उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 4 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 4

भाग 4

समय का पहिया अपनी गति से चलता जा रहा था। मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी तथा दीदी ग्रेजुएशन के अन्तिम वर्ष में थी। मुझे दीदी के साथ रहना अच्छा लगता। एक घड़ी के लिए भी दीदी कहीं चली जाती तो मुझे अच्छा नही लगता। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती जा रही थी, दीदी के साथ मेरा जुडा़व बढ़ता ही जा रहा था। मैं दीदी के बिना रहने की कल्पना भी नही कर सकती थी। दीदी मेरा आर्दश थी, संबल थी।

कुछ समय पश्चात् उस दिन...... दोपहर का समय था। हम सब भोजन करने के उपरान्त बैठे ही थे कि " इन्द्रेश भईया की जै.......इन्द्रेश भईया की जै " के नारों के शोर-शराबे की आावजें बाहर से आती सुनाई देने लगीं। हम समझ नही पाये कि सहसा ये क्या हो गया? ये कैसी-कैसी आवाजें आने लगी?

आखिर इन्दे्रश भईया की जय-जयकारें क्यों होने लगीं। उन्होनंे किया क्या है कि लोग उनके जयकारों के नारे लगा रहे हैं। मैं, दीदी, भाई सभी बाहर गेट की ओर तीव्र गति से बढ़े। हम अपने लाॅन के अन्दर गेट के पास खड़े हो कर बाहर का तमाशा देखने लगे। इन्द्रेश ताऊजी के बड़े बेटे का नाम है। हम अब भी समझ नही पा रहे थे कि उन्होंने ऐसा किया क्या है कि उनके दरवाजे पर कई गाड़ियाँ खड़ी हैं तथा कुछ लोग उनके नाम के जयकारे लगा रहे हैं?

ताऊजी के परिवार से हम लोगों की बातचीत होती नही थी अतः ताऊजी के घर की कोई बात हम लोगों को पता नही होती थी। हम सब सोचते रहे कि ताऊ जी के घर में इन्द्रेश भईया ने आखिर किया क्या है कि लोग जयकारे लगा रह हैं। बहुत देर तक हम दरवाजे पर खड़े लोगों की बातें सुनने के पश्चात् जान पाये कि आज इन्द्रेश भईया कचहरी जा रहे हैं, चुनाव के लिए नामांकन का परचा भरने। उन्हें एक प्रमुख पार्टी की ओर से टिकट मिल गया है। उसी के लिए ये काफिला सजाया जा रहा है।

" लग रहा है बडे भाई जी ( ताऊ जी ) इस बार चुनाव नही लड़ेंगे। इसीलिए अपनी जगह इन्द्रेश को लड़ा रहे हैं। " घर में आकर माँ ने इस घटना पर अपने विचार रखे। माँ की बात सुन कर बाबूजी ने सिर हिला कर अपनी सहमति तो जताई, किन्तु बोले कुछ भी नही। ऐसा ही करते हैं बाबूजी.....ताऊजी के घर की चर्चा होने पर वो कभी भी कुछ नही बोलते न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते। बस, खामोशी का आवरण ओढ़ लेते हैं। उनके घर की बुराई न तो स्वंय करते हैं न उनके घर की कोई आलोचना सुनने पर अपना कोई विचार रखते हैं। न ताऊजी के गैरकानूनी कार्यों पर, न तब जब लाॅन में खड़े होकर वो हमारे परिवार को....बाबूजी को बिना किसी कारण चिल्ला-चिल्लाकर उल्टी-सीधी बातें बोलते हैं।

हमारे बाबूजी शान्तिप्रिय हैं, यह तो हम सभी जानते हैं। किन्तु ताऊजी के परिवार की गलत बातों का बाबूजी द्वारा प्रतिरोध न करना हमारी समझ में नही आता। और तो और बाबूजी हमें उनके परिवार की फालतू बातों पर ध्यान न देकर हमें मात्र पढ़ने पर ध्यान देने के लिए कहते हैं।

ताऊजी के दो बेटे हैं इन्द्रेश और चन्दे्रश। हमारा एक भाई है बहुत प्यारा-सा, शालीन, मन लगाकर पढ़ने वाला, खेलकूद में आगे रहने वाला, हम सभी का दुलारा प्रांजल। पडरौना में उसको जानने वाले सभी उसकी व उसके अच्छे व्यवहार कर प्रशंसा करते हैं। मेरा भाई लाखों में एक है। पडरौना में, हमारे समाज में सब कुछ बदल रहा था। समाज आधुनिक हो रहा था, लोग शिक्षित हो रहे थे, किन्तु उनके विचारों में अभी तक अपेक्षित बदलाव नही आया था।

बेटे-बेटी में फ़र्क का वही दृष्टिकोण सदियों से स्त्रियों का शोषण कर रखा है। बेटा परिवार का उत्तराधिकारी होता है....उसी से परिवार का नाम आगे बढ़ता है आदि....आदि व लड़कियाँ एक जिम्मेदारी हैं अतः बोझ हैं ये विचार शिक्षित समाज का हिस्सा थे। मेरा एक भाई व ताऊजी के दो बेटे, ऐसा लगता है जैसे उनके दो बेटे होने के कारण उनका पलड़ा भारी है।

मेरा एक भाई होने के कारण मेरे बाबूजी उनसे पीछे हैं। ये था उस समय समाज का दृष्टिकोण। किन्तु मेरे बाबूजी मुझसे व दीदी से भी उतना ही स्नेह करते जितना प्रांजल से। उन्होंने उस समय हमें उच्च शिक्षा दिलाई जब पडरौना में उस समय गिनीचुनी लड़कियाँ ही उच्च शिक्षा प्राप्त करती थीं। उन्होंने बेटे-बेटी में फ़र्क नही किया। ये उस समय की अलग और बहुत बड़ी बात थी।

पडरौना में एक और कुप्रथा थी। मैं समझती हू कि अन्तराल व्यतीत हो जाने व विकास के अनेक नये सोपान गढ़ लेने के पश्चात् आज भी वो कुप्रथा वहाँ साँसें ले रही है और वो कुप्रथा थी जतिवाद की। जब हम लोग कॉलेज में पढ़ते थे तभी हम अनेक जातियों के नाम से परिचित हो गए थे। जब कि मेरे घर में जातियों का चर्चा नही होती थी न मेरे बाबूजी जातिप्रथा के समर्थक थे। किन्तु हमारे समाज में तो जातियों की चार्चा होती।

कॉलेज में कुछ ऊँची जाति वाली लड़कियों को अन्य जाति की लड़कियों की जाति पूछते हुए देखती। उनकी जाति से भिज्ञ होते हुये भी जानबूझकर उनकी जाति पूछ कर पक्का करना कि तुम इस जाति की हो....आदि कह कर उन्हें उनकी जाति से छोटा होने का आभास कराना होता या सचमुच वे उच्च जाति की कुछ लड़कियाँ अनजाने में ही जाति पूछकर अपनी उत्सुकता शान्त करतीं, मैं ये बात समझ नही पाई।

यदि वह दलित वर्ग की है भले ही वह किसी भी उच्च वर्ग की लड़की से देखने में व बुद्धिमत्ता में किसी प्रकार से कम न हो, उससे जाति पूछ कर उसे निम्न जाति के होने की भावना के अहसास से भर देने का प्रयत्न करना, यह कॉलेज के माहौल में उस समय थ। ऐसा भी नही था कि उच्चजाति की लड़कियाँ ऐसा जानबूझ कर करती बल्कि उन पर यह उनके पारिवारिक व सामाजिक परिवेश का प्रभाव था। अन्यथा कॉलेज में सभी विद्यार्थियों लिए एक समान वातावरण व शिक्षा उपलब्ध थी। ये तो थी उस समय के शिक्षण संस्थानों में जातिवाद की बात।

उस समय के सामाज में जातिवाद का ज़हर आज के अनुपात से अधिक भरा था। महिलायें फुर्सत के समय में आस-पास एक दूसरे के घरों में आती-जाती थीं। मेल-मिलाप के साथ उनका दिन का खाली समय भी व्यतीत हो जाता था। एक-दूसरे के द्वार पर, दालान में इकट्ठी होकर दोपहर का खाली समय बातचीत में व्यतीत करती थीं। किन्तु मैंने एक बात को गौर किया था कि वे अपने पड़ोस के दलित परिवार के दरवाजे पर समय पास करने नही जातीं न बैठतीं। भले ही दो-चार घर छोड़कर किसी सवर्ण के द्वार पर बैठ जातीं।

दलित महिला से खड़े-खड़े बातचीत कर उसका आनन्द उठा लेतीं किन्तु उसके दरवाजे पर नही बैठतीं। उस समय महिलाएँ ही जाति प्रथा को पूरी शिद्दत से निभाती थी। पुरूष इस मामले मे उतने कट्टर नही थे। सभी जाति के लोग एक दूसरे के दुःख-सुख में खड़े भले ही खड़े हो जाते, किन्तु एक दूसरे के घर खाने-पीने से परहेज रखते। कुछ दलित जातियों के तो घर तक गाँव के बाहर बने होते थे। उन मुहल्लों को उस समय वहाँ दक्खिनी टोला कहते थे।

जाति प्रथा पर मेरे बचपन की अनेक घटनायें मुझे बरबस याद आ जाती हैं, जिसे सोचकर मन वितृष्णा से भर जाता है। किन्तु एक घटना गाहे -बगाहे मेरी स्मृतियों में सजीव हो उठती है, जिसे सोच कर मैं मुस्करा पड़ती हँू। उस समय मैं पाँचवी या छठी कक्षा में पढ़ती थी। मेरे मुहल्लें में एक पुरूष सफाई कर्मी आता था।

फरवरी माह में पतझण की ऋतु आरम्भ होती तो वृक्षों से पत्ते गिरते और लाॅन में भर जाते। बाबूजी का नियम था वो सुबह दातुन बाहर लाॅन में बैठ कर या टहलते हुए करते। उस समय यदि सफाई कर्मी सड़क पर झाडू़ लगा रहा होता तो बाबूजी उसे अन्दर लाँन में बुलाकर लाॅन की सफाई करवा लेते। बदले में पैसे दे देते। कभी-कभी सफाई कर्मी स्वंय आवज लगा देता कि बाबूजी लाॅन में झाड़ू लगवाय लो। दो दिनों से सफाईकर्मी नही आया था। लाॅन सूखे पत्तों से भर गया था।

बाबूजी इस ताक में थे कि आज राजेन्दर (सफाई कर्मी ) दिख जाये तो लाॅन झड़वा लें। खर्र....खर्र.....खर्र सहसा बाहर से झाड़ू लगाने की आवाज आने लगी। उन्होंने सोचा कि राजेन्दर आ गया है। " राजेन्दर आज अन्दर लाॅन साफ कर देना। " बाबूजी ने ऊँचे स्वर में कहा और गेट खोल दिया। यह क्या...? आज राजेन्दर के स्थान पर महिला को देखकर आश्चर्य चकित हो गये। उस महिला को देखकर कुछ बोल न सके। वह महिला खामोशी से किसी की ओर देखे बिना तन्मयता से सड़क झाड़ रही थी।

यह तो एक सामान्य घटना थी। इसमें जो चीज सामान्य नही थी वो यह कि वो महिला अत्यन्त खूबसूरत थी। लम्बा कद, दुबली-पतली सुकुमारी-सी, उम्र में किसी अविवाहित युवती-सी प्रतीत होती। उसने सलीके से साड़ी बाँधकर मजबूती से कमर में खोंस रखा था। दपदप करता गौर वर्ण की ऐसा मानों प्रतीत होता जैसे मक्खन की बनी हो। या स्वर्ग से कोई अप्सरा उतर कर सड़क पर झाड़ू लगाने लगी हो। सुन्दरता के प्रत्येक प्रतिमान पर खरी उतरती वो महिला दूसरे दिन से ही मुहल्ले में सबके आकर्षण का केन्द्र बन गयी। विशेषकर पुरूषों के।

यह चीज सामान्य नही थी। सबने यही समझा कि अब राजेन्दर के स्थान पर यही काम करेगी। मुहल्ले के पुरूषों में हलचल मची थी। सबउ से अपनी ओर आकर्षित करना चाहते थे। सब इस ताक में रहते कि कब वो उनकी ओर एक दृष्टि भर डाल ले। वो महिला थी कि चुपचाप बिना किसी की ओर देखे अपना काम करती और चली जाती। मुहल्ले के अधिकांश पुरूष लोटे में पानी लेकर सुबह अपने घर के बाहर दातुन करने लगे। जो प्रतिदिन बाहर दातुन करते वो तो थे ही, जो घर के भीतर आँगन में दातुन करते वे भी उन दिनों सुबह उस समय दरवाजे पर बैठकर लोटे में पानी लेकर दातुन करना शुरू कर दिये, जब वो महिला सड़क पर झाड़ू लगाने आती। मेरे घर के समीप एक उच्चजाति का घर था। वे लोग अनाज के व्यापारी थे। उस घर की महिलाएँ यदाकदा ही बाहर दिखती थीं। पुरूष ही आते-जाते दिखाई देते थे। वे भी सुबह ही दुकान खोलने बाजार में दुकान पर चले जाते। शाम को लौटते।

उस परिवार के पुरूष भी आजकल बाहर दातुन करते दिखाई देने लगे। जब कि उनके घर की नाटे कद की, मोटापे से बीमार महिलाएँ पर्दे में रहतीं। खूब लम्बा घूँघट निकालकर रहतीं। दिन में दरवाजे की झिर्री से बाहर झाँकतीं। यदि कभी किसी कार्य से बाहर जातीं तो दरवाजे पर रिक्शा आता और रिक्शे के चारों ओर पुरानी चादर बाँध कर पर्दा बना दिया जाता। यह देखकर हम सब हँस पड़ते कि न जाने कौन उनकी सुन्दरता को देख लेगा। जिसके कारण रिक्शे में पर्दा लग रहा है। उस घर की लड़कियाँ विद्यालय पढ़ने नही जातीं।

आश्चर्य की बात ये थी कि उस घर के पुरूष अब बाहर दातुन करने लगे थे। कारण मात्र ये था कि इस महिला को निहारना था। हम सोचते कि पुरूषों की इस मानसिकता में परिवर्तन कब आयेगा? अपने घर की महिला इज्जत-आबरू वाली है और दूसरे घर की स्त्री जो घर से बाहर निकलकर परिश्रम कर रही है, स्वावलम्बी है, उसका कोई सम्मान नही है। उस पर बुरी दृष्टि रखना और उसको मनोरंजन का साधन समझना, पुरूषों की इस मानसिकता में बदलाव कब आयेगा? जब तक वो महिला सड़क झाड़ती, तब तक वे पुरूष बाहर खड़े उसकी सुन्दरता का अवलोकन करते। ऐसा मुहल्ले के बहुत से पुरूष करने लगे थे।

एक दिन माँ ने बाबूजी को बताया कि रंगी व बाबूलाल ( उसी परिवार के पुरूष ) के घर में उस झाड़ू लगाने वाली औरत को लेकर झगड़ा हुआ हैं। माँ की बात सुनकर बाबूजी ने कुछ नही कहा। बस, दूसरे दिन से उन्होंने बाहर दातुन नही किया। कुछ दिनों तक वो महिला सड़क साफ करने आती रही। मुहल्ले के घरों में पति-पत्नी के बीच झगड़े करवाती रही। लगभग एक माह के पश्चात् एक दिन राजेेन्दर वापस काम पर आ गया। दातुन और लोटे में पानी लेकर मुहल्ले के पुरूष बाहर खड़े रह गये।

बाद में पता चला कि वो महिला राजेन्दर की पत्नी थी। राजेन्दर की अस्वस्थता में वो राजेन्दर का काम कर रही थी। उस महिला के आने से मैं इस समाज की दोहरी मानसिकता की पोल खुलते हुए देख रही थी कि एक आकर्षक महिला को देखकर उन्हीं घरों के पुरूष अपनी अपनी कुदृष्टि डलने से बाज नही आ रहे थे। जिनके घरों में औरतें निम्न जाति और ऊँची जाति की बातें करती हैं। घटना से मेरी इस धारणा को बल मिला कि महिलाओं की दुदर्शा का उत्तरदायी पुरूषों से कहीं अधिक महिलाये हैं।

हमारे समाज में स्त्रियों की शिक्षा पर इसलिए भी अधिक बल दिया जाना चाहिए कि वे ही परिवार की प्रथम शिक्षक व समाज की नींव होती हैं। यदि उनका ही दृष्टिकोण संकुचित रहेगा तो हमारे परिवार के बच्चे बड़े होकर एक स्वस्थ समाज का निर्माण कैसे कर पायेंगे? आखिर माँ ही तो बच्चे की प्रथम शिक्षक है और परिवार प्रथम पाठशाला। अतः स्त्रियों को जाति-पात व बेटा-बेटी के भेद से उबरना होगा तभी हम स्त्रियाँ सही अर्थों में एक स्वस्थ परिवार, स्वस्थ समाज का निर्माण कर पायेंगी। तभी आधी आबादी का सार्थक महत्व व प्रभाव हमारे समाज पर दिखाई देगा।

पडरौना इस ओर एक सार्थक पहल कर चुका है। लड़कियाँ अब पढ़ने जाती हैं। धीरे-धीरे वहाँ अनेक निजी इण्टर व डिग्री कॉलेज खुल गए हैं। लड़कियों के लिए कन्या इण्टर कॉलेज अलग से खुल गए हैं। जिनमें बहुतायत लडकियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। साथ ही अत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हैं। वे आर्थिक स्वावलम्बन का अर्थ व महत्व समझने लगी हैं। घर से बाहर निकल कर काम करना सामान्य बात हो गयी है।

आज मैं सोचती हूँ कि बड़े-बड़े शहरों में खुलते जा रहे मैंनेजमेण्ट व इन्जीयरिंग कॉलेज शिक्षा के साथ-साथ हमारे समाज को अनेक अच्छे संस्कार भी प्रदान कर रहे हैं। इन काॅलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक छात्र एक साथ छात्रावास में रहते हैं। कॉलेज प्रशासन उनके साथ बराबरी का व्यवहार रखता है। धनी-निर्धन, गाँव-शहर कहीं से भी आये बच्चों के साथ जाति-धर्म का भेद किये बिना एक समान व्यवहार करते हैं।

कोई छोटा-बड़ा, दलित-सवर्ण नही है। कोई एक-दूसरे से जाति नही पूछता। सभी अपनी बुद्धिमत्ता व मेधा के बल पर आगे बढ़ते हैं। वहाँ से शिक्षा प्राप्त कर चुके बच्चे आगे जाकर प्रेम विवाह भी जाति व धर्म देख कर नही बल्कि अपनी पसन्द के साथी से करते है। भले ही व किसी भी जाति से सम्बन्धित हो, उस विवाह में प्रेम की भावना प्रमुख होती है। शेष किसी चीज का अस्तित्व नही होता।