शून्य से शून्य तक - भाग 38 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 38

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यह सब लिखते-लिखते आशी फूट-फूटकर रोने लगी थी | हर दिन इस समय वह या तो बाहर लॉबी में आकर ढलते हुए सूरज की लालिमा को पर्वतों से नीचे पिघलते हुए देखने का आनंद लेती थी | गहरा गुलाबी आसमान जब तक सलेटी न हो जाता वह वहीं खड़ी पर्वत-श्रंखला की ओर टकटकी लगाए रहती | आज वह बाहर नहीं जा सकी | अपनी कलम एक ओर कागज़ों के बीच रखकर उसने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया और चुपचाप अपने बिस्तर पर आ लेटी | उसकी आँखों से आँसुओं का प्रवाह थमने का नाम ही नहीं ले रहा था | धीरे-धीरे उसकी सिसकियाँ बढ़ने लगीं और न जाने कब उसकी आँखें बंद हो गईं | 

तेरहवीं पूरी होने पर सहगल के भाई सपरिवार दिल्ली लौट गए | उन्हें किसी बात की चिंता नहीं थी कि आखिर अचानक ऐसी परिस्थिति होने पर ये बच्चे क्या करेंगे? जाते-जाते एक बार वे मनु से बोले;

“मनु!अगर कभी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो संकोच मत करना, वैसे मैंने देखा कि तुम खुद ही काफ़ी समझदार हो और तुम्हारे दीना अंकल तुम्हारे साथ हर पल में खड़े रहते हैं | ”

अजीब ही लगा दीना को, डॉक्टर के सगे भाई का व्यवहार !वो तो जैसे आए थे वैसे ही दिल्ली लौट गए | दीना फिर से बिलकुल टूट से गए थे | उनके कंधों पर एक भारी बोझ आ पड़ा था | इतने करीबी रिश्ते के होने के बावज़ूद वे कैसे अपने भाई के बच्चों को बेसहारा छोड़ सके? मनु और दोनों बच्चियों को देखकर दीनानाथ हलकान हुए जा रहे थे | अपना जीवन उन्हें व्यर्थ लग रहा था लेकिन यह भी महसूस हो रहा था कि उन्हें जीवन के खेल देखने के लिए, भोगने के लिए जीना ही होगा | न जाने कितने और कैसे दिन उन्हें और देखने हैं!इतने लोगों का मुफ़्त में इलाज करने वाले डॉक्टर को किसी की भी दुआ क्यों नहीं लगी? फिर लंबी साँस छोड़कर उन्होंने सोचा कि मनुष्य के अपने हाथ में कहाँ कुछ है केवल अपने कर्म के! बस, वही करने हैं | अब उनके सिर पर और भी अधिक ज़िम्मेदारी है | 

आशी वहाँ रहती नहीं थी लेकिन दिन के चार/पाँच घंटे वहीं बिताने लगी थी | उसका मन भी हर समय बोझिल बना रहता था | वास्तव में उसका मन पिता के बिना अब अपने घर में भी नहीं लग रहा था | उसका मन भटकता रहता, रात भर घंटों बालकनी में इधर से उधर भटकती रहती | तेरहवीं हो चुकी थी और अब भी उसके पिता सहगल अंकल के घर में ही रह रहे थे | वह घर आ जाती थी जहाँ केवल घर के सेवक ही थे | दीना जी का प्यारा माधो उनके साथ ही था | आशी घर आ तो जाती लेकिन नहा धोकर, अपने कामों से निपटकर फिर से सहगल अंकल के घर पहुँच जाती | 

माधो को तो ड्राइवर के साथ न जाने यहाँ से वहाँ कितने चक्कर लगाने होते | वह स्वयं भी तो इधर से उधर चक्कर काटती रहती थी | न तो उसका अपने घर में मन लगता था और न ही सहगल अंकल के यहाँ | जब भी वह सहगल आंटी की तस्वीर देखती तो उसे याद आता कि आँटी कितने प्यार से उसके पास आकर उससे बात करने की कोशिश करती थीं और वह---वह उनसे कैसा व्यवहार कर बैठती थी | उसे अब अपने ऊपर शरम महसूस होने लगी थी और वह अब सहगल अंकल की दोनों बेटियों आशिमा, रेशमा के साथ सहानुभूति से बात करने का प्रयास करती | 

मालूम नहीं वह कितना कर पाती है पर---फिर भी कोशिश करती कि जितना, जो कुछ भी वह कर सके लेकिन आँटी, अंकल के प्यार और दुलार का बदला भला कैसे चुका सकती है? मालूम नहीं कितना कर सके लेकिन जितना भी कर सके, उनके बच्चों को प्यार और सहानुभूति दे सके | अंकल, आँटी के प्यार का बदला तो वह कभी नहीं चुका सकती थी | उसे अंकल का प्यार याद आता, आँटी की ममता याद आती | विधाता का खेल देखकर वह बहुत असहज हो उठती | और उसके असंतुलित मस्तिष्क में हलचल होने लगती | आँटी, अंकल के साथ तो दैवयोग ने खिलवाड़ किया ही था और उनके तीनों बच्चों के साथ भी कैसा मज़ाक किया था---लेकिन फिर से उसका दिमाग अटक जाता | उसके मम्मी-पापा ने तो स्वयं उसके साथ कैसा खिलवाड़ किया था!क्या यह दोष नहीं था | वह अचानक विचारों में भटकने लगती, अनमनी होकर इधर से उधर भटकती फिर गाड़ी उठाकर आशिमा, रेशमा के पास चली जाती | मनु की आशाभरी दृष्टि उससे कुछ कहती लेकिन वह उसे हर समय जाने क्यों तिरस्कृत कर देती | क्या सच में उसके अंदर मनु के लिए कोई संवेदना नहीं थी? ऐसा भी तो नहीं था---फिर? 

मनु का विषय अपने पिता जैसी डॉक्टरी नहीं था | वह समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या करे? इस अप्रत्याशित दुर्घटना से वह इतना अधिक हिल गया था कि उसे सारे मार्ग अवरुद्ध लगने लगे | उधर उसका मन अब कंपनी में जाकर भी लड़ाई करने का नहीं होता था | उसने वकील से बात करके बाटलीवाला पर मुकदमा दायर कर दिया था | अब उसके सम्मुख सैंकड़ों प्रश्न अजगर की भाँति मुँह बाए खड़े थे | पापा का हिसाब, किताब तो उसे कुछ भी मालूम नहीं था | दीनानाथ जी ने सबसे पहले मनु के साथ बैठकर एक-एक कागज़, पत्तर छान मारे | डॉ सहगल ने हर चीज़ में पहले अपना या पत्नी का नाम डाल हुआ था | बच्चों का नाम कहीं पर भी नहीं था | मनु उनका कानूनी वारिस था अत:दीना जी ने एक अच्छे वकील के माध्यम से कार्यवाही की और कुछ समय बाद मनु व बहनों में सब चीज़ों को बाँटकर उनके नाम कर दिया गया | दीना इन तीनों को ‘सहगल हाऊस’ में नहीं छोड़ना चाहते थे | उन्होंने बहुत समझाया कि वे उनके साथ घर चलें लेकिन बच्चों में अब यह समझ आ गई थी कि अब उन्हें अपने माता-पिता के बिना ही जीवन काटना होगा | अब उनमें हिम्मत आने लगी थी | उन्होंने कहा;

“अंकल ! रहना तो यहीं पर ही है, जिन चीज़ों का सामना बाद में करना ही होगा, उनका सामना अभी क्यों न कर लिया जाए? ”मनु बोल उठा | 

“अंकल ! आदत भी तो डालनी पड़ेगी अकेले रहने की | आपके पास इतनी केयर और सुविधाओं में रहेंगे तब भी कभी तो लौटकर यहीं आना है | अभी यहीं रहकर अपनी आदतों को बदलना सीखें, यही बेहतर होगा | ”सबसे छोटी रेशमा ने आँखों में आँसु भरकर कहा | दीना का दिल रो पड़ा, उन्होंने महसूस कर लिया था कि अचानक हुई इस दुर्घटना ने बच्चों में कितनी गंभीरता, समझदारी व प्रौढ़ता ला दी थी | 

“ठीक है जैसा तुम लोगों को ठीक लगे | तुम्हारे दीना अंकल हर समय तुम्हारे साथ हैं, यह मत भूलना | ”उन्होंने रेशमा, आशिमा और मनु को अपने सीने से लगा लिया | 

इस प्रकार दीना अपने मित्र सहगल की अनुपस्थिति में उनके घर काफ़ी दिन रहकर, बच्चों को कुछ सैटल करके आशी के साथ अपने घर वापिस आ गए | आशी सोच रही थी कि सहगल अंकल के तीनों बच्चों ने कितने साहस और दिलेरी से इस परिस्थिति का सामना किया था और वह अभी तक---नॉर्मल नहीं हो पाई है | फिर उसने अपने सिर को एक झटका दिया----उसकी परिस्थिति और थी, उसकी बात और थी, उसे भगवान ने नहीं बल्कि उसके माँ-बाप ने छला था | उसका मन बार-बार आगे-पीछे भटकने लगता था | घर आ गया था | गाड़ी के रुकते ही वह अपने उपद्रवी विचारों के साथ अपने कमरे में समा गई |