उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 30 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 30

भाग 30

दीदी का जीवन समय की नदी में चलते-चलते सहसा जैसे मँझधार में अटक गया हो। जीवन की रूकी हुई गति को दीदी किसी प्रकार गति देने का प्रयास कर रही थी। किन्तु ठहरे हुए जल में उलझी जलकुम्भियों की भाँति जीवन उलझ कर ठहर-सा गया था। इन उलझाी जलकुम्भियों में मार्ग तो दीदी को स्वंय बनाना होगा। दीदी जो कुछ भी करेगी अपनी इच्छा के अनुसार करेगी। किसी का सहयोग विशेष रूप से मेरा तो कदापि नही। दीदी किसी पूर्वागह से ग्रस्त है या कोई मनोग्रन्थि जो उसे ऐसा करने से रोकती है। एक दिन माँ का फोन आया कि दीदी मुझसे कुछ बात करना चाहती है। मुझे अच्छा लगा कि चलो, दीदी ने मुझे इस योग्य तो समझा कि मुझसे अपनी किसी समस्या पर बात करे।

मैं दीदी के फोन के आने की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन......दो दिन...... तीन दिन........देखते-देखते कई दिन व्यतीत हो गए, दीदी का फोन नही आया। मेरा मन व्याकुल होने लगा कि दीदी को कोई परेशानी कोई तकलीफ तो नही है। मुझे उसका कुशल क्षेम पूछना चाहिये। यही सोच कर मैंने दीदी को फोन कर दिया।

" दीदी आप मुझसे कोई बात करना चाहती थीं क्या? " मैंने पूछा

" नही तो ? किसने कहा? कोई विशेष बात तो नही करनी थी। नार्मल बातचीत तो हो ही जाती है तुमसे। " दीदी ने बड़े ही सामान्य ढंग से कहा।

दीदी की बात सुनकर मुझे कुछ भी कहते नही बना। मैंने व्यस्तता की बात कहकर फोन रख दिया। आज दीदी के व्यवहार पर मुझे अपमान की गहरी अनुभूति हुयी। यूँ तो दीदी ने विवाह के पश्चात् अनेकों बार मेरा अपमान किया है, किन्तु ऐसी ज़िल्लत की अनुभूति मुझे कभी नही हुयी। बड़ी बहन समझ कर उसकी अच्छी-बुरी सभी प्रकार की बातें हँसकर टाल देती थी। किन्तु अब....! ठस उम्र में भी वो मुझे अपमानित करे यह मुझे अच्छा नही लगता। हृदय पीड़ा से भर उठता है। माँ का फोन आने पर मैंने यह सोचकर उसे फोन कर दिया कि मैं उसकी किसी समस्या का समाधान करने में कोई मदद कर सकूँ तो यह अच्छी बात होगी। मेरा सौभाग्य होगा। यहाँ तक कि मैंने अनिमा से उसके एन0 जी0 ओ0 से बच्चे गोद लेने के बारे में पूरी जानकारी कर ली थी। यदि दीदी कोई बच्चा गोद लेना चाहे तो उसे पूरी बात सरलता से समझायी जा सके। किन्तु इस अवसर पर भी दीदी मुझे अपमानित करने से नही चूक रही है। दीदी के इस आचरण का विस्मृत कर आगे बढ जाना हीसही समझा।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। किन्तु समय का इतनी तीव्र गति से आगे बढ़ जाना भी कभी-कभी ठीक नही लगता। जिस प्रकार टेªन आगे बढ़ती जाती है, मार्ग में आने वाली चीजें पीछे छूटती जाती है, उसी प्रकार समय आगे बढता़ जाता है और अपने पीछे छोड़ता जाता है विगत् दिनों की अनेक स्मृतियाँ। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि हमारा वर्तमान विगत् में परिवर्तित अवश्य होता जाता है किन्तु नये-नये स्थानों तथा स्टेशन के रूप में हमें हमारे सुखद भविष्य से परिचय कराता जाता है।

देखते-देखते मेरी बेटी का बी0 टेक0 का कोर्स पूरा हो गया था। हम उसके लिए योग्य वर की तलाश करने लगे। मुझे पूरा विश्वास था कि जिस प्रकार मैं और अभय एक-दूसरे का सहयोग करते हुए जीवन रूपी गाड़ी को आगे बढा़ रहे थे उसी प्रकार आगे आने वाले कार्य व उत्तरदायित्व सम्पादित करेंगे। मैंने भाई व बाबूजी से भी अपनी जान-पहचान में कोई योग्य लड़का देखते रहने के लिए कह दिया। मैं यह भी जानती थी कि बाबूजी की जान-पहचान का दायरा अब पडरौना तक ही सीमित है। यदि वो बजायेंगे भी तो पडरौना का ही कोई लड़का होगा।

मेरी बेटी ने नोयडा से अपनी शिक्षा पूरी की है। वह पाँच वर्षों तक कुशीनगर से बाहर रही है। अब यदि पडरौना या कुशीनगर में उसे रहना पड़ेगा तो क्या वह रह पायेगी? उसे शहरी जीवन की आदत लग गयी है। पुरानी बातों, पुरानी मान्यताओं का अब वह विरोध करने लगी है। पुत्र-पुत्री, जातिप्रथा, धनी- निर्धन, पर्दाप्रथा आदि के विरोध में उसके स्वर मुखर होने लगते हैं। बल्कि कहंे तो इन बातों को बिलकुल नही मानती। तो वह इन छोटे शहरों में जहाँ अब भी बालिकाओं को गाँव के बाहर पढ़नें के लिए माता-पिता भेजने से डरते हैं।

घर की बहुओं के लिए पर्दा अब भी अनिवार्य है। पुत्र उत्पन्न होने में खुशी के लड्डू व पुत्री के होने पर चिन्तायें बँटती हैं। तो क्या मेरी बेटी इन जगहों पर समायोजित हो पायेगी? यह सब सोचते ही मेरा हृदय आशंकित होने लगता है। जो भी हो मेरा उत्त्रदायित्व है उसके लिए योग्य वर ढूँढ़ना। उसका भाग्य जहाँ उसे ले जायेगा वहाँ उसे जाना ही होगा। एक दिन यही बात मैंने अभय से कही।

" नही, यहाँ मैं तुम्हारा साथ नही दे सकता नीरू। मेरी बेटी का व्याह उसकी इच्छा से उसके योग्य लड़के से होगी। भाग्य की बातंे कर हम उसके भविष्य से खिल़वाड़ नही कर सकते।.....भाग्य की दुहाई देकर हमउ से साड़ी-गला पुरानी मान्यताओं में वापस जकड़ नही सकते। " अभय कहता जा रहा था। मैं उसकी बातों व विचारों से प्रभावित होती जा रही थी। समय के साथ कितना परिवर्तित हो गया है अभय। उम्र के साथ उसके विचारों में भी परिपक्वता आयी है।

भाई ने मेरी बेटी के लिए एक-दो लड़के बताये जिन्हें उसने अस्वीकार कर दिया। बात बनती न देख मैंने अख़वारों में इश्तिहार दे दिया। परिणाम स्वरूप जो रिश्ते आये उनमें से एक ने मेरी बेटी को पसन्द कर लिया। बात आगे बढाने के ़उद्देश्य से मैंने अपनी बेटी से उसकी इच्छा जाननी चाही।

" नही माँ, मैं अभी विवाह करना नही चाहती। " उसने मेरी बात का उत्तर देते हुए कहा।

" क्यों, अब क्या है? तुम्हारी शिक्षा पूरी हो चुकी है। विवाह की सही उम्र है तुम्हारी। "

" नही माँ, अपने ऐसे पुराने विचार अपने पास रखिये, कि लड़की की शिक्षा पूरी होते ही उसका विवाह कर दो। मैं अभी नौकरी करना चाहती हूँ। " बेटी की बातें सुनकर मैं चुप हो गई।

सोचने लगी कि जेनरेशन गैप की समस्या प्रत्येक पीढ़ी के साथ रहा है। मेरे माता-पिता के साथ मेरा, मेरे बच्चों का मेरे साथ। मैंने बात आगे नही बढ़ाई क्यों कि मैं जानती थी कि मेरी बेटी उचित कह रही है। अपने स्थान पर वह सही है। बेटियों की आत्मनिर्भरता उनके सफल व खुशहाल जीवन के लिए आवश्यक कदम है। मैं एक माता-पिता की दृष्टि से सोच रही हूँ। मैं भी समाज के अन्य लोगों की भाँति बेटी का विवाह कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहती हूँ। मैं मात्र अपना उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए सोच रही हूँ जब कि मेरी बेटी अपने भविष्य के लिए सोच रही है। अपने भविष्य की फिक्र करना, उसके लिए सोचना उचित है तथा उसका अधिकार है।

मेरी बेटी ने अपनी लगन व प्रयत्न से एक मल्टीनेशल कम्पनी में अपने लिए जाॅब ढूँढ़ ली तथा कुशीनगर छोड़कर दिल्ली चली गयी। उसके जाने से घर पुनः सूना हो गया। किन्तु उसकी खुशियों के लिए मन में प्रसन्नता भी थी। अतः अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जीना.....रहना सीख लिया।

शनै-शनै एक वर्ष हो गए। मुझे अपनी बेटी के व्याह की पुनः चिन्ता होने लगी। मैं अब उसका व्याह कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहती थी। उसका मुख्य ध्येय अब पूर्ण हो चुका था। वह स्वावलम्बी हो चुकी थी। इस बार छठ पर्व पर वो घर आयी। मैने उससे अब विवाह कर लेने की बात कही।

" माँ, मैं दिल्ली के ही एक लड़के से विवाह करना चाहती हूँ। " उसकी बात सुनकर मैं सन्नाटे में आ गयी।

मैंने जब लड़के के बारे में और जानकारी लेनी चाही तो उसने बताया कि वो विजातीय है। मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयी। एक तो प्रेम विवाह ऊपर से विजातीय। मेरी बेटी किसी अन्य जाति में जाकर विवाह करे, मन स्वीकार नही कर पा रहा था। कुशीनगर जैसे छोटे शहर में जहाँ लोग एक-दूसरे को जानते-पहचानते हैं, सभी एक-दूसरे से परिचित हैं, जब लोगों को यह बात पता चलेगी कि फलाने की बेटी किसी अन्य जाति मे ंविवाह कर रही है तो लोग क्या साचेंगे? जितने मुँह उतनी बातें न होंगी? मेरी सारी शिक्षा, आधुनिकता अब रूढ़िवादिता व प्राचीनता की ओर जा रही थी। मैं क्या करूँ? कुछ समझ नही पा रही थी? अभय की खामोशी मेरी चिन्ता और बढ़ा रही थी।

अन्ततः मेरी सारी शिक्षा, परम्परा आधुनिक बेटी के हठ के समक्ष जवाब दे गयी? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बी0 टेक0 के पाँच वर्षों में घर से व माता-पिता कर पाबन्दियों से दूर रह कर मेरी अपना मुक्त, स्वतन्त्र व्यक्तित्व व सोच विकसित का लिया था। जिसमें ढकोसला युक्त रूढ़ियों व सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ कर आगे बढ़ना प्रमुख था। आधुनिक शिक्षण संस्थानों में पढ़ा युवा वर्ग पुरानी मान्यताओं को तोड़कर अपने लिए उन्मुक्त व नये समाज का सृजन कर उसमें जीना चाहता है। मैं आधुनिक समाज के युवा विचारों से तालमेल नही बैठा पा रही थी। मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। दिनभर कार्यालय में काम व घर में हाड़तोड़ परिश्रम करने के पश्चात् भी रात को नींद नही आती थी।

एक दिन मेरी बेटी ने उस लड़के के साथ घर में प्रवेश किया, जिससे वो विवाह करना चाहती थी। आकर्षक व शालीन-सा युवक था वो जिसे मेरी बेटी ने पसन्द किया था। वो मेरे समक्ष था। उसे हम सबसे मिलवाने वो उसे आज घर लेकर आयी थी। लड़का विजाजीय भले ही था किन्तु प्रथम दृष्ट्या मुझे बहुत अच्छा लगा। उसे देखकर मैं भूल गयी कि इससे मेरी बेटी विवाह करना चाहती है। तत्काल यह ध्यान में आते ही कि इससे मेरी बेटी व्याह करना चाहती है तथा यह विजातीय भी है, तत्काल मेरा दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया। तत्क्षण मेरा व्यवहार औपचारिक हो गया।

" माँ आपको जो कुछ पूछना, जानना है....पूछ लीजिये। " मेरी बेटा ने उसे ड्राइंग रूम में बैठाते हुए कहा।

" ठीक है बेटा! अभी बात भी हो जायेगी। मैं सरला को ( मेरी काम वाली ) काॅफी बनाने के लिए बोल दूँ। " कहकर मैं रसोई में आकर काॅफी बनाने के लिए सरला से कहने के उपरान्त न जाने किन विचारों में डूब-उतरा रही थी। सोच रही थी कि अभी तो कुछ क्षण के लिए मैं वहाँ से चली आयी किन्तु कब तक.....? कब तक इन प्रश्नों से दृष्टि चुराती रहूँगी? अपनी बेटी की और उस लड़के के प्रश्नो का उत्तर तो मुझे देना ही होगा। इस प्रकार कब तक मैं बच सकती हूँ? सरला को ड्राइंगरूम में काॅफी पहुँचाने के लिए कहकर मैं भी वापस ड्राइंगरूम में चली गयी।

वो लड़का काॅफी पीने लगा था। कमरे में खामोशी पसरी थी। मेरी बेटी भी चुपचाप दृष्टि नीचे किये हुए बैठी थी।

" बेटा, आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं......? आप के परिवार में कौन..... कौन है......? आपके पिता क्या काम करते हैं.....? " आदि औपचारिक प्रश्नों से मैंने बात प्रारम्भ की।

वह लड़का मेरे प्रश्नों के समुचित उत्तर देता जा रहा था। उसके चेहरे की मुस्कराहट , आत्मविश्वास व शालीनता देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचती जा रही थी कि ये लड़का तो अच्छा है। काश! ये हमारी जाति का होता। लड़का अच्छी नौकरी में भी है। सब कुछ अच्छा है, किन्तु मेरे मन में बार-बार उसका विजातीय होना खटक रहा था। जो उसकी योग्यता को दरकिनार करने पर मुझे विवश कर रहा था। इसी कारण विवाह के प्रति मैं अपनी अनिच्छा प्रकट करना चाह रही थी।

" बेटा आपके परिवार में सभी लोग इस विवाह के पक्ष में हैं। " मैंने लड़के का मन टटोलना चाहा।

" सबकी सहमति से ही मैं यहाँ आया हूँ। " उस लड़के का आत्मविश्वास देखकर मैं निरूत्तर थी।

" ठीक है तुम लोग बैठो। अभी अभय भी कुछ देर में आ रहे होंगे। उनसे भी तुम्हारी मुलाकात हो जायेगी।

इस बीच अभय कार्यालय से आ चुके थे। वह ड्राइंगरूम में न आकर सीधे अपने कक्ष में चले आये थे। ड्राइंगरूम में बैठे युवक को देखकर वो असमंजस की स्थिति में थे। वस्तुस्थिति से उन्हें अवगत् कराकर मैंने उनकी जिज्ञासा शान्त की।

" लड़का तो देखने में अच्छा है। " उनके मुँह से सहसा निकल गया। मैं अभय का चेहरा तके जा रही थी। जिस पर निश्चिन्तता के भाव थे।

" ठीक है आपको तो उचित लगे उससे कह दीजिए। लड़का मुझे भी पसन्द है। अच्छी नौकरी में है। बस विजातीय है। " मैंने अभय से कहा।

" ठीक है........आजकल बड़े शहरों में ये सामान्य बात है। छाटे शहरों के लोगों के विचार भी अब परिवर्तित हो रहे हैं।...... मैं भी चिन्तित था इतने दिनों से। अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें बच्चों को विवाह करने की सहमति दे देनी चाहिए। हमारे परिवार में ये पहली बार हो रहा है इसलिए हमें बुरा लग रहा है।...... परिवर्तन का आरम्भ कहीं न कहीं से होना है। लोगों, रिश्तेदारों की परवाह न करते हुए एक अच्छी सोच का शुभारम्भ हम ही क्यों न करें...? " अभय अपनी बात समझाते हुए कहते जा रहे थे।

अभय की बातें सुनकर मेरे हृदय से मानों कोई बोझ उतरता जा रहा था। मैं मन्त्रमुग्ध-सी अभय को देखे जा रही थी.....बस देखे जा रही थी।

" तुम जाकर बच्चो की बात फाईनल करो। मैं भी फ्रेश होकर आता हूँ। " अभय ने कहा। मैं ड्राइंगरूम की ओर चल पड़ी।

" बेटा, आप अपने घर से मम्मी-पापा को लेकर आओ। " अभय ड्राइंगरूम में आ चुके थे।

" जी अंकल। मैं मम्मी-पापा को लाने के लिए ही तो पूछने आया हूँ। " उस लड़के ने तत्परता से उत्तर दिया।

आने वाली शादियों के सीजन में मेरी बेटी का व्याह हो गया। वो अपने पति के साथ सुखी जीवन यापन कर रही है। उसके विवाह से अब मैं संतुष्ट हूँ। इस बात का अनुभूति अब मुझे होने लगी है कि पहले मैं ग़लत थी। अभय ने मेरा मार्गदर्शन कर आधुनिकता का सही अर्थ बताया है। मुझे तथागत् के कहे गये शब्द याद आ गयै-

" मैं इन्सानियत में बसता हूँ और लोग मुझे जातियों और धर्मों में ढूँढते हैं। "