शून्य से शून्य तक - भाग 18 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 18

18===

दीना जी को मानो विश्वास ही नहीं आ रहा था और माधो तो ऐसे आँख फाड़कर देख रहा था मानो कोई भूत देख रहा हो| कभी इतनी जल्दी आती होगी आशी लॉंग-ड्राइव से? 

“मैं कोई भूत नहीं हूँ ---”आशी ने मौन तोड़ा | 

“हाँ—अं—आओ बेटा—बैठो–नाश्ता करो—”

“नहीं, आप करिए नाश्ता| मेरा नाश्ता तो महाराज के बच्चे ने बर्बाद कर दिया---| ”

“ऐसे नहीं कहते बेटा –”

“पापा—आप मुझे ये बताइए, बुलाया क्यों था----? ”

“क्यों, क्यों मैं अपनी बेटी को बुला नहीं सकता और मुझे तुमसे अपनी खुशी शेयर करने का हक नहीं है--? ” दीनानाथ धीरे से बोले | 

“कहिए---ऐसी क्या खुशी आ गई आपके जीवन में ? ”आशी का स्वर सपाट था | 

“देखो—ये देखो –”नाश्ता छोड़कर वे उत्साह में आकर खड़े हो गए| 

“देखो, मैं चलने लगा हूँ ---| ”

आशी की आँखों में क्षण भर को एक चमक सी तो आई लेकिन फिर से उसका चेहरा सपाट हो आया| 

“हाँ, देखा, अच्छी बात है---| ”

“तुम्हें खुशी नहीं हुई बेटा ---? ”दीना चाहते थे वह किसी भी प्रकार से उनके सामने अपने भावों को प्रदर्शित करे तो सही| वे उसका मुस्कुराता चेहरा देखकर प्रसन्न तो हों| 

“अब आप चलने लगे हैं तो अच्छा ही है न ! आपके लिए तो बहुत अच्छा है---”आशी का स्वर बिलकुल सपाट था| उनको सूझा ही नहीं क्या कहें? एक ओर घर के सेवक थे और दूसरी ओर उनकी अपनी बेटी! अपना खून! अपना सा मुँह लेकर वह फिर से कुर्सी पर बैठ गए | 

“अब मैं चलूँ? ”आशी ने कहा तो उन्हें समझ में ही नहीं आया, क्या उत्तर दें? 

“बीबी—”माधो फ़ोन छोड़कर उठ खड़ा हुआ | 

“बीबी! आपसे एक प्रार्थना है आप आज शाम को कहीं मत जाना--| ”

“क्यों? ”

“वो—आज कुछ लोग आएंगे घर पर पार्टी में—”

“तुझे पता नहीं है माधो, मुझे ये पार्टी वगैरह बिलकुल भी पसंद नहीं हैं | ”वह गुर्राई | 

“कोई बड़ी पार्टी नहीं बीबी—बस—कुछ खास घर के से –लोग—आप होंगी तो अच्छा लगेगा न ? | ”

“देखूँगी---कहकर वह कमरे से बाहर हो गई | 

दीना की आँखों में फिर से आँसु भर आए| ऐसी तो कैसी दुश्मन हो गई थी उनकी बेटी! घर के सारे सेवकों को उनके खड़े होकर चलने की इतनी खुशी थी कि वे उसे सेलिब्रेट करना चाहते थे और उनकी अपनी बेटी, अपना खून ! उसके चेहरे पर प्रसन्नता का कोई निशान ही नहीं था| 

आशी जानती थी कि उसके पिता की ऐसी स्थिति उसी के कारण हुई थी लेकिन उस पर आज तक पश्चाताप् का कोई प्रभाव नहीं था| इतनी ज़िद और अभिमान से भरी उनकी बेटी कैसे इतनी पत्थर-दिल हो सकती है? आखिर वह है तो उनका ही रक्त ! 

माधो उनके चेहरे के भावों को पढ़ने में बहुत चतुर था, उनकी आँखों के इशारे से, दिल की धड़कन से अगर उन्हें कोई समझता था तो वह था माधो या फिर डॉ.सहगल लेकिन माधो तो उनके पास हर समय ही बना रहता था, सोते-जागते! सोनी के बाद तो उसने कुछ दिनों के बाद हर समय उनके पास रहने के लिए पढ़ाई भी छोड़ दी थी लेकिन उनके पास बैठकर शब्द मिला-मिलाकर अँग्रेज़ी का अखबार पढ़ने लगा था और अब तो उन्हें सुनाने भी लगा था| हिन्दी और मराठी तो बहुत अच्छी तरह पढ़ता था तो कभी हिन्दी, मराठी या कभी अंग्रेज़ी की छोटी-मोती कहानियाँ सुनाकर उनका मन बहलाने का प्रयास भी करता रहता| 

आशी के ऐसे व्यवहार से उसे बहुत पीड़ा होती लेकिन उसे अपनी ज़बान बंद रखनी पड़ती| आखिर आशी उस घर की इकलौती बेटी थी और वह उस घर के सेवक का बेटा ! बेशक, उसके सेठ उसे अपने बेटे की तरह मानते हों लेकिन जीवन की सच्चाई तो यह है कि मानने और होने में जमीन–आसमान का अंतर होता है|