लागा चुनरी में दाग़--भाग(४७) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(४७)

जब प्रत्यन्चा खाना खा चुकी तो उसने धनुष से सौहार्दपूर्ण शब्दों में कहा...
"मैंने खाना खा लिया है,अब आप अपने कमरे में जा सकते हैं"
"जो हुकुम महारानी साहिबा!", और ऐसा कहकर धनुष प्रत्यन्चा के कमरे से चला आया...
वो जब अपने कमरे में पहुँचा तो तब भागीरथ जी जाग रहे थे और उन्होंने धनुष से सवाल किया...
"बरखुरदार! कहाँ से आ रहे हो"?
"जी! उस चुड़ैल को खाना खिलाने गया था,वरना रात भर भूखी पड़ी रहती"धनुष ने जवाब दिया...
"सो खाया उसने या रुठी पड़ी है अब तक",भागीरथ जी ने पूछा...
"मैं भी आपका पोता हूँ,उसे खाना खिलाकर ही दम लिया",धनुष बोला...
"ये तो बहुत ही अच्छा काम किया तूने,जा अब सो जा",और ऐसा कहकर भागीरथ जी ने करवट ली,फिर सोने की कोशिश करने लगे...
इधर धनुष बिस्तर पर लेटकर प्रत्यन्चा के बारें में सोचने लगा,उसने अपने मन सोचा कि कितनी साफदिल और अच्छी लड़की है,हरदम सबका भला ही चाहती है,काश ये हमेशा हमलोगों के साथ रहे तो इसके यहाँ रहने से हमारे घर की खुशियाँ हमेशा बरकरार रहेगीं,लेकिन ये है कौन और कहाँ से आई है, इसके बारें में किसी को कुछ भी नहीं पता,वैसे कुछ भी हो इसके आने से घर की कायापलट तो हो गई है, मुझ जैसा शराबी जो अपने दादा और पिता को छोड़कर हमेशा आउटहाउस में पड़ा रहता था, वो अब इस घर में उनके साथ रहने लगा है, जब से मैं यहाँ रहने लगा हूँ तो दादाजी और पापा कितने खुश नज़र आते हैं, कुछ भी हो,इस लड़की को घर जोड़कर रखना अच्छी तरह से आता है,काश! ये मेरी जिन्दगी में हमेशा के लिए शामिल हो जाएँ तो.....लेकिन ऐसा कैंसा हो सकता है,मुझ जैसा नकारा और शराबी लड़का इस लड़की के लायक बिलकुल भी नहीं है, वो कितनी नेकदिल,सुन्दर,ईमानदार और मेहनती लड़की है,उसे तो कोई उसी की बराबरी का ही मिलना चाहिए....
और यही सब सोचते सोचते धनुष को नींद आ गई...
और इधर धनुष के जाने के बाद प्रत्यन्चा भी धनुष के ही बारें में सोच रही थी,उसने मन में सोचा,वैसे इतने बुरे इन्सान भी नहीं हैं धनुष बाबू, कुछ तो हमदर्दी रखते ही हैं मुझसे ,नहीं तो मुझे यूँ खाना खिलाने नहीं आते,आज मैंने उन्हें कितनी बातें सुनाईं लेकिन उन्होंने मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं माना, बस मैं उनसे यही तो चाहती हूँ कि वे मुझसे लड़े झगड़े नहीं, बस यूँ ही मेरे दोस्त बनकर मेरे दुख सुख बाँटते रहें, कल को उनकी शादी हो जाऐगी तो फिर ये दोस्ती भी खतम हो जाऐगी और फिर मैं हमेशा थोड़े ही इस घर में रहने वाली हूँ,क्योंकि मैं अब इनलोगों को और धोखा नहीं दे सकती,
मेरा दिल गँवारा नहीं करता कि मैं इन लोगों को अब और अँधेरे में रखूँ,जिस दिन इनलोगों को ये पता चलेगा कि मैं एक विधवा हूँ और मेरा सतीत्व नष्ट हो चुका है,मेरे खुद के माँ बाप ने भी मुझे स्वीकार नहीं किया तो फिर ये लोग मेरे प्रति ना जाने क्या प्रतिक्रिया दें,क्योंकि मेरे जैसी लड़की की सच्चाई जानकर फिर मुझे कोई भी अपने घर में नहीं रखना चाहेगा,इसलिए मेरा इस घर से जाना ही बेहतर रहेगा, कोई काम मिल जाऐगा तो फिर मैं ये घर खुदबखुद ही छोड़ दूँगी,इतनी बड़ी दुनिया पड़ी है,कहीं भी रह लूँगी,क्योंकि अब मुझे हालातों से लड़ना आने लगा है और मैंने जीवन से संघर्ष करना भी सीख लिया है.....
और यही सब सोचते सोचते प्रत्यन्चा भी सो गई....
दूसरे दिन भोर होते ही प्रत्यन्चा की आँख खुल गई,आज उसे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था, धनुष और उसके बीच की खटास जो दूर हो गई थी,उसने अपने कमरे की खिड़की खोली और बाहर बगीचे की ओर देखने लगी,वहाँ पेड़ो पर बैठीं कई सारी चिड़ियांँ शोर मचा रहीं थीं और उनकी चहचाहट प्रत्यन्चा को भा गई, इसलिए वो अपने कमरे से बाहर निकलकर बगीचे में आ पहुँची....
पत्तों पर ओस की काँच जैसी बूँदें देखकर प्रत्यन्चा का मन खिल उठा और गीली घास देखकर उसने अपनी चप्पल उतारकर घास पर चलना शुरू कर दिया,गीली घास उसके तलवों को डण्ठक पहुँचा रही थी, जिससे उसका मन और मस्तिष्क दोनों ताजे हो गए और तभी उसने देखा कि धनुष भी बदन पर शाँल डालकर बगीचे में आ पहुँचा है,उसे बगीचे में देखकर प्रत्यन्चा हैरान रह गई और उससे बोली...
"अरे! आप और यहाँ"
"हाँ! आँख खुल गई तो चला आया",धनुष बोला...
"ताज्जुब है, आपकी आँख आज भोर होते ही खुल गई",प्रत्यन्चा ने ताना मारते हुए कहा....
"तुम्हीं ने तो कहा था कि भोर की ताजी हवा सेहद के लिए अच्छी होती है",धनुष बोला...
"और आप मेरी बात मानकर भोर होते ही बगीचे में चले भी आएँ",प्रत्यन्चा ने आँखें बड़ी करते हुए कहा....
"हाँ! तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो ,इसलिए तुम्हारी बात माननी तो जरूरी थी ना!",धनुष ने कहा...
"आप तो दिनबदिन काफी समझदार होते जा रहे हैं",प्रत्यन्चा बोली...
"हाँ! शायद तुम्हारी ही संगत का असर है",धनुष बोला...
"ये भी हो सकता है"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा खिलखिला हँस पड़ी तो उसे देखकर धनुष भी हँस पड़ा,दोनों थोड़ी देर यूँ ही घास पर टहलते रहे,तभी अचानक प्रत्यन्चा को ठण्ड का एहसास हुआ और वो धनुष से बोली...
"मुझे तो ठण्ड सी लग रही है,इसलिए अब तो मैं भीतर जा रही हूँ"
"रुको ना! थोड़ी देर और बातें करते हैं",धनुष बोला...
"अरे! बाबा! कहा ना! ठण्ड लग रही है",प्रत्यन्चा बोली....
प्रत्यन्चा ने ऐसा कहा तो धनुष ने अपने बदन से शाँल निकालकर प्रत्यन्चा को ओढ़ा दी और उससे बोला...
"लो! अब नहीं लगेगी ठण्ड",
"लेकिन अब आपको ठण्ड लगने लगेगी",प्रत्यन्चा बोली...
"मैं सहन कर लूँगा",धनुष बोला...
"सहन कर लेगें तो ठीक है", प्रत्यन्चा बोली...
और फिर दोनों यूँ ही बातें करते रहे,इसके बाद दोनों भीतर पहुँचे तो तब तक भागीरथ जी भी जाग उठे थे और विलसिया उन्हें चाय बनाकर दे रही थी,इसके बाद सबने चाय पी फिर भागीरथ जी प्रत्यन्चा से बोले...
"बिटिया! आज सुबह के नाश्ते में तुम हरे प्याज और आलू के गरमागरम पकौड़े बनाओ,बहुत दिल कर रहा है खाने का",
"पकौड़े बन जाऐगें दादाजी! आप चिन्ता मत कीजिए",प्रत्यन्चा बोली...
"लेकिन मुझे तो आलू के पराँठे खाने का मन कर रहा था",धनुष उदास होकर बोला...
"अरे! घबराइए नहीं! मैं वो भी बना दूँगीं,जाकर रसोई में उबलने के लिए आलू चढ़ा आती हूँ"
और फिर ऐसा कहकर प्रत्यन्चा रसोई में उबलने के लिए आलू चढ़ा आई और एक टोकरी लेकर वो हरे प्याज,चटनी के लिए ताजा टमाटर ,हरी धनिया,हरी मिर्च लेने किचन गार्डन की ओर चल पड़ी,कुछ देर में वो ये सब लेकर किचन गार्डन से वापस लौटी और रसोई में गई तो तब तक आलू उबल चुके थे,आलूओं को ठण्डा होने के लिए थाली में छोड़कर वो नहाने चली गई,नहाने के बाद उसने पूजा की और रसोई में नाश्ता बनाने में लग गई और कुछ ही देर में गरमागरम आलू के पराँठे,हरे प्याज और आलू के पकौड़े,टमाटर ,हरी धनिऐ मिर्च की तीखी चटनी के साथ तैयार थे,सब नाश्ते का लुफ्त उठा ही रहे थे कि तभी डाक्टर सतीश की माँ शीलवती जी डाक्टर सतीश के साथ उनके घर पधारीं....
और वे उनसे बोली...
"मैं लक्ष्मीनारायण मंदिर भगवान के दर्शनों के लिए गई थी,तो सोचा आप सबसे मिल भी लूँगी और प्रसाद भी दे दूँगीं"
तब प्रत्यन्चा उनसे बोली...
"अच्छा! हुआ चाचीजी ! आप आ गई,मुझे आपके गहने लौटाने थे,मैं उन्हें अभी लेकर आती हूँ"
ऐसा कहकर प्रत्यन्चा अपने कमरे में जाने लगी तो शीलवती जी उससे बोलीं....
"ऐसी भी क्या जल्दी है बेटी !"
"मुझे बहुत जल्दी है उन्हें लौटाने की,नहीं तो हरदम एक बोझ सा महसूस होता रहेगा"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा फौरन ही अपने कमरे से शीलवती जी के गहने ले आई और उन्हें सौंप दिए,फिर शीलवती जी ने गहने लिए और बोलीं...
"अब मैं चलूँगी,देर हो रही है"
"अरे! बैठिए ना चाची जी! मैं अभी आपके लिए चाय लेकर आती हूँ",प्रत्यन्चा उनसे बोली...
"नहीं! बेटी! इतना वक्त नहीं है,अभी सतीश के लिए नाश्ता भी बनाना है,नहीं तो वो भूखा ही अस्पताल चला जाऐगा",शीलवती जी बोलीं...
"अरे! डाक्टर बाबू और आप यहीं नाश्ता कर लीजिए ना!,देखिए ना प्रत्यन्चा ने कितना लजीज़ नाश्ता बनाया है",भागीरथ जी बोले...
जब भागीरथ जी ने शीलवती जी और डाक्टर सतीश से नाश्ता करने को कहा तो फिर वे इनकार ना कर सकीं और दोनों लोग नाश्ता करने बैठ गए...

क्रमशः....
सरोज वर्मा....