उसकी कहानी इशरत हिदायत ख़ान द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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उसकी कहानी


उसकी कहानी
- ख़ान इशरत परवेज़

यहाँ के रीते-रीते उदास और नीरस वातावरण में कभी प्रेम के पुष्प खिले होंगे फिर उन पुष्पों की पंखुड़ियों को परिस्थितियों की आँधीयों ने छिन्न-भिन्न कर बिखेर दिया होगा और दो युवा प्रेमियों के सुनहरे स्वप्न का ताना-वाना टूट कर बिखर गया होगा । यह बात तो मैं सपने में भी नही सोच सकता था ।
मेरी पहली पोस्टिंग रनिया बिहार के विद्यालय में अध्यापक के पद पर हुई थी । इसे मेरा सौभाग्य ही कहिए कि नौकरी के लिए मेरे पास एक साथ दो आदेश थे । दूसरा आदेश बाबू पद के लिए था लेकिन मैंने काफी विचार-विमर्श के बाद अध्यापन कार्य पसंद किया । जानता था कि बाबू लोगों के पास समय कम रहता है । मुझे अपने लेखन के लिए समय की भी आवश्यकता थी । इसके बावजूद भी मेरे सामने अपने लेखक को बचाने का का प्रश्न खड़ा हो गया क्योंकि गाँव में कोई ऐसी जगह न मिल सकी, जहाँ सुगमता पूर्वक लेखन कार्य कर सकता ।
मुझे रहने के लिए एक मकान की बैठक मिल गई थी । वहाँ आने-जाने वालों का तांता लगा रहता । गाँव के लोग नए मास्टर को किसी समय अकेला न छोड़ते । रात गए तक कोई न कोई बैठा ही रहता । जब सब चले जाते तो नींद के आक्रमण से परास्त हो चुका होता । मुझे शाम को लोगों का आना अच्छा न लगता लेकिन सभ्यता का हाथ थाम कर व्यक्तिगत जीवन में लोगों का हस्तक्षेप सहन करना पड़ता। मैं कुछ ही दिनो में अपनी इस बेचारगी से ऊब गया । ऐसे ही समय में मेरी भेंट ब्लॉक के उर्दू अनुवादक जाहिद हुसैन से हो गई । वे मेरे ही गृह जनपद के रहने वाले थे ।उन्होने साग्रह किया कि उनके साथ ब्लाक कॉलोनी में रह जाऊं । मुझे जाहिद साहब का मुख्य आवास भा गया और मैं अपना बोरिया समेट कर उनके साथ रहने आ गया था । जाहिद साहब बहुत ही ज़िन्दा दिल और ख़ुलूस मंद इंसान थे । मिज़ाज भी शायराना था । वह ख़ूब शायरी सुनाते रहते थे । बहुत अच्छा कलाम कहते थे । शायरी का शौक़ व जौक़ उन्हें अपने वालिद साहब से बिरासत में मिला था । कभी मैं भी अपनी नई कहानी के प्लाट का ख़ाका उनको सुना कर सलाह-मशवरा करता । समय बड़े मज़े में बीत रहा था लेकिन हमारी बदबख़्ती ने यहाँ भी मेरा पीछा न छोड़ा । अचानक जाहिद साहब का स्थानान्तरण हो गया । उन्हें दूरस्थ ब्लाक का आदेश मिला था । उनके जाने के बाद मैं निपट अकेला रह गया।
ब्लाक कॉलोनी के कई आवास खाली पड़े रहते हैं क्योंकि अधिकांश कर्मचारी शहर से डेली अपडाउन करते हैं, सो मुझे इस आवास से निकलना नही पड़ा था । हाँ, सौ रूपये मास अवश्य देना पड़ने लगा था । अब बीडियो साहब ने यह आवास एक एडीयो एस्टीटिक्स नंद कुमार के नाम एलॉट कर दिया था । नंद कुमार के वेतन से कटने वाले आवास भत्ते का भुगतान मुझे नकद देना पड़ने लगा था।
जाहिद बाबू ने चलते समय एक बड़ी विचित्र बात बताई। सुनकर मेरी आँखों में भयानक कल्पनाएं नाच उठीं और भंय से कलेजा थर्रा गया, उन्होने कहा, " मास्टर साहब, आप भी यहाँ से अपना तबादला करा लीजिए । यह बहुत ख़तरनाक जगह है । जानते हैं, मैं आपको यहाँ क्यों लाया था? आपको इसका अंदाज़ा भी नही होगा । दरअसल मुझे अकेले डर लगता था।"
"यहाँ डरने जैसी क्या बात है? सारी रात चौकीदार का पहरा रहता है ।" मैने सहज भाव से कहा ।
"नहीं भैया, मैने तुम्हें बताया नही । यह जो पास वाला आवास है, जो हमेशा बंद रहता है । इसमें किसी के चहल कदमी करने की आहट मालूम होती है । मैं एक रोज़ पेशाब को उठा, तो देखा कि अपने आवास का नल खुद ही चल रहा है और छर-छर पानी गिर रहा है ।"
बाबू जी, यह आपका बहम है ।मुझे तो कभी नहीं दिखाई दिया ऐसा कुछ... ।" मैने अपने मन में व्याप्त हो गए भंय को झुठलाते हुए कहा ।

"अगर यह बहम था तो इसे क्या कहोगे कि एक रात को अचानक मेरी आँख खुल गई । मैंने देखा ,मेरी चादर लहराते हुए ऊपर छत में उड़ रही है ।मेरे तो पसीने छूट गए । मैने घबराहट से आयतुलकुर्शी पढ़ना शुरू कर दिया । तब जाकर चादर का हवा में उड़ना बंद हुआ मगर मैं बहुत भयभीत था।" बाबू जी ने एक अलिफ़-लैला जैसी दास्तान कह सुनाई ।

भूत-प्रेतों में मेरा विश्वास कभी नहीं रहा लेकिन बाबू जी के कहने से मन में एक अंजाना-सा डर गहराने लगा था । बाबू जी तो कह कर चले गए थे और मुझे उनकी बातें भुलाए नही भूल रही थीं । मैं उस दिन इतने बड़े आवास में अकेला ही रह गया था । इस लिए बिलकुल अच्छा नही लग रहा था ।ऊपर से रह-रह कर बाबू जी की बातें याद आ रही थीं । मन बहुत अशांत था । कमरे की खमोशी भयानक मालूम हो रही थी । एक अंजान-से डर की हर ओर से आती हुई महसूस हो रही थी । शाम की स्थिति तो ऐसी थी फिर भला अकेले रात कैसे कटेगी? सोच-सोच कर मैं परेशान हो उठा था । फिर मुझे एक युक्ति सूझ गई ।मैने ईश्वरदीन को आवाज़ लगाई । जब वह आया तो मैने कहा,"अभी तुम क्या कर रहे हो, यार? "

"कुछ नाही साहिब, खाना बनावै की तैयारी कर रहा हूँ ।" उसने बताया । ईश्वरदीन ब्लाक का पत्रवाहक है । उसका आवास मेरे लगे में थोड़ी दूरी पर है । मैने उससे कहा, "यार, एक काम करो । आज बाबू जी तो रिलीव होकर चले गए हैं। इस लिए अच्छा नही लग रहा है । खाना बनाने का तो बिलकुल मन ही नही हो रहा है । कफेरा की बाजार से मीट लाया हूँ । तुम ऐसा करो कि यहाँ पर ही खाना बनाओ । मैं भी तुम्हारी सहायता करूंगा । यहीं पर खाना खाओ और हाँ, यहीं पर सो जाना, उस तख़त पर, तो मुझे अकेलेपन का एहसास नही होगा । मैं चारपाई पर सो जाऊंगा। मैं जानता था कि मीट का नाम सुनकर ईश्वरदीन कभी भी मना नही कर पायेगा और वैसा ही हुआ । उसने कहा, "ठीक है, साहिब ।मैं अभी आता हूँ । तनिक आवास में ताला लगा आऊँ ।" वह चला गया । मैने भी सुकून की सांस ली कि चलो युक्ति काम तो कर गई!
थोड़ी ही देर बाद ईश्वरदीन आ गया । हम दोनो ने मिलकर खाना बनाया । खाना बिगाड़ने के बाद ईधर-उधर की गपशप मारने लगे । बातों के बीच ही वह थोड़ी-थोड़ी पीता भी जा रहा था । जब मैने महसूस किया कि अब वह पूरी तरह शुरूर में आ गया है, तो मैने छेड़ दिया, "उस दिन लवेद नगर के मेले में रंडी क्या गा रही थी - बड़ा मस्त गाना था यार । वाकई मज़ा आ गया था । मेरा इतना भर कहना था कि वह अपनी बेसुरी आवाज़ में गाने लगा, " अभी छोटी हूँ बालम, जवान होने दे.....! " और उसका बेसुरा गाना सुनते-सुनते जाने कब सो गया । मुझे पता ही नही चला ।

दूसरे दिन भी मैने ईश्वरदीन को बहाने से अपने आवास पर सुला लिया था । इस तरह से बाबू जी की बात का ध्यान मस्तिष्क से जाता रहा । फिर मैं अकेले ही सोने लगा। मुझे धीरे-धीरे विश्वास हो चला कि वह सब जाहिद बाबू का महज बहम भर था । मैं भोजन से निवृत होकर पढ़ने-लिखने बैठ जाता । प्राय: अवस्थित में ही नींद आ जाती है ।

जिस दिन पढ़ना-लिखना नही होता तो ध्यान बर्वस ही इधर-उधर बट जाता और मस्तिष्क में व्यर्थ विचार चल पड़ते । आवासीय कॉलोनी के पश्चिम में मुसलमानों का कब्रिस्तान, उससे लगा हुआ हिन्दुओं का श्मशान और उत्तर दिशा में पादरी हर्बर्ट-हेनरी कोक्स की समाधि है। जिसका नाम सोनगढ़ की विधवा रानी सूरथ कुमारी के प्रेमी के रुप में विख्यात है ।
मैं बिस्तर पर पसरा कब्रिस्तान में बोलते उल्लूओं की आवाज़, बंद पड़े आवासों में चमगादड़ों का शोर और खेत-खलिहानो में हुकियाते सियारों की हू-हू तथा जंगली जानवरों की पदचाप सुना करता। इस निर्जन बीराने में मेरा अपना अस्तित्व भी एक बड़े से सरकारी मकान में करबटें बदलती किसी प्रेतात्मा से कम तो नही था। कभी यूँ लगता जैसे मैं दुनिया का पहला और आखिरी आदमी होऊं। वास्तव में देखा जाए तो रनिया बिहार में प्रवास का समय मेरे जीवन का काला अध्याय है। मैंने लाइफ का एक क्रीम पीरिएड को वहाँ बर्बाद किया है। पर क्या किया जाए, सरकारी नौकरी का मोह बुरा होता है।
मैं सोनगढ़ की रानी सूरथ कुमारी की ऐतिहासिक प्रेमगाथा को खोजकर लिपिबद्ध करने में जुटा था। स्कूल के बाद जो भी समय बचता वह रानी के संबंध में जानकारियां जुटाने में व्यतीत हो रहा था। उस क्षेत्र के प्रबुद्ध और पुरानी बातों के जानने वालों से मिलकर तथ्यों को एकत्र कर रहा था। किसी से पता चलता कि अमुक-अमुक व्यक्ति, फलां-फलां जगह रानी के बारे में कोई दस्तावेज है, तो मैं दोड़ा-दौड़ा वहाँ पहुँच जाता। और कभी सरकारी गजट को खंगालता। मैं उन लोगों से भी संपर्क साध रहा था, जिनका रानी से निकटतम संबंध रहा था या उनके परिवार का कोई व्यक्ति रानी के राज्य में किसी उच्च पद पर कार्यरत रहा था। इस सिलसिले में कई बार सोनगढ़ स्टेट जा चुका था । रानी की अष्टधातु निर्मित विशाल प्रतिमा और लगभग दो सौ वर्ष पुरानी वास्तु कला का बेजोड़ नमूना, सोनगढ़़ के राजमहल को भी कैमरे में कैद कर लाया था। फिर एक दिन मुझे पता चला कि देहरादून से सूरथ कुमारी की परपौत्री यशीमाला आयी हैं तब भी मैं सोनगढ़ जा पहुँचा था।
उस शाम को दिन भर की थकान के बावजूद भी सारे तथ्यों को रोचक कथानक देने हेतु व्यवस्थित करने बिस्तर पर ही अधलेटा-सा बैठ गया। सहसा मुझ पर मुर्छा-सी छा गई। मैं एक गहरे सम्मोहन से अभिभूत हो गया लेकिन इससे मेरी स्थिति में कोई बहुत विशेष अंतर नही पड़ा। मुझे थोड़ी-थोड़ी सी अपनी अनुभूति थी। मैं आस-पास को भी महसूस कर रहा था। मुझ पर कोई घबराहट भी नही थी। मैं जरा भी विचलित नहीं था बल्कि खासा शांत और सहज था। सिवाय इसके कि मैं अपने ईर्द-गिर्द के वातावरण के प्रति बिलकुल भावशून्य और अबोध था। कलम मेरे हाथ में पकड़ी थी और मैं लिख भी रहा था। क्या लिख रहा था? नही जानता था। बस लिख रहा था और लिखता ही जा रहा था। मुझे तो धुंधली-धुंधली स्मृति भर है कि मैं लिख रहा था। सच पूछो तो मैं कलम पकड़े भर बैठा था और कोई अदृश्य शक्ति थी जो मुझसे लिखाए जा रही थी। मेरे अनुमान से पाँच-छे घण्टे इसी अवस्थिति में बैठा रहा होऊंगा फिर कब सो गया, मुझे इसका भी आभास नही।

सबेरे जब मेरी आँख खुली तो घड़ी में दिन का एक बज रहा था। मेरी देंह अकड़ सी गई थी। रोम-रोम में दुखन हो रही थी। शरीर तेज़ ज्वर से तप रहा था। सिरहाने रखे पैड पर दृष्टि पड़ी, तो देखा, फुल स्केप साइज के उन्नीस पेपर दबे हैं, जो विधिवत हाशिया छोड़ कर लिखे गए हैं। मुझे असीम आश्चर्य हो रहा था ।लिखावट स्पष्ट थी और वर्तनी एवं विराम-चिन्हों का ऊचित प्रयोग कैसे कर पाया था । यह मेरे लिए सचमुच अद्भुत था। और मैं चकित और हतप्रभ !
मेरे विश्वास और मान्यता के विरूद्ध यह एक रहस्यमय वास्तविकता थी कि मेरे द्वरा लिखे गए यह उन्नीस प्रष्ठ मैंने नही लिखे थे। -यथार्थ तो यह है कि किसी दिव्य शक्ति ने मेरे द्वारा सारा वृतांत लिखा डाला था। मेरा उपयोग तो महज एक टाइपराइटर की भांति ही हुआ था। मैने पढ़ने के बाद जाना कि यह एक प्रेत की आत्मकथा है।

एक लेखक होने के नाते प्रेतात्मा ने मुझसे अपनी इस आत्मकथा को प्रकाशित कराने की अपेक्षा की है । मुझे अंत में इस आशय के साग्रह का नोट लगा हुआ भी मिला है वह प्रेतात्मा चाहती है कि लोग उसकी आपबीती पढ़ें । ताकि लोगों को प्रेम और पीड़ा के कांपते भावुक क्षणों में आत्महत्या कर के जीवन और मृत्यु के मध्य प्रेत योनि में भटकना न पड़े। यह दु:खद, कष्टमय और अंतहीन है। तो आइए, शुरू करते हैं, 'उसकी कहानी.... '
प्रिय लेखक बंधु ,

जब कोई प्रेतात्मा जीवित व्यक्ति के सानिध्य में आती है या यूँ कहें कि सम्मोहित करके अपनी इच्छानुरुप कार्य कराती है तो दो आत्माओं के परस्पर एक शरीर का उपयोग करने के परिणामस्वरूप व्यक्ति को अत्यंत पीड़ा होती है। आज मैं भी आपके शरीर का बलात् उपयोग कर रहा हूँ । मेरे पास और कोई चारा ही नही है सिवाय इसके कि आपको कष्ट पहुँचाऊं। लेकिन मुझे खेद है कि मेरे द्वारा आपको कष्ट हो रहा है!

यह आवास, जिसमें आप रहते हैं । इसमें कभी मैं रहता था । बहुत आनंदित और प्रसन्न । एकदम मस्त । कोई चिंता नही थी सिवाय उसकी, जिसके बारे में सोचता रहता था मैं । सोचता था जैसे हर कोई सोचता है । उसके साथ एक सुनहरे भविष्य के सपने । लेकिन कितना दु:खद और हास्यस्पद है आदमी का सपने देखना और उन्हें साकार करने की चेष्टा करना । सपने तो आखिर सपने ही होते हैं!

जानते हो मेरा एक भरा-पूरा परिवार था ।मम्मी-पापा, छोटे भाई और बहने । अब भी हैं लेकिन मैं नहीं हूँ! मैंने तेईस वर्ष की स्वर्णिम युवावस्था में आत्महत्या कर ली थी । आत्महत्या करने के कुछ समय बाद ही मुझे पता चल गया था कि मैं हूँ - और नहीं भी हूँ । मैं मर चुका था । मेरी असमय मृत्यु से घर में हाहाकार मच गया था । पास-पड़ोस के आवासों से चीखें सुन-सुन लोग दौड़ आए थे । माँ रोते-रोते बेसुध हो गई थी । छोटी बहन बिलख रही थी और भाई अलग धरती बकोट रहा था । जबकि पिता जी चुप थे । सिर पकड़े गहरे प्रायश्चित और अपराध बोध से ग्रस्त । उफ, कितना बड़ा अपराध कर डाला था मैने । मैं आत्मग्लानि की तपिश से तप रहा हूँ। आज भी । मुझे जीने की लालसा कचोटती रहती है । मैं जीना चाहता हूँ लेकिन अब ऐसा सोचना व्यर्थ है!

मैंने एक साधारण परिवार में जन्म लेकर भी काफी उन्नति की थी ।साहित्य में मेरी गहरी रूचि थी । ख़ुद लिखता भी था ।एक कहानी संग्रह, दो नाटक और चार उपन्यास छप चुके थे। शायद आपने मेरी कोई पुस्तक देखी हो । नाम तो सुना ही होगा न, आनंद 'सरल' ।

साहित्य जगत में मेरा एक स्थान बन गया था । मेरी शोक सभा में साहित्यकारों, कवियों और पत्रकारों ने जी भर मेरा गुणगान किया था । समाचार-पत्रों की दृष्टि में मेरी मृत्यु अविस्मरणीय दु:खद घटना थी । कई लेखकों ने मेरी मृत्यु को साहित्य की नई दिशा के लिए दुर्भाग्य पूर्ण माना था ।

मैं सचमुच मर चुका था । मेरे शव को श्मशान ले जाने की तैयारी चल रही थी। यह सब मैं देख सकता था और देख भी रहा था । मेरे एक मित्र के द्वारा मेरी मृत्यु का समाचार प्राची को भी मिल गया था । मैं प्राची को बहुत प्यार करता था । आत्मा की गहराई से चाहता था । मरने के बाद पता चल गया कि प्राची से मेरा लगाव आत्मिक था । यदि मेरा प्रेम शारीरिक धरातल पर होता तो अब मैं उसे भूल जाता क्योंकि अब मैं एक शरीर नही, आत्मा हूँ । पर मैं आत्मा होकर भी प्राची को कहाँ भूल पाया हूँ! सच तो यह है कि प्राची की वजह से ही मैने आत्महत्या करने का दुष्कर्म किया है । मैं प्राची को जितना प्यार जीवन में करता था, उतना ही आज भी करता हूँ लेकिन अब वह कहाँ है? -मैने ही उसे खो दिया है ।
उफ....मैं भी कितना मूर्ख हूँ!

प्राची इसी कॉलोनी में अपने माता-पिता और छोटी बहन लाडो और दो छोटे भाईयो के साथ रहती थी। उसके पिता इसी ब्लाक में एग्रीकल्चर इंचार्ज थे, जबकि मेरे पापा ऑफिस में बड़े बाबू थे। उसकी माँ खासी मोटी होने की वजह से फुर्ती से काम नही कर पाती थी। प्राची का छोटा भाई सचीकांत उच्खल स्वभाव का था। प्राची घर को भी संभालती और पढ़ती भी थी। प्राची के पिता यहाँ की दूषित जलवायु का बहाना लेकर जी भर कर शराब पीते थे । पीने के बाद घर में शोर-शराबा करते और गंदी-गंदी गालीयां देते थे। इंचार्ज साहब के पीने के पीछे एक कारण और भी था । दो वर्ष पहले उनकी छोटी बेटी लाडो बहादुरपुर के एक अध्यापक पुत्र के साथ स्कूल से ही भाग गयी थी । जिससे उन्हें गहरा आघात पहँचा था । इसी सदमे को बरदाश्त करने के लिए उन्हें शराब का सहारा लेना पड़ा था लेकिन प्राची को यह सब अच्छा न लगता था । पर वह इसके बावजूद शांत और संयमित थी।

मेरे और प्राची के बीच सामाजिक बंधनो की कोई ऊँची दीवार न थी और न कोई संकरी खिड़की जिससे गुज़र कर वह मेरे घर न आ सकती हो और मैं उसके घर नही जा सकता था। वास्तविकता तो यह थी कि कभी वह अपने घर के कोलाहल से निकल कर मेरे घर आ जाती थी और अक्सर मैं भी उसके घर जब तब चला जाता था। वह कभी-कभी कोई नोटबुक लेकर आती और कभी ऐसे ही । जब प्राची मेरे भाई-बहनो के साथ कैरम या चेस खेल रही होती तो मैं भी धीरे से उसके समीप पहुँच जाता । पर हमारे बीच खेल-खेल में प्यार चलने लगा । इसकी तो किसी को कानो-कान सुधि नही लगी। अधिकांश तो जब वह मेरे समीप आती तो गणित और इंग्लिश ट्रांस्लेशन की समस्या लेकर ही आती थी। बात-बात में यह कहना उसका तकिया कलाम था, "यह भी कोई नया चैप्टर है ।" और कभी किसी बात पर वह यह भी ख़ूब कहती थी, "लड़के तो होते ही ऐसे हैं! "

हाँ, मुझे याद आया ।वह अक्सर यह भी कहती थी, "तुम नही सुधरोगे! " और उसका ऐसा बोलना तो मुझे लूट ही लेता था। सचमुच ।

इण्टरमीडिएट पास करते-करते उसको पता चल गया था कि मैं उसे पसंद करता हूँ -प्यार करता हूँ । वह स्वयं भी मेरे साथ अधिक से अधिक समस बिताने के बहाने ढूढ़ती रहती थी।

दूध जली बिल्ली छाछ भी फूंक कर पीती है, सो इंचार्ज साहब जल्दी ही प्राची का विवाह कर देना चाहते थे। फिर उन्हें एक अच्छा रिश्ता मिल गया और उन्होने आनन-फानन में सजातीय साधारण व्यापारी को प्राची का हाथ थमा दिया । इस तरह से प्राची मुझ से सदैव के लिए दूर हो गई । उस समय तक मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई ख़त्म न हो पाई थी। मेरा स्वयं का जीवन बहुत हद तक पराधीन था। यदि आत्मनिर्भर होता तो शायद विद्रोह कर देता । पुस्तकों की रायल्टी थी लेकिन उतने भर से क्या हो सकता था । मैने प्राची को लेकर जाने कितने ही सुखद भविष्य के सुनहरे सपने बुने थे। सब एक झटके में मोती माला की सी बिखर गए थे। प्राची का मुँह देखकर ही जीता था, उसके बिना जीवन अर्थहीन हो गया। यह समय मेरे लिए मछली के रेत पर तड़पने जैसा था। प्राची की जुदाई से मुझे गहरी ठेस लगी। उसकी वियोग-वेदना से पछाड़ खाते हुए सारी-सारी रात जागता और लिखता रहता। यूँ मेरे मन की व्यथा मेरे पात्रों के दु:ख की सहज अभिव्यक्ति हो गई। लेखन दु:खों से भाग छिपने की कोई शरणस्थली तो नही लेकिन मेरे लिए मन की पीड़ा को कागज़ की छाती पर झटक देने की सुखद साधना हो गई थी । लिखने से मन हल्का हो जाता था। सो मैं लिख रहा था। सही कहूँ तो लेखन मेरे सूखते-मुरझाते जीवन-वृक्ष के लिए खाद बन गया था। इन्हीं दिनो मेरा पहला उपन्यास "मधूलिका" प्रकाशित होकर वेस्ट सेलर बना। अब मैं यह सोचकर सहज हो चला था कि शायद ईश्वर मुझसे यही कराना चाहता है। लेखक होना ही मेरे जीवन का सच है।

मेरे दूसरे उपन्यास, "एक थी पवित्रा " की नायिका प्राची ही थी। इस उपन्यास का भी पाठको ने जबरदस्त स्वागत किया था

प्राची ससुराल चली गई थी हालांकि उसे भी मुझ से विच्छोह का गहरा एहसास था लेकिन लड़कियों की अपनी विवशता होती है। वह तो गाय होती हैं, जिस खूंटे से बांधों बंध जाती हैं। प्राची की ससुराल लखनऊ में थी और मैं वहीं पर पढ़ रहा था। वैसे प्राची अपनी माँ की देख-भाल के लिए अक्सर ब्लाक आती-जाती रहती थी। मैं किसी न किसी बहाने उससे मिल लेता था।
जब मेरी पढ़ाई खत्म होने वाली थी। तब मेरा तीसरा उपन्यास आया और अपनी पूर्व प्रकाशित कहानियों का संग्रह भी प्रकाशित किया। अब मेरी गणना नवोदित साहित्यकारों में होने लगी थी। उधर प्राची की ससुराल में भी काफी परिवर्तन आया था। उसके पति की छोटी सी रेडियो, टी. वी. की दुकान बड़े शो-रूम में बदल गई थी। प्राची के यहाँ गाड़ी भी आ गई थी। उसका मकान भी बड़ा अच्छा बन गया था। अब वह गाड़ी से ही मायके आती थी। पढ़ाई खत्म होने के बाद मैने लखनऊ में ही नौकरी शुरु कर दी। अक्सर हम प्राची से बाहर मिल लेते थे। उसकी गाड़ी में घूमते थे। मुलाकातें बढ़ती चली जा रही थीं।

एक दिन हम लोग होटल में बैठे थे। मेरे पिता का लखनऊ आना-जाना लगा ही रहता था। प्रारब्धवश वह भी उसी होटल में आ बैठे। उन्होने हमें देखा तो आग बबूला हो उठे। प्रीची की उपस्थिति में ही ख़ूब ख-खरी-खोटी सुनाईं। मैं भी प्रतिरोध पर उतर आया तो पापा ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिया। मैं इस अपमान को सहन नही कर सका और मैंने यह निर्णय ले लिया कि मैं भी तुमसे इस अपमान का ऐसा बदला लूंगा, जिसकी टीस तुम्हें जीवन भर भुगतनी पड़ेगी।

मैं कितना अवसादी हो उठा था ।जाने कैसी हीन भावना का वशीभूत अंधा हो गया, इतना कि अपने प्रति ही आत्मघाती हो गया। यह पहली बार हुआ था। मैं वहाँ से चुपचाप चला आया और घर आकर स्वयं को मृत्यु के सुपुर्द कर दिया। लखनऊ में क्या हुआ घर में किसी को कुछ भी पता नही था। पापा ने भी शायद तत्काल बताना ऊचित नही समझा था।

मेरी मौत के बाद मैं अपने शरीर से बाहर आकर खड़ा था और उस पार्थिव शरीर को देख रहा था, जो शांत निस्तेज और बेकार था। मृत्यु के संबंध में लोग चाहें जो भी विचार रखते हों, पर मैंने मौत को अनुभव किया है। मैं जानता हूँ कि मौत कभी भी सुन्दर नहीं होती है। सौन्दर्य तो जीवित होने में है -जीवन ही सौन्दर्य है। मैं मृत्यु के कष्ट की पीड़ा को जानता हूँ क्योंकि मैं मरा हूँ और मैंने मारा भी है, पर कष्ट की उस अन्तहीन पराकाष्ठा को कहना चाहूँ, तो कह भी न पाऊँ। मैंने अपनी अर्थी की तैयारी, घर का कोहराम और अंत्येष्टि संस्कार स्वयं देखा है।

दूसरे दिन भी मेरी मृत्यु का समाचार सुन कर आने वाले अतिथियों का तांता लगा रहा। विलंब से सूचना पाने वाले मेरे कई मित्र और संबंधी आए-गए। घर का छोटा सा आँगन आज भी भरा था। मैं बाहर द्वार पर ही खड़ा था। शोक-संवेदना व्यक्त करने आने वाले अतिथियों को प्रणाम करता, मित्रो को नाम लेकर आवाज़ देता, पर मेरी आवाज़ कोई सुन ही नही रहा था। आज तो प्राची भी अपने पति के साथ आयी थी, उसको देखते ही पापा ने आँखें नीची कर लीं। प्राची काफी देर तक महिलाओं के बीच गुमसुम बैठी रही फिर उसकी आँखें सजल हो उठीं। लगता जैसे अभी रो पड़ेगी। पर बिडंबना तो देखो, वह खुलकर रो भी नही सकती थी। प्राची हल्के क्रीम कलर की साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही थी। एक बार को वह मेरे समीप से आकर गुजरी तो मैंने उसे धीमे से आवाज़ दी, "प्राची, ऐ प्राची! अब हम कैसे मिलेंगे?" पर उसने सुना नही। तब मैंने उसके गाल पर ऐसे समय स्पर्श करके पुकारा, जब कोई भी उसकी ओर देख न रहा हो। मैने कहा, "प्राची, सुनो तो.......।" इस बार भी उसने नही सुना और वह आगे बढ़ गई। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि उसने अपने गाल को ठीक उस जगह, जहाँ पर मैंने उसे छुआ था, ऐसे साफ किया कि जैसे वहाँ पर कुछ लगा हो। विचित्र संयोग था कि मैं छू सकता था। देख सकता था और कह सकता था, पर मेरी आवाज़ कोई नही सुन रहा था। मुझे खीज हो रही थी कि सब लोगों को क्या हो गया है। आखिर कोई मुझे पहचान ही नही रहा था। वहाँ सब के बीच मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं था फिर भला मैं कौन था? मेरी ओर कोई देख ही नही रहा था।

मेरे अंतिम संस्कार के बाद दसवीं, तेरहवीं आदि सभी कार्यक्रम विधिवत् किए गए। मैं सब कुछ देखता रहा। घर में इधर-उधर घूमता रहा। इस बीच मुझे एक आश्चर्यजनक अनुभव हुआ। मैंने देखा कि मैं प्राची की ससुराल से ब्लाक तक की सौ किलो मीटर की दूरी आनन-फानन में तय कर सकता था। मैं सारे दिन अपने और प्राची के घर के चक्कर लगाता रहता था। मेरे मरने के पहले और अब के जीवन में बड़ी भिन्नता थी। अब मैं शरीर का आकार इच्छानुसार छोटा-बड़ा कर सकता था। बंद दरवाज़े से भी कमरे में घुसकर निकल सकता था। इस परिवर्तन को देख अन्तत: मैंने स्वीकार लिया कि मैं कोई इंसान नही, सिर्फ एक प्रेत हूँ। प्रेतयोनि में भटकती हुई एक प्रेतात्मा।

अब मैं भली प्रकार से समझ गया था कि मैं एक इंसानो से भिन्न, अमूर्त और अनदेखा अस्तित्व हूँ। मैं जीवित लोगों से बात नही कर सकता लेकिन जीवन के प्रति मेरा मोह अभी भी छूटा नही था। मैं घर में इधर-उधर बैठा रहता। कौन क्या कर रहा है, चुपचाप देखता रहता। कभी मम्मी बैठी होती तो उनके समीप जा बैठता। मैं प्राची के घर भी जा रहा था, उसके आगे-पीछे मण्डराता रहता, उसको स्पर्श करता तो कभी बाहों में ही भींच लेता किन्तु प्राची कुछ भी नहीं जान पाती। उसे मेरी शरारतों का तनिक भी आभास नही होता। मेरी इन अहमकाना हरकतों का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता। प्राची पूर्वत सामान्य, शांत और भावशून्य बनी रहती। यह कैसी बिडंबना थी कि मैं प्राची के साथ होकर भी अकेला था। हाँ, इतना अवश्य है कि मैं कुत्तों और भेड़ियों को दिख जाता हूँ क्योंकि प्राय: हमने देखा था कि वे मुझे देखते ही भौंकने लगते हैं । एक दिन एक भेड़िया तो मुझ पर बुरी तरह टूट पड़ा था। मुझे तो लगता है कि उन्हें मेरे चलने की आहट भी सुनाई देती है। अब भला कुत्ते भी किसी के साथी हो सकते हैं? जबकि वे भी मुझे पास नही फटकने देते। मैं थोड़े ही दिनो में अपने इस नए अवतार से ऊब गया।

इस गांव के समीप, जो विशाल झील है, उसके किनारे रानी सूरथ कुमारी की एक बड़ी-सी सुन्दर कोठी हुआ करती थी, जो अब बीरान थी। उस कोठी के सामने फलों और फूलों का एक बाग था। वह भी अब अपनी ख़स्ताहाली की दास्तान बयां कर रहा था। अभी पाँच वर्ष पहले ही कोठी को ढहा दिया गया था लेकिन लोग कहते हैं एक समय में कोठी की शान व शौकत देखते ही बनती थी। गांव के लोग कहते थे कि विधवा रानी इस कोठी में अपने प्रेमी हेनरी हर्बट कोक्स के साथ प्रेमालाप करने के लिए आती थी, दोनो देर रात गए तक झील में नौका-विहार करते रहते थे। यह कोठी रानी की सुरक्षित मिलन-स्थली थी। रानी के सोनगढ़ चले जाने के बाद बाकी के दिनो में हेनरी हर्बट कोक्स ही कोठी में रहा करता था। रानी के यहाँ आकर झील में जल-विहार करने की वजह से ही लोगों का कहना है कि इस जगह का नाम रनिया बिहार पड़ गगया था। यह कोठी हेनरी हर्बट कोक्स की मौत के बाद से बीरान पड़ी थी लेकिन गांव वाले कहते थे कि उसका भूत अब भी कोठी में रहता है। आखिर मुझे किसी से तो बात करनी थी।
आधी रात का समय था। मैं रानी की बीरान पड़ी कोठी में जा पहुँचा और इधर-उधर चहल कदमी करने लगा। सहसा ऊपर की सीढ़ियों से किसी के नीचे उतरने की पदचाप सुनाई पड़ी। मैं भयभीत होकर एक ओर छिप गया। ऊपर से आती सीढ़ियों से एक लंबा व्यक्ति उतर कर नीचे आया। उसने इंग्लिश में लगभग डांटते हुए पूछा, " हू आर यू ? आर हियर विधाऊट माई परमीशन?"

"यू आर हेनरी हर्बट कोक्स? " मैंने उलटा प्रश्न कर दिया।

"यस, बट हू आर यू,?"
मुझे आश्चर्य हुआ कि किसी ने तो मेरी आवाज़ सुनी और मुझे देखा भी, वर्ना बाकी सारी दुनिया तो मेरे लिए बहरी हो चुकी थी। मैंने हेनरी हर्बट कोक्स को अपना परिचय दिया। हेनरी अब टूटी-फूटी हिन्दी बोलने पर उतर आया था और क्रोधित होकर बोला, " चलो यां से वागो, यां टीन लोग पेले से रेहटा हाय ।"
"ओ माई लॉर्ड, मैं कोई ऐसा-वैसा नही हूँ। मैं एक एथर हूँ, सर! वैसे मैं यहाँ रहने भी नही आया हूँ।"

"टो केया करने आया हाय?" वह वह चीख़ा।

"बस आपसे मिलने चला आया हूँ। अकेलेपन से तबियत ऊब गई है, सर ।" मैंने विनम्रता के स्वर में बताया।

मैंने देखा, दो व्यक्ति और नीचे उतरे और हेनरी के पास में आकर खड़े हो गए। उन लोगों ने सहानुभूति दिखाई , "भैया, तुम भी यहीं रहो । हम सब एक जैसे ही हैं। वैसे भी पूरी कोठी खाली ही तो पड़ी है । अगर ज़िन्दा लोगों के आस-पास रहोगे, तो आमिल-ओझा और तांत्रिक लोग व्यर्थ ही परेशान करेंगे।

हेनरी के साथियों के सहानुभूति दिखाने से मुझे काफी संतोष हुआ। मैं पूरी रात उन लोगों साथ बातें करता रहा लेकिन सुबह फिर आने को कह कर भाग आया क्योंकि प्राची को देखे बिना मुझे चैन नही मिलता था। मैं थोड़ी-थोड़ी देर में उसे देखने को अधीर हो उठता था।

अब प्राय: मैं रानी की कोठी में हेनरी के पास आता-जाता रहता था। उन लोगों से हंंसी-मज़ाक की बातें करता और कभी तो हम सब मिलकर नाचने-गाने तक लगते किन्तु विधिवत् मैं अभी भी प्राची के मकान में ही रहता था, कभी किसी कमरे में तो कभी किसी कमरे में। प्राची के साथ शरारत करने, उसे छेड़ने और परेशान करने में मुझे बड़ा मज़ा आता। मैं घर उधम मचाता। प्राची की व्यवस्थित रखी वस्तुओं को इधर-उधर बिखेर देता। मेरी इन हरकतों से उन लोगों को संदेह हो गया कि घर में कोई भूत-प्रेत घुस आया है।

प्राची को ओझा-तांत्रिकों के पास ले जाया गया। इस पर मुझे खुशी ही हुई कि प्राची को मेरे अपने समीप होने का एहसास तो हुआ लेकिन नही, उसे क्या पता कि जो प्रेतात्मा उसके पास है, वह मैं ही हूँ। मैं तो यह भी भूल गया कि यह सब लोग मुझे अपना शत्रु समझते हैं- यही सच भी था। मैं सचमुच ही प्राची का शत्रु ही साबित हुआ।

जब मैं जीवित था, तभी से मेरा विश्वास था कि अधिकांश तांत्रिक-ओझा ढ़ोंगी होते हैं। अब तो देख भी लिया कि लोग भूत-प्रेत की बाधा के नाम पर कैसी ठगी करते हैं। एक दिन एक बहुत बड़ा तांत्रिक आया। उसके सिर पर बड़े-बड़े केश, खजखजी दाढ़ी और गले में अनेकों रुद्राक्ष मालाएं थीं। उसने आते ही प्राची के केशों की लटें खींच कर मजबूती से बांधी। खिंचाव इतना ज़्यादा था कि प्राची पीड़ा से बिलबिला उठी। घर के चारों कोनो में मंत्रपूत कीलें ठोंकी। नीम की पत्तियां सुलगाईं और प्राची के गले में एक तंत्र भी पहनाया। मुझे प्राची के पास से भगाने के लिए जाने कितने ही अनुष्ठान किए। इस सब के बदले में प्राची के पति से ढ़ेरों रुपये ऐंठ लिए। तांत्रिक की इस ठगी से मुझे बहुत दुख हुआ और क्रोध भी बहुत आया। मैने उस तांत्रिक को उठा-उठा कर पटका, इतना मारा कि वह रोता कराहता सर पर पाँव रख कर भाग खड़ा हुआ और फिर कभी प्राची के घर का रुख़ भी न किया।

कभी भागवत गीता में पढ़ा था। कृष्ण जी कहते हैं, " आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है - आत्मा अमर है।" यह बात हम जैसे लोग ही जान सकते हैं लेकिन स्थिति चाहें शारीरिक हो या आत्मिक इंसान, इंसान ही होता है। उसका स्वभाव, अच्छाई-बुराई, काम, आशाएं, भावनाएं, महात्वाकांक्षाएं, प्रेम, मोह,, ईर्ष्या, द्वेष, त्याग और भंय उसी तरह से होता है।

मैं प्राची की रुप-राशि का वशीभूत हर समय पागलों सा उसके ईर्द-गिर्द ही बना रहता था। इसी वजह से कई दिन बाद हेनरी से मिलने पहुँचा था। रात का घना अंधकार और वातावरण बिलकुल शांत था। हर तरफ गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी, जिसे रह-रह कर चमगादड़ों के उड़ने-फड़फड़ाने का शोर चीर देता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि आख़िर आज किसी की आवाज़ क्यों नही सुनाई देती? मैं कुछ समय तक किंकर्तव्यविमूढ सा खड़ा रहा फिर तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ने लगा। मेरे ऊपर पहुँचने से पहले कलेजा चीर देने वाली भयानक चीख़ सुनाई पड़ी। एक बार तो मैं डर ही गया। मेरा रोम-रोम भंय से थर्रा गया। यह भयानर चीख हेनरी की थी। वह अभी भी चीख़ता हुआ बड़बड़ा रहा था, " कौन है टुम, आगे मत बडना, मार डालूंगा! "
मैंने ऊपर के हाल में प्रवेश करके देखा, हेनरी बुरी तरह डरा हुआ है। वह बदहवास सा मकड़ी के जाले के पीछे कोने में छिपा बैठा था। मैंने उसके भयभीत होने का कारण पूछा, " क्या बात है, आप इतने डरे हुए क्यों हैं, और बाकी लोग कहाँ हैं? "
"ओह, आनंद! मैं तो डर ही गया था।" हेनरी अपनी बदहवासी पर कंट्रोल करते हुए बोला, " वह दोनो बहुत पापी थे। काफी दिनो से किसी लड़की को परेशान कर रहे थे। लड़की के परिवार वालों को कोई सिद्ध तांत्रिक मिल गया। आज जब वह वहाँ गए तो तांत्रिक ने उन्हें पकड़ कर एक बोतल में कैद कर लिया फिर उस बोतल को ज़मीन की गहराई में गाड़ दिया। मैं भी उनके साथ ही घूमने निकला था और उनके साथ यह घटना घटित हो गई । मैं तो किसी प्रकार अपने को बचाकर भाग निकलने में कामयाब हो गया। मैने टुमको आते सुना तो समझा उस तांत्रिक के जिन्न आ रहे हैं, तभी मैं बहुत घबरा गया।" हेनरी ने सारी घटना अपने हवास दुरुस्त करते हुए कह सुनाई।
" श्री मान, तब तो यह बहुत दु:ख की बात है। हमें उनकी मदद करनी चाहिए। आईए, उन दोनो को ज़मीन खोद कर बाहर निकाल लाते हैं।" मैने हेनरी से कहा।
" नही, हम उन लोगों को नही निकाल सकता क्योंकि बोतल के साथ मंत्र पढ़ी कीलें गड़ी हैं। हम उस बोतल को निकालना तो अलग छू भी नही सकते हैं। अब उन्हें क़यामत के दिन ख़ुदा ही निकालेगा।"

सहसा मैने सोचा, जिस दिन प्राची के पति को कोई सिद्ध आमिल मिल गया तो वह मुझे भी बोतल में बंद कर के ज़मीन में गाड़ देगा। मैं धरती के भीतर क़ैद की कल्पना करके सिहर उठा। अब क्या करूं, मेरे कुछ समझ नही आ रहा था लेकिन मैं प्राची के बिना भी तो नही रह सकता था। उससे पल भर की जुदाई भी मुझसे सहन नही होती थी। नही-नही मैं उसके बिना उससे दूर एक क्षण भी नही रह सकता था। अब क्या करूं? मैं सोचे जा रहा था और सोचते-सोचते अंतत: मुझे एक युक्ति सूझ गई। मैंने निर्णय लिया कि प्राची को भी अपनी दुनिया में लाना होगा किन्तु यह तो प्राची की मौत के बाद ही संभव था। मेरे पास इसके सिवा और कोई चारा नही था। अब प्राची की मौत कैसे हो? मैने यह भी सोच लिया।

मुझे प्राची से बार-बार मिलने और अपना प्रभाव जमाने के लिए उसे सम्मोहित करना पड़ता था। यद्यपि इसका आभास प्राची को नही होता था लेकिन एक शरीर की दूसरी आत्मा पर बलात् रुप से बार-बार हावी होना पीड़ादायक होता है और मैं तो निरंतर उस पर अपना प्रभुत्व बनाए रखता था। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह बीमार रहने लगी और बहुत दुबली हो गई थी। एक दिन प्राची घर में अकेली सोई थी, यह उसकी आखरी नींद थी। मैंने उसके मुंह में घुस कर हलक को बंद कर लिया और मुंह के बाहर निकली अपनी दोनो टांगो को उसकी नाक में ठूंस दिया। उसको सांस लेने में कठिनाई होने लगी। वह छटपटाने लगी। तड़पती और कसमसाती रही लेकिन मैं उसके मुँह में घुसा रहा और नाक में घुसी टांगो को और भी मजबूती से घुसेड़ दिया । वह तड़पती और छटपटाती रही और मैं निर्दयता से उसकी सांस को अवरूद्ध किए रहा। जब प्राची का छटपटाना बंद हुआ तो मैं उसके मुँह से बाहर निकला और पांव भी नाक के नथुनो से बाहर खींच लिए। प्राची का शरीर लुढ़क गया- शांत और निष्प्राण।
मैं प्राची की चारपाई के पास एक ओर खड़ा होकर उसकी आत्मा के शरीर से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा,पर वह शरीर से बाहर नहीं निकली। यहाँ तक कि प्राची की अर्थी तैयार की गई और अर्थी को लोग कांधों पर उठाकर चल पड़े। अर्थी श्मशान तक भी पहुँच गई। मैं भी अर्थी के साथ चल रहे लोगों के पीछे-पीछे चला आया। इससे पहले कि लोग प्राची की मृत देह को चिता पर रखें। मैं उसके शरीर के भीतर घुस गया और एक-एक अंग, शिरा-केशिका में उसे तलाश आया, पर उसकी आत्मा कहीं नहीं दिखी। उसके मृत शरीर को चिता पर रखा गया और उसके पति ने मुखाग्नि दी। चिता थोड़ी ही देर में धू-धू जलने लगी और आग की प्रचण्ड लपटों में प्राची का पार्थिव शरीर जल कर राख हो गया। मैं शमशान से वापस सीधा उसके घर गया। प्राची की प्रेतात्मा वहाँ भी नहीं दिखी। घर और शमशान के अनेको चक्कर लगा डाले, पर प्राची का भूत कहीं दिखाई नही पड़ा। मुझ पर दु:खों का व्रजपात हो गया। मेरी पीड़ा अनन्त थी ।
मैं दिन रात प्राची की खोज में भटकता रहा किन्तु उसका कुछ पता नहीं चला। मेरी बेचैनी और दु:ख गहराता ही जा रहा था। मेरी आँखें उसकी एक झलक पाने को तरस रही थीं। जब वह जीवित थी तो उसे देख सकता था। छू सकता था। उससे लिपट कर असीम सुख और तृप्ति की अनुभूति होती थी। अब वह सब ख़त्म हो गया था। मैं अन्ततः हताश होकर रानी की कोठी में चला आया। वहाँ हेनरी के साथ कन्हैया पंडित भी बैठे थे। वह अक्सर आ जाते थे - बड़े ही वाचाल और रसिक स्वभाव के मृदुभाषी व्यक्ति हैं बल्कि प्रेत हैं। हांलाकि पण्डित जी रहते पुराने मंदिर में थे। उन लोगों को देख कर मेरी आँखें भर आयीं। उन दोनो के लगातार कई दिन न आने की वजह पूछने पर मुझे रोना आ गया और मैं फफक-फफक कर रोने लगा और रोते-रोते ही सारी घटना भी कह सुनाई।
"आनंद, तुम निरे मूर्ख हो! अरे, कभी कोई कार्य करने से पहले सलाह भी ले लिया करो। यह तुमने जघन्य अपराध कर डाला। तुमने तो मृत्यु उपरांत भी एक पाप अपने भाग्य में लिख लिया। ईश्वर तुम्हें इस के लिए कठोर दण्ड देगा। मुझे तो लगता है कि तुम्हारे दुर्भाग्य ने प्रेतयोनि में भी तुम्हारा पिण्ड नही छोड़ा है।" पण्डित जी बहुत खिन्न हो रहे थे।
"लेकिन मैं क्या करता पण्डित जी! मैं विवश था क्योंकि मुझसे प्राची की दूरी सहन नहीं हो रही थी। मैं उसको प्राण-पण से प्रेम करता हूँ। मैंने इस लिए उसकी हत्या की ताकि वह भी हमारी सृष्टि में आ जाए। मैं उसको मारना नही चाहता था। मैं तो सिर्फ इतना भर चाहता था कि वह भी मेरे साथ-साथ रहे - मेरे बहुत समीप, बस।"
" सत्यानाश ! तू सत्य में ही बड़ा पागल है रे। मुझे तेरी बुद्धिमत्ता पर दया आ रही है, हत्यारे.....।" पंडित जी धिक्कार रहे थे मुझे।
" आनंद तुम कमाल करता है, भाई। तुझे इतना भी नही पता कि हर आदमी मरने के बाद भूत नही बनता है।" हेनरी हर्बट बहुत अफसोस व्यक्त करते हुए बोले।
" क्यों......? मैं भूत हूँ, तुम भूत हो... और यह पण्डित जी..! तो प्राची क्यों नहीं......?" मैं ने विस्मय पूर्ण स्वर में प्रश्न किया।
" हाँ, मैं भूत हूँ। इस लिए क्योंकि मैं मरना नही चाहता था बल्कि रानी को लव करते हुए जीना चाहता था। पण्डित जी भी सम्मान के साथ जीवन जीने की लालसा रखते थे लेकिन लड़कियों की दुस्चरित्रता और पारिवारिक कलह के चलते मरने को विवश होना पड़ा और तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ।" हेनरी ने बताया।
" आनंद, हेनरी हर्बट जी सत्य ही कह रहे हैं। प्रेत होने के लिए जीवन से लगाव होना चाहिए। मन में कुछ करने आकांक्षा और जीवन को भरपूर जीने की ललक ही मनुष्य को प्रेतयोनि में भटकने का कारण हो जाती है। व्यक्ति की अतृप्त इच्छाएं उसे प्रेतयोनि में ले आती हैं। अब रही बात तुम्हारी प्रेयसी प्राची की, तो वह प्रेम तुमसे करती थी किन्तु उसका व्याह किसी और से हो गया। फिर तुम भी जीवित नही रह गए थे, ऐसे में वह जीवन से हतास हो चुकी थी, उसके मन में कोई चाह, आशा और आभिलाषा शेष नही थी, उसकी भावनाएं मृत हो चुकी थीं। उसके समीप जीवन अर्थहीन था। वह तो बस शरीर से जीवित थी,उसका मन तो मृत हो चुका था और मृत मन में कोई इच्छाएं ही नही होती हैं तो इच्छाओं के अतृप्त होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।" पण्डित जी ने प्राची के प्रेत न बनने के कारण को विस्तार से बताया। मैं अवाक् सा उनका मुँह देखता रह गया।
सहसा मेरा ध्यान बाहर फैल रहे तेज़ चमकीले प्रकाश ने आकर्षित किया। बाहर अचानक बहुत तीव्र प्रकाश हो रहा था। मेरे साथ ही हेनरी और पण्डित जी भी उसी ओर देखने लगे, जिधर प्रकाश हो रहा था। अरे, यह क्या प्रकाश तो हम लोगों की ओर ही बढ़ रहा था। धीरे-धीरे प्रकाश और भी तेज़ होता चला गया। इतना कि प्रत्येक वस्तु दिन की भांति स्पष्ट दिखाई देने लगी। - यह प्रकाश नही अपितु प्रकाश की आँधी थी। लग रहा था जैसे कोई सूर्य ही कोठी की ओर बढ़ा आ रहा था। एकदम जगमग प्रकाश की वर्षा जैसी हो रही थी। ऐसा प्रकाश मैने एक बार आकाशीय उल्का पिण्ड के टूटने पर ही देखा था। मुझे बहुत घबराहट और असीम आश्चर्य हो रहा था। आखिर घनघोर अँधेरी रात में यह कैसा प्रकाश? मैने उत्सुकतावश हेनरी हर्बट कोक्स से पूछा, " सर, यह कैसी लाइट है? मुझे बहुत डर लग रहा है।" मैं उन्हें सर कह के ही संबोधित करता था।
" आनंद, टुमको इससे डरने का बिलकुल नही, यह एक दैवीय लाईट है।" हेनरी ने बताया।
" देव दूत आ रहे हैं । जब भी यह प्रकाश आता है तो प्रेतयोनि में भटकती आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होती है।" पण्डित जी ने भी उस दिव्य प्रकाश के बारे में विस्तृत बताया।
मैंने देखा कि उस प्रकाश के स्रोत का केन्द्र धीर-धीरे हमारी ओर ही बढ़ रहा था, जो एक श्वेत चमकीले वलय के रूप में था। मैंने सोचा, तब तो यह और भी अच्छी बात है। लगता है, मुझे इस असहाय जीवन से मुक्ति मिल जायेगी लेकिन दुर्भाग्य से यहाँ भी मेरे हिस्से में निराशा ही लगी।
देखते ही देखते दो सफेद चमकदार प्रकाश वलय हाल में प्रवेश हुए । उन वलय ने कन्हैया पंडित जी और हेनरी को अपने मध्य घेर लिया। पूरा हाल उस प्रकाश से भर गया था, जिसकी जगमगाहट से मेरी आँखें चौंधिया गयीं । मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। इसी बीच मुझे हेनरी हर्बट सर का स्वर सुनाई पड़ा, वह कह रहे थे," आनंद, गॉड ने मुझे माफ कर दिया है। मैं गॉड के पास जा रहा हूँ। तुम अपना ध्यान रखना। यशु, तुम्हारी रक्षा करे! गुडवॉय...! " मैने आखरी बार हेनरी की आवाज़ सुनी। हेनरी के अखरी शब्द..।
धीरे-धीरे वह प्रकाश वलय दोनो को लेकर दरवाज़े से बाहर निकल गए। मैं थोड़ा आगे बढ़कर खिड़की से बाहर उन प्रकाश वलय को जाते हुए देखने लगा। वह प्रकाश वलय बाहर निकल कर आकाश की ओर उठने लगे और बहुत तीव्र गति से ऊँचाई की ओर उड़ चले। मैं किसी पाषाण प्रतिमा-सा खड़ा प्रकाश और तारों को मिलता देख रहा था। देखते-देखते ही वह प्रकाश मंदाकिनी के टिमटिमाते तारों के बीच ओझल हो गया। कोठी में गहरा अंधकार व्याप्त हो चुका था।
उफ !मृत्यु तो कुछ भी नही बदलती है।जीवन फिर भी जीवन होता है। सुख-दुख, आचार-विचार, प्रेम और पीड़ा कुछ भी तो नही बदलता। बस, केवल पर्दा ही बदल जाता है!
इस समय मुझे अपने अकेले पन पर रोना आ रहा था। मैं रोना चाहता था, फूट-फूट कर.... चीख-चीख कर... ताकि मन की आग आँसू बन कर निकल जाए, पर यह टीस भी कम ककष्टदायक न थी कि आँसू बहाना तो जीवित प्राणीयों का लक्षण है। आत्मा की आँखों से आँसू ही नही बहते हैं। आत्मा को जब-जब गहरा दुःख पहुँचता है तो आँखे अँगारे जैसी गहरी लाल हो जाती हैं। हाँ, मेरी आँखें दु:ख से दहक रही थीं। मैं प्राची और हेनरी से बिछड़ने के बाद इस विशाल ब्रहमाण्ड में अकेला रह गया था। मुझे अपनी यह विचित्र काया बोझ लगती थी, जिसे अब आत्महत्या कर के भी उतार कर नही फेंक सकता था। मैं अपनी इस अद्वभुत काया के बोझ को ढ़ोता हुआ भटकता रहता। रात को पीछे वाली खिड़की पर बैठा प्राची की स्मृतियों में खोया जागता रहता। झील में तैरती मछुआरों की नावों की रोशनी का नज़ारा देखता। आकाश गंगा में टिमटिमाते तारों निहारता और सबसे बढ़कर सारी-सारी रात जागकर उस रोशनी की प्रतीक्षा करता रहता, जो मुझे भी इस जीवन के कष्टों से मोक्ष दिला दे, पर मेरी यातनाओं का तो शायद अंत ही नही था।
दुर्भाग्यवश यह भी घटित हुआ। प्रभात पूर्व का समय था। पूरी रात से ज़्यादा घना अंधकार व्याप्त था। मैं रोज की तरह खिड़की पर बैठा झील में तैरती नावों की रोशनी के पानी पर बनते वलयाकार प्रतिबिम्बों के झील के किनारों तक तैरते जाने का मनोरम दृश्य निहारने और नावों की पतवारों की छप-छप संगीत की लय पर गाते मछुआरों के गीत सुनने में लीन था। सहसा पूरी कोठी हिलने लगी। धाड़-धाड़ छत और दीवीरे टूटने का शोर। ईंट-पत्थरों के गिरने की आवाज़ें। कुछ पत्थर मेरे आस-पास भी गिरे। मैं एक दम घबरा कर पीछे को भागा ,पर मुझे हंसी भी आ रही थी क्योंकि मैं व्यर्थ ही भाग रहा था, भला मैं कौन सा मर सकता था .....? मैंने देखा, ऊपर की छत में बड़ा सा भंभाल हो गया है। कमरे में गर्द की घनी धूल भर गई थी। मैं भूकंप जैसा कोलाहल देखकर भयभीत और भौचक्का था। मुझे छत पे सैकड़ों हथौड़े फावड़े चलने का आभास हुआ। मैं आनन-फानन में ऊपर छत पर जा पहुँचा। मैने देखा, बहुत से मजदूर छतें और दीवारें तोड़ रहे हैं। नीचे कोठी के सामने दो-तीन जे.सी.बी. मशीने भी मलवा हटाने में लगी थीं।
देखते ही देखते पूरी कोठी ईंट-पत्थरों के मलवे के ढ़ेर में बदल गई। मुझे वहाँ काम कर रहे मजदूरों की बातों से पता चला कि राजकुमारी यशीमाला ने अपनी परदादी के व्यभिचार की साक्षी इस कोठी को तोड़ने के लिए कौड़ियों में बेंच दिया था। मुझे बहुत दुख हुआ क्योंकि यह कोठी मेरा सुरक्षित बसेरा थी।
मैं कोठी के टूटने के बाद निराश होकर यहाँ चला आया था और तब से इस आवास में रह रहा हूँ। लेखक बंधु, मैं भविष्य में तुम्हें कभी दु:ख नही पहुंचाऊँगा। मेरा विश्वास करो। आप मुझे कभी छोड़कर नही जाना क्योंकि तुम्हारी उपस्थिति से मुझे ख़ुशी होती है और प्राची की जुदाई का एहसास कम होता है।
लेकिन मैं आप लोगों को अपनी बात बताऊँ, उस घटना के ग्यारहवें दिन मैंने अपना स्थानान्तरण करा लिया था और ब्लाक कॉलोनी के उस भुतहे आवास को तो उसी दिन की सुबह छोड़ दिया था!!! $$

-ख़ान इशरत परवेज़

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