भाग 9
" बिटिया तू कब ले रूकबू? " दादी ने मेरी ओर देखकर पूछा।
" हम..? दो-चार दिन और रूकेंगे दादी। " मैंने दादी से कहा।
" ठीक बा। " दादी ने कहा। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। माँ को ऐसा लगा जैसे दादी अब जाने को तत्पर हो रही हैं।
" खाना खा के र्जाइं अम्मा! " माँ ने आग्रह करते हुए दादी से कहा।
" ठीक बा। का बनईबू बिटिया। तू त जनते बाडू कि हमारा एकौ दाँत नाही बा। " कह कर दादी मुस्करा पड़ीं।
" आप जवन कहीं, बन जाई। " माँ ने कहा।
" कढ़ी-भात बना द हमरे लिए। रोटी त खा नाही पावेली हम। भतवा तनिक गील-मुलायम कर दीह। " दादी ने समझाते हुए माँ से कहा।
दादी धीरे से पैर उठाकर तख़्त पर बैठ गयी थीं। माँ रसोई में काम कर बीच-बीच में दादी के पास आकर बैठ भी जा रही थीं। दादी माँ से इधर-उधर की, दूर-दराज के नाते-रिश्तेदारो की बातें कर रही थीं, किन्तु एक बार भी ताऊजी के घर की बात नही हुई। माँ जानती थीं कि ताऊजी के घर की चर्चा यहाँ करना दादी को अच्छा नही लगता। कारण वही कि ताऊजी नही चाहते होंगे कि उनके घर की बात भाई-पट्टीदारों ( मेरे बाबूजी ) को पता चले। ऐसा कर माँ दादी को किसी धर्म संकट में नही डालना चाहतीं। इसलिए माँ स्वंय अपनी ओर से ताऊजी के घर की कोई बात नही करतीं न ही कभी कुछ पूछतीं।
" बेटवा कहाँ है? दिख नाही रहें। " दादी ने भाई प्रांजल के बारे में पूछा।
" दादी! वो केाचिगं गया है। " मैंने कहा।
" नीकै है बिटिया। उहाँ चन्द्रेश भी पढ़ाई छोड़ देने बबुनी। इन्दे्रश त पहिलै ही पढ़ाई छोड़ दिहले बाने। " हम लोगों ने तो नही बल्कि अब दादी ने स्वंय ताऊजी के घर की चर्चा कर दी थी।
" काहै....? का हुआ....? " माँ ने पूछा।
" का जानै? दिन भर घूमा करत है। पढै में मन नाही लागत है। स्कूल जाइलै छोड़ दिहने। " माँ दादी का बातें सुन सिर हिला रही थीं।
" वोहू का मन पढै में ना लागत बा। बुझाता उहो नेता बनिहैं। इन्दे्रस त रमेसर के साथे रहेने। उ ( इन्द्रेश )नेता बन गईल बाने। " दादी कुछ रूक-रूक कर धीरे-धीरे अपनी बात कहती रहीं।
कुछ देर में प्रांजल कोचिगं से लौट आया। दादी को घर में देख उसके चेहरे पर प्रसन्नता औश्र स्नेह के भाव थे। दादी बहुत दिनों के पश्चात् प्रांजल को देख रही थी।
" आई गये बचवा टिसन ( ट्यूशन ) पढ़ के ।
" जी दादी। " दादी ने उसे अपने पास बुलाकर बैठा लिया।
" का पढ़त है बेटवा आजकल ? " दादी ने प्रंाजल से पूछा।
" दादी मैं बी0टेक कर रहा हूँ। उसके बाद नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूँगा। " दादी उसकी बातें सिर हिला-हिलाकर ध्यान से सुन रही थी।
यद्यपि दादी को उच्च शिक्षा के विषय में कोई भी जानकारी न थी। उच्च शिक्षा ही क्यों उन्हें हाई स्कूल अथवा इण्टरमीडिएट की शिक्षा कहाँ तक होती ह,ै ये भी नही ज्ञात था। किन्तु बच्चों की शिक्षा में रूचि लेना, उन्हें प्रोत्साहित करना दादी केा भलीभाँति आता था। वे बी0टेक0, एम0बी0ए0 आदि शब्दों को सुनकर समझ जाती थीं कि ये कोई अच्छी शिक्षा है। प्रसन्न्ता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देने लगती। हमारी अनपढ़ दादी बच्चों की शिक्षा के बारे में पूछकर अन्यन्त प्रसन्न होतीं।
" तब तुमका नौकरी मिलि जाई? " दादी ने कौतूहल व्यक्त किया।
" जी दादी! प्रयत्न तो ऐसा ही है। " प्रांजल ने कहा।
" हाँ बेटवा! तुमहिन लोगन के भगवान नीकै राखै। " दादी ने अशीषते हुए कहा।
हम जानते थे कि ताऊजी के घर का माहौल पूर्णतः राजनैतिक है। पैसों व राजनैतिक दबदबे के कारण उनके दोनों बेटों के स्वभाव में भी अक्कखड़पन व अहंकार आ गया है। इन्द्रेश ने भी बीच में पढ़ई छोड़ दी थी। अब ताऊजी का छोटा बेटा चन्दे्रश भी स्कूल नही जा रहा है।
चन्दे्रश भी बड़ा हो गया है। अब वो पढ़ने क्या जायेगा? उसका मन भी पढ़ने में नही लगता है। उन लोगों की सोच ये थी कि पढ़-लिखकर नौकरी थोड़े न करनी है। अतः ताऊ जी के बेटों का मन पढ़ने में क्यों लगेगा? ये बात दादी जानती थीं। जब कि मेरे परिवार में बाबू जी ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वे शिक्षा के महत्व को समझते थे। मेरे बाबूजी का मानना था कि कोई भी काम करो शिक्षित होना जरूरी है। हम दोनों बहनें भी परास्नातक थीं। भाई भी प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। उसे भी नौकरी ही करनी है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही है।
" अबकी बार इन्द्रेस चुनाव लड़े के खातिर तइयारी करत बाने। " ताऊ जी के घर की चर्चा मेरे घर न करने वाली दादी ने इस बार उनके घर की चर्चा कर एक बड़ी खबर दे दी जिसके बारे में हमें कोई जानकारी न थी।
" अभी तो अगले वर्ष चुनाव होंगे..? " मैं जानती थी कि विधानसभा चुनाव अगले वर्ष हैं। सोच रही थी कि क्या ताऊजी के घर में सिर्फ चुनाव की ही बातें होती रहती हैं? राजनैतिक
" रमेसर ( रामेश्वर-ताऊजी का नाम ) के जगह पर इन्दे्रस लड़िहै। अबकी भी रमेसर नाही लड़िहैं विधैइकी क चुनाव। इन्दे्रश के लड़ईहैं। रमेसर आपन कुर्सी इन्दे्रश के दे देने बाड़न। अबही टिकट नाही मिलल बा। दुबारा इन्द्रेस के टिकट देयावे के खतिर दऊड़त बानै। " माँ चुपचाप दादी की बात सुन रही थीं।
" मैं सोच रही थी कि इन्द्रेश को यदि दुबारा टिकट मिला और वो चुनाव जीत गया तो क्या होगा...? ऐसे युवाओ से देश को क्या दिशा मिलेगी? चरित्रहीन व्यक्ति को यदि पैसे के साथ पावर मिल गयी तो वो क्या रंग दिखायेगा? कुछ कहा नही जा सकता। दीदी के साथ.....अपनी सगी चचेरी बहन के साथ किये गये उसके कुत्सित प्रयास उसके चरित्र को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त हैं।
इन्द्रेश ने राजनीति को पैसा व शक्ति प्राप्त करने का साधन बना लिया था। इन्दे्रश मेरे बाबूजी व भाई से भी इष्र्या भाव रखता था। अनेक बार वो ताऊजी के साथ खड़े होकर मेरे बाबूजी व भाई को भला-बुरा बोल चुका था। बाबूजी से बात करते समय वो यह भी नही सोचता कि वो अपने पिता तुल्य चाचा से बातें कर रहा है। माँ-बाबूजी को सामने देखने पर भी कभी उनका सम्मान नही करता न अभिवादन। ताऊजी को यह सब पता हैं। उन्हें ये सब अच्छा लगता है। वे उसे अच्छे संस्कार देते कभी नही दिखते।
दादी ने भोजन किया। हम सबसे प्रेम से मिली। पुनः मिलने का वादा कर अपनी छड़ी पकड़े धीरे-धीरे चली गयीं। भाई और मैंने ने सहारा देकर ताऊ के घर के गेट के बाहर तक उन्हें पहुँचा दिया। दादी चली गयीं किन्तु उन्हें देखकर मेरे मन में न जाने क्यों ये विचार उठ रहा था कि न जाने अब पुनः कब दादी से मिलना हो पायेगा। सोच कर मेरे नेत्रों के कोर भीग गए।
दादी प्रारम्भ से ही ताऊजी के घर रही हैं। हमारे घर आती भी कम ही हैं। ताऊजी के घर के गेट के भीतर प्रवेश करते ही दादी ने पलट कर, " जा बिटिया! घरै जा। " कह कर हाथ से हमें घर जाने का संकेत किया। हम ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया किया और वापस आ गए। दो दिनों तक माँ के घर रूकने के पश्चात् मैं कुशीनगर चली आयी।
चार-पाँच माह व्यतीत हो गये। एक दिन माँ का फोन आया। फोन तो हम एक-दूसरे को करते ही रहते हैं। किन्तु उस दिन माँ से एक नयी बात पता चली कि इन्द्रेश को विधान सभा के चुनाव का टिकट मिल गया है। पानी की तरह पैसा बहा कर खूब जोरशोर से चंनाव का प्रचार-प्रसार कार्य हो रहा है। " इन्द्रेश को पुनः टिकट मिल जाने की बात सुनकर मुझे अच्छा नही लगा।
कितना अच्छा होता यही टिकट किसी ऐसे व्यक्ति को मिलता, जिसके हृदय में सेवा की भावना हो। कितना अच्छा होता यदि राजनैतिक पार्टियाँ सर्वे करा कर योग्य व्यक्ति से क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करातीं। जो कुछ भी हो एक वर्ष के पश्चात् चुनाव सम्पन्न हो ही जायेंगे। किन्तु आजकल की लचर राजनैतिक व्यवस्था के बारे में सोच कर मेरा मन खिन्न व व्याकुल रहा।
मुझे शीघ्र ही माँ के घर जाना पड़ा, दादी के निधन की ख़बर सुनकर। खबर सुनकर दीदी भी माँ के घर पहुँच चुकी थी। दादी के अन्तिम दर्शन के लिए हम सब ताऊजी के घर गये। यह देख कर हृदय अत्यन्त पीड़ा से भर गया कि इस दुःख की घड़ी में ताऊजी के परिवार के लोग हम लोगों से दूरी बनाये हुए थे। अनेक अनजाने व पराये लोगों से अपनापन प्रकट कर रहे थे किन्तु अपनो से ये दूरी.....? क्या होता जा रहा है इस समय को....?
दादी के रूप में एक कड़ी अब तक शेष थी जो ताऊजी के घर से जुड़ी थी, आज वो कड़ी टूट गयी है। सब कुछ बिखर गया है। बाबूजी के चेहरे पर घनीभूत होती जा रही पीड़ा से स्पष्ट था कि सचमुच रिश्तों को बाँधने की अन्तिम डोर टूट गयी थी। बाबूजी इसे शिद्दत से अनुभव कर रहे थे। इस दुख की घड़ी में दीदी के समीप होने से मुझे अच्छा लग रह था। दीदी भी उदास लग रही थी। मैंने ढाढ़स बँधना चाहा तो उसने कहा कि ये उदासी दादी के कारण कम ससुरालवालों के तानों के कारण अधिक है।
घर आकर मैंने दीदी से पूछा, "क्या और कैसे ताने.....?। "
" जाने दो तुम इस झमेले में मत पड़ो। " दीदी सामने बैठे मेरे पति अभय को देखकर कुछ असहज हो रही थीं। अभय समझ गये और कक्ष से बाहर चले गये। इस बीच माँ भी कक्ष में आ चुकी थीं।
" नही दीदी बताईये तो! जब बात आपने प्रारम्भ की है तो पूरी बात बताईये। " दीदी खामोश थी।
" नही दीदी! आधी बात कर के खामोश न होईये। बताईये पिछली बार भी आप कह रही थीं कि मेरे कारण आपको ताने सुनने पड़ते हैं। " मैं आज स्पष्ट बात करने के मूड में थी।
" कोई नही। जब भी किसी बात पर घर में झगड़े हो जाते हैं, मेरी सास व जिठानी मुझे नीचा दिखाने के लिए ताने मारते हुए कहती हैं कि मैं भी अपनी बहन जैसी हूँ, मर्दों को फँसाने वाली औरत। उन पर डोरे डालकर उन्हें अपने वश में करती हूँ। फिर अपनी मर्जी से सब कुछ करवा लेती हूँ। " दीदी कहती जा रही थी और मेरे भीतर बहुत कुछ टूटता जा रहा था.....रिश्तों से मर्यादा की डोर......दीदी के प्रति मेरा अन्धप्रेम....सम्मान व कहीं न कहीं माता-पिता के प्रति भी मेरे विचार कि आपने स्वार्थ के वशीभूत बच्चों के भविष्य प्रति निर्णय लेना तथा कोई समस्या आने पर पूरा आरोप बच्चों पर मढ़ देना आदि ओछी बातें। मेरे भीतर कुछ टूट अवश्य रहा था। किन्तु मैं भीतर से कहीं न कहीं किसी चीज से जुड़ भी रही थी अपने साहस से अपने आत्मविश्वास से।
" दीदी पहली बात ये समझ लो कि अभय से मेरे विवाह का फैसला मेरा नही माँ-बाबूजी का था। दूसरा यह कि अभय से विवाह करने के पश्चात् मुझे कोई पछतावा नही है। वो भला पुरूष है तथा अब वो मेरा पति है....मेरे जीवन के दुख-सुख का साथी। ये सब बेकार की बातें अब बन्द हो जानी चाहिये। रही बात घरेलू झगड़ों में सास, जिठानी के ताने मारने की तो तुम भी जानती हो कि ऐसे झगड़ों में सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए झूठ का प्रयोग किया जाता है। झगड़ों में कही गयी बातों का कोई मूल्य नही होता। तुम उनकी बातों को पकड़कर मुझे तक़लीफ दे रही हो। " मैं भी भरी बैठी थी, अपने मन की सारी बातें कह डालीं। दीदी तो चुप हो ही गयीं, उनके साथ माँ भी मेरी बात सुनकर चुप थीं।
ये सब बातें कहते हुए मुझे अच्छा नही लग रहा था, किन्तु मेरी विवशता थी कि ये सब कुछ मुझे कहना पड़ा। माँ के घर से कुशीनगर आने के पश्चात् मैं अपने दैनिक दिनचर्या व जीवन की व्यस्तताओं में रम गयी। वही घर, वही कार्यालय व वही सारे काम।
मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा था कि जीवन में निरसता व्याप्त होती जा रही है। विवाह से पूर्व जो अभय मुझको देखने.....मिलने को उतावला रहता था वो अब कार्यालय से आकर घरेलू काम आटे, दाल, साग-सब्जी आदि की बातों के अतिरिक्त कोई बात नही करता। प्रेम की अभिव्यक्ति की उसे कोई आवश्यकता नही थी। उसका व्यक्तित्व परिवर्तित हो गया था।
मेरे प्रति उसका व्यवहार परिवर्तित हो चुका था। उत्साह ठंडा पड़ गया था। मैंने सुना था कि विवाह के कुछ वर्षों के पश्चात् वैवाहिक जीवन में थोड़ नीरसता आ जाती है, किन्तु इस प्रकार की अवसाद तक ले जाने वाली नीरसता आती है, इसका मुझे तनिक भी आभास न था।
♦ ♦ ♦ ♦