उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 3 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 3

भाग 3

इस वर्ष मैं दसवीं की व दीदी बारहवीं की परीक्षा दे रही थी। हम दोनों की इस वर्ष बोर्ड की परीक्षायें थीं। मेरे मन में बोर्ड परीक्षा को लेकर थोड़ा डर था। मैं कहूँ तो थोड़ा नही मैं बोर्ड परीक्षा से बहुत डर रही थी। मन में हमेशा फेल हो जाने का भय बना रहता। इसीलिए मैं मन लगाकर पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाई पर अधिक समय भी दे रही थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता जैसे मुझे कुछ याद नही हो रहा है, न समझ में आ रहा है। ऐसा इसलिए था कि परीक्षा को लकर मेरे मन में घबराहट थी।

दीदी मुझे समझाती कि डरने की आवश्यकता नही है। पढ़ने का समय निर्धारित कर लो, उसी समय सारिणी के अनुसार पढा़ई करो। शेष समय में अन्य कार्य भी करो, अवश्य ही अच्छे अंको में उत्तीर्ण होगी। मैं दीदी की बात पर अमल करने लगी थी। दीदी के समझाने से बोर्ड परीक्षा का डर मेरे मन से निकल गया। मैं और दीदी पढ़ाई पर समय अधिक दे रहे थे।

पापा वकील हैं अतः घर के बाहरी कक्ष का प्रयोग वे अपने कार्यालय के रूप में करते हैं। कचहरी से आने के पश्चात् उनका अधिकांश समय घर के बाहरी कक्ष में ही कटता। घर में सुबह-शाम उनके मुवक्किलों का आना-जाना लगा रहता । अतः बाहर का एक कक्ष पिताजी के लिए सुरक्षित रहता। जब वो कचहरी में चले जाते तब माँ वो कक्ष बन्द कर देतीं।

अवकाश में दिनों में पिताजी का अधिकांश समय उसी कक्ष में व्यतीत होता। पडरौना यद्यपि छोटा-सा शहर था। किन्तु विकास की राह पर अग्रसर था। आबादी बढ़ रही थी, तदनुरूप शहर बड़ा हो रहा था। लोगों में आगे बढ़ने की लालसा बढ़ रही थी। आगे बढ़ने का पैमाना बौद्धिक नही रह गया था। पैसा, सम्पत्ति, बड़ा मकान आदि होता जा रहा था। यदि किसी के दरवाजे पर मोटरगाड़ी खड़ी होती तो समाज में उसकी इज्जत बिना कुछ किये ही बढ़ जाती। बड़े कारणों से झगड़े होते तो कचहरी में निर्णय होता। यह तो स्वाभाविक-सी बात है।

यहाँ लोगों में छोटी-छोटी बातों पर या जमीन-जायदाद सम्बन्धी झगड़े भी होते रहते। जैसे कभी किसी ने किसी के खेतों का मेड़ काट लिया, तो कभी किसी ने मेड़ पर लगा किसी अन्य का पेड़ काट लिया, किसी ने किसी की फसल की बटाई का हिस्सा नही दिया। मैं समझती हूँ ऐसा लगभग सभी छोटे शहरों व गावों, कस्बों में होता है। छोटी-छोटी बातों पर लोग एक दूसरे के साथ कोर्ट कचहरी के फेर में पड़ जाते हैं।

जितना यहाँ के लोगो में आपसी प्रेम है उतना ही छोटी-छोटी बातों को सम्मान का कारण भी बना लेते के कारण झगड़े भी हैं। लड़ाई-झगड़े का कोई समुचित या बड़ा कारण न होते हुए भी लोग छोटी-छोटी बातों पर कोर्ट-कचहरी के चक्करों में दौड़ पड़ते। जब समय व पैसों अपव्यय होने लगता तब बात समझ में आती। लोग पश्चाताप भी करते तथा एक दूसरे से समझौता भी कर लेते।

तब पडरौना की अधिकांश आबादी कम पढ़ी-लिखी थी। अधिकांश लोग अनपढ़ थे। शनैः-शनैः लोगों की रूझान शिक्षा की ओर जा रही थी तथा लोग अपने बच्चों को स्कूल- कॉलेज में भेजने लगे थे। आगे आने वाली पीढ़ी के शिक्षित होने की पूरी सम्भावना थी। पडरौना शहर बनने की ओर अग्रसर था। अनेक विभागों के मुख्यालय स्थापित होने लगे थे। उस समय वहाँ शिक्षा के लिए सरकारी प्राथमिक विद्यालय तथा उच्च प्राथमिक विद्यालय थे।

दीदी मैंने व प्रांजल ने प्रारम्भिक शिक्षा सरकारी प्राथमिक विद्यालय में ही प्राप्त की थी। आगे की शिक्षा के लिए उदित नारायण इण्टर कॉलेज व उच्च शिक्षा के लिए उदित नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय था। मैं, दीदी व भाई आगे की उच्च शिक्षा इन्हीं विद्यालयों से प्राप्त कर रहे थे। प्राईवेट स्कूल, कॉलेज का नामोनिशान उस समय पडरौना में नही था।

पडरौना ही नही बल्कि पडरौना के आसपास के गाँवों बेलवा, लम्पूरा, सिधुवाँ, जटहा रोड के आसपास के गाँव, बगुलहाँ, मंसाछापर, गुनीस्थान, तमकुहीराज, सिरसिहा, तुरहापट्टी, जोलहा टोली आदि अनेक दूर-दूर के गाँवों के बच्चे इन्हीं विद्यालयों उदित नारायण इण्टर व डिग्री कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने आते थे। उस समय पडरौन में प्राईवेट या अंगे्रजी माध्यम के स्कूल नही खुले थे।

मैंने सुना था कि मेरा कॉलेज उदित नारायण इण्टर व डिग्री कॉलेज पडरौना के राजाओं का बनवाया हुआ शिक्षण संस्थान था, जो निःशुल्क था। बहुत बड़े क्षेत्र क्षेत्र में विस्तृत था। जिनमें विद्यार्थियों के लिए खेल के बड़े-बड़े दो मैदान जिनमें से एक विद्यालय के सामने तथा एक विद्यालय के मुख्य भवन के बगल में था। अध्यापकों के निवास के लिए आधुनिक सुख-सुविधाओं से सुसज्जित कुछ क्वार्टर भी विद्यालय के समीप बने थे।

उदितनारायण इण्टर व डिग्री कालेज के भवन एक पास बने थे। एक ही बहुत बड़े भूखण्ड में ये दोनों विद्यालय बने थे। दो मंजिलों पर बने बड़े-बड़े अनेक कमरों से सज्जित इन दोनों विद्यालयों के भवन उच्च कोटि वास्तुशिल्प की कारीगरी के उदाहरण थे। इनके निर्माण में प्रयोग की गयी सामग्री भी अत्यन्त उच्च कोटि की प्रयोग की गयी होगी तभी तो अब तक ये दशकों के अन्तराल के पश्चात् भी उसी गौरव के साथ खड़े हैं जैसी नव निर्माण के समय रहे होंगे। भवन के ऊपर के हिस्से में अनेक गुम्बद व जालीदार मेहराबें निर्मित थीं, जो उसे भव्य स्वरूप प्रदान करती थीं।

पडरौना के ये दानों कॉलेज अपनी भव्यता में किसी राजमहल से कम न थे। दूर-दूर तक फैली हरी मखमली फील्ड, गुलाब के फूलों की क्यारियाँ, कॉलेज के बाउन्ड्री वाल के किनारे-किनारे लगे गुलमाहर, अमलतास व अशोक इत्यादि के वृक्षों की घनीछाया विद्यालय के वातावरण को अत्यन्त मोहक व शन्तिप्रिय बना देती। अपने खाली पीरियड में, जाड़ों की गुनगुनी धूप में दीदी व अन्य सहेलियों के साथ फील्ड में बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता था। क्यारियों में खिले गुलाब के रंग- बिरंगे पुष्प इन्द्रधनुष-सी छटा बिखेरते से प्रतीत होते थे।

मैं पडरौना राजघराने की इस दूरदर्शिता की प्रशंसक थी कि उन लोगों ने इतना बड़ा शिक्षण संस्थान बना कर इस छोटे से शहर पडरौना को दिया है जिसमें अनेक विद्यार्थी निःशुल्क शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, और अब अनेक बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त होकर पडरौना व इस कॉलेज का नाम उज्ज्वल कर रहे हैं। कॉलेज के उन दिनों को मैं कभी भी विस्मृत नही कर सकती।

उस समय पडरौना में अच्छे वकील कम ही थे। मेरे बाबूजी की गिनती उस समय पडरौना के अच्छे वकीलों में होती थी। अतः हमारे घर में लोगों का आना-जाना लगा रहता था। विशेषकर मुवक्किलों का। अवकाश के दिनों में भी लोग बाबूजी से अपनी समस्याओं पर राय-मशविरा करने आते रहते थे।

लोगों से हम सुनते थे कि उस समय लोगों के अनेक आपसी छोटे-मोटे झगड़े बाबूजी समझौते द्वारा कोर्ट के बाहर निपटवा दिया करते थे। वे नही चाहते थे कि लोग बेवजह झगड़ा करें और वकीलों तथा कोर्ट-कचहरियों के चक्कर में पड़ें। बाबूजी की इन्सानियत व अच्छाईयों की चर्चा उस क्षेत्र में दूर-दूर तक थी। बाबूजी के उस कक्ष में दो-चार कुर्सियाँ, मेज व कानून की मोटी-मोटी किताबों के अतिरिक्त कुछ न था। वह कमरा बाबूजी की वकालत का कक्ष था। माँ उस कमरे को कचहरी कह कर हँसा करती थीं।

मेरे ताऊजी की राजनीति में थे। वे दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुके थे। पिछली बार वो विजयी हुए थे, किन्तु इस बार उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा है। हारने के पश्चात् भी अपने क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखने के लिए वो तमाम हथकंडे अपनाते रहते। राजनीतिज्ञ होने के साथ ही साथ वो व्यवसायी भी हैं। खेती, बागवानी के अतिरिक्त अनेक थोक की दुकानें हैं। धन-सम्पदा की कोई कमी नही है। उनके परिवार में पैसे का प्रदर्शन स्पष्ट दिखाई देता है। दरवाजे पर खड़ी गाड़ियाँ, नौकर-चाकर सब कुछ आवश्कता से अधिक हैं।

ताऊजी के घर पर लोगों का आना-जाना भी काफी लगा रहता है। उनमें ऐसे विवश लोगों की संख्या अधिक होती है, जिनसे ताऊजी अपनी ऊँची पहुँच के कारण कोई काम करवाने का झूठा वादा तो करते हैं, किन्तु करवा नही पाते या करवाना नही चाहते। वही लोग सुबह-शाम उनके दरवाजे पर दौड़ लगाते रहते हैं।

ताऊजी व उनके बेटों को उस समय बहुत अच्छा लगता है, जब उनके दरवाजे पर कोई याचक बनकर आये और उन्हें अपना माई-बाप माने....सर्वस्व माने। ताऊजी को हाकिम, सरकार मानने वाले लोगों में भोले व सीधेसादे ग्रामीण लोगों की संख्या अधिक होती है। ताऊजी को ऐसे लोगों को अपने आगे-पीछे नचाने में बहुत अच्छा लगता है।

मेरे बाबूजी व ताऊजी के बीच बातचीत नही थी। मुझे स्मरण नही किस कारण से बाबूजी व ताऊजी के रिश्तों में खटास आयी है। जब से मैंने होश संभाला तब से ही ऐसा देख रही हूँ। हो सकता है कि हम लोगों के जन्म से पूर्व की कोई ऐसी घटना हो जिसने दोनों भाईयों के रिश्ते में कड़वाहट भर दिया हो। हम सब ताऊजी के घर और ताऊजी का परिवार हमारे घर बिलकुल नही आता-जाता।

ताऊजी ने एक-दो मकान और पडरौना में बनवा रखे हैं। उनमें वो रहते नही, बल्कि किराये पर दे रखा है जिनमें कुछ में बैंक व कुछ में दुकानें हैं। इस घर की बड़ी-सी छत अभी साझी है। उस छत का प्रयोग दोनों परिवार करता है। यदि किसी परिवार का कोई सदस्य कपड़े, गेहूँ, अनाज इत्यादि सुखाते समय एक दूसरे के सामने आ भी जाते तो उनमें यही प्रयत्न रहता कि एक दूसरे पर उनकी दृष्टि न पड़े।

वे एक-दूसरे की अनदेखी कर अपना काम करते और चले जाते। अधिकांशतः इन कार्यों के लिए दोनों घरों के नौकर ही छत पर आते। दोनों घरों के नौकर जब भी छत पर मिलते चुपके से आपस में बातें कर लेते। दोनों परिवारों के बीच की दुश्मनी से उन्हें क्या मतलब? वे क्यों आपस में दुश्मनी पालकर रखें? ये बात ताऊजी के घर में किसी को पता हो या न हो किन्तु हमें पता है कि हमारे घरों में काम करने वाले नौकरों को हमारे परिवार की आपसी कटुता से कोई लेना-देना नही। अवसर पाते ही वे एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछ लेते हैं, बाते कर लेते हैं। इन घरों के लोगों से नौकर ही अधिक समझदार हैं। माँ कहती हैं कि शादी-व्याह या किसी बड़े पारिवारिक आयोजन में दोनों परिवार अवश्य सम्मिलित हो जाते। उसके पश्चात् पुनः वही संवादहीनता की स्थिति हो जाती है।

हमारी बोर्ड की परीक्षायें प्रारम्भ हो गयी थीं। माँ ने हमसे घर के कार्यों में मदद लेना बन्द कर दिया था। माँ कहतीं ’ मन लगा कर पढ़ाई करो। यही समय है पढ़ लेने का। काम का क्या है......वे तो जीवन भर होतेे रहते हैं। ’ हम माँ की बात मानते हैं।

माँ यद्यपि कम पढी-लिखी हैं। अक्षर ज्ञान तक सीमित थी उनकी शिक्षा। मिला-मिलाकर धार्मिक पुस्तकें भी पढ़ लेती हैं। बेटियों की शिक्षा के प्रति माँ की सकारात्मक सोच व दूरदृष्टि के कारण उस पिछड़े क्षेत्र में उस समय हमारी शिक्षा सही ढंग से चल पा रही थी। हम भी अपना पूरा ध्याान व समय पढ़ने पर लगा दे रहे थे। सहेलियों के घर हमारा आना-जाना या उन्हें अपने घर बुलाना सब कुछ बन्द था। परीक्षाएँ समाप्ति की ओर थीं।

गर्मी अपने पूरे तेवर पर आ गयी थी। पिछली गर्मियों में मैं और दीदी अपनी-अपनी पुस्तकंे लेकर छत पर चले जाते थे। गर्मियों की लम्बी साँझ जो कि देर से ढलती और हम साँझ ढलने तक छत पर ही रहते। पुरवा हवा की शीतलता और शान्त वातावरण में पढ़ते रहते। कुछ ही पेपर शेष थे। मार्च महीने का आखिरी सप्ताह था। मौसम में गर्मी बढ़ती जा रही थी।

गर्मी ने घरों के भीतर अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। शाम को सूरज ढलने के पश्चात् घरों के भीतर उमस व बेहद गर्मी रहती जब कि बाहर ठंडी हवायें चलने लगतीं। ऐसी ही एक शाम जब घर में गर्मी लग रही थी, मैंने दीदी से छत पर चलकर पढ़ने के लिए कहा, तो उसने दृढ़ता से मना कर दिया।

" दीदी ऐसा भी क्या हठ कि तुम छत पर बिलकुल ही न चलो। चलो न दीदी, देखो बाहर कितना अच्छा मौसम हो रहा है। " मैंने दीदी को मनाते हुए कहा।

" नीरू! तुम बेवजह की ज़िद न करो। आज मैं छत पर बिलकुल नही जाऊँगी। " दीदी ने बहुत ही सख्ती से कहा। दीदी की नाराजगी देखकर मैं खामोश हो गयी। अपने कक्ष में बैठ कर पढ़ती रही। कक्ष में बेशक गर्मी अधिक थी। परीक्षाओं के पश्चात् हमारी ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ हो गयी।

ग्रीष्मावकाश में भी दीदी अब छत पर कम ही जाती। मेरे हठ करने पर यदि कभी-कभी जाती भी तो अधिक देर छत पर न रूकती, शीघ्र ही नीचे आ जाती। हमारे ग्रीष्मावकाश का अधिकांश समय घर में ही व्यतीत हो जाता। वैसे भी छोटे शहरों में घूमने-फिरने के लिए विशेष अवसर व स्थान नही होते हैं। विशेषकर लड़कियों के लिए। बहुत हुआ तो मामा, मौसी, नानी, बुआ आदि के घर एक-दो दिनों के लिए जाने दे दिया जाता, वो भी रिश्तों की मधुरता पर निर्भर करता है।

पिछली गर्मियों की बात है जब हम सब ने ग्रीष्मावकाश का खूब आनन्द उठाया था। कभी अपनी सहेलियों को घर बुलाया तो कभी उनके घर गए। पडरौना के छोटे से बाजार से अपनी सहेलियों संग खरीदारी की। आस-पास के गाँवों, खेतों खलिहानों में खूब घूमे-फिरे। पिछले वर्ष तक दीदी भी इन सबमें खूब रूचि लेती थी।

अब इस वर्ष दीदी को न जाने क्या हो गया है....वो घर से बाहर निकलना ही नही चाहती। मेरी इच्छा भी दीदी के बिना अकेले कहीं आने की नही होती। यूँ भी छोटे शहरों में यदि अत्यावश्यक न हो तो कोई लड़की अकेले घर से नही निकलती। लड़कियाँ बाहर घूमती-फिरती कम दिखाई देती हैं। जब आवश्यकता हो अपनी माँ या भाई -बहनों के साथ किसी काम से बाहर निकलती हैं। कॉलेज के अतिरिक्त मुझे कहीं और आना-जाना नही रहता। यदि कहीं जाना भी होता है तो मैं दीदी के साथ ही जाती, और अब दीदी है कि घर में ही रहना चाहती है।

मुझे तो दीदी के बिना घर में अकेले अच्छा नही लगता तो बाहर अकेले कहीं आने -जाने का तो प्रश्न ही नही उठता। मैं समझ नही पा रही थी कि दीदी अपने इर्द-गिर्द एक अदृश्य घेरा-सा क्यों निर्मित करती जा रही है? क्यों अपने आप को समेटती जा रही स्वंय के भीतर...? माँ से कुछ कहती नही । मुझसेे कुछ भी बताना नही चाहती। उसकी परेशानी का पता चले तो कैसे चले..? यह भी हो सकता है कि यह मात्र मेरा भ्रम हो कि दीदी कुछ छुपा रही है......हो सकता है इसमें छुपाने वाली कोई बात न हो। उसे कोई परेशनी ही न हो। ईश्वर करें ऐसा ही हो। दीदी के साथ सब ठीक हो।