लागा चुनरी में दाग़--भाग(५७) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(५७)

प्रत्यन्चा वापस आकर रोई नहीं,अब कि बार उसने अपना मन पक्का कर लिया,वो भी अब धनुष को दिखा देना चाहती थी कि जैसे उन्हें उसकी परवाह नहीं है तो मुझे भी उनकी कोई परवाह नहीं, मैंने क्या दुनिया भर की परवाह करने का ठेका ले रखा है,सब अपने अपने मन की करते हैं तो मैं भी अपने मन की क्यों ना करूँ....
कुछ देर के बाद उसने नीचे आकर दोपहर का खाना बनाया और सबको खाना खिलाकर अपने कमरे में चली गई,धनुष खाना खाने नहीं आया था लेकिन प्रत्यन्चा आज उसे खाना खिलाने आउट हाउस नहीं गई,लेकिन उसने कड़ा मन करके खुद खाना खा लिया था,भागीरथ जी को लगा शायद प्रत्यन्चा धनुष से किसी बात पर नाराज़ है इसलिए शायद वो उसे खाना खिलाने आउट हाउस नहीं गई और धनुष भी उससे नाराज होने की वजह से खाना खाने यहाँ नहीं आया,इसलिए उन्होंने पुरातन के हाथों धनुष के लिए आउट हाउस में ही खाना भिजवा दिया,
जब पुरातन खाना लेकर आउटहाउस पहुँचा तो धनुष का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया,वो सोच रहा था कि उसके लिए प्रत्यन्चा खाना लेकर आऐगी,लेकिन वैसा नहीं हुआ जैसा वो सोच रहा था,तब उसने मन में सोचा कि प्रत्यन्चा कितनी निष्ठुर हो चुकी है मेरे प्रति,अब तो उसे मेरे खाने तक की परवाह नहीं और उसने गुस्से में आकर पुरातन से खाना वापस ले जाने को कहा और पुरातन खाना वापस लेकर आ भी गया, पुरातन को खाना वापस लेकर आते देख भागीरथ जी ने उससे से पूछा...
"धनुष ने खाना नहीं खाया क्या?"
"जी! नहीं! बड़े मालिक",पुरातन बोला...
तब भागीरथ जी पुरातन से बोले...
"जा! खाना! रसोईघर में ढ़ककर रख दे,तू प्रत्यन्चा थोड़े ही है जो उसे डाँट फटकार खाना खिलाकर ही दम लेता"
और फिर भागीरथ जी भी बेचारे क्या करते,धनुष किसी की सुनता हो तो उसे समझाने जाते,उन्हें पता था कि वो चाहे कितनी भी कोशिश कर लें,अगर धनुष का खाना खाने का मन नही है तो वो खाना नहीं खाऐगा, उसकी अकड़ को तो केवल प्रत्यन्चा ही तोड़ सकती है और फिर वे अपने कमरे में बिस्तर पर लेटकर अपने मन में सोचने लगे कि कितना अच्छा होता अगर प्रत्यन्चा की शादी डाक्टर सतीश से ना होकर धनुष से हो जाती और प्रत्यन्चा हमारी बहू बन जाती,लेकिन ये सोचना व्यर्थ है अगर धनुष के मन में प्रत्यन्चा के प्रति कुछ होता तो वो पता चल जाता,वो तो उसे केवल अपनी दोस्त मानता है,इसके अलावा कुछ भी नहीं और फिर प्रत्यन्चा ऐसे बिगड़े नवाबजादे से भला क्यों शादी करने लगी,वो धनुष के स्वाभाव से अच्छी तरह से वाकिफ़ है,शायद उसके मन में भी धनुष के प्रति कुछ भी नहीं है,यही सोचते सोचते उनकी आँख लग गई....
और इधर धनुष ने गुस्से के मारे खाना तो लौटा दिया था लेकिन वो भूख से बिलबिलाया जा रहा था,वो अब इतने दिनों से घर पर ही खाने लगा था इसलिए उसके आउटहाउस में भी खाने के लिए कुछ भी नहीं था,वो घर की रसोईघर से भी खाने के लिए कुछ नहीं ला सकता था,अगर दादाजी और प्रत्यन्चा ने उसे रसोईघर से कुछ लाते हुए देख लिया तो खाना लौटाने की वजह पूछेगें तो फिर वो उन्हें क्या जवाब देगा,, इसलिए यही सब सोचकर वो वहाँ नहीं गया,लेकिन अब बेचारा वो क्या करता भला,क्योंकि अब भूख उसकी बरदाश्त से बाहर हो रही थी,फिर वो कुछ सोचकर बगीचे की ओर बढ़ गया और वहाँ उसे अमरूद का पेड़ दिखा,वो वहांँ पहुँचा तो देखा कि अमरूद तो बिलकुल कच्चे थे,वो खाने लायक ही नहीं थे,इसलिए वो अब किचन गार्डन की ओर आया,वहाँ आकर उसने दो मूलियाँ उखाड़ीं और दो चार टमाटर तोड़े,फिर इतना सब लेकर वो आउटहाउस आ गया....
लेकिन उसे ये नहीं पता था कि जब वो ये सब कर रहा था तो प्रत्यन्चा उसे ये सब करते हुए अपने कमरे की खिड़की से देख रही थी,प्रत्यन्चा की खिड़की से बगीचा और किचन गार्डन दोनों ही दिखते थे और जब उसने ये देखा तो वो अपना मन मसोसकर रह गई,उसे पता चल गया कि धनुष बाबू को बहुत जोर की भूख लगी है,अगर वो उन्हें खाना खिलाने चली जाती तो शायद वे खाना खा लेते,लेकिन वो ऐसा कुछ ना करके चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर लेट गई फिर वो धनुष के बारें में सोचने लगी...
धनुष ने आउटहाउस आकर वो मूलियाँ और टमाटर धोएँ,इसके बाद वो उन्हें काटने लगा,लेकिन उसे ये सब काटने की आदत तो थी नहीं,इसलिए टमाटर काटने के चक्कर में वो अपनी उँगली काट बैठा,फिर घाव धोकर उसने उसमें एन्टीसेप्टिक क्रीम लगाकर जैसे तैसे रुमाल बाँध लिया,लेकिन ये सब करते वक्त उसकी आँखें नम हो गईं,उसने मन में सोचा कि उसकी परवाह करने वाला कोई नहीं है,प्रत्यन्चा उसकी परवाह करती थी लेकिन उसने भी मुझसे मुँह मोड़ लिया है और फिर उसने वो कटी हुई मूली और टमाटर खाकर अपना पेट भर लिया....
अब शाम हो चुकी थी,धनुष ने चाहकर भी शराब को हाथ नहीं लगाया था,क्योंकि वो अब दादाजी और अपने पापा का और दिल नहीं दुखाना चाहता था,उसने मन में सोचा चलो शाम हो गई है चाय का वक्त है, शायद घर जाकर कुछ खाने को मिल जाएँ इसलिए वो घर चला आया,वहाँ आकर उसने देखा तो दादाजी चाय पी रहे थे,उसे ये देखकर गुस्सा आ गया कि आज उसे चाय के लिए भी नहीं बुलाया गया,लेकिन फिर भी उसने अपने गुस्से पर काबू रखा क्योंकि उसे जोर की भूख जो लगी थी और फिर भागीरथ जी ने उसे देखते ही उससे कहा....
"चल आजा! चाय पी ले"
"लेकिन मुझे तो बहुत जोर की भूख लगी है,चाय के साथ कुछ खाने को भी चाहिए",धनुष मासूमियत से बोला...
धनुष के इतना कहते ही भागीरथ जी ने उससे कहा....
"प्रत्यन्चा तो तैयार होने चली गई है,डाक्टर सतीश की माँ के साथ वो खरीदारी के लिए जाने वाली है, विलसिया से बोल दे वो तेरे लिए कुछ बना देगी"
"रहने दीजिए! मुझे कुछ नहीं खाना!",धनुष गुस्सा होकर बोला...
"गुस्सा तो तेरी नाक पर धरा रहता है,सुबह से भूखा है ,कुछ बनवा ले ना विलसिया से"
"रहने दीजिए,मेरी यहाँ परवाह किसको है"?,धनुष बोला...
"ज्यादा फजूल की बातें मत कर,हमने पुरातन से खाना भिजवाया था,तूने खाया क्यों नहीं,लौटा क्यों दिया", भागीरथ जी ने पूछा...
"तब मेरा मन नहीं था खाने का",धनुष बोला...
"तो अब हम क्या करें,रह भूखा",भागीरथ जी बोले....
तभी प्रत्यन्चा तैयार होकर अपने कमरे से नीचे उतरी,उसने धनुष की दी हुई साड़ी और तेजपाल जी के दिए हुए गहने पहने थे,उसे देखते ही धनुष की आँखें चौंधिया गईं,लेकिन वो बोला कुछ नहीं और फिर जब प्रत्यन्चा नीचे उतरकर आई तो उसने भागीरथ जी से कहा....
"दादाजी! मैंने किसी को अपने कमरे की खिड़की से मूलियाँ उखाड़ते और टमाटर तोड़ते देखा था,कोई बहुत भूखा था बेचारा तो मुझे तरस आ गया उस बेचारे पर,इसलिए मैंने उस बेचारे के लिए पोहा बना दिया है, रसोईघर में रखा होगा,कह दीजिए कि विलसिया काकी से कहकर मँगवा लें रसोईघर से"
प्रत्यन्चा की बात सुनकर भागीरथ जी मुस्कुराएँ और उन्होंने विलसिया को बुलवाकर धनुष के लिए पोहा मँगवाया,पोहा खाकर और चाय पीकर धनुष की जान में जान आई,इतने में डाक्टर सतीश की माँ शीलवती भी वहाँ आ गईं और तब उन्होंने वहाँ मौजूद धनुष से कहा....
"बेटा! सतीश तो नहीं आ पाया है अस्पताल से,उसे वहाँ बहुत काम था,क्या तुम चल सकते हो हम दोनों के साथ बाजार तक"
"हाँ...हाँ...क्यों नहीं,चला जाऐगा,आप दोनों के साथ,वैसे भी इसे घर में रहकर कौन से पत्थर तोड़ने हैं", भागीरथ जी बोले...
"दादाजी! लेकिन भला....मैं...कैंसे...औरतों की खरीदारी का मामला है,मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा",धनुष बोला...
"अरे! तेरी पसंद बहुत अच्छी है,ये जो साड़ी प्रत्यन्चा ने पहनी है,वो तेरी ही पसंद की तो है,जा...चला जा ,इनके साथ बाजार तक",भागीरथ जी धनुष से बोले...
"हाँ! धनुष बेटा! चलो ना! हम दोनों के साथ",शीलवती जी धनुष से बोलीं....
फिर क्या था मजबूरीवश धनुष को दोनों के साथ बाजार जाना पड़ा,काफी रात को तीनों खरीदारी करके वापस लौटे,आज धनुष को प्रत्यन्चा के साथ वक्त बिताकर अच्छा महसूस हो रहा था और इस बात की भी तसल्ली थी कि उसने सबकुछ उसी की पसंद का ही खरीदा था.....
फिर रात का खाना खाने के बाद प्रत्यन्चा बाजार से लाया हुआ सामान अपने कमरे में ले जाने लगी, जो कि बहुत ज्यादा था,इसलिए धनुष ने उससे कहा...
"चलो! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ"
और इतना कहकर धनुष प्रत्यन्चा के साथ सामान लेकर उसके कमरे में आ गया...

क्रमशः....
सरोज वर्मा....