उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 5 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 5

भाग 5

उस समय के पडरौना से अब का पडरौना भिन्न हो चुका है। अब यहाँ उतनी कट्टरता से जातिप्रथा दिखाई नही देती। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के साथ चीजें परिवर्तित हो रही है। यहाँ के भी युवा अब बड़े शहरों के प्रबन्धन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियों में काम कर रहे हैं।

सबसे बढ़कर अच्छी बात ये है कि जाति को अनदेखा करते हुए अपनी पसन्द के साथी से प्रेम विवाह भी कर रहे हैं। अब उस विवाह को घर वाले स्वीकार भी कर रहे हैं। आज दलितों का दक्खिनी टोला मुख्य पडरौना शहर में समाहित हो गया है। पहले दक्खिनी टोला के आसपास कोई जाना नही चाहता था। वहाँ जमीनें खरीदना और बसना तो दूर की बात थी। कोई वहाँ रहने के बारे में सोच भ्ी नही सकता था। अब दक्खिनी टोला की जमीनों के भाव भी सवर्णों के जमीनों जैसे महंगे हो गये हैं। वहाँ भी धीरे-धीरे अन्य वर्गों के लोग घर बनवाकर रहने लगे हैं।

सरकार ने सड़कें, पानी, बिजली शिक्षा आदि की व्यवस्था ऐसी पिछड़ी जगहों पर भी कर दी है। समाज में धीरे-धीरे समरसता का प्रभाव दिख रहा है। किन्तु जातिवाद का दैत्य गाहे-बगाहे बाहर निकल आता है और अपने क्रूर पंजो में समरसता को जकड़ कर निगलने लगता है। मुहल्ले में सब एक दूसरे को जानते हैं। जाति से परिचित होते हैं, एक -दूसरे के दुख-सुख में सम्मिलित भी होते हैं। फिर भी जाति प्रथा बहुधा योग्यता पर भारी पड़ती है।

उस समय की कुछ अविस्मरणीय विवाह की स्मृतियाँ अभी भी मेरे जेहन में यदाकदा कौंध जाती हैं। माँ के एक रिश्तेदार जो कि पडरौना से कुछ दूर ठूँठीबारी में रहते थे। ठूँठीबारी नेपाल की सीमा से सटा गाँव है। उनके पुत्र का विवाह नेपाल के भैरहवाँ में तय हुआ था। हम सब छोटे थे तथा विवाह में गये थे। कुछ दूर बस से तथा कुछ दूर तक गाजे-बाजे के साथ पैदल चलते हुए एक घंटे के भीतर हम सब नेपाल में लड़की वालों के दरवाजे पर थे।

हम सब बच्चे थे तथा पहली बार नेपाल गये थे। नेपाल में भी विवाह की सभी रस्में पडरौना की तरह की ही थीं। द्वारचार के समय पंडित जी द्वारा किया जाने वाला मन्त्रोचार, महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला विवाह गीत, समधी-बारातियों इत्यादि को लेकर गाये जाने वाले उलाहने व हल्के-फुल्के गालियों वाले गीत सब कुछ हमारे रस्म-रिवाजों, हमारी संस्कृति जैसा ही था। लकड़ी के पीले पाटे पर वर-वधू को बैठाना, उन पर अक्षत के पीले चावल छिड़कना, पंडित जी द्वारा समझ में न आने वाले मंत्रोचार करना और तो और आधी रात के पश्चात् ब्रह्नम मुहुर्त में दुल्हन-दूल्हे को नींद से उठाकर कन्यादान व विवाह की भाँवरें पड़वाकर विवाह सम्पन्न सम्पन्न करवाना सब कुछ हमारी रस्म-रिवाजों की तरह का ही तो था।

यह हमारा मात्र पुस्तकीय ज्ञान था कि नेपाल भारत का हिस्सा नही बल्कि दूसरा देश है। यह विदेश है। यहाँ आकर विश्वास नही हो पा रहा था कि यह दूसरा देश है। सब कुछ तो यहाँ हमारी तरह का है। लोग-बाग, बोली भोजपुरी, भाषा हिन्दी, पहनावा, रहन-सहन, खान-पान, विवाह की रस्में, विवाह के गीत, प्रथायें, रीति-रिवाज, समस्यायें सब कुछ पडरौना की तरह था। नई दुल्हन के साथ आया बैना ( मिठाई इत्यादि) तो बिलकुल हमारी पसन्द का था। खाजा, ठेकुआ, कसार, मीठी पूड़ियाँ, बड़ी बूँदियों के लड्डू, मालपूये आदि जो बहू साथ लेकर आयी थी, सब कुछ हमारी तरह का था।

मामी ने सभी चीजें बैने के रूप में पास-पड़ोस के सभी घरों में नाउन के हाथों भिजवाईं थीं। न जाने जमीन पर किस स्थान पर, किस हिस्से में भारत-नेपाल की सीमा रेखा खिंची थी। मुझे तो दिखाई नही दी। जमीन, जंगल, खेत-खलिहान सब कुछ तो एक दूसरे के समीप, एक दूसरे में समाहित थे। उधर के दूधवाले, सब्जी वाले, फेरी वाले अपना सामान इधर बेच जाते, तथा इधर के लोगों की जब भी इच्छा हुयी उधर घूमकर आ जाते।

नेपाल का प्राकृतिक सौन्दर्य , पूरे वर्ष एक समान खूबसूरत रहने वाला मौसम पर्यटकों को लुभाता है ही, हमारे यहाँ यदाकदा दूर से आये किसी अतिथि के आने पर हम उसे लेकर नेपाल घूमने जाते। उस समय वहाँ जाने वाले अतिथि की प्रसन्नता देखते बनती थी। कई बार भारत-नेपाल के बीच हुई हमारी पारिवारिक शादियों में मुझे सम्मिलित होने का अवसर मिला। मेरे परिवार में अनेक बहुयें नेपाल से हैं। नेपाल हमें पसन्द है तो वहाँ के लोगों को भारत। सबसे बड़ी बात है कि अन्तराल व्यतीत हो जाने के पश्चात् आज भी दोनों देशों के रहन-सहन, भाषा-संस्कृति में कुछ भी परिवर्तित नही हुआ है, न ही हो सकता है।

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आजकल चुनावी सरगर्मियाँ तेज हो गयी थीं। ताऊजी की जगह इन्द्रेश भईया चुनाव लड़ रहे थे। कारण कदाचित् ताऊजी का उम्रदराज हो जाना व लगातार अस्वस्थ रहना था। कारण जो भी हो सुनने में आया कि ताऊजी प्रसन्न थे कि उनके राजनीति का उत्तराधिकारी मिल गया है। राजनीति सेवा धर्म या योग्यता से न होकर धीरे राजतन्त्र की भाँति होती जा रही थी। इसे परिवार तन्त्र कहना सही था। पिता के पश्चात् उसका बेटा उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ेगा। भले ही वो योग्य न हो। किन्तु राजनैतिक पार्टियाँ भी योग्यता को नही बल्कि परिवारवाद को बढ़ावा देती प्रतीत होती दिख रही थीं।

" तुम जानना चाहती थीं कि उन दिनों मेरे जीवन में सहसा खामोशी क्यों व्याप्त हो गयी थी? " एक दिन छत पर टहलते हुए दीदी ने अकस्मात् मेरी ओर देखते हुए कहा। दो वर्ष पूर्व की बात जब दीदी परेशान रहती थी और उसके कारण मैं। अब समय के साथ जब सब कुछ सामान्य हो गया है तब दीदी मुझसे उस समय की बात बताना चाहती है। मैं दीदी का ओर उत्सुकता से देखने लगी।

" बात उन दिनों की है नीरू जब......... एक दिन माँ पड़ोस के घर में हो रहे एक वैवाहिक कार्यक्रम में गयी थीं। भाई भी किसी कार्य से घर से बाहर था। मैं और तुम ही घर में थे। " कह कर दीदी कुछ सोचने लगी। उसके चेहरे पर पीड़ा स्पष्ट थी। मानो वे उन दिनो को पुनः जीने लगी हों।

" अब तो दो वर्ष हो गए दीदी। उस विषय पर आपकी खामोशी की मुझे आदत-सी हो गयी है। उस विषय पर मैंने सोचना ही छोड़ दिया है। किन्तु आपमें आये उस परिवर्तन का कारण क्या था..... वो मैं अब भी जानना चाहूँगी। किस कारण मेरी चुलबुली दीदी ने सहसा गम्भीरता का आवरण ओढ़ लिया? उनके चेहरे पर उदासी की वो परतें क्यों हर समय छाईं रहती थीं? मेरे भीतर जानने की उत्कण्ठा बनी हुई है। " मैंने दीदी से कहा। मेरी बात सुनकर दीदी असमान की ओर देखने लगी मानो वो यादों का कोई वो सिरा ढूढ़ रही हो, जहाँ से प्रारम्भ किया जा सके।

" क्या हुआ था दीदी...? कोई चिन्ता की बात थी क्या...? " दीदी को अब भी चुप देख मैंने पुनः पूछा।

" तुम्हें स्मरण है नीरू उन दिनों हम छत पर सोया करते थे। माँ अभी पड़ोस के विवाह से आयी नही थी। भाई आ गया था और बाबूजी के पास ड्राइंगरूम में बैठा था। हम दोनों छत पर सोने चले गये थे। " दीदी रूक-रूक कर अपनी बात बता रही थी। कारण स्पष्ट था कि वो उस समय की किसी भी घटना का उल्लेख करना या स्मरण करना नही चाहती हांेगी, जो उन्हें तकलीफ दे रही हो। किन्तु जब बातें प्रारम्भ होती हैं तो अच्छी-बुरी सभी चीजें स्मृतियों के गलियारे से गुज़रने लगती हैं। तब उन तकलीफों से भी दो-चार होना ही पड़ता है।

" छत पर शीतल पुरवाई के झोंके ने हमें स्पर्श किया और हम दोनों गहरी नींद की बाहों में कब समा गये, पता ही न चला। " कह कर दीदी पुनः चुप हो गयी। कदाचित् दीदी को बताने में कठिनाई हो रही थी।

" रहने दीजिये दीदी उन पुरानी बातों को। " मैंने दीदी को कठिनाईयों से निकालने के प्रयत्न में कहा।

" नही! कहने दो मुझे। अभी तक मैं इस दुविधा में थी कि तुमसे ये बातें कहनी चाहिए या नही किन्तु तुम्हे सचेत करना आवश्यक है नीरू। " दीदी की बातें सुनकर मैं एक अजीब-सी उहापोह कर स्थिति में झूलने लगी। किस बात से दीदी मुझे सचेत करना चाहती हैं, आगाह करना चाहती हैं। मन में शीघ्र सब कुछ जान लेने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

" कभी भी विस्मृत नही कर पाऊँगी वो रात। मैं गहारी निद्रा में थी। मेरी बगल में तुम भी सो रही थी। सहसा मेरे शरीर पर किसी के हाथों का अजीब-सा स्पर्श महसूस हुआ। मेरे जगने व कुछ भी समझने से पहले वो हाथ मेरे वस्त्रों के नीचे पहुँच चुके थे। मेरे नेत्र खुल गये थे। विस्मय से मेरी चीख निकलती इससे पूर्व किसी बलिष्ठ हाथों ने मेरे मँुह को दबा दिया। मैं देखा इन्द्रेश भईया मेरे ऊपर झुके हुए थे, तथा उंगुलियों से मुझे चुप रहने का संकेत कर रहे थे।

मुझे तो उसे भईया कहने में भी शर्म आ रही है, किन्तु बाबूजी के दिये गये संस्कार ऐसे है कि भईया कहे बिना हम उसकी चर्चा नही कर पाते। इन्द्रेश किसी पागल कर भाँति बदहवास मेरी देह को कुचल रहा था। उस समय छत पर मेरे और तुम्हारे अतिरिक्त कोई नही था। मै। विवश होकर चारो ओर देख रही थी। इन सबसे अनभिज्ञ तुम गहरी निद्रा में सो रही थी। इन्द्रेश ने मुझे मेरे हाथों को समेत कस कर दबा रखा था। उसके चुप रहने के संकेत के पश्चात् भी किसी प्रकार मैंने अपने होठों से उसकी पकड़ ढीली की और मेरी घुटी-घुटी सी चीख निकल पड़ी।

घबराकर इन्द्रेश पैर दबाकर वहाँ से भाग गया। मैं सहम कर बैठ गयी। समझ नही पा रही थी कि ये क्या था? किन्तु जो कुछ था बहुत भयानक था। मैं काँप रही थी बड़ी कठिनाई से स्वंय को संयत कर पायी। देर तक बैठ कर सोचती रही कि ये क्या था....एक भाई का बहन के साथ ये कौन-सा रूप था? भाई के लिए बहन, पिता के लिए बेटियाँ, नाते-रिश्तेदारों व पास-पड़ोस के लिए लड़कियाँ मात्र देह के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं? मैंने डर के मारे घर में किसी को ये बात नही बताई। मेरी बात पर कौन विश्वास करता। " दीदी का बातें सुन कर मैं जड़ होती जा रही थी ।

सोच रही थी कि रिश्तों से शुचिता, संवेदनायें, उनकी गरिमा न जाने क्यों और कहाँ चली गयी हैं? ऐसा प्रतीत होने लगा है जैसे हमारे समाज से ये विलुप्त ही हो रही हैं। " दीदी बोलती जा रहीं थीं और उनका चेहरा पीड़ा और आँसुओं से भीगता जा रहा था, मैं मन ही मन काँप रही थी यह सोच कर कि दीदी ने तार-तार कर देने वाली इस चोट की पीड़ा मन में अब तक छुपा कर रखी है।

पुनः सोचती कि दीदी इस आघात से चप्ुपी न धारण करतीं तो और क्या करतीं? उनके स्थान पर कोई और होता तो वो क्या करता? ओह! दीदी की पीड़ा की अनुभूति दो वर्षों के पश्चात् भी मुझे किसी ताजे जख़्म की भाँति हो रही है। किस पर विश्वास किया जाये और किस पर नही, कुछ समझ में नही आ रहा था। गाँवों व छोटे शहरों में जहाँ गाँव की बेटी सबकी बेटी होती है, ये परम्परायें कहाँ ध्वस्त होती जा रही हैं। अनेक प्रश्न में मन मे उठ रहें हैं। इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढू तो कहाँ ढूँढू़, किससे पूछँ इनके उत्तर.....?

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चुनाव की सरगर्मियाँ तेज हो गयी थीं। पडरौना पोस्टरों, बैनरों से पटता जा रहा था। जिसने ज्यादा पैसे खर्च किए उनके अधिक पोस्टर चस्पा थे। अधिक पोस्टर वाले जनता तक अधिक पहुँच रहे थे। जनता उनको पहचान रही थी। पडरौना में कई उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे किन्तु जो उम्मीदवार प्रमुख पार्टी से थे और अच्छा काम किया है, या जिन्होंने सचमुच जनता के दुख-सुख में उसका साथ दिया है जनता उसे ही वोट देगी।

इन्देश एक प्रमुख पार्टी से उम्मीदवार था। उसी पार्टी से जिससे ताऊजी अभी तक उम्मीदवार थे। उन्होंने भागदौड़ कर के टिकट इस बार इन्दे्रश को दिला दिया था। ताऊजी चुनाव में पैसा पानी की तरह बहा रहे थे। हाथ जोड़े हुए इन्द्रेश के पोस्टर,पोस्टर में इन्दे्रश से बड़ी ताऊजी की फोटो। कर्मठ, जूझारू...न जाने किन-किन बड़े व चुनावी शब्दों से पोस्टर भरा था।

कच्चे-पक्के घरों की दीवारों, दुकानों, झोंपड़ियों यहाँ तक कि वृक्ष़ो के तनों तक पर इन्दे्रश के चुनावी पोस्टर लगे थे। पोस्टर पर दोनों हाथ जोड़े इन्दे्रश की मुस्कराती फोटो छपी थी। चुनाव की तिथि घोषित हो ही चुकी थी। सबने प्रचार कार्य भी खूब कर लिया था। बस चुनाव होना शेष था। अन्तः वो दिन भी आ गया जब चुनाव होना था। शोर-शराबा थम गया था। आज कितना अच्छा लग रहा था शान्त पडरौना।

आचार संहिता व चुनाव आयोग का भय न हो तो प्रत्याशी आज के दिन भी अपना प्रचार जारी रखें रहें। लाउडस्पीकरों से न सही प्रत्याशियों के घर के पुरूष व महिलायें घरों में जा-जाकर लोगांे से वोट देने की अपील करते रहें। सुना कि ताई जी व इन्दे्रेश की पत्नी शालिनी भी आस-पास के घरों में महिलाओं से वोट की अपील करने गयी थीं। जो भी हो आज चुनाव का दिन था। शान्ति के साथ लोगों ने वोट डाला। लगभग एक सप्ताह पश्चात् चुनावों के परिणाम घोषित हुए। इन्दे्रश चुनाव जीत चुका था। ताऊ के घर से लोगों की जश्न मनाने की आवाजें अधिक आने लगी थीं।