अनन्या के मुँह से ऐसी अश्लील बातें सुनकर दिग्विजय के माता पिता, भानु प्रताप और परम्परा ने अपने कान बंद कर लिए।
परम्परा ने दुखी होते कहा, "यह तो बहुत ही बेशर्म लड़की है, इसे बड़े छोटों का तो कोई लिहाज ही नहीं है। इसे हवेली में बुलाकर हमने बहुत बड़ी भूल करी है।"
तब यशोधरा ने परम्परा को समझाते हुए कहा, "जाने दो अम्मा इसके जैसी नीच लड़कियाँ क्या जाने अग्नि के फेरों के समक्ष हुए पवित्र बंधन को। आज यहाँ तो कल कहीं और किसी का बिस्तर गर्म करेगी। दया तो मुझे मेरे इस पति पर आती है जो इसे समझ ना सके।"
यशोधरा की बातें सुनने के बाद अनन्या ने दिग्विजय को घूरते हुए कहा, "मैं यहाँ इसकी बकवास सुनने के लिए नहीं रुकी हूँ, इसे अपने जीवन से निकालो वरना मैं चली जाऊंगी।"
दिग्विजय कुछ कहते इससे पहले ही परम्परा ने अनन्या के नज़दीक आते हुए कहा, "अरे, तू है कौन? चल, निकल यहाँ से। तेरा चरित्र तो हमने देख ही लिया है ज़रा अपने माँ-बाप को भी बता दे कि तू यहाँ क्या करने आई थी और क्या कर रही है," यह कहते हुए उन्होंने अनन्या का हाथ पकड़ कर उसे कमरे से बाहर निकाल दिया।
लेकिन दिग्विजय अनन्या को छोड़ना ही नहीं चाहता था। वह तो उसके बिछाए प्यार के चक्रव्यूह में ऐसा फँस चुका था जिसमें से बाहर आने का कोई रास्ता नहीं था। प्यार के इस चक्रव्यूह के अंदर वह खुश भी बहुत था। अनन्या के हुस्न का जादू उस पर ऐसा चढ़ा था कि उतर ही नहीं रहा था।
उसने आगे बढ़कर अपनी माँ को रोकते हुए कहा, "अम्मा यह क्या कर रही हो? बच्चा है मेरा उसके गर्भ में।"
"क्या…? यह क्या कह रहा है तू और यह तीनों बच्चे उनका क्या कुसूर है जो तूने यह ग़लत रास्ता अपना लिया है। अरे यह डायन तुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी। तू समझ ही नहीं रहा है, उसे यह हवेली हड़पना है दिग्विजय।"
"नहीं अम्मा वह मुझसे बहुत प्यार करती है, उसने अपना सब कुछ मुझे सौंप दिया है। भला ऐसे ही कोई लड़की अपना सब कुछ किसी को नहीं सौंप देती, अब मैं उसे कैसे छोड़ूँ?"
"और यशोधरा? उसे छोड़ देगा तू?"
"अम्मा यह उसकी मर्जी है, मैं उसे जाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। वह भी यहाँ रह सकती है।"
यशोधरा ने आगे बढ़ते हुए कहा, "मैंने तो तुम्हें सच में अपना भगवान, अपना पति परमेश्वर माना था परंतु तुमने सब ख़त्म कर दिया," कहते हुए उसने दिग्विजय के गाल पर एक चांटा लगाया।
इस समय यशोधरा का दर्द और क्रोध दोनों अपनी चरम सीमा पर थे।
इसके बाद उसने अनन्या के मुंह पर थूकते हुए कहा, “झूठी पत्तल तो कुतिया चाटती है समझी, मैं नहीं,” इतना कहकर वह उस कमरे में चली गई जहाँ उसके बच्चे सहमे हुए बैठकर उसका इंतज़ार कर रहे थे।
यशोधरा ने तीनों बच्चों से कहा, "चलो मेरे साथ। अब हम इस हवेली में नहीं रहेंगे।"
बच्चे यशोधरा के साथ कमरे से बाहर निकल गए।
यशोधरा ने घर छोड़ने से पहले अपने सास ससुर के पैर छूते हुए कहा, "अम्मा मुझे माफ़ कर देना। मैं दिग्विजय को केवल मेरा बनाकर ना रख पाई। एक खूबसूरत हुस्न ने, एक सुंदर आकर्षक कमसिन उम्र के शरीर ने, मेरी पूरे जीवन भर की तपस्या, मेरा प्यार, मेरा कर्तव्य, मेरी जिम्मेदारियों को हरा दिया।"
परम्परा तो यशोधरा को रोकना चाहती थी पर वह उसे रोक ना पाई।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः