उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 29 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 29

भाग 29

" चलो कोई बात नही। तुमने अपना सब कुछ स्वंय सम्हाला है। एक साहसी, संवेदनशील महिला का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है तुमने सबके समक्ष। " मैंने अनिमा से कहा।

कुछ देर में अनिमा चली गयी। लंच का समय समाप्त जो हो गया था। किन्तु मैं अनिमा को जाते हुए देखती रही। उसका परिश्रम, लगन और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण देखकर सोच रही थी कि अनिमा को न समझ पाने वाले व्यक्ति ने कितना अमूल्य साथी खो दिया है।

इधर कई दिनों तक व्यस्त रही मैं। दीपावली पर्व समीप था। उसी की तैयारियों में लगी रही। इस बार अभय काफी बदल गया था। अभय की अच्छाईयों में पिछली दीपावली की कड़वी स्मृतियाँ न जाने कहाँ गुम हो गयी थीं। । घर की साफ-सफाई से लेकर नये कपड़े, रसोई के लिए कुछ नयी व आवश्यक चीजें खरीदने में व्यस्त रही। दिन कार्यालय में व्यतीत हो जाता। शाम घर गृहस्थी के काम व आवश्यक खरीदारी में । यह दीपावली मेरे लिए स्मरणीय हो रही थी। कारण मात्र यह था कि अभय घर के कार्यों में मेरा पूरा सहयोग कर रहा था। घर की शापिंग व बच्चों की आवश्यकता की चीजें सब कुछ वो बच्चों के साथ बाजार जाकर ले आता। अभय पहले वाला अभय न था। उसमें परिवर्तन आ गया था, जो अच्छा था। कार्यालय से घर आने के पश्चात् मुझे परेशान होने की अवश्यकता नही पड़ती। अभय के सहयोग से मैं घर के सभी कार्य सरलता से कर लेती। अभय तो मेरा सहयोग करता ही था मेरे बच्चे भी उसके साथ मेरा हाथ बँटाने लगे थे। सही कहा है कि हमारी प्राथमिक पाठशाला घर है। माता-पिता प्रथम शिक्षक। घर में बच्चे जैसा देखते हैं वैसा ही सीखते हैं। मेरे बच्चे अभय को घर के काम करते देख प्रेरित होते व घर के काम में मेरा सहयोग करते। मेरी गृहस्थी की गाड़ी सरलता से चलने लगी थी। एक पुरानी कहावत है कि गृहस्थी की गाड़ी दोनों पहियों पर चलती है। यदि एक ने भी साथ न दिया तो गाड़ी पटरी से उतर जायेगी। यद्यपि यह कहावत बहुत पुरानी है तथापि प्रत्येक पीढ़ी के लिए प्रेरक है। मेरे बच्चों में अच्छी आदतों के बीज अभय ने बोये हैं। बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं और समझदार भी।

कार्यालय में बहुधा मैं अनिमा को ढूँढ़ती, विशेषकर लंच समय में। किन्तु वो मिल नही पाती। फोन द्वारा पूछने पर कारण वो व्यस्तता बताती। मैं जानती थी कि प्रमोशन के पश्चात् उसका काम व कार्यालय में उत्तरदायित्व बढ़ गया है। कई दिनों के पश्चात् आज अनिमा का फोन आया है कि आज लंच समय में वो मुझसे मिलना चाहती है। कुछ आवश्यक बाते करनी हैं। अतः मैं उसकी प्रतीक्षा करूँ। अनिमा आयी। अपसी कुक्षलक्षेम पूछने के पश्चात् हम कार्यालय में रेस्टारेण्ट की ओर बढ गये। हमने साथ में लंच किया तत्पश्चात् अनिमा ने काॅफी आर्डर किया। कदाचित् वो कुछ देर और इत्मीनान से मेरे साथ बैठना चाहती थी।

" मेरे पास उसका फोन आया था। " सहसा अनिमा बोल पड़ी।

" किसका.....? वो तो प्रतिदिन तुमसे मिलता है। " मैंने अनिमा से कहा।   इस समय मैं हास-परिहास के मूड में बलिकुल नही थी। मैंने यही समझा कि वो आॅफिस वाले उस लड़के नीलाभ के विषय में बातें कर रही है।

" कौन प्रतिदिन मिलता है.....? " अनिमा ने कहा।

" वही....? नीलाभ.... यदि कुछ कहना ही है तो वो सीधे तुमसे बात कर सकता है। फोन करने की क्या आवश्यकता है....? प्रेम प्रकट करने का उसमें प्रत्यक्ष साहस नही है क्या....? " मैंने कहा।

" ओफ्फो....तुम फिर मज़ाक करने लगी.....? " अनिमा बोल पड़ी।

" मज़ाक.....? बिलकुल नही! मैं इस विषय पर गम्भीर हूँ इस समय। " मैंने कहा।

" कदाचित् तुम समझ नही पायी। फोन उसका नही, मेरे पूर्व पति का आया था मेरे पास कल शाम को। " अनिमा ने सहजता से कहा।

" क्या...? किसका....? तुम्हारे पूर्व पति का....? " अब कौन-सा काम....कौन-सी शिकायत शेष रह गयी है तुमसे....? " मैंने विस्मय से पूछा।

" हाँ.....उसी का फोन था। शिकायत कुछ नही थी मुझसे। कुछ समझौते के मूड में लग रहा था। " अनिमा ने कहा।

" समझौता.....? किससे....? क्या कह रहा था वो? " मैं ठीेक से उसकी बात समझ नही पा रही थी अतः अनिमा से पूछा।

" कल शाम को फोन किया था। नम्बर नया था। मैं पहचान नही पायी, इसलिए उठा लिया। पहले मेरा हाल पूछा। प्रत्युत्तर में मैं खामोश थी। फिर कहने लगा कि, बहुत नाराज हो मुझसे। ििफर भी मैं चुप थी। मेरी खामोशी देखकर कहने लगा कि मैंने काम ही ऐसा किया कि तुम मुझसे अवश्य नाराज़ होगी। क्या तुम मुझे क्षमा नही कर सकती? कह कर बार-बार मुझसे माफी मांगने लगा। कहने लगा- " बोलो अनिमा, कुछ तो बालो! मेरी बातों का उत्तर दो अनिमा....। मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ। कब आऊँ तुमसे मिलने....? आज शाम को आ सकता हूँ। " उसकी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा था। उसके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर मेरी खामोशी थी। मुझे चुप देखकर बोल पड़ा। अनिमा बालो, कुछ तो बालो। उसकी बातें सुनकर मेरे हृदय में उसके लिए प्रथम बार जो भाव उभर रहे थे, वो कदाचित् घृणा के थे। "..... अभी मेरे पास समय नही है किसी से मिलने के लिए। मै। व्यस्त हूँ। " कहकर मैंने फोन रख दिया। " अनिमा बोलती जा रही थी। उसकी बातें सुनकर मैं गहरे आश्चर्य में डूबती जा रही थी।

" बस इतनी ही बात हुई उससे। सोचा तुम्हें बता दूँ। अब आगे क्या करना चाहिए? " अनिमा ने मुझसे पूछा। उसकी बातें सुनकर मैं स्वंय नही समझ पा रही थी कि ये सब क्या है....? इसलिए चुप थी।

" बताओ मुझे क्या करना चाहिए? यदि दुबारा उसका फोन आया तो मैं क्या उत्तर दूँ? मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन की आवश्कता है नीरू! " कहकर अनिमा मेरी ओर देखने लगी।

" तुम्हारा अनुमान सही है। उसका फोन दुबारा अवश्य आयेगा तुम्हारे पास। उसकी बातें सुनकर प्रतीत होता है कि तुम्हें छोडने के पश्चात् वो एक बुरे दौर से गुज़र रहा है। जिस दूसरी औरत के पास वो जाता था, उससे वो प्रेम नही बल्कि शारीरिक आकर्षण के वशीभूत होकर जाता था। मेरा अनुमान है कि उस स्त्री से प्रति उसका शारीरिक आकर्षण अब समाप्त हो चुका है, अब उसका जीवन नीरस हो चुका है। स्त्री-पुरूष में जहाँ प्रेम नही होता, जहाँ वे महज शारीरिक आकर्षण में बँधे होते हैं, वहाँ उनके जीवन में नीरसता शीघ्र ही आ जाती है। वैवाहिक सम्बन्धों में प्रेम जीवन को नीरस होने से बचाता है। " कुछ क्षण सोचने व मनन करने के पश्चात् मैंने अनिमा से कहा। अनिमा खामोशी से मेरी बातें सुन रही थी।

" तुम्हारा पूर्व पति सच्चे प्रेम की तलाश में भटक रहा है। जो उसे कहीं नही मिल पा रहा है। अब उसे तुम्हारी याद इसलिए आई है कि उसके बिना तुमने अपना जीवन अपनी इच्छानुसार सँवार लिया है.......सम्हाल लिया है। श्लोक को गोद में लेने का तुम्हारा निर्णय भी साहस भरा सही कदम है। तुम्हारे इस निर्णय की उनसे कल्पना भी न की होगी। जब तुमने अपनी लाईफ सेट कर ली है, तब वह तुम्हारे पास आना चाहता है........

........एक बात कहूँ अनिमा ईश्वर न करें यदि तुम आज दर-दर की ठोकरें खाती होती, जैसा कि उसने तुम्हारे समक्ष ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी, तो आज वो तुम्हें पलट कर पूछता नही.......

.......परेशान न हो, न ही चिन्तित होने की भी आवश्यकता नही है। आगे देखो अब वो करता क्या है? तुम समझदार हो अनिमा अब तक तुमने अपने लिए स्वंय सोचा व किया है। सभी निर्णय तुमने स्वंय लिए थे। तुम्हारे सभी निर्णय सही थे। आगे भी तुम्हे स्वंय सोचना व निर्णय लेना होगा। मैं समझती हूँ जो भी निर्णय तुम लोगी वो तुम्हारे लिए अवश्य सही होगा। " अनिमा को समझाते हुए मैंने कहा।

" मैं जानती हूँ नीरू तुमने अक्षरशः सत्य कहा है। मैं भी ऐसा ही सोच रही थी। थैंक्स नीरू, मेरा मार्गदर्शन करने के लिए।

लंच का समय समाप्त हो गया था। मैं और अनिमा आने -अपने केबिन की ओर बढ़ चले।

दूसरे दिन अनिमा कार्यालय में मुझे नही मिली। फोन द्वारा पूछने पर उसने बताया कि आज वो कार्यालय नही आ पाई है। शाम को घर पहँुचने पर मुझे फोन करेगी। अगले दिन से कार्यालय में दीपावला का अवकाश था। तीन दिनों के लिए कार्यालय बन्द था। शाम को अनिमा का फोन आया कि उसे मुझसे आवश्यक बातें करनी है। फोन द्वारा यह सम्भव नही है।

" मैं यहाँ कुशीनगर में और तुम गोरखपुर में, यह कैसे सम्भव है? तीन दिनों का अवकाश भी है। तत्पश्चात् कार्यालय में मिलते हैं। " हँसते हुए मैंने अनिमा से कहा।

" ठीक है। अवकाश का तो मुझे ध्यान ही नही था। " अनिमा ने कहा।

हम दोनों ने एक दूसरे को फोन पर दीपावली की शुभकामनायें दीं। कार्यालय मे ंमिलने का वादा कर फोन रख दिया। तीन दिनों का अवकाश व्यस्तताओं में समाप्त हो गया। पुनः हमारा कार्यालय से घर, घर से कार्यालय आने-जाने का क्रम प्रारम्भ हो गया। पहले दिन कार्यालय में व्यस्तता अधिक थी। हमें अवकाश नही मिला की एक-दूसरे से सम्पर्क करें। दूसरे दिन अनिमा लंच समय में मेरे पास आयी। एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने व दीपावली की शापिंग इत्यादि की बातें साझा हुईं। बातचीत का माहौल खुशनुमा था।

" क्या कहना चाह रही थी तुम, मुझसे बताओ? " मैंने देखा कि लंच समय समाप्त होता जा रहा है और अनिमा की आवश्यक बात अभी आरम्भ भी नही हुई।

" दीपवली का दिन था। उस दिन मैं घर के कार्यों में व्यस्त थी। समय यही कोई तीन बजे दिन का रहा होगा। श्लोक सो रहा था। तभी सहसा डोरबेल बजी। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा तो दरवाजे पर मेरा पूर्व पति खड़ा था। उसे इस प्रकार बिना बताये, बिना पूछे दरवाजे पर आया देखकर मैं स्तब्ध थी।......कुछ कहते नही बना फिर भी पूछा कैसे आना हुआ? " वह मौन था।........

" ........कोई विशेष काम है क्या मुझसे? " बिना दरवाजा खोले ही मैंने पूछा। "

" दरवाजा नही खोलोगी? " दयनीय स्वर में धीरे से उसने कहा।

मन तो नही हो रहा था कि उसे घर के अन्दर बुलाऊँ, फिर भी मैंने दरवाजा खोलकर उसे अन्दर आने का संकेत किया। हम औरतें न जानें क्यूँ भावुक हो जाती हैं? हमारी इसी भावुकता का लाभ पुरूष उठाते हैं। मेरा संकेत पाते ही वो अन्दर आकर सोफे के एक कोने में चिपक कर बैठ गया। अत्यन्त दुर्बल व बीमार लग रहा था वो।.........

" .......कोई विशेष काम है मुझसे? " मैंने उससे पूछा।......

.....मेरे प्रश्न का उत्तर न देकर कर वह मेरा हाल पूछने लगा।

" मेरे बारे में छोड़ो। ये बताओं कि कोई काम है क्या मुझसे? " भावुकता छोड़ मैंने सख़्त होते हुए कहा।

" ........तुम ठीक हो? " उसने पुनः पूछा।

" मेरी छोड़ो ये बताओ काम क्या है? " बार-बार उसका मेरा हाल पूछना मुझे अच्छा नही लगा।

.........वह कुछ नही बोला। बस बैठा रहा। उसका इस प्रकार बिना किसी कारण के मेरे घर में बैठना मुझे अच्छा नही लगा। मुझे उससे घृणा हो रही थी। कितना नकली आदमी है ये! उस समय उसके लिए मेरे मन में यही विचार उठ रहे थे।

" तुम मुझे क्षमा नही कर सकती अनिमा...? " उसने कातर दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा। मैं कछ कह पाती इतने में श्लोक ने मम्मा.....मम्मा कह कर मुझे पुकारा। वह जाग गया था। मैं तुरन्त अन्दर कमरे में गयी। गोद में उठाकर उसके माथे पर हाथ फेरा, वह पुनः सो गया। उसे सुलाकर आने में मुझे दस मिनट लगे तब तक वो वहीं बैठा था। तब तक मैं भी सम्हल चुकी थी।

" .........तुम्हारी दूसरी पत्नी कहाँ हैं? " मैंने उससे पूछा। मेरे इस प्रश्न पर वह चुप रहा। उसकी चुप्पी में मुझे पूरी तरह धूर्तता दिखाई दी।

" अब तुम जा सकते हो। मुझे काम है। " मैंने उससे कहा तथा जाने का संकेत किया।

" ........मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ अनिमा! " उसने दृष्टि झुकाते हुए कहा। मुझे उस आदमी की धूर्तता पर क्रोध आ रहा था। किसी पुरूष का ऐसा रूप मैं प्रथम बार देख रही थी। स्तब्ध थी। दूसरी पत्नी के बारे में पूछा तो उसने कुछ नही कहा। कहाँ गयी.....? क्या हुआ उसका....? इन प्रश्नों के उत्तर वह देना नही चाहता। उसकी बात हर समय मानी जाये, यही उस पुरूष की इच्छा है।

" मुझे तुमसे कोई मतलब नही रखना है.....कोई रिश्ता नही रखना है। अब तुम जा सकते हो। " कह कर मैं अन्दर आ गयी। कुछ देर तक वह अकेले वही बैठा रहा तत्पश्चत् चुपचाप उठकर चला गया। " अनिमा ने पूरी बात बताई तथा मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए मेरी ओर देखने लगी।

ज्यों-ज्यों अनिमा की बातें मैं सुन रही थी पुरूषों के प्रति एक अजीब-सी, कह कते हैं लिजलिजी अनुभूति से गुज़रती जा रही थी। मुझे आश्चर्य हो रहा था। क्या ऐसा भी हो सकता है कि एक पुरूष अपनी पत्नी से कानूनन विवाह विच्छेद कर चुका हो। उसने उसको इस सीमा तक प्रताड़ित किया हो कि वह उससे विवाह विच्छेद कर लेने पर विवश हो गयी हो। जिस पत्नी से वह घृणा करता रहा हो, पुनः उसी पत्नी के पास वापस लौटने का प्रयत्न करे। मानों स्त्रियाँ खेलने की अथवा मनोरंजन की कोई वस्तु हो गयी हों। जब तक जी चाहा खेला, जब जी चाहा फेंक दिया।

पहले तो उसने अनिमा का जीवन बरबाद करने में उसने कोई कसर न छोड़ी। वो तो अनिमा जैसी साहसी महिला थी, जो लड़खड़ाते हुए अपने पैरों पर खड़ी हो गयी। उसके पश्चात् उसने दूसरी महिला की भावनाओं, संवेदनाओं व देह के साथ खेला। उससे मन भर गया तो अब उसे भी छोड़ कर पहली पत्नी के पास लौटना चाहता है। क्यों.....? क्यों कि पहली पत्नी ने अपनी योग्यता से प्रमाणित कर दिया है कि वो उसके बिना भी ज़िन्दा रह सकती है........प्रसन्न रह सकती है। उसके साथ के जीवन से कहीं अधिक, अकेले खुशहाल जीवन जी सकती है। मुझे इस बात पर यकीन हो चला था कि ये मर्द औरत के स्वस्थ शरीर में जब तक सौन्दर्य, आकर्षण, यौवन है तब तक साथ देने के लिए तत्पर रहेंगे। उसका उपभोग करेंगे। युवावस्था व आकर्षण ढलते ही उसको अनुपयोगी व बोझ मान कर उसका तिरस्कार करने लगेंगे। पुरूषों की इस मानसिकता में परिवर्तन कब आयेगा? कब वो स्त्री को उसका यथोचित अधिकार व सम्मान देगा?

" तो तुमने क्या सोचा है अनिमा....? " मैंने अनिमा से उसका विचार जानना चाहा।

" सोचना क्या है? अब उस व्यक्ति को पुनः अपने जीवन में लाने के बारे में सोच भी नही सकती। मैंने कभी सोचा भी न था कि वो इस प्रकार दो वर्षों के पश्चात् वापस आकर मेरे समक्ष खड़ा हो जायेगा। मुझे उससे घृणा है। दो वर्ष का समय अधिक नही होता है नीरू, किन्तु इतनी कम अवधि में ही मैं उसे विस्मृत कर चुकी हूँ।....... स्त्रियों की भावनाओं के साथ खेलने वाला कापुरूष। " अनिमा ने बुदबुदाते हुए कहा।

" अब यदि दुबारा वो मेरे समने आया तो मेरा वो रूप देखेगा जिसकी उसने कल्पना भी न की होगी। " अनिमा की बात सुनकर मैं मुस्करा पड़ी। सोचने लगी, अनिमा के साहस के समक्ष मैं कुछ भी नही।

इस पुरूष प्रधान समाज में अनिमा जैसी सहसी स्त्रियों की आवश्यकता है। जो अपना सम्मान व अधिकार स्वंय प्राप्त करती हैं। अपनी शिक्षा, आत्मनिर्भरता व विवेक से स्वंय को प्रमाणित करती हंै।

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