फागुन के मौसम - भाग 28 शिखा श्रीवास्तव द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फागुन के मौसम - भाग 28

रिसॉर्ट के रेस्टोरेंट में जब राघव और जानकी ने अपना नाश्ता खत्म कर लिया तब राघव ने कहा, "तो अब हमें कब निकलना है?"

"अभी नहीं, एक घंटे बाद। फ़िलहाल तुम मेरे साथ कमरे में चलो और अपना लैपटॉप मुझे दो।" जानकी ने कुर्सी से उठते हुए कहा तो राघव भी उसके साथ चल पड़ा।

कमरे में आने के बाद जब राघव ने अपना लैपटॉप जानकी को दिया तब उसने कहा, "मैं यहीं बैठकर काम करूँ या फिर अगर तुम्हें प्राइवेसी चाहिए तो मैं अपने कमरे में भी जा सकती हूँ।"

"नहीं, प्राइवेसी की क्या बात है? ये कोई पर्सनल ट्रिप तो है नहीं।" राघव ने जानकी को बैठने का संकेत करते हुए कहा और ख़ुद भी बिस्तर के एक किनारे बैठ गया।

लुंबिनी की अब तक की यात्रा के दौरान राघव ने अपने प्रोजेक्ट के लिए जो भी जानकी से डिस्कस किया था और इसके अलावा जानकी की अपनी भी जो कल्पना इस नये गेम को लेकर थी उससे संबंधित सारे बिंदु वो बड़ी ही बारीकी से एक वर्ड-फ़ाइल में सहेजती जा रही थी।

इस दौरान राघव भी उसे अपने कुछ और पॉइंट्स बताता जा रहा था जिन्हें ध्यान से सुनते हुए जानकी इस फ़ाइल में नोट कर रही थी।

लगभग डेढ़ घंटे तक जानकी पूरी तल्लीनता से काम करती रही और राघव मन ही मन तारा के चयन का मुरीद होकर अपने मन को जानकी की तरफ खींचता हुआ सा महसूस करता रहा।

फाइनली जब जानकी ने लैपटॉप बंद किया तब राघव ने कहा, "वैसे जानकी एक बात बताओ, क्या तुम हमेशा ऐसे ही एक्सप्रेस ट्रेन पर सवार होकर इतनी ही हड़बड़ी में रहती हो?"

"क्या मतलब, मैं समझी नहीं?"

"अरे मतलब ये फ़ाइल तो तुम बाद में भी आराम से बना सकती थी न।"

"दरअसल बात ऐसी है राघव कि मुझे हर काम में परफेक्शन की आदत है और मार्क के अनुसार ये मेरी आदत नहीं एक बुरी लत या शायद मानसिक बीमारी है।

ख़ैर तो अब मुझे लगा कि मैं यहाँ जिस काम के लिए आयी हूँ वो मुझे परफेक्ट तरीके से करना चाहिए ताकि किसी भी गलती के कारण मुझे इस नयी-नयी नौकरी से हाथ न धोना पड़े।

अब अगर मैं फ़ाइल बनाने के लिए इंतज़ार करती तो हो सकता है मेरे दिमाग से कुछ बातें निकल जातीं, आख़िर मैं इंसान हूँ रोबोट या कंप्यूटर तो नहीं जो अपने अंदर सारा डाटा लॉन्ग टाइम तक बिना किसी एरर के सहेजे रखे।"

"डोंट वरी तुम अपना काम इतनी अच्छी तरह से कर रही हो कि ये नौकरी तुमसे कोई नहीं छीनने वाला है, और मार्क से कह देना कि वो आइंदा से तुम्हें मेंटल पेशेंट न कहा करे। मुझे ये बिल्कुल पसंद नहीं है।"

राघव को यकायक गंभीर देखकर जानकी का मन हुआ कि बचपन की तरह वो उसके गाल पर चिकोटी काटते हुए कहे कि तुम्हें अब भी पसंद नहीं है न राघव कि तुम्हारे सामने कोई गलती से भी मेरा मज़ाक उड़ाये लेकिन फिर अपने मनोभावों को जतन से छिपाते हुए उसने कहा, "तो बॉस, अब आगे की यात्रा पर चला जाये?"

"बिल्कुल, चलो।" राघव ने लैपटॉप को वापस बैग में रखा और फिर गाड़ी की चाभी उठाते हुए उसने कहा, "सुनो जानकी, अब धूप हो चुकी है तो साइकिल की सवारी हम शाम में करेंगे।"

"हाँ ठीक है, नो प्रॉब्लम।" जानकी ने कमरे से बाहर निकलते हुए कहा तो राघव भी तेज़ी से दरवाजा लॉक करके उसके कदमों से अपने कदम मिलाने चल पड़ा।

थोड़ी दूर तक जाने के बाद उन्हें पता चला कि अब वो अपनी निजी गाड़ी आगे नहीं ले जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने कार को वहीं पर पर्यटकों के लिए बनाये गये पार्किंग एरिया में पार्क किया और फिर लुंबिनी म्यूजियम जाने के लिए जब वो दोनों स्थानीय रिक्शे पर बैठे तब जानकी के स्पर्श ने एक बार फिर राघव को न तो असहज किया और न ही उसे इस सान्निध्य में अपरिचय की ही अनुभूति आयी।

"शायद हम एक-दूसरे को थोड़ा-बहुत जान चुके हैं, दोस्त बन चुके हैं इसलिए मुझे ऐसा लग रहा है।" राघव ने मन ही मन ख़ुद को समझाया और फिर उसने बाहर नज़र आ रहे लुंबिनी के सौंदर्य पर अपनी दृष्टि जमा ली।

जब वो दोनों म्यूजियम का प्रवेश टिकट लेकर अंदर पहुँचे तब जानकी ने राघव को बताया कि इस म्यूजियम को 1970 में 'क्रिस याओ' नाम के एक ताइवानी वास्तुकार ने बनाया था।
जानकी ने ये भी बताया कि इसी वजह से संग्रहालय की वास्तुकला में ताइवान का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है।

म्यूजियम में घूमते हुए उन्होंने पाया कि यहाँ लगभग बारह हज़ार कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया था।
साथ ही यहाँ पर ज़्यादातर कलाकृतियां कुषाण और मौर्य राजवंशों की थीं जो विश्व स्तर पर बौद्ध धर्म के बड़े प्रचारक माने जाते हैं।

प्राचीन सिक्के, पांडुलिपियां, टिकटें और टेराकोटा मूर्तियां देखते हुए जानकी से इन सबके पीछे की रोचक कहानियां सुनना राघव के लिए बहुत अनोखा अनुभव था।

म्यूजियम से निकलने के बाद अब वो दोनों लुंबिनी के प्रसिद्ध सारस अभ्यारण्य की तरफ बढ़ चले।

इस अभ्यारण्य की खूबसूरती ने राघव और जानकी का मन मोहने में एक पल की भी देर नहीं की।

जानकी ने राघव को बताया कि किंवदंती के अनुसार, सारस पक्षी और बुद्ध के बीच प्रेम का परस्पर संबंध है, इसलिए लुंबिनी और दुनिया के अन्य हिस्सों में सारस पक्षी जिसका शरीर भूरे और लाल सिर के साथ अत्यंत सुंदर लगता है, साथ ही जो दुनिया के सबसे ऊँचे उड़ने वाले पक्षियों में से एक है, उसका बहुत सम्मान किया जाता है।

"तुम्हें पता है राघव इस पक्षी में एक बहुत ही अनोखा गुण है जिसके कारण ये मेरे सबसे पसंदीदा पक्षियों में से एक है।"

जानकी ने सारस के एक जोड़े को प्रेम से निहारते हुए कहा तो राघव ने भी उसकी नज़र का अनुसरण करते हुए पूछा, "कौन सा गुण?"

"बस यही कि ये हमेशा जोड़े में रहते हैं और कभी भी अपने साथी से एक पल के लिए भी अलग नहीं होते हैं।
इसलिए इस पक्षी को शुद्ध विश्वास और समर्पण का प्रेम चिन्ह माना जाता है।"

"वाह! आज तो तुमने मुझे एक बहुत ही अनोखी बात बतायी है। इसलिए आज से ये पक्षी अब मेरे भी पसंदीदा हो गये।" राघव ने मुस्कुराते हुए कहा तो जानकी भी मुस्कुरा दी।

अभ्यारण्य से उन दोनों के बाहर निकलते-निकलते लंच का समय हो चुका था, इसलिए वो दोनों वापस अपने रिसॉर्ट की तरफ चल पड़े।

लंच के दौरान राघव ने जानकी से पूछा कि अब आगे वो दोनों क्या करने वाले हैं?

"मेरे ख़्याल से हम थोड़ी देर आराम करते हैं और फिर आज ही कपिलवस्तु चलते हैं।
आज रात तक हमारा काम खत्म हो जायेगा तो कल सुबह हम वापस बनारस के लिए निकल सकते हैं।"

जानकी ने सुझाव दिया तो यकायक राघव के मुँह से निकला, "इतनी जल्दी क्या है?"

"क्या कहा तुमने?" जानकी ने चौंकते हुए पूछा तो राघव बोला, "कुछ नहीं, मैं बस ये कह रहा था कि रात में लौटते हुए हमें याद से कुछ शॉपिंग भी करनी है। इस यात्रा का कोई स्मृति चिन्ह अगर मैंने दफ़्तर में सबको, ख़ासकर तारा को नहीं दिया तो वो सबके साथ मिलकर मेरा सिर खा जायेगी।"

"हाँ डोंट वरी, अभी हमारे पास काफ़ी समय है। रात में वापस आने के बाद मैं बाकी के नोट्स भी तुम्हारे लैपटॉप में सेव कर दूँगी।"

"ओहो बेकार में जागकर तुम्हें ओवरटाइम करने की ज़रूरत नहीं है जानकी क्योंकि मैं अपने एम्पलॉयीज़ को ओवरटाइम के पैसे नहीं देता हूँ।
इसलिए कल तो नहीं, परसों हमारे केबिन में बैठकर भी तुम आराम से अपना काम कर सकती हो।"

"हमारा केबिन...।" जानकी ने मन ही मन न जाने कितनी बार राघव के कहे हुए इस शब्द को दोहराया और फिर उसकी ओवरटाइम वाली बात पर हँसते हुए वो उसके साथ अपने कमरे की ओर चल पड़ी।
***********
वैदेही गेमिंग वर्ल्ड के दफ़्तर में अभी लंच ब्रेक का समय चल रहा था।
तारा अपने सभी सहकर्मियों के साथ बैठकर खाना खाने के दौरान बातचीत में व्यस्त नज़र आ रही थी।

अपने डब्बे से पराठे का एक कौर तोड़ते हुए राहुल ने कहा, "क्या लगता है वहाँ लुंबिनी में क्या हो रहा होगा? कहीं बॉस और जानकी के बीच में कोई खटपट तो नहीं हो गयी होगी?"

"मुझे नहीं लगता ऐसा कुछ हुआ होगा वर्ना अब तक बॉस तारा मैम को फ़ोन कर चुके होते।" हर्षित ने अपना अनुमान लगाया तो मंजीत और विकास ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलायी।

"डोंट वरी, मुझे भी नहीं लगता कि हमें चिंता करने की कोई ज़रूरत है।" तारा ने भी अपना खाना खत्म करते हुए कहा तो सबके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गयी।

"वैसे जब एक दिन बॉस को हम सबकी मिलीभगत का पता चलेगा तब ऐसा न हो कि वो हम सबकी ऐसी क्लास लगायें कि हमारी ये मुस्कुराहट हवा में कपूर की तरह उड़ जाये।" मिश्रा जी ने अपने हाथों से कपूर के उड़ने का अभिनय करते हुए कहा तो तारा बोली, "प्लीज़ मिश्रा जी, हमें डराइये मत। वैसे ऐसा कुछ भी नहीं होगा। मुझे राघव पर पूरा विश्वास है।"

बाकी लोग भी उसके विश्वास पर विश्वास जताते हुए अब उठकर अपनी-अपनी कुर्सी की तरफ चल पड़े।
क्रमश: