गुलकंद
पार्ट - 2
इस कमरे से उस कमरे भागती-दौड़ती अपनी पत्नी अन्नी को देख, वीरेश को उसपर कुछ दुलार सा आने लगा था। वह क्या जानता नहीं कि प्राइवेट स्कूल की इस नौकरी में इसके ऊपर काम का कितना बोझ रहता है! क्लासरूम में एक बार बैठने तक की इजाजत नहीं मिलती इनको.. इस वजह से टीचर्स की कुर्सियाँ तो हटा दी जाती हैं, पर क्योंकि स्कूल में आए दिन टीचर्स की किल्लत बनी ही रहती है, मैनेजमेंट इन लोगों से अपने सब्जेक्ट के अलावा भी कितनी ही क्लासेज़ लेने का प्रेशर बना कर रखता है। लगभग रोज ही घर लाकर, काॅपी चेकिंग, रिपोर्टिंग और टेस्ट पेपर इत्यादि बनाने का काम पूरा करना पड़ता है। सीनियर स्टूडेंट्स की क्लास लेना यूँ भी कोई आसान काम नहीं है। पढ़ाने से पहले खुद कितना पढ़ना होता है। तिसपर से आजकल तो इंस्पेक्शन चल रहा है, हेड ऑफिस से सीनियर ऑफिसर लोग आए हुए हैं अतः कल वह आधी रात तक जागकर कितना सारा पेपर वर्क और कम्प्यूटर के काम करती रही है अनीता और आज, वह सबकुछ मैनेजमेंट को सौंपने के लिये उसे स्कूल जाने के लिए जल्दी निकलना भी पड़ेगा। वैसे समय कितना भी कम हो, इसकी यह रोज सुबह-सुबह घर-परिवार वाली व्यस्तता तो घट नहीं जाएगी?
बेटे प्रांशु के मंथली इक्जाम चल रहे हैं, वह जल्दी-जल्दी कुछ रट्टा मारने में व्यस्त है और याद न हो पाने की स्थिति में रूँआसा हो आया है। उधर, क्योंकि उसकी बस आने का समय करीब आता जा रहा है, प्रांशु की घबराहट और मनःस्थिति से बिल्कुल बेखबर अन्नी किचन से बार-बार तेज आवाज में उसे पुकार, नहाने के लिये जाने का मशवरा दिये जा रही है। अम्मा के समक्ष चाय-बिस्कुट रख, अब वह सबका टिफिन और अम्मा का नाश्ता बनाने में व्यस्त है।
पहले व्यस्तता के इन पलों में वह हमेशा पत्नी के साथ खड़ा होता था। प्रांशु का बैग लगाने से लेकर उबले आलू छीलने तक का काम वह बखूबी कर लेता था पर अभी परिस्थितियाँ बदल गई हैं। जब से अम्मा आई हैं, उसे किचन में जाने में संकोच सा होने लगा है। क्योंकि अम्मा ने कभी पुरूषों को घर का काम करते देखा नहीं है, उसे मटर छीलते और सब्जियाँ काटते देखकर वह असहज हो जाती हैं फिर उनकी बेवजह की टीका-टिप्पणी से, घर का माहौल बिगड़ता है और अन्नी तनाव में आ जाती है। वीरेश आदतन बहुत सारी अप्रिय परिस्थितियों को अनदेखा कर, हमेशा से यही कोशिश करता रहा है कि घर का माहौल अच्छा बना रहे, सभी लोग खुश रहें, पर न जाने क्यूँ, आजकल यह थोड़ा मुश्किल सा होता जा रहा है। उसने अम्मा को समझाने की कोशिश की थी, "अम्मा कमाऊ बहू है तुम्हारी! लगभग मेरे बराबर तनख्वाह लाती है तो पैसे क्या यूँ ही मिल जाते हैं? वहाँ हाड़ तोड़कर काम करना पड़ता है। अब घर-बाहर दोनों जगह का काम अकेली कैसे संभाल लेगी?" पर अम्मा ने मुँह बना दिया था, "तो क्या सिर पर चढ़कर नाचेगी? औरत है, तो औरत ही रहेगी न?"
प्रांशु नहा कर आया तो यूनिफॉर्म की सफेद जुराबें नहीं मिल रही थीं। बस आने का समय हो गया था पर चैप्टर भी पूरा याद नहीं हुआ था। उधर अन्नी दूध का गिलास उसके गले में उड़ेल देने को परेशान थी। प्रांशु की आँखों से आँसू निकलने लगे तो अब वीरेश से रहा नहीं गया। अखबार एक तरफ रख कर, उसने अपने सफेद मोजे रबर-बैंड से प्रांशु के पैरों में सेट कर दिए। तब तक अन्नी ने भुने हुए आलुओं के साथ, गर्म पराठों का नाश्ता अम्मा जी के सामने लाकर रख दिया था। वीरेश ने घड़ी देखी, प्रांशु की बस आने में केवल बारह मिनट का समय बचा था। केमिस्ट्री के भरकम शब्दों को हिंदी के सरल शब्दों से जोड़कर उसे याद कराते हुए उसने दूध का गिलास उसके मुँह में लगा दिया। अचानक उधर से अम्मा जोर-जोर से चिल्लाने लगी धीं, जहर खिलाना है तो सीधा ही खिला दो न! इसीलिए तो गाँव से लाए हो मुझे! आलू में नमक डाला है या नमक में आलू? हरी सब्जी और फल-फूल पहले ही भूल चुकी हूँ, बस यही नमक-रोटी बची है किस्मत में!" अम्मा की आँखों से आँसू बहने लगे तो अन्नी की आँखें भी बेसाख्ता डबडबा आईं। भागा-दौड़ी में लगता है उसने दो बार नमक डाल दिया है! अब क्या होगा? सब के टिफिन में यही एक सब्जी रखी है उसने तो! कैसे काम चलेगा? बेचैन आँखें बार-बार दरवाजे पर टिक जा रही थी... उसने अपनी काम वाली 'रानी' को आज थोड़ा जल्दी आ जाने को कहा था। आ गई होती, तो कुछ तो मदद मिल जाती। पर जब से अम्मा के लिए दोपहर का खाना बनाने की जिम्मेदारी भी रानी के ऊपर आई है, वह सुबह जल्दी आना ही नहीं चाहती।
अब वीरेश के लगे बिना काम चलने वाला नहीं था। अम्मा की प्लेट की सब्जी में थोड़ी सी दही मिलाई और सभी के टिफिन में पनीर मैश करके मिला दिया। नाखुश अम्मा ने जलती हुई आवाज में ताना मारा, "पूरा जोरू का गुलाम बन चुका है तू तो! अच्छा ही है, रानी साहिबा सज-धज कर पर्स झुलाएँ और तू चौका-चूल्हा सँभाल ले।" और खुक्क से जहरीली हँसी हँस पड़ीं। कैब आ चुकी थी, आँसू पोंछती अन्नी अब जल्दी में वो जैकेट खोज रही थी जो उसने अभी पहन कर जाने के लिये सुबह निकालकर शायद बिस्तर पर ही तो रखी थी... पर वहाँ तो नहीं है, फिर कहाँ रख दी? उसको ये क्या हो गया है? सुबह से कोई भी काम ठीक से क्यों नहीं कर पा रही? वीरेश जल्दी से मरून वाला कोट ले आए.. "इसे पहन लो, ठंढ भी नहीं लगेगी, स्मार्ट भी लगोगी!" उधर रानी आ चुकी थी... कैब की ओर भागते हुए भी अन्नी उसे जरूरी निर्देश देने में व्यस्त हो गई थी... बेचारी के पास दो आँसू बहा लेने तक की फुर्सत नहीं है, वीरेश सहानुभूतिपूर्वक सोंच रहा था। उसके बैंक का भी तो समय हो रहा था... लंबी साँस लेकर वह तैयार होने चल दिया।
रानी को उसके घर में काम करते तेरह-चौदह साल बीत चुके हैं। प्रांशु का पालन-पोषण एक तरह से उसी ने किया है। घर की साफ-सफाई, बर्तन-कपड़े की सफाई, कपड़े प्रेस कर देना, खाना बनाने की तैयारी जैसे कितने ही काम वह बिना किसी शिकायत के निबटा कर चली जाया करती थी। अब तो अम्मा के लिये दोपहर का खाना बनाने की जिम्मेदारी भी उसने सँभाल ली थी। इतने सालों में उसकी ईमानदारी पर भी पूरी तरह भरोसा जम चुका था बल्कि अबतक तो उसके ऊपर निर्भरता इतनी बढ़ चुकी थी कि अनीता, रानी के बिना एक गृहस्थी की कल्पना तक नहीं करना चाहती थी। पर वीरेश इधर अम्मा का रूख पढ़ रहा था... उसे रानी के हर काम में मीन-मेख निकालने की आदत पड़ती जा रही थी। रानी उन्हें तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे देती और घर में हंगामा मच जाता। वैसे यह कुछ अक्सर अनीता और प्रांशु की अनुपस्थिति में ही होता था पर इसकी आँच कई-कई दिनों तक महसूस होती रहती थी। डर सा लगता, ऐसे कितने दिन टिकेगी यह? आस-पड़ोस वाले मुँह बाए बैठे हैं। ऐसी दाई चाहता तो हर कोई है पर किसी के साथ इस तरह अपनापन का रिश्ता का बना लेना कितने लोगों को आता है? अन्नी ने हमेशा इसे किसी अपने जैसा प्यार दिया है पर यह कुछ अम्मा को कैसे समझाया जाए? वो तो इतना भी नहीं सोचतीं कि अगर रानी चली गई तो सबसे पहले वह खुद दिन भर इस खाली फ्लैट में भूत की तरह बैठी रह जाएगीं। वह परेशान था, ये क्या हो गया है उसकी अम्मा को, ये ऐसी तो कभी नहीं थीं? इनके मुँह से तो आवाज भी नहीं निकला करती थी?
क्रमशः
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श्रुत कीर्ति अग्रवाल
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