उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 11 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 11

भाग 11

मेरा भाई नौकरी के लिए प्रयत्न कर रहा था। माँ ने बताया कि इन्द्रेश पुनः टिकट पाने के लिए प्रयत्न कर रहा था। वो क्षेत्र में जनता को लुभाने, अपनी पहचान बनाने के लिए खूब घूम रहा है। वृद्धावस्था के कारण ताऊजी की सक्रियता कम हो गयी है।

वो अपनी विधानसभा सीट को ख़ानदानी जाग़ीर बनाने के उद्देश्य से अब अपने बड़े पुत्र इन्द्रेश को टिकट दिला कर पुनः चुनाव लड़वाने की तैयारियो में हैं। इन्द्रेश व उसका अभिन्न मित्र राजेश्वर घर-घर जाकर दोनों हाथ जोड़कर जन-सम्पर्क कर जनता से वोट देने की अपील कर रहे हैं। लोग तो कह रहे हैं कि जनता को पैसों से भी लुभाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। मेरा भाई नौकरी के लिए प्रयत्नशील था। उसका मार्ग सही है। वो प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहता है। माँ ने बताया कि हमारी छत के बीच में ताऊजी दीवार खड़ी कर दी गयी है। सुनकर मुझे अच्छा लगा।

दीदी के साथ घटी घटना मेरी स्मृतियों में घूमने लगी। जब छत पर इन्द्रेश ने भाई-बहन के रिश्तों की गरिमा को तार-तार करने का प्रयत्न किया था। माँ को इस घटना की जानकारी भले ही न हो, किन्तु दीदी के जीवन पर विशेषकर उस समय किशोरावस्था पर जो दुष्प्रभाव पड़ा वो अत्यन्त पीड़ादायक था। समय के साथ वो बातें हमारी स्मृतियों में धूमल पड़ चुकी हैं। किन्तु मन यह सोचकर सिहर उठता है कि यदि इन्दे्रश पुनः चुनाव जीत गया तो वो अवश्य और अधिक अहंकारी हो जायेगा। ताऊजी के घर के सदस्यों में अहंकार और पैसों का प्रदर्शन कुछ और अधिक बढ़ जायेगा।

माँ के घर दो दिनों का समय इतनी शीघ्र व्यतीत हो गया जैसे दो घड़ी। कुशीनगर आकर मैं घर व कार्यालय की दिनचर्या में व्यस्त हो गयी। समय का पहिया अपनी गति से घूम रहा था। ऋतुयें आ रही थीं, जा रहीं थीं। कभी ग्रीष्म की तपिश व पतझड़ वाली ऋतुयंे, तो कभी मादक-मनोहारी वसंत। कुछ उसी प्रकार जैसे जीवन में भी अनेक ऋतुएँ आती-जाती रहती हैं। धूप-छाँव की, दुख-सुख की, अनुरक्ति-विरक्ति की आदि।

अभय मेरे प्रति कुछ-कुछ शक्की व मुँहफट होता जा रहा था। यदि रसोई में काम करते-करते मैं कोई गीत गुनगुना पड़ती, तो उसका शक्की स्वभाव प्रत्यक्ष हो जाता, " बहुत गाने सूझ रहे हैं....। उधर कोई गाने सुनने वाला मिल गया है क्या....? " इस प्रकार की बेहूदी, बेसिरपैर की बातों का मैं क्या उत्तर देती? बस चुप रह जाती। बच्चे बड़े हो रहे हैं। बेटी नौ वर्ष की हो रही है व बेटा सातवें वर्ष में वर्ष में चल रहा है। मैं अपनी गृहस्थी में अशान्ति नही चाहती। चुप रहना ही बेहतर विकल्प लगता किन्तु कब तक...?

क्या पत्नी के चरित्र पर बिना कारण संदेह करना तथा छोटी-छोटी बातों पर उसे अपमानित करना अनुचित नही है....? बच्चे सुन लेंगे तो बचपन से अपनी माँ प्रति कितनी ग़लत धारणा बना लेंगे....ये कभी नही सोचता अभय। काम करते समय फिल्मों के गाने गाना मेरा पहले का स्वभाव है। माँ के घर रसोई में काम करते समय, रोटियाँ बनाते समय, काम करने की धुन में मैं बिना संकोच के गाने गाती थी। अब अभय को मेरा गाना, हँसना सब कुछ बुरा लगता है।

कभी-कभी मेरे भीतर की युवती जाग जाती। वो बाहर निकलना चाहती, हँसना चाहती, खिलखिलाना चाहती, अपनी दोनों मुट्ठियों में संसार की सारी खुशियाँ बटोर लेना चाहती है। अभय को ये सब भी बुरा लगता है। तो क्या उसके लिए अभी से मैं निरसता व उदासी का आवरण ओढ़ लूँ। अपने भीतर की युवती को मारकर अभी से एक ढलती हुई उम्र को जीने लगूँ। अभय की प्रसन्नता के लिए मैं ये भी करूँगी। अपने भीतर की युवती को मैंने अपने मन के भीतर दबाना प्रारम्भ कर दिया था। मैं जानती थी कि दबते-दबते एक दिन उसकी साँसे घुट जायेंगी और वो मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी।

जीवन कभी वसंत, तो कभी पतझड़ की ऋतुओं से होकर ग़ुज़रता जा रहा था। माँ का फोन आया। वो बता रही थीं कि, " इन्द्रेश चुनाव की तैयारी में खूब दौड़-भाग कर रहा है। इधर उसको बेटा हुआ है। दो बेटियाँ पहले से थीं। इस बार बेटा होने की खुशी में ताऊजी के घर में भोज का आयोंजन किया गया है। बहुत सारे लोगों का खाना-पीना, गाना-बजाना हुआ है।

हमारे घर से उन्हें न जाने कौन-सी टीस है कि किसी भी आयोजन में हमें नही पूछते। हमें तो तुम्हारे बाबूजी का फीका मुँह देखकर चिन्ता होती है। ये सगे भाई हैं दुश्मनों से भी बढ़कर हैं। " मैं माँ बातें सुनती रही। क्या कह सकती थी, मात्र इसके जाने दो माँ, जिसकी जितनी अक्ल है वो उसी अनुसार काम करता है। माँ बताती हैं की इन्द्रेश की पत्नी अच्छे संस्कारों वाली है। न जाने उस जानवर को कैसे इतनी अच्छी पत्नी मिली गयी।

अच्छे स्वभाव की भली लड़की है शालिनी। अपने नाम के अनुरूप। मुहल्ले, नाते-रिश्तेदारों के यहाँ शादी-विवाह या अन्य किसी भी अवसर पर यदि मिल जाती है तो खूब प्रेम से बातें करती है। पैर छूकर सम्मान देती है। सबका कुशलक्षेम पूछती है। उसकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों परिवारों के बीच की दूरियाँ उसे अच्छी नही लगतीं। अपने बच्चों को भी उसने अच्छे संस्कार दिये हैं। उसका व बच्चों का ऐसा मृदु व्यवहार ताऊजी के परिवार में किसी के अन्दर नही है।

इन्दे्रश चुनाव जीत गया। वह पहले से ही कुछ कम असभ्य न था। अब सत्ता मिलने पर उसका व्यवहार, चाल-ढाल सब कुुछ बदल गया था। असभ्यता उसके व्यवहार में और बढ़ गयी थी। लोगों का कम, चाटुकारों का हुजूम उसके आगे-पीछे अधिक चलने लगा था।

समय अपनी ही गति से जैसे पंख लगाकर तीव्र गति से उड़ता चला जा रहा था। मेरा भाई प्रांजल पी0सी0एस0की परीक्षा उत्तीर्ण कर लिया था। उसकी प्रथम नियुक्ति आयकर विभाग में सहायक आयुक्त पद पर कानपुर में हो गयी थी। पडरौना उसके लिए परदेश की भाँति हो गया था। वो अपनी पत्नी व बच्चों के साथ परदेशी हो गया था। माँ-बाबूजी के साथ हम सबको इस बात की प्रसन्नता अधिक थी कि प्रांजल का भविष्य बाबूजी की इच्छानुरूप आकार पा सका।

बाबू जी की यही इच्छा थी कि प्रांजल प्रशासनिक क्षेत्र में नौकरी करे तथा सुख-शान्ति का जीवन जीये। बाबूजी अपनी पैत्रिक सम्पत्ति खेत-खलिहान, घर-मकान छोड़कर अपने इकलौते पुत्र के पास नही जा सकते थे, किन्तु पडरौना में रह कर उसके लिए प्रसन्न थे। अवकाश के दिनों में प्रांजल उनसे मिलने आ जाया करता। माँ-बाबूजी के जीवन की गाड़ी बच्चों का जीवन व उनकी खुशियाँ देखते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी।

मेरे जीवन ने इतने रंग बदले, जीवन में इतने उथल-पुथल आये जिसकी कल्पना मैंने नही की थी। अभय का विवाह पूर्व का प्रेम विवाह पश्चात् न जाने क्यों और कहाँ तिरोहति हो गया था। बात-बात में मेरे प्रति संदेह, तानों के चुभते तीर व मेरे प्रति उसकी उदासीनता मुझे पीड़ा देने लगे थे। मेरी किसी सामान्य बात पर भी उग्र हो उठना उसका स्वभाव बनता जा रहा था। मैं कार्यालय से आकर घर के कार्यों में व्यस्त हो जाती।

अभय कार्यालय से घर आकर फोन पर अपने मित्रों से बातें करता रहता। घर के कार्यों में थोड़ी-बहुत मेरी सहायता करने के लिए कहने पर अक्सर भड़क उठता व तेज आवाज में बोलने लगता। एक दिन सहसा मुझे न जाने क्या हुआ कि उस पर संदेह हुआ और मैंने उस नम्बर को काल बैक किया, जिस नम्बर पर वो अभी बातें कर रहा था। उधर से किसी महिला की स्वर सुनकर मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने उस महिला से उसका परिचय जानना चाहा तो उसने स्पष्ट कुछ नही बताया, या जो कुछ भी बताया वो मेरी समझ में नही आया।

" अभी आप जिनसे बातें कर रही थीं वो कौन हैं? " मैं कुछ समझ नही पा रही थी कि उस महिला से मुझे क्या पूछना चाहिए। अतः यही पूछ बैठी।

" वो मेरे सर हैं। " मैं समझ नही पा रही थी कि किस तरह के सर? आज तक अभय ने ऐसी किसी महिला का जिक्र मेरे समक्ष कभी किया नही तो वो कौन थी? मैं अपनी जिज्ञासा शान्त कर पाती कि उसने फोन रख दिया।

मन में अनेक प्रश्न उठ रहे थे कि वो महिला मेरी परिचित नही थी, न ही उसने अपना परिचय बताया। आखिर वो थी कौन? उसकी बातों से मैंने यह अवश्य अनुमान लगाया कि वो अभय के साथ काम करती होगी। किन्तु कौन है, जो गाहे-बगाहे अभय से फोन पर बातें करती रहती है। मेरे मन से ये बात निकल नही पा रही थी। अन्ततः एक-दो दिनों पश्चात् अभय से मैंने डरते-डरते पूछ लिया कि, कौन है वो जिससे आप बातें करते रहते हैं?

" वो....वो मेरी पे्रमिका है। " अभय ने बड़े आराम से कहा।

अभय की बात सुनकर मेरा हृदय धक् से रह गया। मैं सकते में थी। अभय का मुझसे बात करने का ये कौन-सा ढंग था? मैंने तो उससे एक साधरण-सी बात पूछी थी। उसने उसे इतना बड़ा और बोझिल बना दिया कि मुझे रात भर मुझे नींद नही आयी। हृदय पीड़ा से भरा गया था। मन में जबर्दस्त उलझन थी। मेरे अतिरिक्त अभय की कोई और पे्रमिका?

यह बात मेरे लिए असहनीय थी। मैं ही तो थी अभय की प्रेयसी जिसको पाने के लिए उसने मेरे और अपने नाते-रिश्तेदारों से टक्कर लिया, संघर्ष किया, तब मुझे प्राप्त किया। अब उसकी कोई और प्रेमिका....? यह बात मेरे लिए असह्नय थी। जिसका परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया । मेरे कोमल हृदय इतना जख़्मी हुआ कि मैं कार्यालय में दिन भर अभय की कही गयी वही बात सोचती रही। ’ मेरी प्रेमिका...! ’अभय की इस बात से मेरे हृदय पर जबरदस्त धक्का लगा था।

अभय का व्यवहार मुझे समझ में नही आया। उसकी कही गयी बात मेरे मस्तिष्क के भीतर तक चुभ गयी। मैं यह भी जानती थी कि अभय ने ये बात बस यूँ ही मुझे परेशान करने के लिए कही है। उसकी बातों में तनिक भी सच्चाई नही है। अभय चाहे मुझसे जितनी भी बेरूखी दिखा ले, वो इतनी घटिया हरकत कभी नही करेगा। मैं यह सब कुछ समझ रही थी फिर भी मेरा मन यह सब मानने के लिए तैयार नही हो पा रहा था। " वो मेरी प्रेमिका है.... " यही बात मेरे मन में बैठ गयी थी।

मैं जानती थी कि यह सत्य नही है , अभय ऐसा नही है, किन्तु मैं अपने इस मन का क्या करूँ मेरे मन से ये बात निकलती ही नही थी। मैं सोचती रहती कि मेरे समक्ष स्वंय प्रेम प्रकट करने व प्रेम विवाह करने वाला अभय किसी और से प्रेम कैसे कर सकता है? वो कैसे मुझसे इस प्रकार की बातें कर सकता है? मेरे प्रति उसका प्रेम क्या दिखावा मात्र था...? नही ये कदापि नही हो सकता।

मैं जानती हूँ कि अभय मुझसे ही प्रेम करता है। उसके जीवन में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई नही है। किन्तु इस हृदय का क्या करूँ....? अभय की कही गयी बात मैं विस्मृत नही कर पा रही थी। चाहे उसने परिहास के हल्के मूड में बस यूँ ही यह बात कह दी हो। मेरा संवेदनशील हृदय उसकी बात को गम्भीरता से ले चुका था। उसकी इस बात का मेरे ऊपर यह प्रभाव पड़ा कि धीरे-धीरे मैं अवसाद में घिर गयी। मुझे डिप्रेशन की बीमारी हो गयी। अपने स्तर से अनेक प्रयत्न कर के भी मैं इस बात को मन से बाहर नही निकल पा रही थी। अवसाद की इस समस्या से मैं बाहर नही निकल पा रही थी। इसके कारण मुझे मेरा जीवन कठिन लगने लगा। मन में नकारात्मक विचार आने लगे। कभी-कभी यह विचार तक आने लगाता कि अपना जीवन ही समाप्त कर लूँ। जब भी ऐसा विचार आता मैं अपने बच्चों के बारे में सोचने लगती। फूटफूट कर रोती। अवसाद की समस्या जब अपने चरम अवस्था में पहुँच गयी मैं इस पर नियंत्रण नही कर पायी तब अपने मन की उलझन मैंने अभय से कही। मेरी अवस्था देख कर अभय को अपनी ग़लती की अनुभूति हुई। वो परेशान हो उठा और परेशानी की स्थिति में अपनी और बच्चों की कसमें खाने लगा कि ऐसा उसने मजा़क में कहा था। मुझे समझाने व इस स्थिति से बाहर निकालने के लिए वह बार-बार अपनी व बच्चों की कसमें खाता। मैं जानती थी कि वो बच्चों से सर्वाधिक प्यार करता है। उसने कहा कि इस प्रकार की कोई बात नही है। वो महिला उसके कार्यालय की क्लाइंट है, इस कारण उससे कभी-कभी काम के सम्बंध में बातें करनी पड़ती हैं। अपनी इस भूल के लिए वो मुझसे बार-बार क्षमा मांगता। मैं भी समझती थी कि उसने ऐसा मज़ाक में ही कहा है, किन्तु थोड़ी देर के लिए ही मैं अपने मन को समझा पाती। पुनः मैं अवसाद में घिर जाती। अभय मुझे चिकित्सक के पास ले गया। इस बीच वो मुझे सामान्य कामकाज करने व कार्यालय जाने के लिए प्रेरित करता रहा। मेरा उपचार चलता रहा। अवसाद की अवस्था मंे भी मैं स्वंय को व्यस्त रखने के लिए घर के काम करती व कार्यालय जाती। स्वंय को व्यस्त रखने का पूरा प्रयास करती। बच्चों का मुँह देखती तो ईश्वर से यही प्रार्थना करती कि हे भगवान! मुझे मेरे बच्चों के लिए स्वस्थ कर दो। मैं नौकरी, घर व कार्यालय सब कुछ अभय के सहयोग से सम्हालती रही। अभय का कहना था कि व्यस्त रहने से मैं शीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर पाऊँगी। मेरा उपचार लम्बे समय तक चला, कम से कम एक वर्ष तक। धीरे-धीरे मैं स्वस्थ होने लगी। मेरे मन से अवसाद व नकारात्मकता कम होते-होते पूरी तरह से समाप्त हो गयी। मैं स्वस्थ तो हो गयी किन्तु अभय के प्रति मेरे हृदय में जो दूरी निर्मित हो गयी थी, वो अभी तक कम नही हो रही थी। एक साथ रहते हुए भी ऐसा लगता जैसे मै अभय दूर होती जा रही हूँ। मैं घर के काम करती, बच्चों की देखभाल करती, कार्यालय भी आती-जाती सब कुछ यंत्रवत् हो रहा था। इन सब में संवेदनायें, अभय के प्रति प्रेम सब कुछ कहीं गुम हो चुका था। मेरे जीवन में सब कुछ जब शून्य हो चुका था, तब अभय लौट आया था, प्रेम व पूर्ण समर्पण के साथ पुनः मेरे जीवन में। अवसाद ने जो शून्यता मेरे जीवन में भर दी थी, उसके चिह्नन अब भी मेरे हृदय पर अंकित थे। अभय की बातों पर मैं मुस्करा अवश्य पड़ती, किन्तु हार्दिक प्रसन्नता महसूस नही करती। ऐसा नही था कि मुझे अभय की किसी बात पर भरोसा व विश्वास नही था बल्कि मैं जानती थी कि अभय व मेरे लिए उसका प्रेम सत्य है। उसमें कोई छल नही है। किन्तु मेरे मन में यदाकदा दुविधा की स्थिति बनी रहती। मैं समझ रही थी कि यह सब अवसाद के बचखुचे चिन्ह हैं, जिन्हें मिटने में कुछ और समय लगेगा। इसके लिए मैं योग का भी सहारा लेने लगी हूँ।

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