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मिट्टी के सनम

चाहता तो नही था, पर तुम पीछे ही पड़ गए हो तो, बताना ही पड़ेगा कि प्यार के नाम से चिढ़ सी क्यों हो गयी है। जानते हो, जब भी कोई प्यार का नाम लेता है तो एक सूखा हुआ जख़्म हरा होकर फिर से जलने लगता है और जहन मेंउन दिनो की याद सहज ही ताज़ा हो जाती है, जब मेरी उससे मुलाकात हुयी थी।
"किससे......?" समीर ने पूछा।
"वही यार...!"
"कौन वही, पहेली न बुझाओ, साफ-साफ कहो न "
" वही.. धूप से रंग, फूल से रूप और सुतवां नाक वाली काँच की गुड़िया सी लड़की...।"
"अच्छा...! वह... जो डेरे पर रहा करती थी। जिसका नाम समाहा हुआ करता था ?"
" नही, उसका नाम समाहा नही था। वह तो घर में प्यार से कहा भर जाता था। नाम बताऊं...?  लेकिन....नही, नाम नही बता सकता, मना है। उसने मना कर दिया था कि किसी के आगे नाम न बताऊँ । - ख़ुदा के आगे भी नही...!"
"अच्छा तो क्या समाहा से प्यार हो गया था तुम्हें?"
" हाँ यार, यही तो जुल्म हो गया था।"
" लेकिन कैसे..?" समीर ने उत्सुकतावश पूछा।
" अरे यार, वह हमारे घर के करीब ही तो रहा करती थी। फिर बस, मैं अनायास उसकी ओर आकर्षित होता चला गया हालांकि उसकी ख़ूबसूरती ने बिलकुल भी प्रभावित किया था मुझे, लेकिन उसका अक्सर मेरे बारे में पूछना कि मैं कब, क्यूं  कहाँ और कैसे हूँ? उसके इन सारे प्रश्नो ने मुझे लूट लिया। वह यह सारे सवाल मुझसे नही, मेरी बहन से पूछा करती थी, जो उसकी सहेली थी। फिर एक दिन सानम ने मुझे बताया कि "समाहा तुम्हारी बहुत फ़िक्र किया करती है।"
लम्हा भर के लिए मैं सोच में पड़ गया फिर मुस्करा दिया था। सानम कहने लगी, " तुम क्यों हंसे...?"
"इस लिए कि...समझ लो समाहा की फ़िक्र बे वजह नही है, बहुत हसीन फ़िक्र है"
"ये हसीन फ़िक्र क्या होती है...?" सानम ने चुटकी लेने के प्रयोजन से पूछा। वह मेरी बात का मतलब समझ गयी थी शायद। हम भाई-बहनो में बहुत बे तकल्लुफ़ी थी, तभी वह बातें भी कर लेते थे, जो आम तौर पर भाई-बहनो के दरमियान नही होती हैं। मैंने कहा, "जब कोई लड़की बे वजह ही किसी लड़के की फ़िक्र करने लगे, तो यह हसीन फ़िक्र होती है।" मैंने मुस्कराते हुए बताया था। सानम मेरा जवाब सुन कर खिलखिला कर हंसने लगी थी।
फिर एक दिन सानम ने समाहा को भी छेड़ दिया, उसने पूछा, "तुम्हें मेरे भाई की इतनी फ़िक्र क्यों रहती है? मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा है.....!"
पहले तो वह सकपका कर रह गयी। फिर संभल कहने लगी, "बात दरअसल यह है कि जिसे हमेशा देखते रहो और फिर किसी- किसी दिन न देखो, तो फ़िक्र तो लामुहाला होती ही है।"
" अच्छा...! अब ज़रा यह भी तो बताओ कि रोज़ मेरे भाई को कहाँ देखती हो? - रोज़ तो तुम मेरे घर आती ही नही हो।" सानम ने पूछा।
समाहा तो भीतर ही भीतर बुरी तरह कट कर रह गयी। पर दूसरे ही पल बे हयाई से हंसते हुए बोली, " अरे यार, तू  नही सुधरेगी, हर बात का पोस्टमार्टम करना जरूरी है। मैं कहाँ देखूंगी भला, अपने कमरे की खिड़की से देखती हूँ। वह मेरे घर के सामने से ही तो गुज़रते हैं, तो नज़र पड़ जाती है।"
" ओह..! तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम मेरे भाई पर डोरे डाल रही हो....?" सानम ने तो जैसे उसकी दुखती रग पर ही हाथ रख दिया।
" फिर क्या हुआ?" समीर ने उत्सुकतावश पूछा। 
" फिर एक दिन उसके चाचा का कहीं से खत आया, जो पोस्टमैन मेरी डाक में दे गया। वह अक्सर पास-पड़ोस के लोगों की डाक मेरी डाक में दे जाता है। मैं उसकी डाक देने चला गया था। उसकी माँ जो दिखने में काफी सहज मगर स्वभाव से तेज-तरार और अधेड़ हैं, उन्होने मुझे ऊपर बुला लिया। जब मैं ऊपर पहुँचा तो सामने रन्नो खड़ी थी और पास में ही उसकी फुफ्फी भी, जो करीब-करीब समाहा की हम उम्र और हमराज हुआ करती थीं। उसकी माँ ने मुझे बैठने को कहा और मैं सोफे पर बैठ टी.वी. देखने लगा फिर जब मैं वापस लौटने लगा, तो समाहा ने बड़े रहस्यमय ढ़ंग से कागज़ का एक छोटा टुकड़ा मेरी पाकेट में डाल दिया। मुझे लगा शायद यह महज एक अहमकाना शरारत भर है। मैंने सपने में भी नही सोचा था कि उस कागज़ के टुकड़े पर यह लिखा होगा -
" प्रेम, प्रणय, याचना!"
यह शायद संसार का सबसे छोटा प्रेम पत्र है, जिसमें महज तीन शब्दों में प्रेम-पगे ह्रदय के भावों को व्यापक रुप से व्यक्त करने की सार्थक चेष्टा की गयी है। मेरा विश्वास है कि निश्चित रुप से समाहा ने इसे किसी साहित्यिक इतिहास के ग्रंथ से उड़ाया होगा। बहरहाल जो भी हो।
पर यह तीन शब्द मेरे लिए प्यार का कलमा हो गए- जैसे प्रेम भी कोई धर्म हो, जिस पर मैं ईमान ले आया था। सोचता हूँ, शायद प्रेम एक धर्म ही है, ऐसा धर्म जिसमें आस्था का अर्थ है चाहना और चाहते जाना। तड़पना और तड़पते जाना। यही चाहत जब ख़ुदाबंद करीम की चाहत में बदल जाए तो निजात का जरिया बन जाता है लेकिन मैं था कि दुनिया के रेगिस्तान में मृग-मरीचिका की चाह में भटकता फिर रहा था। यकीन मानो मैं उसे अब भी बहुत चाहता हूँ। सच तो यह है कि वह इतनी सुन्दर नही, जितना उसे चाहता हूँ लेकिन मन की आँखों में उसके सामने सारी दुनिया का सौन्दर्य हेय था।
"जब इतना ही चाहते हो तो प्यार क्यों तोड़ दिया?" समीर ने अचानक से सवाल कर दिया।
"नही यार, मैं प्यार का धागा तोड़कर कहाँ भागा बल्कि प्यार की हर कसम, हर बंधन तो उसने ख़ुद ही तोड़ दिया। मैं तो सोचता हूँ कि वह हमेशा-हमेशा के लिए मेरी हो जाए, ऐसा न हुआ तो शायद मैं कभी भी एहसास ए गुनाह की उस तपिश से निजात नही पा सकता, जो मुझसे से अनचाहे ही हो गया था।" पता नही कैसे यह अल्फाज मेरी जुबान से निकल गए।
" कैसा गुनाह....?"
" क्या बताऊं यार, जानकर पता नही मेरे बारे में क्या सोचोगे लेकिन मैं सच कहता हूँ। मैं ऐसा तो नही चाहता था लेकिन कभी-कभी वह सब हो जाता है, जो ख़्वाब व ख़्याल में भी न सोचा हो।
" एक दिन मैं घर पर अकेला था। सब लोग शादी में गए थे। मैं अपनी परीक्षा की तैयारी के चलते नही जा सका था। तब समाहा, सानम से मिलने अचानक आ गयी थी, उसे नही पता था कि सानम शादी में गयी है। वह मुझे देखकर वापस जाने लग गयी तो मैंने ही उससे खुशामदन कहा, " समाहा, मेरा एक काम कर दो?"
" क्या काम ...?" वह ठिठक कर खड़ी हो गयी थी।
" समाहा, प्लीज मेरे लिए चाय बना दो। बहुत देर से चाय पीने का मन कर रहा है, पर भगौना साफ करने की झंझट सोच-सोच कर झुंझलाहट हो रही है। मुझे तो रोना आ रहा है !"
" एक प्याली चाय नही खौला सकते तो और क्या कर सकते हो....?" वह खिलखिला कर हंसने लगी थी।
" समाहा यार, मैं सब कुछ कर सकता हूँ मगर यह चाय- चूल्हे से ख़ुदा कसम बहुत उलझन होती है।"
" चलो ठीक है, अभी से मैं बना देती हूँ लेकिन अच्छा है कि खुद बनाना सीख लो, ज़िन्दगी में कैसा भी वक़्त आ सकता है।" कहते हुए वह किचन की ओर बढ़ गयी थी।
" समाहा, अपने लिए भी चाय बना लेना। अकेले पीने में मज़ा नही आयेगा। " मैंने कुछ बुलंद आवाज़ में कहा ताकि वह सुन ले।
" आप ने क्या समझा, मैं इतनी बे-बकूफ भी नही हूँ।" उसने बहुत बे-तकल्लुफी से जवाब दिया था।
थोड़ी ही देर में वह चाय की ट्रे लेकर हाजिर थी। मैंने मेज़ पर बिखरी किताबों को एक तरफ हटाकर ट्रे रखने का इशारा कर बैठने को कहा, पर वह बैठी नही और खड़े-खड़े ही चाय पीने लगी। उसने चाय पीने के दौरान जब प्याली एक बार ट्रे में रखी तो मुझे न जाने क्या सूझी कि मैंने उसकी प्याली उठाकर एक घूंट चाय पी ली। वह मेरी इस हरकत को अचरज से देखती ही रह गयी और खीज कर बोली , " ये क्या किया.....आप ने तो मेरी चाय झूठी कर दी !"
" कहाँ.... झूठी कहाँ की, मैं तो बस यह देख रहा था कि तुम्हारी चाय कितनी मीठी है और तुम्हारी चाय सचमुच मेरी चाय से मीठी है।" मैंने बे-हयाई से मुस्कुराते हुए कहा।
" क्या कहा , ज़्यादा मीठी....! पूरे पागल हो। ज़्यादा मीठी कैसे हो सकती है?" 
" कैसे का क्या बताऊं....तुम समझ भी कैसे सकती हो लेकिन मीठी तो है क्योंकि उसमें तुम्हारे होठो की मिठास जो शामिल है। जिसका एहसास मैं ही कर सकता हू न " मैं एक झोंक में कहता चला गया। मेरी बात सुन कर उसका चेहरा शर्म से तमतमाकर सुर्ख़रू हो गया था। वह धीमे से बोली थी,
" मैं तो आप को निहायत सीधा समझती थी लेकिन आप...आप  में तो इतने बल हैं, जितने रस्सी में भी नही होते !"
" अच्छा, क्या बल हैं ? ख़ुदांखास्ता ऐसी तोहमत तो न लगाओ, अगर बल ही होते तो तुम्हारे होठो की मिठास को चाय की प्याली के बजाय सीधे- सीधे तुम्हारे होठो के लम्स से न महसूस करता। यही मुझमें बल हैं...शायद!"
" ओ हो, तुम क्या बोल रहे हो, सोच तो लिया करो। कभी धोके में ऐसी हिमाकत करना भी नही, बहुत मंहगी पड़ेगी। समझे...!" उसने मेरी ओर घूरते हुए तल्ख लहजे में कहा।
" मंहगी...क्या कर लोगी तुम ..?" 
" मैं जो करूंगी, तुमको अंदाजा भी नही होगा। यह जो मेरे लंबे-लंबे नाख़ून देखते हो, इन्ही से चीर कर लहू-लुहान कर दूँगी। समझे न।" उसने अपने लंबे नाख़ून दिखाते हुए कहा।
" अच्छा...! तो लो कर दो लहू-लुहान।" मैंने सहसा हाथ बढ़ाकर उसे बाहों में भींच लिया और उसके संतरे की कास जैसे सरस होठो पर एक के बाद एक कई चुंबन जड़ दिए और फिर एक लंबा चुंबन ! मैं उसके होठों की मिठास को पूरी शिद्दत से महसूस कर रहा था। पहले तो वह कसमसाती रही। फिर उसकी बगाबत कमजोर पड़ गयी। उसके तीखे तेवरों में खासी नरमी आ गयी। उसे अपने नाख़ूनो का होश न रहा और हाथ फिसल कर मेरी पीठ पर पहुँच गए। हवस  की आग में हमारा सब कुछ जल कर भस्म हो गया। उसका कौमार्य और नाख़ून भी। फिर जब वासना की धंधकती आग ठंडी पड़ी तो उसमें से दो बे-कफन जिस्म बाहर निकल आए। उस दिन मुझे बहुत पछतावा हो रहा था कि मुझे उससे चाय के लिए नही कहना चाहिए था।
उसने बेसिंग पर जाकर चेहरा साफ किया और शीशे के सामने खड़े होकर बाल सही किए। फिर वह हिजाब पहनकर कहने लगी, " मुझे तुम पर बहुत गुस्सा आ रहा है। मेहरबानी करके किसी से कुछ कहना नही।" 
मैं तो उससे नज़र ही नही मिला पा रहा था। बहुत हिम्मत जुटाकर इतना ही कहा था, " तुम परेशान न हो, सब ठीक हो जायेगा। मैं वादा करता हूँ।" उसने मेरी बात का जवाब नही दिया था और चुप-चाप बाहर निकल गयी थी।
" अच्छा तो बात यहाँ तक पहुँच गयी थी। फिर आपको शादी कर लेनी चाहिए थी।"  समीर ने कहा, जो अब तक मेरी प्रेम लीला संजीदगी से सुन रहा था।
" हाँ, चाहता तो यही था मैं भी, पर.....।"
" पर... क्या ? 
दरअसल मेरी भी कुछ खताएं रहीं और नही भी ...।"
" आप यह कैसी बातें कर रहे हो, मेरे तो कुछ समझ नही आ रहा?" 
" यार , वह चाहती थी कि कहीं किसी को हमारी मोहब्बत की भनक न लगे और मैं इतनी एहतियातें नही बरत पाया बस। यह उसे नागवार गुज़र गया। आप समझ सकते हो कि इश्क हो या गुलाब महकता जरूर है और हुआ भी वही। हालांकि मैंने प्यार की सुगंध को छिपाने की हर मुमकिन कोशिश की थी। मोहल्ले में हमारी एहतियातें निभ गयीं मगर कालेज में तो चर्चे हो गए। मुझे तो लगता है, यह उसका कोरा बहाना था। वह शायद ...परले दर्जे की लिज़्ज़त परस्त थी और...और.....!" आगे की बात मैंने अधूरी छोड़ दी।
" कोई और बात भी तो हो सकती है। आखिर इतने ऐतमाद के साथ तुम कैसे कह सकते हो?" 
"हो सकता है, ऐसा कुछ रहा हो। पर सब तरह से गौर करने के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुँचता हूँ। यार, कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो कही नही, समझी जाती हैं। अब आप नही समझ रहे हो, तो मुझे लामुहाला कहना पड़ेंगी। असल में पहले जो हादसा हुआ था, उसे मैं महज एक इत्तेफाक समझ रहा था। मैं नही चाहता था कि उसकी कभी पुनर्वृत्ति हो लेकिन हुआ वही, जो नही चाहता था।
" मैं एक शाम उसके घर गया था। उस दिन चाँद की चौदहंवी रात थी। मौसम बरसात का था, सुबह से वर्षा होती रही थी। पर शाम तक बादल छट चुके थे। मौसम बिलकुल साफ था। आसमान के आँगन में चाँदनी पसरी हुयी थी। उसके घर में एक छोटे भाई के सिवा कोई न था। उसकी माँ चिकित्सालय में प्रसूतावस्था में भर्ती थीं, वह सुबह से ही प्रसव वेदना से पछाड़ खा रहीं थीं। अब जाके उसके नन्हे-मुन्ने भाई का जन्म हुआ था। समाहा सुबह से  अपनी माँ को लेकर जिस चिंता में घुलती रही थी, अब उस चिंता से मुक्त और निश्चिंत हो गयी थी। उसकी फूफी भी माँ के साथ अस्पताल में थीं। समाहा के इसी अकेलेपन से फायदा उठाते हुए मैं उसके घर में दनदनाता हुआ जा पहुँचा था। मेरे वहाँ पहुँचने तक उसका भाई भी सो चुका था। वह एक दूसरे कमरे में सोया था और हम लोग जहाँ बैठे थे, वह बाहरी महमानो के बैठने-उठने और पढ़ने-लिखने का कमरा था। कुछ देर तक मैं तमाम गिले-शिकवे करता रहा लेकिन मैं पूरी तरह से चौकन्ना और भयंभीत था क्योंकि मैं जानता था कि यदि उसके अब्बू या फिर कोई भी जीने से चढ़कर ऊपर आता है, तो मुझे हैंड पम्प के पाईप के सहारे नीचे उतर कर भागना होगा। मैं पहले ऐसा कर चुका था और ऐसे पाईप के द्वारा बन्दर की तरह नीचे उतरने में हाथों की कलाईयों की खाल बुरी तरह छिल जाती थी। जब मैं नल के द्वारा नीचे उतर रहा होता था, तो समाहा नल चलाकर पानी भरने लगती थी ताकि किसी को यह संदेह न हो कि नल अकारण ही हिल रहा है। 
बात करते-करते वह कहने लगी, " यार आपको चाय पिलाते हैं। तुम जरा यहाँ ठहरो, मैं अभी चाय बना लाती हूँ।" वह अचानक उठ खड़ी हुयी। पर मुझे उसका यह व्यवहार अच्छा नही लगा। मैं भी खीज और झुंझलाहट के साथ उठ खड़ा हुआ। मैंने उससे कहा, "ठीक है, तुम चाय पियो, मैं तो चला। मुझे नही पीना तुम्हारी चाय।"  वह शायद मेरी खीज को ताड़ गयी थी, बोली, " अरे यार, रुको तो, मैं ख़ुद भी चाय पीना चाहती हूँ। सुबह से जी बहुत बोझिल है। कुछ अच्छा नही लग रहा है। मेरा सर दुख रहा है। तुम भी जरा में तुनक जाते हो, गलती तुम्हारी थोड़े ही है। ये साले लड़के ऐसे ही होते हैं!" 
अब इतनी झाड़ सुनने के बाद हमारे लिए वहाँ से चले आना संभव न रह गया था। अकेले बैठे-बैठे बोर होने के बजाय मैं भी उसके साथ किचन तक चला गया था। वह चाय का बर्तन जूने से रगड़-रगड़ साफ करने में व्यस्त थी। ऐसे समय में जब उसके दोनो हाथ बर्तन मांजते हुए विम वार साबुन से अटे थे, तो मुझे भी जाने क्या शरारत सूझी। मैं पीेछे से उसके कोमल बदन को स्पर्श करने लगा। वह खीज कर कहने लगी, " तुम नही सुधरोगे- कहीं ऐसा न हो कि मैं तुम्हारा चेहरा इसी स्टील जूने से मांज दूँ।" 
" तो क्या...चेहरा साफ हो जायेगा।" मैंने भी बेशर्मी दिखाई।
" साफ क्या.... ये कहो, चेहरा कहीं दिखाने वाले नही रहोगे। समझे न ।" वह विफर उठी थी।
" अरे जालिम, ये करके देख लो, तुम्हें ही दर्द होगा। आखिर ये चेहरा भी तुम्हारा ही चेहरा है। अपना कुछ छोड़ा ही कहाँ तुमने...!" 
" अच्छा अब बातें न बनाओ और यहाँ दरवाजे के पास चुप-चाप खड़े रहो। अन्दर मत आना। नही तो, मेरा हाथ जल-जला जायेगा। हर वक़्त शरारतें करते रहते हो। हाथ-पाँव सीधे ही नही रहते।" उसने आँखें तरेरते हुए दरमियान में बंदिश की एक लकीर खींच दी थी।
" चलो ठीक है, ख़ुदा के लिए अब जल्दी से ये चाय का झमेला खत्म करो। साली चाय न हुयी जैसे हकीमी अर्क़ खींच रही हो।"  मुझे सचमुच ही चाय से उलझन होने लगी थी।
वह चाय छान कर वापस कमरे में लौट आयी। मैंने जल्दी-जल्दी चाय खत्म की और मैं वापस जाने के लिए उठ कर खड़ा हो गया। मुझे बहुत डर लग रहा था कि कहीं कोई आ न जाए क्योंकि मुझे यहाँ आए हुए बहुत वक़्त हो चुका था। हवा से लहराते पर्दे की सरसराहट पर भी मेरा दिल जोर-जोर धड़क उठता था। मेरे कान जीने की तरफ लगे रहे थे। मैं जिस वक़्त जीने की सीढ़ियां उतर रहा था, तो वह भी साथ थी क्योंकि वह मुझे नीचे जीने तक छोड़ने आती थी। जीने की आखिरी सीढ़ी पर उसने अचानक से कहा, " ऐ जरा करीब आओ, लाओ प्यार के हलफ़नामे पर चुम्बन का रशीदी टिकट लगाकर पक्का कर दूँ।" इसके साथ ही उसने मुझे बाहों में कसकर जकड़ लिया और चाय की मिठास से चिपचिपे होठ मेरे होठो पर रख दिए। इसके साथ ही एक और घटना घटित हुयी कि अचानक आसमान में जोर की बिजली चमकी और बादलों की दिल दहला देने वाली गर्जना के साथ धरती की बिजली ने दम तोड़ दिया। समाहा मुझसे और भी कसकर लिपट गयी। 
अब हमारा जा पाना संभव नही था क्योंकि घंघोर वर्षा शुरू हो चुकी थी। हम उल्टे पाँव सीढ़ियां चढ़ कर कमरे में पहुँच गए। कमरे में घटाटोप अंधकार पसरा था और अंधेरे की वजह से समाहा मेरे समीप खिसक आयी थी। उसकी कमल सरीखी भीनी-भीनी देहगंध मेरी सांसों में भर रही थी। बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी, जो तेज होती जा रही थी और भीतर दो दिलों की धड़कन। दिल के सागर में धड़कनो का तूफान उमड़ पड़ा था और इस तूफान में सोच की सीपियां छिटक कर किनारे जा लगी थीं। हमारी सूझ-बूझ के बाँध टूट चुके थे। कहते हैं अँधेरे में गुनाह के हाथ लंबे हो जाते हैं और अँधेरे का सानिध्य पाकर  हम गुनाह के दल-दल में फिसल गए। समाहा मेरे करीब होती चली गयी और हम दोनो एक बार फिर वासना के सागर में डूब गए। डूबते चले गए। फिर जब वासना का तूफान थमा तो हम एक दूसरे से छिटक कर ऐसे दूर हो गए, जैसे तूफान में डूबने वालों की लाशें किनारे आ लगती हैं। इस बार व्यभिचार की आग इतनी भयानक थी कि हमारा रहा-सहा स्वभिमान भी इस आग में जल गया और शायद इसी आग में वह प्यार भी भस्म हो गया, जो दो दिलों के प्रणय बंधन का सौन्दर्य होता है।
बाहर वर्षा थम चुकी थी और उजली चाँदनी ऐसे छिटकी थी जैसे वर्षा कभी हुयी ही नही। मुझे अपने आप पर क्रोध आ रहा था और मन में प्रयाश्चित का गहरा दुख भरा था। सोच रहा था कि मुझे ठहरना नही चाहिए था। मुझे समाह से भी खिन्नता कुछ कम नही थी- क्या वह मेरा विरोध नही कर सकती थी? दुख की गहन अनुभूति से मस्तिष्क दुख रहा था। अब तक समाहा ने लैम्प जला लिया था और कमरे में यलो-क्रीम रोशनी फैली थी। मैंने समाह का चेहरा अपने हाथों में लेकर ऊपर उठाकर कहा, " एक बात पूछूँ..?"
" क्या...?" उसने बहुत भोलेपन से धीमे स्वर में जवाब दिया।
" तुम क्या मुझसे इतना भर ही चाहती हो ?" मैंने उसकी ओर सवालिया नज़र से देखा।
" नही- नही, मैं....मैं तो तुमसे से प्यार करती हूँ! तुम ऐसा क्यों सोचते हो..?" वह एक बार भीतर ही भीतर तिलमिला उठी थी।
" तो फिर यह सब नही करना चाहिए था।" मैं एक ही सांस में कह गया।
" तुमने क्यों नही रोका अपने आप को...?" उसने मुझ से ही उल्टा प्रश्न कर दिया। 
" मैं तो तुम्हारे करीब नही आया। तुम्हीं तो बार-बार मेरे आगोश में आ गिरीं..!"
" हाँ तो...., मुझे बिजली के कड़कने से डर लग रहा था। इसका मतलब यह तो नही.... तुम को भी क्या ये चाहिए था। अब भोले बन रहे हो..!" उसने बड़ी मासूमियत से कहा। फिर कहने लगी, " अब छोड़ो भी... भूल जाओ यार! होता है। हम एक दूसरे से अलग तो नही हैं न।" वह मुझे सांत्वना देने लगी थी।
" वोह तो ठीक है, पर अभी से ये सब ठीक नही। यार, तुम मेरा इंतज़ार करना मैं जल्दी तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूँ।"
" ठीक है, पर इस वक़्त तुम जाओ। मौसम साफ है, इस लिए ये अन्देशा है कि हो सकता है, अब्बा आने वाले हों।" 
मैं बोझिल-बोझिल कदमों से समाह के घर से लौट रहा था लेकिन दिमाग़ में ख़्यालात की आँधी चल रही थी। सोचते-सोचते मैं एक ठोस नतीजे पर पहुँच गया। मैंने मन ही मन यह फैसला कर लिया कि मैं समाह को अपनी दुल्हन बनाकर घर ले आऊंगा।
फिर उन्हीं दिनो यह हुआ कि मुझे नौकरी मिल। मेरी ट्रेनिंग बंगलौर में होनी थी। मुझे शीघ्र पहुँचने का कॉल लेटर मिला था और यह सब जीवन में इतनी तेजी से घटित हुआ कि मैं जाते-जाते समाहा से मिल भी नही पाया था। एयरफोर्स में नौकरी मिली थी, इस पर मुझे खुश होना चाहिए था, पर मैं दुखी था क्योंकि समाह से दूर जाना असहनीय हो रहा था मगर नियति को तो यही मंजूर था। मुझे समाहा से दूर जाने की पीड़ा को मन की नंगी पीठ पर कड़ी धूप की तरह सहन करना पड़ा।
मेरी पूरे एक वर्ष बाद बंगलौर से वापसी हुयी। मैंने समाहा से मिलने का प्रयास किया और जल्दी ही मिल भी गया। पर उससे मिलने के बाद मेरा दुख गहरा गया क्योंकि उसने मुझसे किनारा कर लिया था। मुलाकात के दौरान वह बड़े रूखेपन से पेश आयी। वह कहने लगी, " हो सकता है तुम्हें अपनी इस आर्मी की नौकरी पर बहुत फ़ख़्र हो। तुम्हारे घर वालों के लिए इज़्जत की बात हो सकती है लेकिन मैं आर्मी के एक अदना से सिपाही के बारे में नही सोच सकती। आए दिन खबरें आती रहती हैं कि कहीं किसी विमान का पायलट जंग के दौरान मारा गया तो कहीं दुश्मनो के हाथों गिरफ्तार हो गया। अक्सर तो यह भी सुनने में आता है कि पूरा का पूरा विमान ही परवाज करते-करते गायब हो गया। सोचो, आज तक कितने जेट लापता हुए, किसी का कोई सुराग भी लगा? आर्मी के एक सिपाही की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है, वर्षों-महीनो घरवार और बीबी-बच्चों का मुँह नही देख पाता है और यह भी कुछ पता नही रहता कि कब बलि का बकरा बन जाय।" वह बिना यह सोचे धारा-प्रवाह कहती जा रही थी कि मुझे उसकी इन बातों से कितनी शदीद तकलीफ हो रही होगी। शायद वह ऐसी बातें मुझे तकलीफ पहुँचाने के लिए ही कह रही थी।
" समाहा, प्लीज बस करो। कम से कम मुझे यूँ जलील करने का तुमको कोई हक नही है।" मैंने लगभग चीखते हुए लहजे में कहा।
" जलील होने के लिए मैंने तो तुम्हें नही बुलाया। तुम खुद ही तो आए हो, क्यों आए आखिर...?" उसने निहायत ढ़िठाई से कहा।
" हाँ, ख़ुद आया हूँ, अपनी पहली वाली समाहा के पास, जो मुझसे प्यार करती थी। मेरे लिए जान छिड़कती थी लेकिन आज जो समाहा सामने है, वह तो बिलकुल दूसरी ही है। मेरे तो कुछ समझ नही आ रहा है आखिर तुम कैसी बातें कर रही हो। तुम्हें हो क्या गया है...? यार, जरा याद करो, जहन पर जोर डालो। एक दिन तुमने भी तो आर्मी में जाने के लिए मेरा हौसला बढ़ाया था।" मैंने उसे याद दिलाया कि वह किस तरह से एक फौजी पर नाज़ व फ़ख्र करती थी। उसके दिल में देश की आर्मी के लिए किस कदर इज़्जत और एहतराम था।
" हाँ, कहा था लेकिन ज़िन्दगी को लेकर तब मैं इतनी संजीदगी से नही सोचती थी। तब आर्मी के बारे में मेरी सोच पर स्कूल में सिखाई गयी बातों का असर था। मैं निजी तौर पर अपने घर और ज़िन्दगी के पहलू को लेकर नही सोचती थी।" मैं उसकी सोच और फैसले पर हैरान था।
" समाहा, क्या पागलपन है। तुम जिस मौत को लेकर इतनी टेंसन ले रही हो, वह तो कभी भी और कहीं भी आ सकती है।  आदमी घर से अच्छा-भला निकलता है, अचानक रास्ते में कार एक्सीडेंट हो जाती है और सब खत्म हो जाता है।"
" हाँ सही है लेकिन कार ज़मीन पर है तो बचने के चींसेज भी रहते हैं, पर जो चीज आसमान की ऊँचाई से गिरे उसमें कोई गुंजाईश भी नही होती है। फिलहाल बहस नही है। मैंने अपना फैसला कर लिया है।" 
" समाहा, प्लीज ऐसा न करो, देखो, मैं तुम्हें शिद्दत से चाहता हूँ। मैं तुम्हारे बिना नही रह सकता हूँ।" मैं उसकी खुशामद पर आ गया था।
" सभी लड़के यही कहते हैं, पर होता किसी को जुकाम तक नही है !" उसने मेरी बात व्यंग्य से हंसते हुए हवा में उड़ा दी। मैं तो उसको समझाते और मन्नते करके हार गया।
" यार, यह समाहा कमबख़्त बड़ी संगदिल लड़की है। उसने तो हद ही कर दी! मेरे तो समझ ही नही आ रहा कि उसने ऐसा क्यों कहा।" समीर ने एक सर्द आह भरते हुए कह, जो अब तक मेरी आप-बीती संजीदगी से सुन रहा था।
" मैं ख़ुद नही समझ सका आखिर उसने यह सब क्यों किया। वह बड़े दिल की मालिक है, इतना सब भूल सकती है लेकिन मैं एक बात आज अच्छी तरह से जान गया हूँ कि हर लड़की के मन में प्यार की भावनाएं कम गहरी और अस्थाई होती हैं। मैं तो बस इतना भर ही कह सकता हूँ कि मैंने जिस लड़की से प्यार किया। जिसको सनम समझ कर वर्षों तक दिल में बसाकर रखा। वह मिट्टी के सनम साबित हुयी।
" क्या वह तुम्हारी आखिरी मुलाकात थी समाहा से या बाद में भी मिलना हुआ।" समीर सहसा ही पूछ बैठा।
" नही भाई, आखिरी मुलाकात नही थी। मैं एक बार फिर मिला था। हताश प्रेमी के मन और हारे हुए जुँआरी की कोई भी कोशिश आखिरी नही होती है। एक दिन एक दोस्त के यहाँ  मेरा समाहा से आमना-सामना हो गया था। वह ईद के मौके पर उसकी बहन सवीहा से मिलने आयी हुयी थी। सवीहा ने ही मुझे मिलने का मौका फराहम किया था- वह भी चाहती थीं कि हमारे बीच जो मन-मुटाव है, खत्म हो जाए।
" तब क्या कहा तुमने...?" समीर ने उत्सुकता से पूछा।
" मैं ज़्यादा कुछ कहने की हालत में नही था और कह भी क्या सकता था, उस पर तो किसी बात का असर ही नही हो रहा था। फिर भी मैंने उसे एक बार दुबारा से अपने फैसले पर ग़ौर करने को कहा, " समाहा, प्लीज एक बार मेरी खुशी के लिए सोचो। मेरे उन ख़्वाबों को ताबीर में बदल दो, जो तुमने ही दिखाये हैं। तुम मेरी मोहब्बत की हकीकत बन जाओ। मैं तुम्हारे सब तरह के सपनो, तुम्हारी सब ख़्वाहिशात को पूरा करने की कोशिश करूँगा। " मैं एक बार फिर उससे मन्नतें करने पर आमादा था।
" प्लीज अब इस बारे में बात न करो। मैं कुछ सुनना नही चाहती बल्कि तुम्हारी बातों से मुझे कोफ्त हो रही है। मैं वह सब भूल जाना चाहती हूँ और तुम मुझे कुरेद-कुरेद कर याद दिला रहे हो। तुम एक मतलब परस्त इंसान हो, घिन आती है तुम्हारी बातों से। तुम सिर्फ अपने बारे में, अपनी खुशी के बारे में सोचते हो। तुम्हें तो जैसे किसी के जज़्बात से कोई सरोकार ही नही। हद हो गयी। जितनी खुशी और प्यार मैंने तुम्हें दिया, उससे तुम मुतमईन ही नही। तुम तो अपनी खुशी के लिए किसी की ज़िन्दगी ही माँगने पर उतारू हो, पर मैं ऐसा नही कर सकती हूँ क्योंकि मैं अपनी ज़िन्दगी अपने तरह से जीना चाहती हूँ " वह कहती गयी और मैं उसके चेहरे पर टकटकी लगाए सुनता गया।
" तुम इतना कुछ भूल सकती हो, बड़े दिल की मालिक हो, यह तुम्हारे ही बस की बात है। पर मैं नही भुला सकता शायद कभी भी नही। मैं तो एहसासे गुनाह की तपिश में हमेशा तपता-झुलसता रहूँगा। अपराधबोध की अन्तहीन पीड़ा से कभी मुक्त नही हो पाऊँगा और मेरे इन गंदे हाथों को सात समुँद्र का पानी भी पवित्र नही कर पायेगा। तुम जानती हो कि मैंने जीवन में तुमसे और सिर्फ तुमसे प्यार किया है। तुम्हारे सिवा किसी के बारे में सपने में भी नही सोचा। मैं समझता हूँ, तुम्हारे सिवा मेरे गहन प्यार की अधिकारी कोई नही हो सकती है। "
" लेकिन अब इन सब बातों से फायदा..? " उसने अनमने भाव से कहा।
" शायद कुछ नही, बस मन का बोझ हल्का हो जायेगा। दिल की भड़ास निकल जायेगी। कौन जाने तुम्हें मेरी हालत पर तरस ही आ जाए और यहीं से ज़िन्दगी में खुशी का कोई सोता फूट पड़े। मेरी बात पर फुरसत में बैठकर गौर कीजिएगा।" मैंने आखिरी बार समाहा से इल्तिजा की थी।
" लेकिन मैं कुछ नही सोच सकती, न अभी और न बाद में।" समाहा ने दो टूक जवाब दिया।
" समाहा, तुम मेरे साथा अच्छा नही कर रही हो। ख़ुदा ने चाहा तो तुम्हें इसका अज्र जरूर मिलेगा। तुम किसी को दुख देकर कभी सुखी नही हो सकती हो " ग़म और गुस्से से मेरी ज़बान से उसके लिए बददुआ निकलने लगा।
" मुझे अफसोस है कि मेरी वजह से तुम्हारे जज़्बात को ठेस पहुँची और दुख हो रहा है लेकिन मैं मजबूर हूँ क्योंकि मैं किसी दूसरे के साथ के सपने देखने लगी हूँ, जो हमेशा मेरे पास रहेगा और सचमुच लाफानी ख़ुशियां दे सकेगा।"
उसकी बात सुनकर मैं असहनीय मानसिक पीड़ा और क्रोध से तिलमिला उठा था। मैंने दुःख और ईर्ष्या से कांपते स्वर में तिरस्कार किया, "  और यह जरूरी नही कि यह तुम्हारी आखिरी मोहब्बत और सपना हो। सपने तो सपने ही हैं, उनके अंत का क्या....?" 
" तुम यह भी सोच सकते हो !"  उसके चेहरे पर एक कुटिल हंसी बिखर गयी थी।"
मेरी सहन शक्ति जवाब दे चुकी थी। जी तो चाहता था कि हाथ बढ़ा कर समाहा का मुँह ही नोच लूँ। अनुनय-याचना के शब्दों का तो उस के समीप कोई अर्थ ही नही था फिर भी बहुत साहस बटोर कर मैंने सचमुच ही गंभीर होकर कहा, " अगर इसी तरह से एक दिन साथ छोड़ जाना था तो तुम्हें प्यार का नाटक करके मेरी ज़िन्दगी से खिलवाड़ नही करना चाहिए था।" 
" प्यार... ! कैसा प्यार, कहाँ का प्यार...? प्यार होता ही क्या है...? वह तो सड़क से शुरू होता है और बिस्तर पर खत्म हो जाता है!" समाहा प्यार की ऐसी परिभाषा बताकर खिलखिला कर हंस पड़ी और मैं ठगा सा उसका मुँह देखता भर रह गया।
              
                         -ख़ान इशरत परवेज़






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