था ही, काकी की खोज भी ज़रूरी थी। क्या किसी ने उनका अपहरण कर लिया है? दिन-दिन, रात-रात हम और बहादुर चलते रहे पर कोई सुराग नहीं लग रहा था। सरयू घाघरा के बीच के गाँवों, पुरवों को छानता रहा। इसी बीच एक हवा उड़ी कि काकी हरिद्वार गई हैं। जिस आदमी ने यह खबर दी उसने पूरा पता भी लिख दिया था। मैंने पूछा, कोई फोन नम्बर हो तो दे दो। उसने कहा फोन नम्बर नहीं हैं। मैंने पैसे की व्यवस्था कर बहादुर को हरिद्वार भेजा। दूसरे दिन में अपनी कोठरी में बैठा था कि बाउर आ गया। वह दो बार मेरे आवास पर पहले भी आ चुका है। वह सही बोल नहीं पाता। कुछ आवाज़ मुँह से निकलती है पर जो उसके सम्पर्क में हैं, वही समझ पाते हैं। मेरे साथ वह दो दिन घूमा था। इसीलिए आवाज़ को कुछ-कुछ मैं समझने लगा हूँ। मैंने रौताइन काकी के बारे में उसे बताया था। उनके गायब होने पर वह दुखी था। आज वह आते ही रोने लगा। मैंने जानने की कोशिश की पर कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा था। मैंने उसे रोने दिया। बीच बीच में वह संकेत करता था पर समझना आसान नहीं था। उसके अँगोछे में रोटियाँ बंधी थीं। उसने खाया नहीं था। उसकी माँ है, थोड़ी सी खेती है। मेहनत मजदूरी से रोटी चल पाती है। मैंने उसे गुड़ खिलाकर पानी पिलाया तो थोड़ा शान्त हुआ। वह मुझे खींच कर निकट के एक खेत में ले गया। छः इंच का एक गड्ढा बनाया। उसी में एक तिनका खड़ा कर उसे पाट दिया। मैं चौंक गया। क्या रौताइन काकी को इसी तरह कहीं पाट दिया गया है? मैंने इसी धारणा के अनुसार बाउर को संकेत करना शुरू किया। मैं उसकी बात समझ गया हूँ इस पर उसे संतोष हुआ। वह मुझे चलने की लिए संकेत देने लगा। दोपहर की बनाई हुई सब्जी और चार रोटियाँ रखी थीं। मैंने दो स्वयं लिया, दो उसे दिया। खाकर पानी पिया। उसने अपनी रोटियाँ भी निकालीं। वे सूख गईं थीं पर खाई जा सकती थीं। एक रोटी उसमें से मैंने लिया, शेष उसे खाने को दिया। वह भूखा था। रोटियाँ खाकर बैठा तो मुझे चलने के लिए फिर संकेत करने लगा। मैंने साइकिल को साफ किया। कोठरी का ताला बन्द किया और उसके साथ चल दिया। मन में आशंकाएँ उठ रही थीं। सायंकाल इसके साथ जाना। पता नहीं कहाँ ले जाए? खतरा भी हो सकता है। कौन जाने रौताइन काकी का कुछ पता चल ही जाए? काकी की खोज हर हालत में करनी है चाहे कितनी ही जोखिम उठानी पड़े। बाउर को साइकिल पर पीछे बिठाया और चल पड़ा। उसके संकेत के अनुसार चलता रहा। भौरीगंज में सरयू पार किया। पक्की सड़क छोड़कर जब कच्ची पर चलना हुआ तो बाउर ने साइकिल ले ली। हम दोनों पैदल चलने लगे। माझा का क्षेत्र। रात्रि का समय। कभी कभी कोई मिल जाता। ज्यों ज्यों रात गहराने लगी, सन्नाटा पसरने लगा। दूर कहीं कोई प्रकाश दिखता। हम दोनों बढ़ते रहे। चलते चलते हम लोग बरुहा माझा की ओर जा रहे थे। रास्ते में एक जगह बाउर ने फावड़ा गाड़ दिया था। उस स्थान को पहचानने में थोड़ी देर लगी। पर फावड़ा मिल गया। मुझे लगा कि बाउर पूरी तैयारी कर आया है। फावड़े को उसने साइकिल में पीछे बाँध लिया। कुछ दूर चलने पर बाउर कुछ अनकने लगा। जब उसे विश्वास हो गया कि आसपास कोई नहीं है, वह एक जगह ज़मीन खोदने लगा। जैसे कच्चा कुआँ खोदा जाता है, वह खोदता रहा। थकता तो मैं खोदने लगता। धीरे धीरे गड्ढा पाँच फिट तक पहुँच गया। उसके संकेत बता रहे थे कि काकी को यहाँ से निकाल कर कहीं अलग ले जाया गया है। यदि कहीं अलग ले जाने की योजना हो तो शव को मिट्टी में दबाकर ज्यादा दिन कोई क्यों रखेगा? अन्धेरा था। मन अशान्त हो उठा। अब काकी के ज़िन्दा रहने की संभावना न थी। संभवतः बाउर को जानकारी देर से मिली। वह सीधा आदमी मुझे बताने चला आया। गड्ढे को पाटकर हम दोनों वहाँ से चल पड़े। इसी बीच एक जामुन के पेड़ पर बैठे घाघस ने मुआ की आवाज़ लगाई। बाउर के घर तक आते पिछला प्रहर शुरू हो गया था। पपीहे की आवाज़ आने लगी। पुरवे के बाहर हम दोनों खड़े रहे। दोनों के आँसू रुक नहीं रहे थे। मैंने उसे समझा कर घर भेजा। स्वयं लौट पड़ा। भौरीगंज पुल पर पहुँचते सूर्य की किरणें फूट रही थीं। मन में अनेक तरह के विचार उठ रहे थे। साइकिल चलाता रहा पर हृदय रो रहा था। आठ बजे अपनी कोठरी पर पहुँचा। साइकिल को किनारे रखा। हाथ पैर धोकर बिस्तर पर पड़ गया। थका था, सामान्य स्थिति होती तो नींद झपट कर आ जाती, पर आज मन में न जाने कैसे कैसे बुलबुले उठ रहे थे? थका शरीर टूटता पर उड़ता रहा। क्या यही है ज़िन्दगी का सच ? नींद नहीं आई। थोड़ी देर आराम करता रहा फिर उठ पड़ा। सड़क पर वाहनों के आने जाने का शोर। उद्विग्न मन को रोटियाँ सेंकने के उपक्रम में लगा दिया। रोटियाँ बनाकर तवे पर ही आलू प्याज काटकर छौंक दिया।

दूसरे दिन फिर मैं माझा की ओर चल पड़ा। साथ में रमजान भी था। रौताइन काकी की खोज आसान नहीं थी। सरयू घाघरा के बीच का क्षेत्र गन्ना, झाऊ, बालू, और पगडंडियाँ। माझा क्षेत्र अफवाहों का भण्डार गृह है। सूचनाएँ जबानी तैरती हुई तिल का ताड़ बन जाती हैं। 'एक हाथ ककड़ी नौ हाथ बीज' की कहावत को भी पसीना आता है यहाँ। मेरे मन में आया कि भीखी से मिला जाए। 'वह बिना रीढ़ का आदमी है,' रमजान ने टिप्पणी की। 'इसीलिए उससे मिलना चाहता हूँ। बिना रीढ़ वाले आदमी गुप्त सूचनाएँ पकड़ने में सक्षम होते हैं। उन्हें केंचुआ समझकर लोग उपेक्षा कर देते है पर कान और आँख तो उनके भी होते हैं।' भीखी के पुरवे की ओर हम लोग बढ़ गए। धूप तेज़ थी। दोपहर का समय। सूर्य की किरणों से बालू में चाँदी की चमक। जब धूप बर्दाश्त न हुई, हम लोग एक पेड़ के नीचे बैठ गए। जामुन का पेड़। हवा नहीं थी पर पेड़ के नीचे ठंडक का एहसास हुआ। रमजान अँगोछा बिछा कर लेट गए। उनकी आँखें बन्द होने लगी। थोड़ी ही देर में भीखी कंधे पर कुदाल रखे दिखाई पड़ा। मैंने पुकारा, 'भीखी'। वह भी पहचान गया, बोला, 'मालिक राम राम।' सामने ही आकर बैठ गया। 'कहो क्या हाल है गाँव जँवार का?' मैंने पूछ लिया।
'ठीकै जानौ मालिक। जौन बीति जाय सब ठीक है।'
'कोई मार-पीट तो नहीं हुई?' 'ई ती होत रहत है मालिक। जहाँ चारि बर्तन रहत हैं टकराव होईबे करी।'
'ठीक कहते हो भीखी पर कभी कभी कोई बात लोगों को बहुत दिन तक सालती रहती है।'
'आप चालीस सेर कै बात कहेउ मालिक ? कबौ कबौ अस कुछ होइ जात है कि आदमी का भूलत नाहीं?'
'अस कौनो बात जानत ही जौन भुलाय नाहीं पावत हौ?' 'मालिक सुनी सुनाई बात मा कौनौ दम नाहीं रहत झूर सुलफुलाई अस जरिकै बुताय जात है।'
'अगर बात दमदार होय तो सुनी सुनाई बातों से काम बनि जात है। कौनौ बात जौन सुनेउ हमहूँ का बताओ।'
'बतावै लायक नाहीं है मालिक।'
'तौ तू कैसे जानेउ?
'हमका का कोई बतावा? अरे कहत सुनत कहूँ काने मा परिगा।'
'तौ हमरेउ काने मा परिजाय।'
'बहुत मुश्किल है मालिक। बाघ चारिउ ओर घूमत हैं।'
'तौ कहत डेरात हौ?'
'डेराही का परत है मालिक। आपन मूड़ के कटावै ?'
'लेकिन हवा मा बाति रही तौ कहूँ न कहूँ काने मा परबै करी।'
'ठीकै कहत ही मालिक। मुला हमार करेजा कहि पावै वाला नाहीं है।'
'तौ चुप्पै काने मा बताय देव?'
'मुला बात काने से मुँह पर आइन जात है मालिक।'
'तब?'
'तब काव कही मालिक ? जब औरतन का बोटी बोटी काटि के नद्दी मा पौंरावा जात है तौ का बाकी रहिगा?'
'सच कहत हो?'
'तौ का झूठ कहित है मालिक?'
'ई के कीन?'
'हम का जानी मालिक ? हमें कुछ पता नाहीं। सुनी सुनाई बात बक्कि दीन ।'
'तुहें पता है भीखी। हमहूँ जानि लेई।'
'नाहीं मालिक मुँह न खुलवाओ। पियास लागि है, मालिक चली।'
'ठीक है जाओ।' मेरे कहते ही वह उठा, कुदाल को कंधे पर रखा और चल पड़ा। लगता है रौताइन काकी के टुकड़े कर नदी में फेंक दिया गया। दूर दूर फेंका गया होगा। यदि नाव पर रखकर बीच धारा में एक एक टुकड़ा छोड़ा गया होगा तब तो कोई सुराग लगने से रहा। घटना के बारे में भीखी यदि जानता है तो लोग भी जानते होंगे। मन विभिन्न सम्भावनाओं पर उड़ता रहा। रमजान सो रहे हैं पर मेरे मन में...। यदि सच कहने की यही सज़ा है तो फिर देश किधर जाएगा? यदि बाघों का ही कानून चलेगा तो कानून का शासन कहाँ रहेगा? फिर हमारा लोकतंत्र? हम भीखी में रीढ़ पैदा करने की कोशिश कर रहे थे और काकी को गँवा बैठे। ज्यों ज्यों हम बाघों के हित पर चोट करेंगे ख़तरा बढ़ता जाएगा। क्या ख़तरे के डर से संघर्ष बन्द कर दोगे? बताओ कोमल, अपने मन से पूछो। ज़रूरी सवाल है यह। यदि मौत तुम्हारे समाने खड़ी हो तो? तो भी संघर्ष चलेगा। एक काकी की जान गई है तो हजारों काकी आग में कूदेंगी। संघर्ष की आग तूफान पैदा करेगी। कोमल अपनी जान की परवाह न कर? कौन मरेगा कौन ज़िन्दा रहेगा, यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। इस समाज को बदलने का सपना पालने वाले सिर को हथेली पर रख कर चलते हैं। कोमल तू भी सन्नद्ध रह। लाहिड़ी ने गोण्डा की जेल में ही कहा था, 'मैं फिर आऊगाँ।' तू भी फिर आएगा कोमल। तू मरेगा नहीं, शरीर तो एक दिन छूटना ही है। पर वंचितों, कमजोरों के पक्ष में खड़ा होना ही होगा। इन्हें संगठित करना होगा। इनमें शक्ति भरनी होगी जिससे ये अपने पैरों पर खड़े हो सकें। कोई भिखारी नहीं हैं ये? भीख माँगना नहीं चाहते हैं ये। इसी भीखी में भी रीढ़ उगेगी कोमल। तेरे पास सुरक्षा कवच नहीं है। मौत से न डर। संघर्ष जटिल है भयानक भी। पर भावी समाज जो हम बनाएँगे उसमें स्वतंत्रता और समानता एक सम पर मिलेंगे। यदि प्रश्न है तो उसका उत्तर भी है कोमल। काकी जैसे सामने खड़ी कह रही हों, कोमल, बहादुर की लड़ाई अन्याय के खिलाफ है। पैर पीछे न हटाना। मैं फिर आऊँगी? बहादुर को जीतना है। तमाम बहादुर अन्याय के खिलाफ खड़े होंगें। 'काकी हम तुम्हें बचा नहीं सके। क्षमा कर देना काकी।' मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह चली। पर लगा जैसे काकी तमतमा उठीं। 'मेरी मौत पर रोते हो। तुम्हारे चेहरे से आग बरसनी चाहिए थी और तुम ?' मेरे आँसू सूख गए, चेहरा लाल हो गया। जाने क्या क्या बुदबुदाता रहा। जब मन स्थिर हुआ, रमजान को जगाया।
'चलो चलें।'
'क्या काम हो गया?' रमजान ने पूछा।
'हाँ कुछ हुआ। पुष्टि करना शेष है।'
'मुझे नींद आ गईं।'
'ठीक हुआ। मेरी तो नींद ही गायब हो गई है।'
मैंने साइकिल उठाई। इस बार रमजान चलाने लगे, मैं पीछे बैठ गया।