सुबह के साढ़े चार बज रहे थे जब राघव के मोबाइल की घंटी बजी।
उसने हड़बड़ाते हुए मोबाइल उठाकर देखा तो उसकी स्क्रीन पर जानकी का नाम फ़्लैश हो रहा था।
"हाँ जानकी, क्या हुआ? सब ठीक तो है?"
राघव की आवाज़ में घबराहट महसूस करके जानकी को हँसी आ गयी।
बमुश्किल अपनी हँसी रोकते हुए उसने कहा, "यस बॉस, सब ठीक है। बस आप उठकर जल्दी से तैयार हो जाइये क्योंकि हमें अपनी ड्यूटी पर निकलना है।"
"इतनी सुबह? कम से कम सूरज चाचू को तो जागने दो।"
"जब तक हम रिसॉर्ट से निकलेंगे वो भी जाग जायेंगे। बस आप ठीक बीस मिनट बाद बजे मुझे मिलिये।"
"ठीक है, आता हूँ मैं।" राघव ने जम्हाई लेते हुए कहा और फिर फ़ोन रखकर अपना आलस भगाने के उद्देश्य से वो सीधे वाशरूम में चला गया।
जब राघव तैयार होकर अपने कमरे से बाहर निकला तब तक जानकी भी तैयार होकर आ चुकी थी।
उन दोनों के रिसेप्शन पर पहुँचने के बाद वहाँ मौजूद रिसेप्शनिस्ट ने जब जानकी की तरफ दो चाभियां बढ़ायीं तब राघव ने हैरान होकर जानकी से पूछा कि ये कैसी चाभियां हैं?
"ये उन दोनों साइकिल के लॉक्स की चाभियां हैं जिनसे अभी हम लुंबिनी की सैर पर निकलने वाले हैं।" जानकी ने राघव को अपने पीछे आने का संकेत करते हुए कहा तो राघव एक बार फिर हैरत से अपने कंधे उचकाता हुआ उसके साथ चल पड़ा।
रिसॉर्ट के प्रवेश द्वार के पास जहाँ पार्किंग स्पेस बना हुआ था वहीं खड़ी दो साइकिल्स की तरफ संकेत करते हुए रिसॉर्ट के गार्ड ने जानकी से कहा कि वो और राघव इन्हें ले जा सकते हैं।
"वैसे बॉस, आपको साइकिल चलानी तो आती है न?" जानकी ने एक चाभी राघव की तरफ बढ़ाते हुए पूछा तो उसे लेते हुए राघव ने कहा, "बहुत अच्छी तरह आती है। बचपन में मैं खूब रेस लगाया करता था और हमेशा जीतता था।"
"बढ़िया है। तो अब हम यहाँ से साइकिल की सवारी करते हुए माया देवी मंदिर जा रहे हैं जो अब बस खुलने ही वाला है।" जानकी अपनी साइकिल की सीट पर बैठते हुए बोली तो राघव ने भी अपनी साइकिल की कमान सँभाल ली।
सुबह के शांत वातावरण में जानकी के साथ साइकिल की इस सवारी ने राघव को रोमांच से भर दिया था।
मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट का सफ़र तय करके राघव और जानकी लुंबिनी के सबसे पवित्र स्थल माया देवी मंदिर पहुँच चुके थे।
मंदिर, जिसके द्वार बस अभी-अभी आगंतुकों के लिए खुले थे उसके अंदर राघव के साथ प्रवेश करते हुए जानकी ने कहा, "यही वो पवित्र स्थान है जहाँ महारानी माया देवी ने भगवान बुद्ध को जन्म दिया था।"
"सचमुच कितनी पवित्र है ये जगह, तभी देखो यहाँ कितनी शांति महसूस हो रही है।" राघव ने अपनी आँखें बंद करके ताज़ी हवा में गहरी साँस लेते हुए कहा तो जानकी बोली, "बॉस, आँखें खोलिये क्योंकि अभी हमें यहाँ बहुत कुछ देखना है और अपने नोट्स बनाने हैं।"
हामी भरते हुए राघव जानकी के साथ मंदिर परिसर में भ्रमण करने चल पड़ा।
इस मंदिर में उन्होंने सबसे पहले भगवान बुद्ध के जन्म के प्रतीक के रूप में स्थापित 'जन्म स्मारक शिला पत्थर' देखा।
यहीं पास में लगभग 249 ईसा पूर्व मौर्य वंश के महान शासक अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तंभ भी उन्होंने देखा जो इस बात की ऐतिहासिक रूप से पुष्टि करता है कि भगवान बुद्ध का जन्म इसी स्थान पर हुआ था।
मुख्य माया मंदिर जो बाहर से सफेद रंग की इमारत नज़र आ रही थी उसके अंदर दर्शन करने और भगवान बुद्ध के जीवन से साक्षात्कार करते हुए जानकी और राघव पूर्व की ओर चल पड़े जहाँ पवित्र पुष्करिणी तालाब स्थित था।
ऐसी मान्यता है कि महारानी माया देवी ने भगवान बुद्ध को जन्म देने से पूर्व इसी तालाब में पवित्र स्नान की विधि पूरी की थी।
इस तालाब के आस-पास बने हुए पवित्र उद्यान में एक विशाल पुरातन बोधि वृक्ष भी उपस्थित था जो भगवान बुद्ध के बोधिसत्व का प्रतीक बनकर चिरकाल से यहाँ खड़ा था।
इस वृक्ष पर लोगों की अधूरी इच्छाओं के प्रतीक स्वरूप अनेकों रंग-बिरंगे झंडे बँधे हुए थे।
राघव ने भी दो झंडे लेकर उनमें से एक जानकी की तरफ बढ़ाया तो जानकी ने उसे माथे से लगाकर अपने पर्स में डालते हुए कहा, "सॉरी राघव पर मैं इस वृक्ष पर कुछ नहीं बाँधूँगी।"
"क्यों? आम तौर पर हम भारतीयों को ऐसा करना पसंद होता है, है न।"
"हाँ लेकिन मेरी सोच कुछ अलग है। देखो न इस पेड़ को, न जाने कितने असंतुष्ट लोगों ने अपनी अधूरी आकांक्षाओं का बोझ इसकी नाजुक़ टहनियों पर लाद दिया है।
अब मैं भी इसका बोझ क्यों बढ़ाऊँ?
वैसे भी मुझे अपने ईश्वर पर पूर्ण विश्वास है। अगर मेरी निष्ठा सच्ची होगी, मेरी पात्रता उचित होगी तो वो मुझे मेरा मनचाहा अभीष्ट ज़रूर प्रदान करेंगे।"
जानकी की इन बातों ने राघव के मन पर बहुत गहराई से असर किया और उसने भी झंडा वृक्ष पर बाँधने की जगह उसे लुंबिनी की इस यात्रा के स्मृति-स्वरूप अपनी जेब में रख लिया।
इस परिसर से बाहर निकलने के बाद राघव और जानकी मायादेवी मंदिर के पीछे पहुँचे जहां 1.6 किलोमीटर क्षेत्र में बीच में एक नहर बना कर उसके दोनों किनारों पर अलग-अलग देशों ने खूबसूरत मठों का निर्माण करवाया है।
बारी-बारी से इन मठों में घूमते हुए राघव और जानकी ने देखा कि नहर के पूर्व वाले क्षेत्र में श्रीलंका, कम्बोडिया, थाईलैंड, जापान, म्यांमार, भारत, और नेपाल द्वारा बनवाए गये खूबसूरत मठ थे।
जानकी ने राघव को बताया कि यहाँ स्थित जापानी मठ 21वीं सदी का आरंभिक स्मारक है जिसे विश्व शांति पगोडा या जापान शांति स्तूप के नाम से भी जाना जाता है।
राघव ने पाया कि जापानी बौद्धों द्वारा निर्मित स्तूप संरचना पारंपरिक पगोडा शैली की वास्तुकला के साथ यह स्थान अत्यंत आकर्षक लग रहा था।
यहाँ स्थित शानदार स्तूप सफेद रंग का था जहाँ एक विशाल सुनहरी बुद्ध प्रतिमा राघव और जानकी दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींच रही थी।
यहाँ से जब वो आगे बढ़े तब उन्हें सबसे मनोरम इमारतों में से एक रॉयल थाई मठ लगा, जिसे थाईलैंड के महान वाट्स से प्रेरित चमकदार सफेद संगमरमर से बनाया गया है।
इसके बाद म्यांमार के स्वर्ण मंदिर को देखकर उनकी आँखें फैली रह गयीं जो दिखने में यांगून के प्रसिद्ध श्वेदागोन पैगोडा जैसा दिखता है।
इसी तरह आगे बढ़ते हुए उन्होंने पाया कि श्रीलंकाई मठ पानी से घिरा हुआ था और कई स्तरों पर फैला हुआ था।
भारत का महाबोधि सोसायटी मंदिर उन्हें कुछ छोटा लगा लेकिन इसमें भगवान बुद्ध की कहानी को दर्शाने वाली कई आकर्षक छवियों ने उनका मन मोह लिया।
सबसे आख़िर में राघव और जानकी कंबोडिया मठ पहुँचे।
यहाँ घूमते हुए उन्होंने पाया कि इस जगह की वास्तुकला कंबोडिया में अंगकोरवाट जो विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर कहा जाता है उसके जैसी है।
इस संरचना के भीतर उन्हें कई रंगों में ड्रैगन, साँपों और फूलों की सुंदर नक्काशी देखने के लिए मिली।
इस मंदिर के अंदर जो हरे रंग के साँपों की नक्काशी की गयी थी उसे तो वो दाँतों तले ऊँगली दबाकर बस देखते रह गये।
इन साँपों की लंबाई पचास मीटर से ज़्यादा ही मालूम हो रही थी।
कंबोडियन बौद्ध धर्म की इस झलक को देखने के बाद राघव और जानकी नहर के पश्चिमी भाग में जर्मनी, चीन, कोरिया, वियतनाम और सिंगापुर द्वारा बनाये गये मठों को देखने चल पड़े।
बारी-बारी से सभी मठों को देखते हुए उन्होंने पाया कि दक्षिण कोरिया का 'डे सुंग शाक्य मठ' लुंबिनी के सबसे ऊँचे मठों में से एक था।
यहाँ उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षक 'ग्रेट लोटस स्तूप' लगा, जो जर्मनी द्वारा प्रायोजित है। इसमें मौजूद रंग-बिरंगी सजावट वाला आकर्षक बड़ा बगीचा उन्हें प्रकृति के सान्निध्य में असीम शांति का अहसास दे रहा था।
जानकी के इतिहास के ज्ञान का लाभ उठाते हुए राघव बहुत ही बारीकी से हर एक देश से संबंधित मठ को देखकर उस देश की भवन निर्माण कला का दर्शन करते हुए अनुभव कर रहा था कि हर एक मठ जैसे उसे अलग-अलग देश की कभी न भूलने वाली रोमांचक यात्रा पर ले गया था।
इस यात्रा के समाप्त होने के बाद अब राघव के ज़हन में अपने गेम की रूपरेखा स्पष्ट होने लगी जिसे वो जानकी से डिस्कस करता जा रहा था और उस आधार पर जानकी भी उसे अपने सुझाव देती जा रही थी जिन्हें राघव अच्छी तरह अपने ज़हन में बिठाता जा रहा था।
इस नहर के दक्षिणी छोर पर लुंबिनी की शाश्वत शांति ज्वाला अर्थात इटरनल फ्लेम ने अन्य पर्यटकों की तरह राघव और जानकी को भी अपनी तरफ सहज ही आकर्षित कर लिया।
जानकी ने राघव को बताया कि यह ज्वाला दुनिया में शांति और सद्भाव पैदा करने के स्थायी प्रयास का प्रतीक है जिसे 1986 में, अंतर्राष्ट्रीय शांति वर्ष के उपलक्ष्य में बनाया गया था।
बातचीत के दौरान सहसा नहर में चल रहे बोट्स को देखकर जब जानकी ने भी बोटिंग करने की इच्छा जतायी तब अपनी साइकिल किनारे खड़ा करके राघव तुरंत अपने और जानकी के लिए बोटिंग की टिकट ले आया।
बोटिंग के दौरान राघव को जम्हाई लेते हुए देखकर यकायक जानकी ने नहर के पानी में हाथ डालते हुए उसके कुछ छींटें राघव के चेहरे पर उड़ाये।
उसकी इस हरकत पर अचंभित राघव पहले तो समझ नहीं पाया कि वो क्या कहे, फिर उसने भी अपनी हथेली में पानी भरकर उससे जानकी का चेहरा भीगा दिया तो जानकी खिलखिलाते हुए बोली, "तुम्हें हर बात का बदला लेने की आदत है न।"
"और क्या, मैं हिसाब बराबर-बराबर रखने में विश्वास करता हूँ।" राघव ने भी खुलकर हँसते हुए उत्तर दिया तो जानकी आगे की योजना बनाते हुए बोली, "चलो अब रिसॉर्ट वापस चलकर हम नाश्ता कर लेते हैं। फिर हम म्यूजियम और सारस अभ्यारण्य घूमने चलेंगे।"
"ठीक है। चलो फिर रेस लगाते हुए रिसॉर्ट तक चलते हैं।" राघव अपनी साइकिल पर बैठते हुए बोला तो जानकी ने भी मजबूती से अपनी साइकिल थाम ली।
इस रेस में कभी जानकी आगे हो रही थी तो कभी राघव।
फिलहाल ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि विजेता कौन होगा।
जब रिसॉर्ट नज़दीक आने लगा तब ऐसा महसूस हुआ जैसे राघव ही इस रेस को जीतने जा रहा है लेकिन तभी पलक झपकते ही जानकी उल्लास से चीख़ती हुई उससे आगे निकलकर रिसॉर्ट के अंदर प्रवेश कर गयी।
पार्किंग एरिया में अपनी साइकिल लगाते हुए उसने हार जाने के बाद अपसेट से नज़र आ रहे राघव की तरफ देखते हुए कहा, "देखा मैंने तुम्हें एक बार फिर हरा दिया खरगोश मेरे।"
"क्या कहा तुमने फिर से कहो।" राघव चौंकते हुए बोला तो अपनी भूल का अहसास करके जानकी बोली, "अरे वो कछुए और खरगोश वाली कहानी याद आ गयी थी बस।"
"अच्छा...।" राघव ने धीमे स्वर में कहा और एक बार फिर अपनी वैदेही के लिए उसकी बेचैनी बढ़ने लगी जो बचपन में अक्सर उसे रेस में हराने के बाद ख़ुद को कछुआ और राघव को खरगोश घोषित करते हुए पूरे आश्रम को अपनी जीत के किस्से चटखारे लेकर सुनाया करती थी और राघव बस चिढ़कर रह जाता था।
क्रमशः