भूत कहानी
-इशरत हिदायत ख़ान
हाँ, क्यों नही ।भूतों से अक्सर लोगों का सामना होता है लेकिन वे सही पूछो तो सामना करने के लिए मन से साहस नही कर पाते हैं। डरते हैं । पहले मैं भी डरता था । अँधेरे में बाहर जाने में भयभीत होता था ।इस भयं की वजह भी थी । मैंने भूतों के बारे में बहुत सी कहानियां सुनी थीं। अपने बड़ों से और दोस्तों से भी । फिर एक दिन मेरा भूत से सामना हो ही गया ।
हम और हमारा बड़ा भाई अपने खेतों में बने फार्म हाउस पर थे । फार्म हाउस गांव के बाहर करीब आधा किलो मीटर पर था । पिता जी अभी नही पहुँचे थे । वह हमारा खाना लेकर आने वाले थे क्योंकि अक्सर हम लोग रात को वहीं रुक जाते थे । और उस दिन तो हमारे गन्ने में पानी चल रहा था तो छोड़कर जाने का सवाल ही कहाँ उठता था । हालांकि मौसम बरसात का था लेकिन वर्षा नही हो रही थी । इस लिए पानी लगाना पड़ रहा था। रात अंधेरी थी और सांय-सांय हवा चल रही थी। हम दोनो भाई बाहर चारपाई पर लेटे बातें कर रहे थे । गहरे काले आकाश में घने तारे बिखरे हुए थे। यकायक बड़े भैया कहने लगे, “इशरत तुमने कभी भूत देखा है?” “नही , मैने तो कभी नही देखा लेकिन मैं उसके बारे में सोच-सोच के बहुत डरता हूँ।” मैने भैया से अपने डर की बात भी बता दी। भैया ने कहा, “अगर पहले कभी नही देखा तो आज देख लो ।” उन्होने ऊँगली से दक्षिण की ओर इशारा किया ।
मैने देखा, सचमुच ही भूत था ।जो कभी चलता हुआ पूरब की ओर जाता और कभी पश्चिम से पूरब की ओर । चार खेत की दूरी पर हम ज़्यादा स्पष्ट तो देख नही पा रहे थे । हम लोगों को तो बस इधर से उधर और उधर से इधर चलती हुयी आग दिखायी पड़ रही थी । आग कभी ऊँची उठ जाती तो कभी जमीन पर आ जाती । कभी एक दम से हल्की होती तो कभी तेज़ भड़क उठती थी और कभी बिलकुल बंद हो जाती । उतनी दूर तक हमारी टॉर्च का फोकस भी पहुँचते-पहुँचते द्विम पड़ जा रहा था । हमारी टॉर्च की बैटरियां शायद कुछ पुरानी हो गयी थीं । टार्च के मद्धिम प्रकाश में एक आदम कद काली सी काया मालूम होती थी । भैया कहने लगे, “तुम जानते हो, यह जो भूत होते हैं ।अपने मुँह से आग उगलते हैं ।”
हम दोनो भाई मन ही मन भयभीत हो रहे थे । ऐसे भूत-प्रेत के चक्कर में पहले कभी नही पढ़े थे न । लेकिन उस दिन तो अल्लाह ही याद आ रहा था । भैया मुझे बता तो नही रहे थे लेकिन वह उनके बार-बार अपने कांधों और हमारे मुँह पर फूंकने से हमें अंदाजा हो गया था कि वह बार-बार आयतुलकुर्शी और चारों कुल पढ़-पढ़ कर दम कर रहे थे । क़ुरान की आयतों को पढ़कर दम करने का अमल तो मैं खुद भी कर रहा था।
हम दोनो लोग सचमुच बहुत डर रहे थे । कमरे में से एक डंडा और कोने में हमेशा टिकी रहने वाली लाठी बाहर उठा लाया था और उन दोनो चीजों को चारपाई पर ऐसी जगह रख छोड़ा कि आवश्यकता पड़ने पर अविलंब हाथ में आ जायें । आपस में यह भी तय कर लिया कि यदि भूत हमला करेगा तो हमारा क्या काम होगा और भैया क्या करेंगे । भैया ने मुझे यह भी कह दिया था कि “तुम टॉर्च उसकी आँखों पर दिखाना और उसी बीच हम लाठी मार-मार कर उसको बेड़ा कर देंगे । यदि लाठी का प्रहार करने पर भी वह ढ़ेर न हो पाये तो तुम यह प्रयास करना कि जैसे भी हो उसकी धोती खोल लेना । फिर उस धोती को जल्दी से जला दूँगा । कहते हैं कि भूतों का कपड़ा आग में जला दो तो वह स्वयं ही जलकर भस्म हो जाते हैं ।” भैया के कहे अनुसार हमने माचिस भी अपनी जेब में एहतियात से रख ली थी । अभी हम लोग यह सब योजना बनाकर चाक-चौबंद हो रहे थे कि हमें लगा जैसे भूत धीरे-धीरे हमारी ओर बढ़ रहा है । भैया ने कहा, “वह इधर ही आ रहा है । ऐसा लगता है उसको हमारी चौकसी की भनक लग गयी है । तुम जानते हो, यह भूत-प्रेत हमारे मन की बात भी जान जाते हैं ।” यह सुनकर हमें तो पसीने छूटने लगे लेकिन भैया वाकई बहुत निडर थे । वह कहने लगे, “अब हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने का समय नही है । हमें मुकाबला करना होगा ।” तेरी तो..... मादर...!” उन्होने एक भद्दी सी गाली दी और उठ खड़े हुए ।भैया ने हाथ में लाठी उठायी और मुझे डंडा पकड़ा दिया, बोले, “फिलहाल हमारी लाठी भर का तो है नही फिर वक़्त ज़रूरत के लिहाज से लेते चलो और मौका देख के सूत भी देना ।”
मैने एक हाथ में लाठी पकड़ी और दूसरे में टॉर्च । भैया लाठी लेकर आगे-आगे चले और मैं पीछे-पीछे टॉर्च दिखाता चल रहा था । नाली की मेढ़ पर बहुत संभल के चलना पड़ रहा था क्योंकि टयूबवेल चल रहा था और पानी दक्षिण के खेत में ही जा रहा था। हम दोनो लोग पूरी होशियारी बरतते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन भूत भी बड़ा होशियार था ।भैया ने हमें पहले ही आगाह कर दिया था कि भूत के पास पहुँचने से पहले टॉर्च बिलकुल बंद कर लेना वर्ना वह समझ जायेगा कि हम उसके समीप पहुँच गए हैं और वह आराम से बच जायेगा । बहुत मुमकिन तो यह भी है कि वह मौका देख कर उल्टा हम लोगों पर हमलावर हो जाए । इस लिए बहुत होशियारी दिखाने की जरूरत है। हम लोग आगे बढ़ तो रहे थे लेकिन वास्तव में हमारा तो बहुत बुरा हाल था । हमारे पाँव तो जैसे मन-मन भारी हो गए थे । आगे बढ़ाये बढ़ नही रहे थे । पर बोझिल कदमों से भैया के पीछे-पीछे घिसटता जा रहा था । मेरा जी किसी अनहोनी को सोच-सोच कर डर रहा था । भला प्राण किसे प्यारे नही होते । हमने एक दो बार दबी ज़ुबान से भैया से कहा, “रहने दो भैया, जब वह हमारी ओर बढ़ेगा या हमला करेगा तो देखा जायेगा। चलो, वापस लौट चलो ।यह तो वही बात है कि आ बैल मुझे मार ।” लेकिन भैया एक ज़िद्दी ठहरे । वह हमारी बात मानने के लिए तैयार नही थे और आखिर माने भी नही ।
भैया के कहे मुताबिक हम जब भूत से एक खेत दूर पहुँच गए तो अपनी टॉर्च बंद कर ली। अब हम घोर अँधेरे में आगे बढ़ रहे थे । इसी बजह से कई बार हमारे पैर फिसल कर भच-भच पानी में घुस चुके थे और हमारी पैंट की मोहरी भीग कर लथड़-पथड़ हो गयी थी लेकिन हम वैसे ही आगे बढ़ते जा रहे थे । हम लोग जितनी होशियारी बरत रहे थे । वह सब व्यर्थ ही थी क्योंकि भूत को हमारी सब कारगुज़ारियों और मनसूबों का आभास हो चुका था। इसका हमें बखूबी अनुमान हो गया था क्योंकि हमने टॉर्च जलाना बंद कर दी थी तो भूत ने भी अपने मुँह से आग उगलना बंद कर दिया था। अब वह कहाँ पर होगा ।यह ठीक-ठीक अनुमान लगाना बहुत मुश्किल काम हो गया था । हमने भैया को आगाह कर दिया, “ भैया, बहुत सतर्कता की आवश्यकता है । देखो, कमबख़्त ने आग उगलना ही बंद कर दिया है । पूरी तरह से उसकी आहट का अनुमान कर लेना तब ही बार करना । ज़्यादा अच्छा तो यह रहेगा कि जब वह आग उगले उसी समय तुम आग पर ही निशाना ताक कर लाठी छोड़ना। जरा सी चूक बहुत भारी पड़ सकती है।”
“हाँ, हमने सब सोच लिया है । तुम नाहक परेशान न हो। बस अपने बचाव का पूरा ख़्याल रखना ।” उन्होने बड़ी निडरता से जवाब दिया ।उस दिन ही हमें पता चला था कि भैया कितने निडर और विग्घी हैं ।
हम लोग जब लग भग भूत के बहुत करीब पहँच गए । ठीक वहाँ पर जहाँ से पानी की नाली पश्चिम की ओर मुड़ रही थी । चकरोट और खेत के किनारे-किनारे आगे तक जाती थी । तब भैया के संकेत करने पर हम लोग ठिठक कर खड़े हो गए । भैया धीरे से फुसफुसाए, “ साला हरामी बरहा फोड़ रहा है । लगता है पानी खेत तक नही जाने देना चाहता है। ठहर जा, तुझे तो नानी याद आ जायेगी! “ वह एक दम दृढ़ निश्चित थे ।
सहसा हमने देखा, चकरोड पर उस घने अँधेरे में भी एक काली परछाईं सी बैठी दिख रही थी। बिलकुल आदम कद । हमने भैया के हाथ को पकड़ कर हिलाया और उस काली सी परछाईं की ओर संकेत किया । उन्होने धीमे से हुँकारी भरी । अभी हम लोग कोई अंतिम रणनीति बना पाते कि उस परछाईं से एक दम भव्ब से आग जल उठी लेकिन भैया ने भी गजब की फुर्ती दिखायी और बिना एक क्षण व्यर्थ गंवाए भंम से लाठी छोड़ दी । एक जोरदार खड़ाक की आवाज़ के साथ आग बुझ गयी और वह परछाई एक भयानक चीख़ के साथ उठ कर भाग खड़ी हुयी । वह भागते-भागते भी चिल्ला रही थी, “हाय दैया रे दया, मार डोरो । हाय राम कोई बचाय लेऊ! “
लेकिन भैया थे कि वह उस परछाई के पीछे दौड़ पड़े । मैने उनको दौड़कर पकड़ लिया वर्ना गजब ही हो जाता। भैया को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई भूत उन पर ही सवार है ।वह तो बस भूत को हर हाल में ठौर-ठिया कर देना चाहते थे । वह इतना गुस्से में भरे थे जैसे उन पर ख़ून सवार हो । मैने एक बार उन्हें झकझोर कर कहा, “भैया, क्या कर रहे हो । जग्गन हैं जग्गन.. ।”
शायद उस परछाई ने भी मेरी बात सुनी। वह दूर से ही बोल उठी । “हाँ भैया, हम जग्गन... जग्गन हैं। कौन रईस हो ?”
”हाँ-हाँ हम लोग रईस, इशरत ही हैं ।” जवाब मैने दिया । “जग्गन भैया आ जाओ ।” मैने टॉर्च जलाकर देखा, वह लौट रहे थे । जब पास आए तो देखा कि मारे भंय के उनके चेहरे पे हवाईयां उड़ रही थीं और मुँह एक दम फक पड़ गया था। वह समीप आकर कहने लगे, “हाय दैया रे, तुम लोगन ने तौ मारी डारा था। आज तौ भगवानइन बचाय लिया। भली तुम्हारे का समुझ आया?” उन्होने पूछ लिया।
“अरे भइया, हम लोग, तुमको भूत समझ रहे थे।” तुम्हारी लालटैन की रोशनी देख कर हमारे समझ आया कि भूत अपने मुँह से आग उगल रहा है और फिर आग भी ऐसी, जो कभी तेज जलने लगती तो कभी धीमी और कभी बिलकुल बंद हो जाती। तभी न ” मैने बताया मगर हमारे रईस भैया पता नही क्यों बिलकुल चुप थे।
“अरे भइया, जा लालटैन ने बहुत हैरान कर दिया । जा जो हवा चल रही है तबहीं जा रुक ही नाही रही ।बेर-बेर बुत जात है ।फेर जलावौ फेर बुत जात और कहूँ तो जोर-जोर फफकन लगत है। जिउ दुखी हुइ गयो ।” उन्होने बड़ी आज़िजी के साथ कहा।
वैसे जग्गन भइया, एक बात बताऊँ । आज बड़ी ख़ैर हो गयी । तुम तो अपनी जान से जाते और हम दोनो भी बच्चा जेल भेज दिए जाते।”
“अरे हमै तौ तुम्हारे दददा पानी चलाउन तांय कह गए थे, सो हम आइक पानी देखन लगे मगर भगवानइ भले थे, नाही तो सेंत- मेंत भूत हुयी गए होते ।” उनकी बात पर हम तीनो लोग ठहाका मार कर हंसने लगे । टॉर्च की रोशनी में हमने देखा, लालटैन के दो कल्ल हो गए थे। ****
- इशरत हिदायत ख़ान