सर्कस - 19 Madhavi Marathe द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सर्कस - 19

 

                                                                                               सर्कस:१९

 

       समय का पहिया घुम रहा था। मार्कोस के मृत्यु का सदमा अब धीरे-धीरे कम होने लगा, काल कभी किसी के लिए रुकता नही यही सही है, सबका दैनंदिन चक्र शुरू हो गया। मौत का कुवाँ के खेल कुछ दिन के लिए बंद कर दिए। मार्कोस के असिस्टंट तो थे आगे के  खेल के लिए, लेकिन उनको भी एक तरह का सदमा लगा था तो वह भी खेल करने के स्थिती में नही थे। ऐसे ही जब गप्पे लगाते बैठे थे तब जॉनभाई ने एक धक्कादायक बात बतायी। मार्कोस के मृत्यु के एक दिन पहले उसके भाई का फोन आया था। उसने बताया की मार्कोस की पत्नी ने कही से तो भी घर के नंबर पर फोन किया ओैर मार्कोस से बात करनी है तो उसका नंबर वह माँग रही थी। क्या किया जाय यह समझ ना आने के कारण भाई ने मार्कोस को फोन किया। यह बात सुनकर मार्कोस का पुराना घाव खुल गया। पत्नी अब घर आना चाहे तो, वह भी हो नही सकता ओैर जिसके लिए पूरी जिंदगी गम में बीता दी वह अब मिल भी गई तो भी समाज जीने नही देगा। वह जब अपनी दुःखभरी कहानी सुनाएगी तब उसके दुःख के लिए खुद जिम्मेवार हूँ यह बात हमेशा मन में चुभती रहेगी। दोनों तरफ के झंझावात में मार्कोस बेचारा फस गया। अपना ही गम मैं झेल नही पा रहा हूँ ओैर उसका गम कैसे बाटूंगा। इसी मानसिक बहाव में, उसे खुदकुशी के बिना कोई चारा नजर नही आया। यह सब सुनकर मैंने जॉनभाई से पुछा “ जॉनभाई, जीवन इतना कठीन है क्या?”

     “ नही श्रवण, सकारात्मक विचारों के साथ जीते है तो कितनी भी कठीन परिस्थिती रही तो भी मार्ग मिल ही जाते है। मार्कोस के साथ हुआ वह बहुत ही बुरा हुआ था लेकिन अगर अब पत्नी को भी वह थोडा सुख दे सकता था ओैर खुद भी भुतकाल के गम से पिछा छुडा सकता था, तो थोडा सब्र से काम क्युं नही लिया। समाज उसे नही अपनाएगा तो भी वह उसे यहाँ ले आता तो क्या फर्क पडता? यहाँ तो हर किसी की अलग कहानी है, कोई उसे दोष नही देता बल्की सँभाल लेता। खुद को दोषी मानकर जीने से अच्छा है किसी की मदद करे, सहारा बने, नैसर्गिक वातावरण में घुमे। अपना मन काम में लगाए। जीवन बहुत सुंदर है।” यह सुनकर जीवन के प्रति आनंद उत्पन्न हुआ, सुख-दुख तो आते-जाते रहेंगे। धीरज ओैर मैं एक एक अनोखी आशा से भर गए।

      कुछ दिन के बाद सर्कस का वातावरण देखकर अरुणसर को लगा की यहाँ अब किसी आनंद, चैतन्य की जरूरत है। लोग मार्कोस का हादसा भुल नही पा रहे है। तो चंपा ओैर चंदूभैय्या की शादी यही पर करने की उन्होने सोच ली। उन दोनों के परिवार को यही आने का नेवता दिया। सर्कस के इतने बडे परिवार को कुछ ओैर लोग शामिल हो गए तो फर्क नही पडता था, यह मात्रा लागू हो गई। मर्कोस का मृत्यु लोगों के मन से दुर हो गया। सब अपने तरिकेसे शादी की तैयारी में जुट गए। अरुणसर ने शादी के लिए पुरे सर्कस के परिवार को अपनी तरफ से कपडे लेने की भेंट दी। फिर हम चार लोग मिलकर दुल्हे की खरिदारी करने गए। चंदूभैय्या ने सफारी ली, जॉनभाई ने उसके लिए सोने की चेन ओैर चंपा के लिए नेकलेस लिया। गोदाक्का, जयंती के साथ चंपा बाजार गई ओैर शादी का जोडा, ज्वुलरी, मेकप का सामान लिया। गोदाक्काने चंदूभैय्या के लिए एक खास गिफ्ट ली। वह सर्कस के परिवार को अपना ही परिवार मानती थी तो उसने अपनी तरफ से चंपा को सोने के झुमके लिए ओैर चंदूभैय्या को अंगूठी ली। संथाळसर ने तो अपने बॅन्ड के साथ कमाल ही कर दी। वधु-वर के लिए एक नया बडा तंबू लेकर आ गए, ओैर एक कोने में उसे लगा दिया। अब चंपा ओैर चंदूभैय्या का खुद का आशियाना हो गया। उस तंबू को लेकर तो कितने हँसी-मजाक हुए उसकी तो गिनती ही नही थी। हर कोई अपने लिए ओैर नए जोडे के लिए बाजार जाकर कुछ ना कुछ सामान लेकर आते ओैर मजा उठाते दिख रहे थे। सर्कस एक दिन बंद रखनी मतलब बडा नुकसान उठाना पडता तो अरुणसर ने आखरी शो रद्द किया ओैर शाम की बेला में शादी का मुहूरत निकाला। बडासा मंडप डालकर, सबने मिलकर उसे अच्छेसे सजाया। शादी का दिन आया तो पुरे दिन जश्न चालू था। अपना-अपना खेल करने के बाद हर कोई शादी का मजा लूट रहा था।

      आखिर शाम हुई। सजे हुए वधु-वर मंडप में लाए गए। हम सब भी पुरे सज-धजकर बारात में शामिल हो गए। जोर-जोर से गाने बजने लगे। नाचते-नाचते बारात आगे बढने लगी। घोडी की जगह जॉनभाई के जीप में बैठा दुल्हा भी नाच रहा था। मंडप में फुलों का हार लिए चंपा खडी थी। फिर संथाळसर ने मंगलाष्टक गाए ओैर एक-दुसरे को माला पहनाते हुए शादी संपन्न हुई। चंदूभैय्या का सीधा-साधा सपना सच हो गया। चंदूभैय्या की माँ तो इतना तामजाम देखकर रोने ही लग गई, अपने लडके को कितने लोग प्यार करते है इस बात पर वह मन ही मन भगवान का आशिर्वाद मान रही थी। ससुराल जाते वक्त बहू रोती है लेकिन यहाँ सास ही रो रही है यह देखकर सब उन्हे चिढाने लगे। विधी, फेरे होने के बाद खाना शुरू हो गया। आज का खाना शरदचाचा ओैर जयंती की तरफ से था। मिठाईया, नमकिन, अलग-अलग व्यंजन से भरपुर आज की दावत थी, सबने जी भर के खाया। दुल्हा-दुल्हन देखकर मुझे राधा की याद आ रही थी। हमारे शादी के सपने आँखों के सामने दिख रहे थे। बडे आनंद में शादी का समापन हुआ ओैर नई जोडी को आठ दिन छुट्टी देकर रिश्तेदारों के साथ गाव भेज दिया। सर्कस का रुटीन फिरसे शुरू हो गया।

        कुछ दिनों बाद मेरा विभाग बदलनेवाला था तो अब जानवरों का अनुभव लेने का  मैंने सोचा, जानवरों से अब दोस्ती हो गई थी। वहाँ आनेवाले जानवरों के डॉक्टर से भी अब अच्छी जान-पहचान हो गई थी। जानवरों के ओैर आदमी के छोटे तकलिफों, बिमारी पर वही डॉक्टर इलाज करते थे लेकिन आदमी के बिमारी मी उनको कुछ अलग महसुस हुआ तो वह सीधा शहर के डॉक्टर के पास भेज देते।

      एक दिन मैने उनको पुछा “ यहाँ के जानवरों को कब बच्चे होंगे?”

      “ यहाँ जो जानवर होते है उनकी नसबंदी की जाती है। पेटसे जानवरों के खेल रोककर उनकी देखभाल करना मुश्किल है, हानिकारक है, ओैर बच्चे के मामले में जानवर बडे आक्रमक होते है, किसी को हानी भी पहुँचा सकते है। अब तो ऐसी धारणा आ रही है की सर्कस में प्राणियों को निसर्ग के बिना रहना पडता है यह क्रूरता है।” यह बात तो सच थी जिनका घर हरे-भरे वनों में है, उनको लोहे के पिंजरे में रहकर आकाश का छोटा तुकडा निहारना पडता है। यह क्रूरता ही थी।

      दिन ढलने लगे। चंदूभैय्या,चंपा काम पर आ गए। मुनी दादाजी अपनी तबियत की वजह से गाँव में ही रह गए थे, उनकी कमी सबको महसुस हो रही थी। डिसेंबर महिना अब चल रहा था, थंड के मारे हालत खराब होने लगी। ऐसे में राधा का खत आया की पाच डिसेंबर को विनीत के साथ वह भोपाल आ रही है। यह पढकर मैं तो हवाँ में ही उडने लगा। अरुणसर को भी यह बात बतायी तब वह भी खुश हो गए। मुनी दादाजी का तंबू उन दोनों के लिए लगाने का तय हो गया। इस वजह से प्रायव्हसी भी मिलेगी ओैर आराम से वह रह पाएँगे। बाजार जाकर मैने आवश्यक सामान लाकर रख दिया ओैर दिन गिनने लगा। कल तीन डिसेंबर, दो दिन में वह आनेवाले थे।

      सुबह-सुबह किसीकी खाँसने की आवाज आयी तो नींद खुल गई। बाजू में सोया धीरज ओैर एक-दो लोग खाँस रहे थे। मैं झटसे उठा ओैर उसे पानी दिया, छाती को मालिश करने लगा। हवाँ में कोई अलग तीव्र गंध महसुस हो रही थी। विचित्र भावना से उलटी करने को जी चाह रहा था। पानी लेकर मन्या के पास पहुँचा तो एकदम से उसका गला रुंध गया, श्वास लेने में तकलीफ होने लगी ओैर उसने आखरी सांस ली। मन्या मर गया, दुसरी तरफ बाकी लोग भी फडफडा रहे थे। बाहर से जोर-जोरसे चिल्लाने की, रोने की आवाजे आने लगी। प्रसंगावधान रखते हुए मैंने एक चादर नाक-गले से लिपट ली। सांस लेने की मात्रा कम की ओैर बाहर दौडा। जॉनभाई गाडी निकाल रहे थे, नाक पर मफलर लिपटकर उन्होने हेल्मेट पहना था। मुझे देखकर वही से चिल्लाए “ श्रवण, जितने लोगों को बाहर ला सकता है उतने लोगों को गाडी में डाल दे।” पास में जो भी जिता था उसको गाडी में डालने लगा। मेरी भी सांस फूल रही थी। अचानक याद आया धीरज वही पर पडा है। दौडते उसके पास गया, छाती पर हाथ रखकर देखा दिल की धडकन तो चल रही है ना? मंद गती से चलता सास महसुस होने पर उसे उठाया ओैर गाडी तरफ भागने लगा। गाडी फुल्ल हो चुकी थी। फिर भी जॉनभाई ने कुछ लोगों को सरकाकर हम दोनों को बिठाया। गाडी जोरसे हाकते, रास्ते से वह जाने लगे। कुछ ही देर बाद एक अनाकलनीय दृश्य सामने आया। लोग अपनी जान बचाते इधर-उधर दौड रहे थे। कोई दौडते-दौडते ही गिर जाते ओैर अपनी जान गवाँ बैठते। साडी, चादर, बुरखा किसी भी कपडे से अपना मुँह-नाक बंद रखने की कोशिश में सुरक्षित जगह का आसरा ढुंढ रहे थे। जॉनभाई को भी उलटी जैसा महसुस होने लगा। रास्ते से भागते लोगों में से गाडी चलाना मुश्किल होने लगा। कैसे तो भी एक हॉस्पिटल में पहुँच गए, वहाँ तो सेकडों की तादात में लोग चिल्ला रहे थे, रो रहे थे, मर रहे थे। डॉक्टर, स्टाफ, नर्स इनको समझ नही आ रहा था की किस-किस को संभाले? क्या दवाई दे? कोई तो डॉक्टर इलाज करते-करते खुद ही मर जाता था। चारपाई तो छोडो, जमिन पर ही लोग पडे हुए थे। हम जितने भी लोग गाडी में जिंदा थे उनको निकालने लगे। सामने से कोई मदद के लिए आ सकता है अब इसकी भी आशा नही थी। धीरे-धीरे जॉनभाई ओैर मैं,  दोनों की सांस फुलने लगी, शुद्ध हवा के लिए जी तरसने लगा। जिसकी सांस चल रही है उसे हॉस्पिटल के अंदर ले जाते वक्त हम कितनी बार गिर पडे। जितना कर सकते थे वह करने के बाद हमारा भी आवेश खत्म हो गया। जमिन पर गिर पडे तो उठने का भी बल नही था। सर्कस के बाकी लोगों को लाना तो अब मुश्किल ही था। नसीब के भरोसे छोड दिया। क्या हो रहा है, समझ में नही आ रहा था। अचानक विचित्र गंध के कारण मेरी छाती रुंध गई, उलटी की भावना से मुँह के उपर की चादर हटा दी तो ओैर भी तीव्र गंध ने मुझे घेर लिया। मैं तडफडाने लगा। दुर से किसी के शब्द, कोलाहल कानों में सुनाई देने लगे। माँ-पिताजी, विनीत-राधा, परिवार आँखों के सामने लहराते चले जाने लगे, ओैर मैं समझ गया यह मृत्यु है। उसके अंतरंग में, मैं अब समा रहा हूँ। वेदना की तीव्रता धीरे-धीरे कम होने लगी। शरीर से हवा की मात्रा कम होने लगी ओैर आँखों के सामने फैलता गया एक घना अंधेरा, गुढता का गहरा विवर, जिसके अंदर मैं तीव्र गती से खिंचता चला जा रहा था। फिर वह भी खत्म हो गया।

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