फागुन के मौसम - भाग 10 शिखा श्रीवास्तव द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फागुन के मौसम - भाग 10

"मेरा राघव तीन वर्ष का था जब उसके पिता नहीं रहे। वो अपने पिता का बहुत दुलारा था, इसलिए अचानक उनके बिछड़ जाने से नन्हे से राघव के हृदय को बहुत आघात पहुँचा था।
उसका हँसना-मुस्कुराना, खेलना-कूदना, बाल सुलभ चंचलता सब मानों कहीं खो गया था।

फिर जब मुझे अपराजिता निकेतन में नौकरी मिली तब राघव भी वहाँ मेरे साथ जाने लगा।
दिव्या दीदी ने उसे आश्रम परिसर में ही बने हुए छोटे बच्चों के विद्यालय में दाखिला दिलवा दिया और राघव की पढ़ाई-लिखाई शुरू हो गयी।

इसके करीब छः महीने बाद वैदेही की माँ अपने पति के द्वारा दुत्कारे जाने के बाद अपराजिता निकेतन में रहने आयी।
तब वैदेही की उम्र भी तीन वर्ष के आस-पास ही थी।
वो बच्ची भी नन्ही सी उम्र में पिता द्वारा मिले हुए भावनात्मक आघात के बाद गुमसुम सी रहती थी।

राघव और वैदेही के मन का ये दर्द धीरे-धीरे उन्हें एक-दूसरे के करीब ले आया और उनके बीच में दोस्ती हो गयी।

इस दोस्ती ने दोनों बच्चों के शुष्क और रूखे जीवन में मानों अमृत की फुहारों का काम किया और अब वो भी सामान्य बच्चों की तरह हँसने-खिलखिलाने और एक-दूसरे के साथ जी भरकर शरारतें करने लगें।

वैदेही को छुटपन से ही नृत्य का बहुत शौक था।
वो जब भी संगीत सुनती थी उसके कदम अपने आप थिरकने लगते थे।

कभी-कभी तो राघव अपनी नन्ही सी बाँसुरी पर कोई धुन छेड़ता था और वैदेही उस धुन पर डूबकर नृत्य करती थी।

वैदेही अब दस वर्ष की हो चुकी थी। नृत्य में उसकी योग्यता को पहचानते हुए एक दिन दिव्या दीदी ने उसकी माँ से कहा कि वो वैदेही को नृत्य की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दिलवाना चाहती हैं जो वैदेही के उज्ज्वल भविष्य में उसका सहायक सिद्ध होगा।

वैदेही की माँ को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। उस बेचारी के जीवन का एक ही लक्ष्य था कि वैदेही जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ी हो जाये और अपने ख़ुद के घर में एक सम्मानित जीवन बिताये।

सब कुछ सही चल रहा था कि एक दिन पता चला वैदेही की माँ के पेट में कैंसर अपना घर बना रहा है।

दिव्या दीदी ने अपनी तरफ से उसके इलाज में कोई कमी नहीं रखी लेकिन चार महीने में ही वैदेही की माँ उसे दिव्या दीदी की गोद में सौंपकर इस दुनिया से चली गयी।

दिव्या दीदी के साथ मैंने और राघव ने मिलकर किसी तरह वैदेही को सँभाला और उसे भरोसा दिलाया कि वो इस दुनिया में अकेली नहीं है।

राघव का साथ वैदेही के ज़ख्मों पर जैसे मरहम का काम करता था।

फिर एक दिन वैदेही जिस डांस स्कूल में नृत्य सीखने जाती थी वहीं की एक शिक्षिका उससे मिलने आयीं और उसने दिव्या दीदी से मिलकर उनसे आग्रह किया कि वो वैदेही को गोद लेना चाहती हैं।

उनके साथ वैदेही का भविष्य सुखद और सुरक्षित होगा इस ख़्याल से दिव्या दीदी ने हाँ कर दी।

वैदेही राघव को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं थी लेकिन दिव्या दीदी ने उसे किसी तरह बहला-फुसलाकर समझाया कि इसी में उसकी भलाई है।
बड़ी होकर जब वो कुछ बन जायेगी तब उसके राघव को बहुत ख़ुशी होगी।

ये सुनकर वैदेही ने उस महिला के साथ जाने के लिए हामी भर दी।

जब उसने राघव को अपने जाने के विषय में बताया तब राघव इतने तनाव में आ गया कि उस समय मैंने और दिव्या दीदी ने फिर बड़ी मुश्किल से उसे समझाया कि वैदेही बस उसे सताने के लिए मज़ाक कर रही थी।
तब जाकर राघव शांत और सामान्य हुआ।

वैदेही के एडॉप्शन की प्रक्रिया पूरी होते-होते होली का त्योहार आ चुका था और इसी दिन वैदेही को अपनी नयी माँ के साथ जाना था।

वैदेही ने उनसे और दिव्या दीदी से इस बात की इज़ाज़त ले ली थी कि वो राघव के साथ होली खेलने के बाद ही आश्रम से जायेगी क्योंकि होली उन दोनों का पसंदीदा त्योहार था।

वैदेही को पीला गुलाल सबसे ज़्यादा पसंद हुआ करता था लेकिन संयोग वश उस वर्ष दिव्या दीदी पीला गुलाल मँगवाना भूल गयी थीं।
ये देखकर जब वैदेही उदास हो गयी तब राघव ने उससे कहा कि वो बस थोड़ी देर रुके, वो उसके लिए पीला गुलाल लाने जा रहा है।

जब तक राघव वैदेही के लिए गुलाल लेकर लौटा तब तक वैदेही अपनी नयी माँ के साथ जा चुकी थी।
उसकी नयी माँ उसे अपने साथ विदेश लेकर जाने वाली थी, इसलिए अगर वो कुछ देर और रुकती तो उनकी फ्लाइट छूट जाती।

राघव को जब वैदेही के जाने के विषय में पता चला तब उसका मासूम दिल टूट गया।

वैदेही के लिए लाया हुआ गुलाल उसने चुपचाप अपने बैग में रख दिया और एक कोने में गुमसुम सा बैठ गया।

मैंने, दिव्या दीदी ने, और आश्रम के दूसरे बच्चों ने उसके साथ होली खेलने की, उसे ख़ुश करने की बहुत कोशिश की लेकिन हम सब नाकाम रहे।

वो दिन और आज का दिन मेरे राघव के जीवन में फिर कभी होली के रंगों ने दस्तक नहीं दी।

मुझे और दिव्या दीदी को लगता था कि जैसे-जैसे राघव बड़ा होगा वो वैदेही को भूल जायेगा लेकिन...।"

नंदिनी जी की बात पूरी करते हुए तारा ने भीगी हुई आँखों से कहा, "लेकिन राघव ने अपने गेमिंग वर्ल्ड को, अपने सपने को वैदेही का नाम देकर आप सबको गलत सिद्ध कर दिया। है न चाची।"

हामी भरते हुए जब नंदिनी जी भी सिसक उठीं, तब उनके आँसू पोंछते हुए तारा ने कहा, "चाची, क्या आपके या मौसी के पास वैदेही की नयी माँ का नाम-पता कुछ है?"

"मेरे पास तो नहीं है बेटा लेकिन आश्रम के रिकॉर्ड्स में तो ज़रूर ही तुम्हें उसकी सारी जानकारी मिल जायेगी।"

"अच्छा, फिर मैं कल ही मौसी से मिलने जाऊँगी।"

"क्यों बेटा?"

"क्योंकि मुझे वैदेही को ढूँढ़ना है, हमारे राघव के लिए।"

"लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि जैसे राघव उसे नहीं भूला, वैसे ही वैदेही भी राघव को नहीं भूली होगी?"

"चाची, गारंटी तो इंसान के साँसों की भी नहीं है कि कब चल रही है और कब अचानक रुक जाये, फिर भी हम भविष्य की चिंता तो करते ही हैं न।
एक बार वैदेही से मिलने में क्या हर्ज है?
वैसे भी सच्ची मोहब्बत में इतनी कशिश होती है कि लोग सात समुंदर भी पार करके अपने प्रिय तक पहुँच ही जाते हैं।"

तारा की बात सुनकर नंदिनी जी के कमज़ोर पड़ चुके मन को भी संबल सा मिला और उन्होंने अपने हाथ जोड़ते हुए मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की कि उनके राघव को उसकी खोयी हुई ख़ुशियां जल्दी ही हमेशा के लिए वापस मिल जायें।

तारा और नंदिनी जी अब राघव के पास पहुँची तो उन्होंने देखा वो काफ़ी हद तक सामान्य हो चुका था।

तारा पर नज़र पड़ते ही राघव ने बुझी हुई आवाज़ में उससे कहा, "सॉरी यार तारा, मेरे कारण तेरी होली पार्टी बरबाद हो गयी।"

"चुप कर, ऐसी कोई बात नहीं है। बस अब तू अच्छी तरह आराम कर। मैं और यश फिर शाम में तुझसे मिलने आयेंगे और तब हम ढ़ेर सारी बातें करेंगे।"

"चल ठीक है। जा अच्छी तरह आज के दिन को एंजॉय कर, थोड़ा सा शरमाते हुए।" राघव ने तारा की खिंचाई करते हुए कहा तो यश और नंदिनी जी के साथ-साथ तारा भी हँस पड़ी।

तारा और यश जब अपनी गाड़ी में बैठे तब यश ने तारा से कहा, "तुम्हें चाची ने कुछ बताया ये वैदेही कौन है?"

"हाँ, सब कुछ बता दिया उन्होंने।"

तारा से राघव और वैदेही की सारी कहानी सुनने के बाद यश ने आह भरते हुए कहा, "अच्छा ही हुआ कि मैंने राघव से इस विषय में कोई बात नहीं की। पहले तो लगा कि मैं सीधे-सीधे उससे पूछ ही लूँ लेकिन फिर लगा कि तुम्हारे और चाची के वापस आने तक रुकना ही ठीक होगा।"

"हाँ, अच्छा किया तुमने जो राघव के आगे वैदेही का ज़िक्र नहीं किया वर्ना क्या पता वो फिर से पैनिक हो जाता और अपने आप को चोट पहुँचा बैठता।"

"हम्म... ठीक है फिर हम कल से वैदेही ढूँढ़ो अभियान शुरू करते हैं।"

"हाँ और फ़िलहाल हमारे परिवार वालों के पास चलते हैं, जो ये सोच रहे होंगे कि अभी बिना विधिवत एक-दूसरे से रिश्ता जुड़े ही हम उनकी नज़रों के सामने बेशर्मों की तरह हाथ में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं।"

"ऐसी कोई बात नहीं है तारा, डोंट वरी।" यश ने पार्किंग में गाड़ी लगाते हुए कहा तो अपने और यश के परिवार की तरफ कदम बढ़ाते हुए तारा के ऊपर एक बार फिर से घबराहट हावी होने लगी।
क्रमश: