मरूभूमि का वह मेघ ;
डाक्टर अब्दुल जलील फरीदी (एक स्मृति)
-ख़ान इशरत परवेज़
उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसा मुस्लिम नेता भी रहा है, जिसने छह वर्ष की अल्प अवधि के अपने राजनैतिक जीवन में न सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए बल्कि यहाँ के आर्थिक विपन्न, पिछड़ों, दलितों और दबे कुचले शोषित सर्वहारा मजदूरों के भले के लिए अपनी सारी सम्पति लुटाई और भारत देश को मजबूत बनाने के लिए उक्त तबकों को एक जुट करने का कार्य किया तथा उनके हक़ों की लड़ाई जीवन प्रयन्त लड़ते रहे.
वह महान नेता थे- स्वर्गीय डाक्टर अब्दुल जलील फरीदी. डा. अब्दुल जलील फरीदी का जन्म दिसंबर 1913ई. में लखनऊ के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था, जिन्होंने सन् 1968 ई. में मुस्लिम मजलिस नाम से साफ सुथरा राजनैतिक मंच बनाया किन्तु अत्यंत दु:खद घटना यह हुई कि सन् 1974 ई. में उस इमानदार, जुझारू नेता का निधन हो गया.
डाक्टर अब्दुल जलील फरीदी लखनऊ के सर्वाधिक प्रख्यात ह्दय एवं टी. बी. रोग के योग्य चिकित्सक थे. उनके क्लीनिक पर रोगीयों की बड़ी भीड़ लगी रहती थी. लेकिन डाक्टर साहब का नियम था कि वे सुबह सबसे पहले गरीबों, पिछड़ों और बे सहारा साठ मरीज़ों न केवल मुफ्त देखते थे बल्कि औषधि भी मुफ्त ही देते थे. 1969 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के मध्यावधि चुनाव में चौधरी चरण सिंह ने अपनी पार्टी भारतीय क्रांति दल का डा. फरीदी की मुस्लिम मजलिस से समझौता किया था. डा. फरीदी एक उर्दू अख़बार 'कायद' भी प्रकाशित करते थे जो निरन्तर घाटे में जाता था. क़ायद के संपादक ने एक दिन उनसे कहा कि वह जो सुबह रोज़ मुफ्त मरीज़ों का इलाज करते हैं, उसे मात्र एक रूपये प्रति रोगी के हिसाब से कर दें तो अखबार के घाटे को बचाया जा सकता है. उस समय एक रूपये की बड़ी कीमत थी. डाक्टर अब्दुल जलील फरीदी ने संपादक के सुझाव को नही माना. कहा, "रईसों के इलाज़ से जो फीस पाता हूँ, वह समाज के ग़रीब लोगों के इलाज के लिए है और मैं उन्हें कफ और ख़ून थूकते हुए नही देख सकता.
डाक्टर फरीदी मुस्लिम मजलिस की स्थापना से पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होकर सक्रिय हुए थे और उन्होने प्रदेश के तत्कालीन लौह पुरुष कहे जाने वाले कांग्रेस नेता चन्द्र भानु गुप्ता से सीधी टक्कर ली थी और वे जहाँ से भी चुनाव लड़ने के लिए खड़े होते थे वहीं जाकर डाक्टर साहब अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू कर देते थे. डाक्टर फरीदी के जुझारू तेवरों और ओजस्वी भाषणों के चलते विरोधी दलों में बेचैनी पैदा हो गई थी. उनकी सेवा भावना और तार्किक वाणी का यह प्रभाव हुआ कि चन्द्र भानु गुप्ता को लगातार दो बार चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा. इस में एक चुनाव मोढ़ा का भी था, जहाँ से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर वहां की छोटी सी रियासत की रानी चुनाव मैदान में थीं. मगर उन्हीं दिनों एक ऐसा संयोग हुआ कि डा. फरीदी और चन्द्र भानु गुप्ता एक साथ ट्रेन के एक ही डिब्बे में यात्रा कर रहे थे. दोनों नेता लखनऊ से दिल्ली जा रहे थे. तब अचानक चन्द्र भानु गुप्ता को ट्रेन में ही भयंकर दिल का दौरा पड़ गया. डाक्टर फरीदी अपने साथ हमेशा एक चिकित्सय किट रखते थे. उन्हें जब पता चला तो वे फौरन गुप्ता जी के पास गये और उनका प्राथमिक उपचार शुरू कर दिया. दिल्ली पहुँचने पर उन्होने ने एम्बुलेंस बुला कर चन्द्र भानु गुप्ता को वेलिंग्टन अस्पताल (आज का राम मनोहर लोहिया अस्पताल) में भर्ती कराया. जब तक चन्द्र भानु गुप्ता जी अस्पताल में रहे डाक्टर फरीदी रोज नियम से उन्हें देखने जाते रहे. फिर बाद में दोनों नेताओं में गाढ़ी मित्रता हो गई. गुप्ता जी ने लोगों के साथ चर्चा करते हुए कहा था, "फरीदी को मैं क्या कहूं, अजीब डाक्टर है.......... जब मैं जीना चाहता था तो इसने मुझे मारने की व्यवस्था की और जब मैं मरने लगा तो इसने मुझे बचा लिया." वास्तविकता तो यह है कि एक समय में चन्द्र भानु गुप्ता जी की ही एक बात से आक्रोशित होकर ही डा. फरीदी ने राजनीति में पदार्पण किया था. हुआ यूँ था कि एक सार्वजनिक समारोह में प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर बैठे देख कर कह दिया था कि यहाँ तो "लीगी" भी आए हुए हैं. यह बात डाक्टर फरीदी को भीतर तक चुभ गई और उन्होने राजनीति में सक्रिय होने का मन बना लिया.
मैं कोई मीर अम्मन देहल्वी नही और न ही महज़ 'बाग व बहार' के किस्से की मान्निद डा. फरीदी की स्मृति में लिखे इस लेख को लिया जाना चाहिए बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि उनके चिंतन और कार्य को आगे बढ़ाया जाये.
एक समय डा. फरीदी के उर्दू अख़बार 'क़ायद' में एक पाठक ने एक लेख भेजा, जिसमें डा. फरीदी पर यह लांछन लगाया कि मुसलमानों की आर्थिक एवं समाजिक तंगी के नाम पर हिन्दुओं के दलित वर्ग तथा दबी कुचली अन्य हिन्दू बिरादरीयों को भड़का रहे हैं और उन्हें अपने मसायल (समस्याएं) हल करने के लिए एक जुट होकर लड़ने की हिदायत (निर्देश) दे रहे हैं. आखिर वे हिन्दुस्तान के बटबारे के बाद ऐसा कैसे कर सकते हैं? बेहतर ये है कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए.
संपादक घबराकर डाक्टर साहब के पास आया तो उन्होने उस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अन्त में एक पंक्ति और बढ़ा दी कि, "हिन्दुस्तान मुसलमानों का भी मुल्क है और हमेशा रहेगा. मज़हब से वतन नही बना करते हैं बल्कि वतन से मज़हब बना करते हैं." अन्त में अपना नाम लिख दिया - डा. अब्दुल जलील फरीदी.
डा. अब्दुल जलील फरीदी का महान व्यतित्व इतिहास का एक अविस्मरणीय अध्याय है. - वह इस लिए क्योंकि परिस्थितियों वश एक चिकित्सक जो जीवन को ललचाई दृष्टि से देखने वाले टी. बी. के रोगीयों का मसीहा था. अचानक मुस्लिम मजलिस दल बनाकर राजनैतिक मंच पर पदार्पण करता है और जंगल की आग की तरह सियासी गलियारों में न केवल छा जाता है बल्कि समाज के दबे, कुचले, दलित, शोषित, मजदूर एवं सर्वहारा वर्ग सुनहरे भविष्य की आशाओं की डोर उनसे जोड़ कर देखने लगता है. डा. फरीदी के जुझारू तेवरों का परिणाम यह होता है कि अल्प समय में ही मुस्लिम मजलिस के तीन सांसद लोक सभा में चुनकर जाते हैं और एक सांसद हाज़ी जुल्फिकार उल्ला केन्द्रीय वित्त राज्यमंत्री के पद पर पहुँचने में सफल होते हैं. डाक्टर के नेतृत्व में विधान सभा चुनाव में भी पार्टी सराहनीय प्रदर्शन करती है और तकरीबन बारह विधायक भेजने में सफल होती है. पर कभी कभी प्रकृति कितना क्रूर मज़ाक करती है जो दु:खद ही नही, असहनीय होता है. 1974 ई. में डाक्टर फरीदी का सहसा निधन हो जाना आम आदमी के लिए एक क्रूर मज़ाक ही कहा जा सकता है. यह सही है कि जीवन लम्बा नही महान होना चाहिए पर इतना छोटा भी नही कि कोई पात्र संसार के रंगमंच पर अपनी पूरी भूमिका निभाए बिना अलविदा कह जाए. नाटककार की ऐसी ऊल जलूल प्रस्तुति नाटक को दु:खांत होने का ग्रहण लगाती है और दर्शकों की वेदना की छटपटाहट अन्तहीन होती है.
क्रमशः आगे कभी लिखूंगा -फरीदी के संबंध में में. ###############
-ख़ान इशरत परवेज़