सूनी हवेली - भाग - 15 Ratna Pandey द्वारा क्राइम कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सूनी हवेली - भाग - 15

अनन्या अब भी हवेली में ही थी। वह खुश थी और अपने स्वार्थ की माला में सफलता के मोती पिरो रही थी। आज एक मोती और उसमें जुड़ गया था। वह सोच रही थी चलो एक मुसीबत और टल गई। यह तो सदमे से ही मर गए। उसे ज़्यादा कुछ करना ही नहीं पड़ा। अब तो केवल दिग्विजय की अम्मा ही बाक़ी है। उससे पीछा कैसे छुड़ाऊँ …? खैर वह अकेली अब क्या ही कर पाएगी।

अनन्या बेफिक्र थी लेकिन वीर को हमेशा उसकी चिंता लगी रहती थी। बार-बार उसका मन अनन्या को फ़ोन करने का होता रहता था। कई बार तो वह स्वयं पर नियंत्रण भी कर लेता लेकिन कभी-कभी जब विरह की पराकाष्ठा हो जाती तब उसकी उंगली स्वतः ही मोबाइल के की बोर्ड पर चली जाती थी।

परम्परा अपने पति की मृत्यु के पश्चात उनके लिए की जाने वाली पूजा और रस्में निपटाने के लिए तेरह दिनों तक हवेली में रुकी रही। उन्होंने इन तेरह दिनों तक किसी तरह से अनन्या की बेशर्मी को बर्दाश्त किया लेकिन चौदहवें दिन की सुबह तो वह भी अपने कमरे में नहीं थीं। वह कहाँ गईं किसी को नहीं पता।

दिग्विजय शराब और शबाब के नशे में चूर होकर बेफिक्र था। अनन्या ने धीरे-धीरे सभी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। वह सोच रही थी कि दिग्विजय से हवेली कैसे हथियाऊँ …?  यही विचार अनन्या के मस्तिष्क में अफ़रा-तफरी कर रहे थे। वह जानती थी कि यह उसकी योजना की अंतिम सीढ़ी है। यदि इस सीढ़ी पर पांव रखकर वह उससे ऊपर निकल गई, तब समझो वह हवेली तक पहुँच जाएगी। 

रात को जब उसने देखा कि दिग्विजय काफ़ी निराश लग रहा है तो उसने कहा, "आप उदास मत हो, मैं हूँ ना आपके साथ और मैं आपको छोड़कर कभी भी कहीं नहीं जाऊंगी। आप ही मेरे सब कुछ हो," कहते हुए अनन्या ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और प्यार से उसके होठों पर अपने होंठ रख दिए।

लेकिन दिग्विजय अब भी शांत ही था।

तब अनन्या ने फिर कहा, "बाबूजी के जाने का दुख तो मुझे भी बहुत है। हमने तो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहा था। दिग्विजय तुम तो बहुत ही निढाल लग रहे हो। चलो हम दोनों एक-एक पेग ले लेते हैं, शायद तुम्हें फिर अच्छा महसूस होगा।"

अनन्या ने शराब का गिलास भरते हुए दिग्विजय की तरफ़ देखा और उसे दिखाने के लिए ख़ुद के लिए भी गिलास में शराब डाल ली। उसने अपने हाथों से शराब का गिलास दिग्विजय के होठों से लगा दिया। वह एक ही झटके में शराब को गटक गया। उसके बाद अनन्या ने एक और गिलास में शराब भरकर उसे पिला दी। अब तक दिग्विजय के ऊपर नशा हावी हो चुका था। इस बार जब अनन्या उसके होठों के पास अपने होंठ ले गई तो दिग्विजय ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और कहा, "तुम मुझे कितना प्यार करती हो अनन्या। कितना सुख देती हो, मैं तुम्हारे प्यार का गुलाम बन गया हूँ।"

"अच्छा तो फिर जो भी मैं मांगूंगी क्या वह तुम मुझे दोगे?"

"अनन्या तुम कह कर तो देखो। तुमने तो मुझे वह सब कुछ दे दिया जो स्त्री अपने पति के सिवाय किसी को नहीं देती। यह तो तुम्हारा एहसान है।"

"अरे तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? तुम्हें तो मैंने अपने मन से पति मान ही लिया है वरना यह सब कुछ मैं तुम्हें कैसे देती और अब तो तुम्हारी औलाद भी मेरे गर्भ में पल रही है। कुछ ही दिनों में जब वह पेट के अंदर हलचल करने लगेगा, तब तुम्हें भी उसकी हलचल का अनुभव करवाऊँगी।"

"अरे पर तुम मांग क्या रही थीं? बोलो तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हारे लिए तो मेरी जान भी हाज़िर है," कहते हुए दिग्विजय की आंखें बंद होने लगीं।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः