यशोधरा ने परम्परा की बातें सुनकर रोते हुए जवाब दिया, "नहीं अम्मा जबरदस्ती का लादा हुआ रिश्ता मुझे मंजूर नहीं।"
"लेकिन बच्चे उनकी क्या गलती है यशोधरा? उन्हें क्यों उनके अधिकारों से दूर कर रही हो।"
" अम्मा यहाँ रहकर कैसे संस्कार मिलेंगे उन्हें? उनका यहाँ रहना उनके चरित्र को भी खराब कर देगा। अब मैं उस इंसान के पास कैसे जाऊंगी अम्मा जिसे मैंने अपनी आंखों से किसी और के नग्न शरीर से लिपटा देखा है। उस लड़की से मैं क्या शिकायत करूं जब मेरा ही सिक्का खोटा है।"
परम्परा के लाख समझाने के बाद भी यशोधरा अपनी ज़िद पर अड़ी रही। हवेली छोड़ देने का उसका इरादा अटल लग रहा था और उसके इस फैसले में ग़लत भी कुछ नहीं था।
दर्द और गंभीरता से भरा यशोधरा का यह निर्णय सुनकर परम्परा ने कहा, "ठीक है बेटा, मैं समझ सकती हूँ इस समय तुम्हारे दिल पर क्या गुजर रही होगी। दिग्विजय ने तो तुम्हारे स्वाभिमान को ही रौंद डाला है। अब तो मुझे उसे अपना बेटा कहने में भी शर्म महसूस हो रही है। मुझे माफ़ कर देना बेटा कि मैंने ऐसे इंसान के साथ तुम्हारा रिश्ता जोड़ दिया। अभी तो मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी, आओ यहाँ मेरे पास आकर लेट जाओ। बाक़ी की बातें हम सुबह सोचेंगे।"
अनन्या को इस सबसे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा। वह जानती थी कि एक ना एक दिन यह बंद पर्दा खुलने ही वाला है और उसके खुलते ही आग भी लगेगी। परंतु उस आग में वह नहीं, बल्कि दिग्विजय का परिवार, उसकी पत्नी, उसके बूढ़े माँ-बाप सब जलेंगे। वह सोच रही थी कि अब तक उसकी हवेली हथियाने की योजना पूरी कहाँ हुई है। अभी तो बहुत कुछ बाकी है।
दूसरे दिन सुबह-सुबह अनन्या उठी और दिग्विजय के कमरे में बड़ी हिम्मत के साथ दाखिल हुई।
उसने पूछा, "अब क्या निर्णय है तुम्हारा दिग्विजय?"
दिग्विजय चौंक गया। सर कहकर बुलाने वाली अनन्या आज सबके सामने सीधे दिग्विजय कहकर उसे पुकार रही थी। वह सोचने लगा इतनी हिम्मत बाप रे बाप।
अब तक सभी लोग वहाँ आ चुके थे और उसकी यह बकवास भी सुन रहे थे। लेकिन अनन्या को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी का डर है ही नहीं।
गुस्से में तमतमाते हुए अनन्या ने कहा, "प्यार करने वाले डरते नहीं हैं दिग्विजय। मैं इतनी रातों से तुम्हारे साथ सो रही हूँ। मैं माँ बनने वाली हूँ, तुम्हारे बच्चे की माँ। बोलो अब क्या करोगे? मैं या वह… जिसमें तुम्हें अब बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है।"
दिग्विजय उसके पास आया और बोला, "अनन्या तू यह क्या बक रही है? पीछे देख सब लोग खड़े हैं।"
"तो खड़े रहने दो ना इस सब में मेरी क्या गलती है। तुमने जो चाहा वही तो हुआ है। तुम ही बेचैन थे ना मुझे पाने के लिए। अब मेरा सब कुछ तुम्हें सौंप कर मैं यहाँ से कहीं नहीं जाने वाली। मुझे भी इस हवेली में रहना है। मेरा भी इस पर हक़ है। सिर्फ़ अग्नि के फेरे ही तो नहीं हुए हैं, सुहाग रात तो हुई है ना? एक बार नहीं हर रात हुई है। मैंने भी तो तुम्हें पत्नी का सुख दिया है। तन्हाइयों में मैंने तुम्हारी हर रात को रंगीन बनाया है। तुम यह कहते ना थकते थे कि इतनी खूबसूरत रातें तुमने पहले कभी नहीं बिताईं।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः