लागा चुनरी में दाग़--भाग(१०) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(१०)

रेलगाड़ी आने में अभी थोड़ा वक्त था,इसलिए दोनों स्टेशन पर रेलगाड़ी के आने का इन्तज़ार करने लगे, तभी प्रत्यन्चा ने शौकत से कहा...
"शौकत भाई! तुमसे एक बात पूछूँ",
"मुझे मालूम है कि तुम मुझसे क्या पूछना चाहती हो",शौकत बोला...
"भाई! तुमने कैंसे अन्दाजा लगा लिया कि मैं तुमसे क्या पूछना चाहती हूँ",प्रत्यन्चा बोली...
"तुम शायद महज़बीन के बारें में जानना चाहती हो कि वो मेरी क्या लगती है",शौकत बोला...
"हाँ! शौकत भाई! मैं तुमसे महज़बीन के बारें ही पूछना चाहती थी",प्रत्यन्चा बोली....
"महज़बीन मेरी कुछ भी नहीं है और मानो तो वही मेरी सबकुछ है",शौकत बोला...
"ये कैसा रिश्ता हुआ भला",प्रत्यन्चा बोली...
"बेनाम सा रिश्ता है हम दोनों के बीच",शौकत बोला....
"मैं कुछ समझी नहीं",प्रत्यन्चा बोली....
"वो मेरी पड़ोसन थी"शौकत बोला...
"फिर क्या हुआ"प्रत्यन्चा ने पूछा...
"फिर वही हुआ जो हम दोनों नहीं चाहते थे,वक्त और हालातों ने हमें एकदूसरे से जुदा कर दिया",शौकत दुखी होकर बोला...
"मतलब! पूरी बात बताओ ना!",प्रत्यन्चा बोली...
"सुनना चाहती तो लो फिर मैं तुम्हें पूरी कहानी सुनाता हूँ" और ऐसा कहकर शौकत बोला....
ये उन दिनों की बात है जब देश का बँटवारा हुआ था,महज़बीन और उसका परिवार पेशावर से भागकर दिल्ली अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ आए थे,मैं उसके रिश्तेदार के बगल में रहता था,उन दिनों बड़ा ही दहशत भरा माहौल था,इसलिए सब घरों के भीतर ही छुपकर रह रहे थे,उस वक्त खुद को महफूज रखना ही सबसे बड़ा काम था,उस समय मेरी उम्र लगभग सत्रह साल रही होगी और महज़बीन की उम्र सोलह के लगभग रही होगी.....
मैं भी लाहौर से ही भागकर दिल्ली अपनी फूफूजान के पास आया था,मेरे परिवार को दंगाईयों ने मार दिया था,मैं जैसे तैसे खुद को बचाकर घायल हालत में फूफूजान के घर पहुँचा था,इसलिए फूफूजान मुझे घर से बाहर ही नहीं निकलने देती थी,बाहर के सारे काम वो ही किया करती थी,वो बेचारी बेवा और बेऔलाद थी, जब मैं उनके पास पहुँचा तो उन्हें तो जैसे जीने का मकसद मिल गया था,उन्होंने मेरी सेवा खुशामद करके मुझे ठीक किया और जब उन्होंने अपने भाई भाभी यानि कि मेरे वालिदैन के मरने की खबर सुनी तो उनके होशहवास उड़ गए,वे फूट फूटकर रो पड़ीं,लेकिन फिर उन्होंने खुद को सम्भाला और इस बात की तसल्ली रखी कि मैं सही सलामत था....
मेरी और महज़बीन की पहली मुलाकात बड़ी ही मज़ेदार रही,वो बड़ी ही उमस भरी शाम थी,गर्मी के मारे घर के अन्दर चैन ही नहीं पड़ रहा था,फूफूजान मुझे बाहर निकलने ही नहीं देतीं थीं और उस दिन जब फूफूजान कुछ सामान लेने बाहर निकलीं तो मैं भी ताजी हवा लेने छत पर चला गया,फूफूजान के घर में बहुत सी किताबें पड़ीं थीं,जो कि फूफा जी की थीं,वे किताबें पढ़ने के बहुत शौकीन हुआ करते थे,लेकिन उनके इन्तकाल के बाद कोई भी उन किताबों को हाथ नहीं लगाता था,फिर जब मैं उनके घर पहुँचा तो वक्त बिताने के लिए मैंने उन किताबों को पढ़ना शुरू कर दिया और उस दिन भी मैं एक किताब लेकर पढ़ने के मकसद से छत पर गया था,छत पर बहुत अच्छी हवा चल रही थी,ताजी हवा से कलेजे में ठंडक पड़ गई थी...
मैं छत पर बैठा किताब पढ़ रहा था,तभी एक दुपट्टा लहराता हुआ मेरी छत पर आया और उसने मेरे चेहरे को ढ़क दिया,मैं अपने चेहरे से वो दुपट्टा हटा ही रहा था कि तभी बगल वाली छत से एक लड़की की आवाज़ आई...
"जनाब! वो दुपट्टा मेरा है,तकलीफ़ ना हो लौटा दीजिए",
"हाँ! इसे लौटाने में तकलीफ़ तो बहुत होगी,इतना भारी जो है"मैंने उससे मज़ाक करते हुए कहा...
"देखिए! मज़ाक छोड़िए,खुदा के लिए दुपट्टा लौटा दीजिए,मुझे किसे ने यहाँ बिना दुपट्टे के देख लिया तो ग़जब हो जाएगा",वो लड़की बोली...
"ठीक है अभी लाता हूँ"
और ऐसा कहकर मैं उस लड़की के पास पहुँचा तो वो शरमा गई और हौले से बोली...
"दुपट्टा दे दीजिए,मुझे ऐसे अच्छा नहीं लग रहा",
"माशाअल्लाह! आपका हुस्न तो सच में क़हर ढ़ा रहा है,मैं हमेशा इस दुपट्टे का एहसानमंद रहूँगा,जो इसने मुझे आपका हुस्न देखने का मौका दिया",मैंने उससे फिर से मज़ाक में कहा...
"ऐ...जी! बड़े वो हैं आप,ऐसा लगता है कि शर्मोहया तो जैसे बेच खाई है आपने,किसी अन्जान लड़की से भला कोई ऐसे बात करता है",वो लड़की बोली....
"अजी! हम तो पैदाइशी बेशर्म हैं,शर्मोहया क्या चींज है,वो तो हम जानते ही नहीं",मैंने उससे कहा...
"देखिए! अब आप अपनी हद पार कर रहें हैं,लाइए ...दीजिए ना मेरा दुपट्टा",वो दोबारा बोली...
"ऐसे नहीं देगें हम आपका दुपट्टा",मैंने उससे कहा...
"तो फिर कैंसे देगें,क्या चाहिए आपको?" उसने पूछा....
"आपकी दोस्ती चाहिए,अगर आपको ये मंजूर है तो फिर ले जाइए अपना दुपट्टा",मैंने उससे कहा...
"एक नंबर के लफंगे किस्म के इन्सान हैं आप,मैं जितना आपसे अद़ब से पेश आ रही हूंँ,उतना ही आप मेरे सिर पर चढ़ते चले जा रहे हैं",वो लड़की बोली...
"ओहो...तो मैं आपको लफंगा नज़र आ रहा हूँ,जाइए नहीं देता आपका दुपट्टा",मैंने अकड़ते हुए कहा...
"अरे! आप तो ख़फ़ा हो गए,आप तो बड़े ही शरीफ़ इन्सान मालूम होते हैं,लौटा दीजिए ना मेरा दुपट्टा,नीचे अम्मी मेरा इन्तजार कर रहीं होगीं,मेरे बदन से दुपट्टा नदारद देखेगीं तो हजार बातें सुनाऐगीं,मुझे अम्मी बातें सुनाएँ तो क्या आपको ये अच्छा लगेगा",वो लड़की बड़े प्यार से आँखें बड़ी करते हुए बोली...
"मोहतरमा! अब आप हमारे जज्बातों के साथ खेल रहीं हैं,लेकिन हम आपके जज्बातों में बहने वाले नहीं हैं",मैंने उससे कहा...
"खुदा के लिए दुपट्टा लौटा दीजिए,आप जैसा कहेगें तो मैं वैसा ही करूँगी",वो बोली....
"आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है,मैं तो बस आपको यूँ ही चिढ़ा रहा था,ले लीजिए अपना दुपट्टा",
और ऐसा कहकर मैंने उसका दुपट्टा लौटा दिया,फिर खुश होकर उसने अपना दुपट्टा अपने बदन पर डाला और छत से नीचे जाने लगी तब मैंने उससे पूछा....
"मोहतरमा! अब कब मुलाकात होगी",
तब वो बोली.....
"अब तो मुलाकातें होतीं ही रहेगीं"
और फिर ऐसा कहकर वो नीचे चली गई,उसके बाद मैं दूसरे दिन शाम के समय छत पर गया,लेकिन वो मुझे छत पर नहीं दिखी,मैं थोड़ी देर वहीं रुककर उसका इन्तजार करता रहा,लेकिन वो छत पर नहीं आई,जब अँधेरा गहराने लगा तो मैं समझ गया कि अब वो छत पर नहीं आऐगी,इसलिए मैं मायूस होकर नींचे चला आया,नींचे आकर मैंने गैर मन से फूफी के कहने पर खाना खाया और बिस्तर पर जाकर लेट गया,लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी,कुछ तो मुझे उस लड़की पर गुस्सा भी आ रहा था कि वो छत पर क्यों नहीं आई....
नहीं आई तो नहीं आई,मुझे इस बात को दिल से इतना नहीं लगाना चाहिए था,लेकिन मैं उस समय अपने दिल के हाथों मजबूर था,ना जाने क्या कशिश थी उस लड़की में जो मैं उसके बारें में इतना सोच रहा था,फिर बहुत देर तक बिस्तर पर करवट बदलने के बाद मुझे जैसे तैसे नींद आ गई.....

क्रमशः...
सरोज वर्मा....