प्रेमी-आत्मा मरीचिका - 7 Satish Thakur द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्रेमी-आत्मा मरीचिका - 7

इस वक्त मधुलिका का हसीन वजूद उसके अहसासों पर छाता जा रहा था। मुंहबोली प्यारी मां की मौत का सदमा अनजाने में कहीं गहराइयों में जा सोया था।

अब आगे - प्रेमी आत्मा मरीचिका - भाग ०७

फिर अचानक उसे मधुलिका नजर आ गई थी अपने शाही अदाज में होंठों पर अजीब-सी मुस्कान लिए। घर में जमा भीड़ के पीछे वो कुछ ऊंची नजर आ रही थी, जैसे किसी पत्थर वगैरह पर खड़ी हुई हो। उसको देखते ही सुभ्रत के होंठ सिकुड़ गए। खून का दौरा उसके बदन में सनसनाहट पैदा करने लगा था और वो बेचैन होकर अपनी जगह से उठ गया था।

आने वाले ज्यादातर लोग उसकी मुंहबोली मां की लाश के गिर्द जमा थे। कुछ की नजरें सुभ्रत पर पड़ी, तो वो दयालुता से अपने सिर हिलाकर रह गये। उनकी नजर में सुभ्रत की यह हालत उस रहस्यमयी औरत की मौत की एक प्रतिक्रिया मात्र थी, जिसने बेरहमी की इस सरजमीं पर सुभ्रत को मां का सच्चा प्यार बख्शा था।

उधर मधुलिका यों ही स्वप्निल ढंग से मुस्कराये जा रही थी। सुभ्रत को उठते देखकर उसने होंठों पर अंगुली रखकर उसे खामोश रहने का इशारा किया। फिर हाथ हिलाकर सुभ्रत को बाहर आने का इशारा देते हुए पीछे की तरफ मुड़ गई थी।

सुभ्रत दीवानों की तरह लोगों की भीड़ में से निकल आया था। मधुलिका बड़ी शान से एक तरफ चली जा रही थीं। सुभ्रत को सख्त हैरत थी कि बस्ती के दरिन्दों में से किसी की हवस भरी नजरें उस तौबा-शिकन हसीना पर क्यों नहीं पड़ी थीं। फिर उसे ख्याल आया कि मधुलिका शायद अपनी रहस्यमय शक्तियों के सहारे उसके सिवा हर किसी की नजरों से अदृश्य रहती है। इसीलिए वो इसी तरह से नागोनी के भूखे भेड़ियों की भीड़ में घुस आई थी।

उसके पास जल्दी पहुचने के लिए सुभ्रत ने अपने चलने की रफ्तार तेज की थी, लेकिन उसी हिसाब से मधुलिका की रफ्तार भी तेज हो गई थी । सुभ्रत उत्सुकता और जोश से बेताब होकर उसके पीछे लपका था।

वो एक क्षण के लिए पीछे मुड़ी जौर उसकी मधुर आवाज सुभ्रत के कानों में रस घोल गई। किसी गुनगुनाते हुए सुरीले पहाड़ी झरने की तरह । "मेरे पीछे चले जाओ... खजूरों के झुण्ड तक।"

वो दोनों उसी तरह दौड़ते रहे थे। सुभ्रत को यों लग रहा था जैसे कंगाली के दौर में दुनिया की सारी दौलतें उसकी झोली में आ गिरी ही। वो बेपनाह खुशी की वजह से हरेन जैसे शैतान को एकदम भूल ही गया था। जिसने सुवह-सवेरे ही मधुलिका के बारे में उसे काफि कड़वी और सख्त चेतावनी दी थी।

वो अपने कटे हुए होंठ और चीखते हुए जख्मों को भी भूल चुका था। इस वक्त उस पर सिर्फ एक ही धुन सवार थी कि वो किसी तरह मधुलिका के करीब पहुंच सके। दौड़तृ-दौड़ते जब सुभ्रत को सूरज की रोशनी में नागोनी होरा के लहलहाते पेड़ नजर आए थे तो उसके दिमाग को झटका लगा था।

मधुलिका उसे हरेन के खण्डहर की तरफ ले जा रही थी। एक क्षण के लिए सुभ्रत के मन में संदेह जागा कि कही मधुलिका का राज छुपाये रखने के लिए हरेन ने उसे मधुलिका के जरिए फांसकर ही तो खण्डहर की तरफ न बुला लिया हो? और उसके वहां पहुंचते ही उसे मार डालने का इरादा रखता हो? लेकिन उसी समय मधुलिका ने सिर घुमाया था और उसके चेहरे की मासूम चमक ने सुभ्रत के सारे सन्देहों को जलाकर भस्म कर दिया था।

वो हरेन और उसके अंधे इन्तकाम को भूलकर मधुलिका के पीछे दौड़ता रहा था। कुछ देर में ही मधुलिका कच्ची मुंडेरों को फलांगती सब्जियों की क्यारियों में दाखिल हुई और पल में ही उन्हें भी पार करके खजूर के पेड़ों के एक घने झुण्ड में जाकर गायब हो गई।

जब सुभ्रत उस झुण्ड में दाखिल हुआ तो मधुलिका एक ऊचे खजूर के तने से लगी अपनी सांसों पर काबू पाने की निष्फल कोशिश कर रही थी। उसके गाल इस दौड़ की मेहनत से रसभरे अनारों की तरह दहक रहे थे, उसकी बिल्लौरी आंखों में चाहत की चमक किसी नीली झील की लहरों की तरह हिलोरे ले रही थी।

उसके पास पहुचने से पहले सुभ्रत कै दिलो-दिमाग में आंधियाँ-सी चल रही थीं। वो सोचता आया था कि उसके पास आते ही वो उसे बांहों में भरकर उसके रसीले होंठों की मिठास चुरा लेगा । और जब वो शरमाकर सिर झुका लेगी तो उसकी ठोढ़ी ऊपर उठाकर खुले शब्दों में साफ-साफ अपनी मोहब्बत प्रकट कर देगा।

लेकिन खजूरी के इस गगनचुम्बी झुण्ड में घुसते ही उसके सारे इरादे रेत के घरोंदों की तरह ढेर हो गए थे। रूप के सम्मोहन से उस पर सकता-सा छा गया था। बाहों में भरना तो दूर, वो उस गरिमा युक्त शहजादी को छूने की हिम्मत भी नहीं कर सका।

ख्वाब में दिखाई देने वाले धुंधलाए से जिस्म और लिबास के मुकाबले में उसका जीता-जागता वजूद कहीं ज्यादा हसीन और आकर्षक था। मधुलिका के जिंदा रूप को देखकर सुभ्रत की सारी कल्पनाएं मंद पड़ गई थीं। वो रूप और सौन्दर्य की एक ऐसी अद्भुत आकृति थी, जिसके सामने सुभ्रत की कलाकारी का पहुंचना भी सम्भव नहीं था।

उसका यौवन, अंदाज का अनोखापन, बदन का गुदाजपन, नैन-नक्श का तीखापन, सबका स्तर इतना ऊंचा था कि वहां पहुंचने में ख्यालों और कल्पनाओं के पंख भी जलने लगते थे। उसका ढीला-ढाला बेशकीमती लबादा दौड़ने की वजह से कंधों से जरा नीचे ढलक आया था और उसके लम्बे बाल उसके सोने के ताज के नीचे से निकलकर माथे पर आवारा घूमने लगे थे।

सुभ्रत कई मिनट तक स्तब्ध खड़ा उस अप्रतिम सौंदर्य को देखता रहा, जिसने उस के दिल के नाजुक तारों मे हलचल मचा दी थी। मधुलिका की मुस्कराती हुई नजरें उसके चेहरे पर जमी रही थीं।

"मधुलिका... मधुलिका... मधुलिका... तुम कितनी हसीन हो...।" आखिरकार सुभ्रत के होंठ काँपे और उसने प्रशंसा के भावों से भरपूर होकर कह दिया था।

मधुलिका ने बड़ी अदा के साथ गर्दन को जरा-सा झुकाया और पेड़ के तने से हटकर हैरत भरी सरगोशी से बोली- "तुम्हें मेरा नाम किसने बताया सुभ्रत? "

अचानक सुभ्रत के दिमाग में धमाका हुआ। उसके इस सवाल ने सुभ्रत को अंधे बूढ़े और रहस्यम हरेन की याद दिला दी वो जिसने मधुलिका की खातिर उसे सजा दी थी और जिसके खण्डहर के दायरे में सुभ्रत इस वक्त भी मौजूद था।

 

क्रमशः - प्रेमी आत्मा मरीचिका - भाग - 08 

लेखक 

सतीश ठाकुर