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यह आश्रम केवल एक आश्रम ही नहीं किन्तु संत के कुछ गंभीर अनुयायियों ने इसे एक ‘रिसर्च सेंटर’ भी बना दिया था| संत का मौन के प्रति एक अलग विश्वास था| मौन रहकर जीवन की हर स्वाभाविक दशा, दिशा में स्वाभाविक गति से चलना ही उनका ध्येय था| जब मनुष्य दुनियावी संघर्षों से थक जाता है तब उसके पास गिने-चुने मार्ग होते हैं| या तो वह इसी प्रकार अंतिम क्षणों तक जूझता रहे और अपना सिर दीवार से टकराता रहे क्योंकि उसके पास संघर्ष होते हैं किन्तु उनमें से उसे कोई सकारात्मक राह दिखाई दे जाए तो अति सुंदर! इस पृथ्वी पर अवतरित प्रत्येक मनुष्य को भाग्यानुकूल प्राप्त होता है| कभी बुद्धि संयमित व व्यवस्थित होने पर इंसान का जीवन सहज, सरल रूप से चलता है तो कभी विपरीत परिस्थियाँ समक्ष आ जाने पर ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’का स्लोगन सत्य प्रतीत होता है|
न जाने आशी इस स्थान पर आकर कितनी संतुष्ट थी, कितनी समझदार हो गई थी लेकिन यह सत्य था कि अपने घर से यहाँ आकर बसने का उसका निर्णय उसे शायद सही राह पर लेकर आया था| यह अंतिम पड़ाव था संभवत:उसके जीवन का!
इस आश्रम में प्राकृतिक पत्थरों से बने हुए गिने-चुने कमरे ही थे| जिन लोगों को कुछ कला, साहित्य अथवा मानसिक संतुष्टि में रुचि होती, वे यहाँ अपना कमरा बुक करवा लेते| संत के परलोक गमन के बाद यहाँ कुछ ही लोग आते जिन्हें मौन में रहने की अथवा गंभीरता से अपने कार्य में संलग्न रहने की इच्छा होती| वे यहाँ आकर मौन में रहकर केवल अपने साथ समय बिताते| खाने-पीने की व अन्य व्यवस्थाओं को सुहासिनी संभालतीं| सुबह नौ बजे से दस बजे तक और शाम को चार से पाँच संत के बड़े से हॉलनुमा कमरे में आबू के अथवा आसपास के लोग एकत्रित होते और संत की शांत तस्वीर के समक्ष धरती पर बिछी उज्ज्वल चादर पर बैठकर एक घंटे आँखों को बंद करके मौन की आवाज़ महसूस करने का अहसास करते| यह एकत्रित होकर मौन रहने का कार्यक्रम जब से संत यहाँ निवास करने आए थे तब से शुरू हुआ था जो उनकी अनुपस्थिति में अभी तक चल रहा है|
संत के मौन अनुयायियों का मानना है कि संत की अनुपस्थिति में भी यहाँ उनकी साधना का प्रकाश भीतर मन तक महसूस होता है और मौन की साधना सफ़ल होती है| बस, ऐसे ही आशी अपनी टूटी-फूटी मानसिक अवस्था को लेकर इस स्थान पर आ पहुंची थी| इससे पहले उसके पिता सेठ दीनानाथ बहुत बरस पहले उसे लेकर यहाँ आए थे लेकिन आशी ने उस समय उधम मचाकर रख दिया था| उस समय संत जीवित थे, वे बहुत कम बोलते थे किन्तु आशी से उन्होंने कई बार बात की और उसे अधिक दुखी देखकर उसके पिता से कहा था कि उसका यहाँ आना तब ही फलित होगा जब वह स्वयं अपनी इच्छा से आए| जब समय उसे लेकर आएगा तब ही वह सहज रह सकेगी| अत:सेठ दीनानाथ उसे लेकर वापिस अपने घर आ गए थे|
अब तक उसने न जाने कितने युगों की यात्रा कर ली थी| कितने अहं के पापड़ बेल लिए थे, कितनी दीवारों से सिर टकराया था और अपने साथ अपने से जुड़े हुए सबको चोट पहुंचाई थी लेकिन सब व्यर्थ! जीवन अपनी रफ़्तार से चलता है, वह हमारे साथ नहीं चलता, हमें उसके साथ चलना होता है और यह समझने में उसने कितना कुछ खो दिया था ! गया हुआ समय कहाँ वापिस आता है? कोई भी परिस्थिति हो मनुष्य को उसकी रफ़्तार से कदम मिलाकर चलना होता है अन्यथा---
बरसों बाद अचानक अपने सामने आशी को देखकर सुहास को उन दिनों की परछाई की स्मृति हो आई| उस समय दोनों यानि आशी और सुहासिनी किशोरी ही थीं| दोनों लड़कियाँ अब युवावस्था के मध्य के पड़ाव पर आ चुकी थीं और उन्हें एक-दूसरे को पहचानने में खासा समय लग गया था लेकिन जब पहचाना तब सुहासिनी ने उसका अच्छी तरह सत्कार किया| इस प्रकार आशी इस आश्रम का हिस्सा बन गई| लगभग एक ही उम्र की दोनों महिलाएं अपने-अपने दुख, सुख के अनुभवों को एक दूसरे से बाँटने लगीं|
सुहासिनी संत की भतीजी थी| संत जैन धर्म के परिवार से थे | जीवन को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखते हुए उनका मन धर्म के उन सभी बंधनों से निकल जाने का हुआ, बालपन में उन्होंने जैन धर्म के सभी कार्य-कलापों को स्वीकार करके गृह त्याग कर दिया था| जब उन्हें जीवन को समझने की दृष्टि प्राप्त हुई उन्होंने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे सभी बंधनों से मुक्त होकर केवल मौन के प्रति समर्पित होना चाहते हैं| कुछ अवरोध तो बीच में आए किन्तु अंत में उन्हें अपने गुरु से स्वीकृति प्राप्त हो गई और उन्होंने ‘मौन’ के मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया|
सुहासिनी का विवाह कर दिया गया था किन्तु वह देह-सुख की ओर आकर्षित न हो सकी| कुछ समय बाद उसने गृहस्थी छोड़कर अपने संत चाचा की सेवा करने का निश्चय कर लिया| वह अंत समय तक उनके साथ ही बनी रही और उनके पश्चात् भी इस आश्रम की देख-रेख में संत की मौन की यात्रा को बरकरार रखने के प्रयास में लगी रही|
तीन मंज़िल की पत्थरों से बनी इमारत में पहली मंज़िल पर रिसेप्शन व आगंतुकों के लिए कमरे बने हुए थे जिनके बाहर बॉलकनी थीं जिनसे अरावली पर्वत के बीच से उगते हुए सूर्य के दर्शन होते और संध्याकाल में पर्वतों के पीछे छिपने वाले सूर्य की शुभ संध्या का गुनगुनी अहसास होता| यह आश्रम आबू पर्वत के अंतिम छोर पर बना हुआ जैसे एक दिव्य संदेश से परिपूरित रहता|
बीच की मंज़िल पर भोजन बनाने के लिए रसोईघर और उससे लगी हुई डाइनिग स्पेस, जिस पर एक साथ लगभग बारह लोग भोजन कर सकते थे| भोजन बनाने के लिए एक परिवार को रखा गया था जो नीचे लंबे-चौड़े बगीचे में बने हुए दो कमरों में अपनी गृहस्थी समेटे था| पति-पत्नी, दो बच्चे! पति बाहर का सामान लाने के काम के साथ अपनी पत्नी को रसोईघर में भी सहायता करता| जब पत्नी खाना बनाती, पति डाइनिंग टेबल तक गरमागरम खाना पहुँचाता| यदि स्कूल न गए होते तो बच्चे भी कभी सहायता करते नज़र आते| कुल मिलाकर सब ठीक-ठाक व्यवस्था थी|
तीसरी मंज़िल पर संत श्री का हॉलनुमा कमरा था जिसमें सभी सुविधाएं थीं| वहीं सुबह और शाम को मौन की साधना होती थी| उसी मंज़िल पर उनका ध्यान रखने वाली सुहासिनी या सुहास बहन का भी कमरा था| दोनों कमरों में घंटी की व्यवस्था की गई थी| संत श्री आयु के कारण काफ़ी शिथिल होने लगे थे| सुहास उनकी ‘बैकबून’थी| जिसने अंत तक उनकी सेवा की|
आज भी वह संत की स्मृतियों को नमन करते हुए आगंतुकों का सम्मान करती व उनका हर प्रकार से ध्यान रखती है| आगंतुक अपनी श्रद्धा के अनुसार कुछ न कुछ धन समर्पित कर जाते हैं जिनसे सुहास को सभी व्यवस्थाएं करनी पड़ती हैं| कभी-कभी उसे पैसे की कमी भी पड़ जाती तब उसे ट्रस्टीज़ से बताना पड़ता| उन सबमें आपस में ही टकराव होने लगे थे ऐसे में मौन की साधना और सुहास दोनों ही गौण होने लगे|
जब से आशी वहाँ आई सुहास को जैसे एक ‘मॉरल सपोर्ट’ मिला और वह काफ़ी सहज रहने लगी| आशी के यहाँ आने के भी तो कुछ ऐसे ही कारण थे| क्या मज़ाक है ---यह जीवन भी ! किसी को देह-सुख में अरुचि है तो कोई अपने भ्रमित अहं से ओतप्रोत देह-सुख को नगण्य नकारता रहा और अंत में इसी देह सुख के पीछे पगलाकर परिस्थितिवश भागने को मजबूर हुआ | यह कैसा संसार है और हम सब इस संसार के कैसे विभिन्न प्रकृति के जीव जो प्राप्त होने पर कीमत नहीं समझ पाते और प्राप्त न होने पर हर क्षण मायामृग की तलाश में भटकते हैं|