उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 8 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 8

भाग 8

आज लगभग दो वर्षों के पश्चात् मैं माँ के घर आयी थी। अन्तराल पश्चात् आयी थी, अतः घर के कोने-कोने से परायेपन की गन्ध आ रही थी। यद्यपि घर में कुछ भी परिवर्तित नही हुआ था। फिर भी बहुत कुछ बदल गया था। मेरे मन में यह भाव रह-रह कर आता कि अब मेरा इस घर में कुछ नही है। यह एक पराया घर है, जहाँ मेरा कुछ भी नही है। हमारा समाज यही तो शिक्षा देता है कि विवाह पश्चात् ससुराल ही लड़की का घर हो जाता है और पीहर बेगाना। मैं परायी हो चुकी हूँ। माँ का घर पराया अवश्य हो गया था किन्तु रिश्तों में कुछ तो अपनापन शेष रह गया था, वो काफी था मेरे खुश होने के लिए।

" अनु की ससुराल में सब कुछ ठीक नही है। " शाम की चाय मेरी ओर बढ़ा़ते हुए माँ ने मुझसे कहा।

" क्या हुआ माँ?.....दीदी का ससुराल में क्या हो गया...? " मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी।

रसोई में मेरी चाय का प्याला रखा है, लेकर आती हूँ, फिर बताती हूँ। " कहकर माँ रसोई में चली गयी।

ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आधी बात कह कर माँ कुछ कहना भी चाह रही हैं और कहने से बचना भी। वो दुविधा में थीं। ये बात मैं समझ गयी थी। कुछ ही क्षणों में माँ अपनी चाय लेकर आ गयीं।

" क्या हो गया माँ! दीदी की ससुराल में...? " माँ को खामोश देख मैंने स्वंय ही पूछ लिया।

" अरे, वही......रिश्तों में बेवजह की खटपट। " माँ ने सहज होते हुए कहा।

मैं जानती थी कि दीदी अपनी ससुराल में कभी-कभी ही आती है। दो-चार दिनों रहने के पश्चात् वापस चली जाती है, जहाँ जीजा की नौकरी है। जीजा का स्थानान्तरण होता रहता है। दीदी कभी-कभी किसी पर्व या अवकाश में ही कुशीनगर या अपने ससुराल आती है। दो-चार दिनों तक ही रहना है तो फिर रिश्तों में खटपट क्यों और किस बात पर हो गयी? पैसों की कमी दीदी के पास है नही, तो आखिर खटपट किस बात पर होती है.....?

" अबकी उसकी ससुराल में सम्पत्ति को लेकर सास और जिठानी से बातचीत बढ़ गयी। उन्होंने अनु को उल्टा-सीधा बहुत कुछ सुना दिया। " कह कर माँ चुप हो गयी।

" चलिए माँ! कोई बात नही। घर-परिवार में ये सब तो होता ही रहता है। दीदी सब सम्हाल लेगी। " कह कर मैं सोच रही थी कि, वाह! कितनी समझदारी का परिचय मैंने दिया।

" बड़े नीच लोग हैं। ये दुनिया बड़ी स्वार्थी है। जिनकी लड़कियाँ होती हैं, उन्हें बहुत कुछ सुनना पड़ता है। " माँ ने झिझकते हुए कहा।

माँ की बात सुनकर मुझे कुछ-कुछ समझ में आ रहा था कि कोई गम्भीर बात है। हमारी चाय कब की खत्म हो चुकी थी। माँ खामोशी से बैठी कुछ सोच रही थीं। कदाचित् वे किसी उधेड़बुन में थीं।

" तुमने अभय से विवाह क्या कर लिया......अनु के ससुराल वाले उसे ताना देते हैं कि उसकी बहन ने उनके रिश्ते के लड़के को फसाँकर प्रेम विवाह कर लिया। उनके इस ताने से अनु को बहुत दुःख होता है......बस इसी पर बात बढ़ गयी। " माँ की बात सुन कर मेरा मन खिन्न हो गया। एक तो इतने वर्षों के बाद यहाँ आयी थी उस पर ये सब बातें....? यदि अभय को ये सब बातें पता चलेंगी तो वह यहाँ बिलकुल ही आना ही छोड़ देगा। इन सब से रिश्ता खत्म कर लेगा। दूरियाँ न बढ़े इसलिए यहाँ की अनेक बातें अभय को बताती नही हूँ। अभय बच्चा तो है नही, जो उसे बुद्धू बना दिया जाए, वो अनुमान लगा लेता है कि रिश्तेदारों में क्या चल रहा है..? छोटी-छोटी बातों की अनदेखी करते हुए वो खामोश रहता है।

" माँ! आपने बताया नही दीदी से कि अभय से विवाह करने का निर्णय मेरा नही, आप सबका था। " मैं माँ की बातों से फैल रही भ्रम की गंध को महसूस कर रही थी। इस बात से मैं भलीभाँति परिचित हूँ कि माँ हर हाल में बाबूजी की बातों का समर्थन करती हैं, बच्चों का नही। दीदी के कारण बाबूजी मेरे व अभय का विवाह उनकी इच्छा से हुई है ये बात स्पष्ट करना नही चाहते। वो यह भ्रम की स्थिति को समाप्त करना नही चाहते। इन सब के मध्य मैं पिस रही हूँ। दीदी की घृणा का शिकार मैं और अभय हो रहे हैं।

" पसन्द तो तुम्हे भी था। " माँ के कहे गये ये शब्द एक नये विवाद को उत्पन्न करते, कि अभय को मैं पसन्द नही करती। माँ की इन बातों का दूरगामी परिणाम सोच कर मैं चैंक गयी। यदि दीदी को ये बात ज्ञात हो जाती तो अभय के घर वालों तक ये बात अवश्य पहुँचतीं। परिणाम स्वरूप मेरा वैवाहिक जीवन किस प्रकार संकट में पड़ जाता ये मं समझ गयी थीं। अतः उस समय मेरा चुप रहना ही बेहतर था। लड़कियों के माता-पिता को समाज की बहुत-सी कड़वी बातें सुननी पड़ती हैं, यह बात जितनी सत्य है, उससे अधिक ये बात भी सत्य है कि लड़कियों का शोषण मात्र ससुराल पक्ष ही नही, मायके पक्ष के लोग भी करते हैं। मुझे उहापोह व व्यकुलता की स्थिति में छोड़कर माँ रसोई में चली गयीं। शाम का भोजन बनाने में उनकी सहयता करने मैं भी उनके पीछे-पीछे रसोई में चली गयी। मुझे रसोई में गये हुए कुछ ही मिनट हुए होंगे कि -

" का हो बिटिया! कहाँ बाड़ू...? " आँगन से दादी की आवाज आयी। दादी ताऊ जी के साथ रहती हैं। ताऊजी के घर हम लोगों का आना-जाना नही है, इसलिए मेरा आना सुनकर मुझसे मिलने चलीं आयी थी।

" देखो दीदी आयीं हैं। जाओ बैठाओ। मैं भी आ रही हूँ। " माँ ने कहा।

" जी दादी! आयी। " कहते हुए शीघ्रता से आँगन में आकर दादी के पैर छूकर मैं उनके पास बैठ गयी। दीदी मेरे हाथों को पकड़कर मेरा हाल पूछने लगी। कुछ ही देर में माँ भी आ चुकी थीं।

" अबकी बहुत दिनों में आयीं अम्मा! " माँ ने दीदी से कहा।

" का करी बिटिया! तुम तो सब कुछ जानती हो..? " दादी ने सरलता से कहा।

ताऊ जी के घर हम लोगों का आना-जाना नही है। दादी हम सब से उतना ही स्नेह रखती हैं, जितना ताऊजी के बच्चों से। किन्तु ताऊजी दादी को हम लोगों के घर आने देना नही चाहते, अतः दादी कभी-कभी हम लोगों से मिलने आ जाया करती हैं। ताऊजी रिश्तों में भी रसूख का प्रयोग करते हैं। रसूख का प्रयोग कर ही वो दादी को यहाँ नही आने देते।

उन्होंने दादी कोे रहने के लिए अपने हिस्से से एक कमरा दे दिया है। साथ ही सेवा के लिए ही नौकर-चाकर भी हैं। रहने के लिए तो हमारे घर के हिस्से में भी कमरों की कोई कमी नही है। नौकर हमारे घर में भी हैं। संख्या भले ही ताऊ जी के घर के नौकरों से कम हैं। किन्तु घर के बँटवारे के समय दादा-दादीजी का कमरा ताऊजी के घर के हिस्से में था। अतः दादाजी-दादीजी वहीं रह गये। क्यों कि उनका जुड़ाव उस हिस्से व अपने उस कक्ष से था जिसमें वो रहते थे।

ताऊजी ने उनकी भावनाओं का खूब फायदा उठाया। दादाजी के देहान्त के बाद दादी उनकी स्मृतियों संग उधर ही रहना.....जीना चाहती थीं। कुछ-कुछ ताऊजी के पैसे व रसूख का प्रभाव भी था, जो कि हमारे प्रति दादी के प्रेम को प्रभावित करता था। बस एक दीवार की ही खिंची दूरी के पश्चात् भी दादी बहुत कम इधर आ पाती थीं।

" तू बताव! ससुराल में सब नीकै रहा। " दादी का बिना दाँतों का गोल झुर्रियों वाला चेहरा व उनके मुँह से भोजपुरी भाषा की मिठास, जिसे सुनकर मैं हँस पड़ी। दादी टुकुर-टुकुर मेरा मुँह देख रही थीं तथा मन्द-मन्द मुस्करा रही थीं। दादी के पास बैठना मुझे अच्छा लग रहा था। अपनापन की सोंधी सुगन्ध से भरा था उनका आना।

" अबकी बहुत दिन में अईलू बिटिया। साल भर से ऊपरै हो गईल बबुनी। " मैं बस दादी को देखे जा रही थी।

" आवै क मन नाही करेला का...? " दादी अपनी बात कहे जा रही थीं।

" नही दादी! ऐसी बात नही है। बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। अभय को भी आफिस से छुट्टी नही मिलती। " मेरी बात सुनकर दादी सिर हिलाते हुए मुस्करा रही थीं।

" हाँ बबूनी! घर-गृहस्थी में इहै जरूरी हवे। तू का कर सकबू। "

" जी दादी! "

" और आप ठीक हैं दादी...? आप की तबीयत ठीक रहती है..अब? " माँ ने बताया था कि इस जाड़े में आप बहुत अस्वस्थ हो गयी थीं। मैंने दादी के स्वास्थ्य का हाल जानना चाहा।

" हाँ बबुनी! अब त ठीकै बा। पहिलै गोड़वा बहुत पिरात रहा। जाड़े भर टेहुना ( घुटना ) खुलतै नाही रहत। जब खूब मालिश भईल तब ई डंडा लेके चलत हईं। " दीदी ने अपने पास रखे डंडे की ओर संकेत करते हुए कहा।

मुझे दादी की अस्वस्थ्ता को लेकर सचमुच बहुत चिन्ता हो रही थी। मेरे बाबूजी और ताऊजी के परिवार को जोड़ने में जो कड़ी शेष थी वो दादी के रूप में थी।

" दादी आप कितने साल की हो गयी हैं...? मैंने दादी से पूछा। हालांकि हम लोगों को दादी की उम्र का अनुमान था, उम्र जानने की इच्छा नही। किन्तु मैं चुहल करना चाह रही थी। क्यों कि उम्र और समय को जोड़ने का दादी का ढंग मुझे बहुत अच्छा लगता था।

" अरै बबुनी पूछौ न! बहुत उमर है हमार। सौ पूरे हो जइहैं लागत है। " दादी खिलखिलाती हुई बोलीं। कितनी मिठास है उनकी बाली में.....भोजपुरी में जो यहाँ की आम बोलचाल की बोली है।

" नही दादी आपकी उम्र अभी बहुत कम है। "

" नाही। तुम्हार दादा त आपन उमर पूरा कई के चले गये। अब हमके पूरा करे के बा। " दादी ने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा।

दादा का निधन हुए पाँच वर्ष हो गये हैं, तब से ही दादी स्वयं को सौ वर्ष का बताती हंै। गणना के अनुसार सौ वर्ष अर्थात एक पूरी उम्र। जब हमारा परिवार एक संयुक्त परिवार के रूप में रहता था। जब दादा-दादीजी, हमारा व ताऊजी का परिवार एक साथ रहता था, तब दादा जी अपनी व दादी की उम्र का अनुमान बच्चों की उम्र के हिसाब से लगाते थे, उसके अनुसार दादी इस समय लगभग अस्सी वर्ष की होंगी। किन्तु मेरी सीधी-सादी दादी दादा जी के जाने के बाद स्वयं को सौ वर्ष का मानकर संसार से छूट जाना चाहती हैं। मैं दादी की इस भोलेपन की सोच पर मुस्करा पड़ी। इस बीच मेरे घर की काम वाली ने दादी के लिए दूधवाली मीठी चाय जैसी कि दादी को पसन्द है बनाकर ले आयी। दादी प्याले में फूँक मार-मार कर धीरे-धीरे चाय पीने लगीं। चाय पीने से पहले तथा चाय पीने के पश्चात् दादी के होठ देर तक हिलते रहते थे। बिलकुल किसी नवजात शिशु की भाँति।

" चाय नीक बनल बा। मीठ-मीठ। " दादी ने चाय की प्रशंसा करते हुए कहा।

" दादी आप सुबह कितने बजे उठती हैं? " मैं दादी की दिनचर्या जानना चाहती थी। साथ ही यह भी कि इस उम्र के लोगों के दिन-रात कैसे कटते हैं? क्या करते हैं वे जब उन्हें उनके दायित्वों से मुक्ति मिल जाती है? ऐसे में शरीर भी बहुत कुछ करने की मनाही करता है। उनके पास समय ही समय रहता है। मेरी बाते सुनकर दादी मुस्करा रही थीं। माँ जानती हैं कि प्रारम्भ से ही मैं उत्सुक प्रवृत्ति की रही हूँ। लोगों से बातें करना, उनके दुःख-सुख जानना ये मेरी इच्छा प्रारम्भ से रही है। अतः वे मुझे दादी के साथ बातें करने के लिए छोड़कर रसोई में चली गयीं।

" हम तो राते भर जागेली। तनिक देर के लिए नींद आवेला फिर उठ-उठ जात हईं। " कह कर दादी बिना दाँतों के मुस्करा पड़ी।

" क्यों उठ-उठ जाती हैं? " मैंने पूछा।

" अँखियन में नींद ना पड़ेला। रात भर कहीं ककुर भौंके के आवाज, तो कहीं गाड़ी के हार्न सुनाला।.......भोर के दुआर तक घूमि आवेली। बाहरे खटिया डालके बईठ जाली। राह के आवत-जात लोगन से राम-राम होत रहेला......का करी बबुनी दिनवों बड़ा लागेला, रतियों बड़ लागेला....कऊनो तरे से लोगन से बोलत-बतियावत दिन काट देली। " मुझे दादी के हौसले व समझदारी पर गर्व हो रहा था। वृद्धावस्था को इस प्रकार सकारात्मक लेना बहुत कम लागों में देखने में मिलता है।

" तुमही लोगन के देख के जियरा के भरपूर खुसी मिलेला। " दादी की बात मैं मनोयोग से सुन रही थी तथा भावुक भी हो रही थी। घर का मुखिया सभी से स्नेह एक-सा करता है किन्तु उम्र के अन्तिम पड़ाव पर आकर यह स्नेह ही मोह के रूप में परिवर्तित हो जाता है। जो उसे उसके वृद्धावस्था को बोझ बनाता है। यदि यह मोह का बन्धन छूट जाये तो दुनिया का कोई भी बुजुर्ग अन्तिम पड़ाव पर आकर दुखी नही रहेगा। बल्कि बन्धनमुक्त होकर खुली हवा में साँसे ले सकेगा। किन्तु क्या यह इतना सरल है? दादी के साथ बैठकर मैं अत्यधिक भावुक होने लगी थी, तथा चाह रही थी कि माँ रसोई से शीघ्र वापस आ जायें। कुछ ही देर में माँ रसोई से वापस आ गयी थीं। दादी माँ से घर के प्रत्येक सदस्य का हाल पूछने लगीं।