फिर जब विलसिया प्रत्यन्चा को बुलाने उसके कमरे में पहुँची तो प्रत्यन्चा ने उससे कहा...
"काकी! आज भूख नहीं है,बस आराम करने को जी चाहता है"
"कुछ तो खा लो बिटिया!",विलसिया बोली...
"नहीं! काकी! बिलकुल भी मन नहीं है,कुछ भी खाने का",प्रत्यन्चा बोली...
"अगर बिटिया! तुम्हें भूख नाहीं लाग रही है तो फिर ऐहका मतलब है कि नज़र लागी हुई,नीचे चलो हम तुम्हारी नज़र उतार देते हैं",विलसिया ने प्रत्यन्चा से कहा...
"काकी! भला! मुझे किसकी नज़र लग सकती है",प्रत्यन्चा ने विलसिया से बोली...
"ऐसन होत है बिटिया! मालिक कहत रहे कि काल तुम साड़ी पहनी रही हो,सो लाग गे हुई नज़र", विलसिया बोली...
"नहीं! काकी! ऐसा कुछ नहीं है,थकी हुई हूँ,इसलिए नीचे जाने का मन नहीं कर रहा है और कुछ खाने का मन भी नहीं है",प्रत्यन्चा बोली...
"अगर ई बात है बिटिया! तो हम तुम्हरे खीतिर यहीं खाना ले आवत हैं",विलसिया प्रत्यन्चा से बोली...
"नहीं! काकी! कुछ भी खाने का मन नहीं है,बस आराम करना चाहती हूंँ",प्रत्यन्चा मुस्कुराते हुए बोली....
"ठीक है! तो हम जात हैं,हम रसोई मा खाना रख देगें,अगर रात को भूख लगे तो खा लिओ", विलसिया प्रत्यन्चा के कमरे से जाते हुए बोली.....
"हाँ! अगर भूख लगेगी तो खा लूँगीं",प्रत्यन्चा बोली...
फिर विलसिया नीचे पहुँची तो भागीरथ जी ने उससे पूछा...
"क्या हुआ विलसिया!,प्रत्यन्चा नीचे क्यों नहीं आई"
"बिटिया! का बिल्कुल भूख नाहीं है,आराम करे का कहतीं रहीं" विलसिया काकी बोली...
"तो फिर करने दो उसे आराम,शायद कल के काम की थकावट होगी",तेजपाल जी बोले...
इसके बाद सब खाना खाकर अपने अपने कमरे में आराम करने चले गए,लेकिन धनुष को अच्छा नहीं लग रहा था,उसे लग रहा था कि शायद आज जो उसने प्रत्यन्चा के साथ बर्ताव किया है,उसकी वजह से ही वो उदास है और आज तो उसने खाना भी नहीं खाया,जबकि वो तो कभी भी खाना खाना नहीं छोड़ती,यही सब सोचकर वो अपने बिस्तर से उठा और फिर वो धीरे से रसोई में आया,उसने बर्तन खोलकर देखे तो खाना अभी बचा हुआ था,क्योंकि विलसिया काकी ने ये सोचकर खाना बचा दिया था कि कहीं प्रत्यन्चा को रात के समय भूख ना लग जाएँ,फिर धनुष ने बाएँ हाथ से जैसे तैसे प्रत्यन्चा के लिए थाली परोसी और ले चला उसके कमरे की ओर, वो उसके कमरे के पास पहुँचा तो उसने देखा कि कमरे के दरवाजे ठीक से आपस में सटे हुए नहीं है,बस आपस में अटके हुए हैं,दरवाजों के बीच में थोड़ा सा फ़ासला था, जिससे पता चल रहा था कमरे की लाइट अभी जल रही है तो इसका मतलब था कि प्रत्यन्चा अभी जाग रही है,इसलिए वो दरवाजे पर बिना दस्तक दिए ही भीतर घुस गया और उससे बोला...
"खाना लाया हूँ तुम्हारे लिए,चलो खा लो"
उस समय प्रत्यन्चा बिस्तर पर पेट के बल लेटकर ध्यान से कोई उपन्यास पढ़ रही थी,उसने जैसे ही अचानक धनुष की आवाज़ सुनी तो वो बहुत जोर से डर गई और चटपटा कर बिस्तर से उठी ,फिर वो अपना दुपट्टा सम्भालते हुए धनुष से बोली....
"आप और यहाँ,ये क्या तरीका किसी के कमरे में घुसने का,आप दरवाजे पर दस्तक देकर भी तो भीतर आ सकते थे"
"एक तो महारानी जी के लिए खाना लाओ और ऊपर से बातें भी सुनो"धनुष बोला...
"तो क्या मैंने कहा था आपसे खाना लाने के लिए",प्रत्यन्चा गुस्से से बोली...
"नहीं कहा था,लेकिन मैं तो इन्सानियत के नाते तुम्हारे लिए खाना लाया हूँ",धनुष बोला....
"हाँ! जी! तब तो बहुत बड़ा एहसान कर दिया आपने मुझ पर,भला मैं जिन्दगी भर आपके इस एहसान का बदला कैंसे चुका पाऊँगीं",प्रत्यन्चा गुस्से से लाल होकर बोली...
"मज़ाक उड़ा रही हो मेरा",धनुष ने पूछा....
"मज़ाक....और आपका,भला कोई आपका मज़ाक कैंसे उड़ा सकता है,मज़ाक तो आप बनाते फिरते हैं लोगों का" , प्रत्यन्चा भरी बैठी थी और वो जहर उगल रही थी...
"अब मान भी जाओ,यूँ कब तक गुस्सा रहोगी मुझसे",धनुष ने सहजता से कहा...
"ओहो....मतलब आप किसी को कुछ भी कहते रहें और सामने वाला अपना सिर झुकाकर आपकी जहरीली बातें सुनता रहे और उसे अपना गुस्सा ज़ाहिर करने का हक़ भी नहीं है",प्रत्यन्चा आगबबूला होकर बोली...
"मैंने ऐसा तो नहीं कहा,खूब हक़ है तुम्हें अपना गुस्सा ज़ाहिर करने का,उठाओ अपनी जूती और जुट पड़ो मुझ पर ,मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा",धनुष ने निम्न स्वर में कहा...
"मैं भला क्यों आपको जूती मारने लगी",प्रत्यन्चा ने नर्मी से कहा....
"लेकिन तुम्हारा गुस्सा देखकर तो ऐसा ही लग रहा है कि अगर तुम्हारे पास इस वक्त बम होता तो तुम मुझे उससे उड़ा देती",धनुष बोला...
"फालतू की बातें मत कीजिए,मैं आपकी तरह गुस्सा आने पर मरने और मारने पर उतारुँ नहीं हो जाती", प्रत्यन्चा बोली...
"अच्छा! ठीक है,अब अगर तुम्हारा गुस्सा ठण्डा हो गया हो तो फिर खाना खा लो,मुझे पता है कि तुमसे भूख बरदाश्त नहीं होती और तुम बिना खाएँ रातभर सो भी नहीं पाओगी",धनुष ने प्रत्यन्चा से कहा...
"आपको मेरे भूखे रहने से क्या फरक पड़ता है,आप तो बस मेरे लिए जहर उगलिए",प्रत्यन्चा ने धनुष से कहा...
"गलती हो गई,माँफ कर दो,अब थूक भी दो गुस्सा",धनुष सहजता से बोला...
"नहीं! मैं आपसे अब भी गुस्सा हूँ",प्रत्यन्चा गुस्से से बोली....
जब प्रत्यन्चा नहीं मानी तो धनुष ने बड़े ही प्यार से उससे कहा...
"वैसे कल साड़ी में तुम बहुत अच्छी लग रही थी"
"अगर यही बात आपने कल कह दी होती तो बात इतनी आगें बढ़ती ही नहीं",प्रत्यन्चा बोली...
"कहा ना कि हो गई गलती,अब चुपचाप खाना खा लो,देखो मैं अपने बाँए हाथ से तुम्हारे लिए थाली परोसकर लाया है" ,धनुष ने कहा...
"इतना कष्ट उठाने की आपको कोई जरुरत नहीं थी",प्रत्यन्चा दीवार की ओर नजरें करके बोली...
"अपनी सबसे अच्छी दोस्त के लिए मैं इतना तो कर ही सकता हूँ",धनुष बोला...
"अच्छा! तो मैं आपकी सबसे अच्छी दोस्त हूँ,इसलिए शायद आप मुझसे इतना लड़ते रहते हैं,जब देखो तब जली कटी बातें सुनाते रहते हैं,सुबह आपने मुझे किस तरह फटकारा था,याद है कुछ,बोले थे कि मैं मंदिर में नहीं आ सकती और शाम के वक्त वृद्धाश्रम जाने के लिए कितने कठोर लहजे का इस्तेमाल किया था आपने,मेरा अपना कहने के लिए कोई नहीं है ना! इसलिए आप मेरे साथ ऐसा बर्ताव करते हैं,आपके घर में रह रही हूँ ,आपके टुकड़ो पर पल रही हूँ तो आपका जब भी जी चाहता है तो मुझे कुत्ते की तरह दुत्कार देते हैं,मुझे भी आपकी बातों से दुख पहुँचता है,बुरा लगता है,रोना आता है,लेकिन आपको मेरे रोने या उदास रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता,इससे अच्छा होता कि उस रात मैं दादाजी की मोटर से टकराकर मर जाती,तो ये सब बखेड़ा ही खड़ा नहीं होता"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा फूट फूटकर रो पड़ी,उसे रोता हुआ देखकर धनुष को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा ,फिर वो आगे आकर उसके आँसू उसके ही दुपट्टे से ही पोछने लगा और उससे बोला....
"मत रोओ प्रत्यन्चा! और ऐसे शब्द मुँह से नहीं निकालते"
"मत पोछिए मेरे आँसू,सबसे ज्यादा तकलीफ़ तो आप ही मुझे देते हैं"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा फिर से फूट फूटकर रोने लगी,उसने अपने मन का सारा गुबार धनुष के सामने उड़ेल दिया, तो धनुष ने उसे चुप कराने के लिए अपने सीने से लगा लिया और उससे बोला....
"अब से ऐसा कभी नहीं होगा प्रत्यन्चा! मैं अब से तुम्हें और तकलीफ़ नहीं पहुँचाऊँगा",
"सच कहते हैं आप!",प्रत्यन्चा ने पूछा...
"हाँ! मैं सच कह रहा हूँ",धनुष बोला...
"मुझे आप पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है,आप अपनी बात से कभी भी पलट सकते हैं",प्रत्यन्चा रोते हुए बोली...
प्रत्यन्चा की ये बात सुनकर धनुष को हँसी आ गई और वो उससे बोला...
"बिलकुल पागल हो तुम!",
तब प्रत्यन्चा धनुष के सीने से हटी और अपने आँसू पोछते हुए धनुष से मासूमियत से बोली...
"अब आप फिर से झगड़ा शुरू कर रहे हैं"
"लो! बाबा! नहीं करता झगड़ा शुरु,अब खा भी लो खाना " धनुष ने थाली में से खाना उठाकर प्रत्यन्चा के मुँह में डालते हुए कहा...
"आप ने हाथ धुले या बिना हाथ धुले ही मुझे खाना खिला रहे हैं"प्रत्यन्चा ने आँखें बड़ी करते हुए पूछा....
और फिर प्रत्यन्चा की इस बात पर धनुष ठहाका मारकर हँस पड़ा....
धनुष के हँसने पर प्रत्यन्चा ने धनुष से पूछा....
"आप हँसे क्यों?"
"तुम्हारी बेवकूफी पर,जाओ जल्दी से हाथ धुलकर खाना खा लो,मैं अब सोने जा रहा हूँ" धनुष ने प्रत्यन्चा से कहा...
"ठीक है,मैं हाथ धोकर खाना खा लेती हूंँ,लेकिन वादा कीजिए जब तक मैं खाना खतम ना कर लूँ ,तब तक आप यहीं बैंठेगें",प्रत्यन्चा बोली...
"ठीक है बाबा! तुम्हारे खाना खाने तक मैं नहीं जाऊँगा यहाँ से",धनुष बोला...
फिर प्रत्यन्चा ने बाथरुम में जाकर वाशवेशिन में हाथ धुले और हाथ धुलकर खाना खाने लगी और धनुष भी वहीं बैठा रहा....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....