उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 17 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 17

भाग 17

शालिनी ने इन्द्रेश के समय चुनाव का प्रचार तो नही देखा था। चुनाव के समय में वह कभी भी इन्द्रेश के साथ नही जाती थी। किन्तु राजेश्वर इन्दे्रश के चुनाव का काम देखता था अतः उसने राजेश्वर साथ मिल कर चुनाव प्रचार का कार्य प्रारम्भ कर दिया। बल्कि राजेश्वर जैसा व जो भी कहता वह शालिनी करती। उसी अनुरूप उसने चुनाव प्रचार का काम प्रारम्भ किया।

वो अपने क्षेत्र में जनसम्पर्क अभियान चलाने के लिए अधिकांश समय वहीं व्यतीत करने लगी। इस कठिन समय में उसे सबसे बड़ा सम्बल राजेश्वर का था। अपना घर परिवार जिसमें उसकी पत्नी, बच्चे, माता-पिता सब थे, शालिनी के बुलाने पर उन सबको छोड़कर तुरन्त शालिनी के पास आ जाता था। उसने कभी भी अपनी पारिवारिक विवशता शालिनी के समक्ष नही रखी।

अपने घर वालों के सहयोग के अभाव में शालिनी राजेश्वर पर निर्भर होती जा रही थी। उसे अक्सर ऐसा लगता कि राजेश्वर के बिना जीवन का एक पग भी तय नही कर पायेगी। चुनाव क्षेत्र में दौड़ भाग करते-करते, घर-घर जनसम्पर्क अभियान करते हुए दिन व्यतीत होते जा रहे थे। राजेश्वर शालिनी के लिए चुनावी सभाओं के आयोजन के लिए खूब परिश्रम कर रहा था। सभाओं का आयोजन ही क्यों चुनाव का पूरा दायित्व उसने ही तो सम्हाल रखा था।

अन्ततः चुनाव का दिन भी आ ही गया। शालिनी के हृदय का स्पन्दन भी बढ़ने लगा था। सभाओं में भीड़ जुटनें के पश्चात् भी वह जनता के रूख और रूझान से अनभिज्ञ थी। न जाने क्या होगा? यह चुनाव जीतना शालिनी के अनिवार्य हो गया था। यह चुनाव उसकी प्रतिष्ठा से अधिक अपने बच्चों के भविष्य से जुड़ गया था। साँझ ढ़लने लगी थी। शालिनी अपने कक्ष में बैठी सोच रही थी कि इस समय उसके क्षेत्र में चुनाव सम्पन्न हो चुका होगा। जनता ने न जाने उसके पक्ष में अपना मत दिया होगा या नही। उहापोह कर स्थिति में उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। रात गहारती जा रही थी। उसे नींद नही आ रही थी। उसने बच्चों अपने पास बुला कर सीने से चिपकाकर लिटा लिया।

शालिनी को स्मरण है कि वो बचपन से ही गहराती साँझ को देखकर भयभीत हो जाया करती थी। साँझ ढ़लते ही वो माँ के पास बैठ जाती थी। तब तक बैठी रहती जब तक उसे नींद न आने लगती। आज भी शाम के समय अकेले में कभी-कभी उसे ऐसी ही अनुभूति होने लगती है। आज से शालिनी का चुनाव-क्षेत्र में दौड़-भाग का काम समाप्त हो गया था। वह घर में बच्चों के साथ थी। किन्तु न जाने क्यों एक अज्ञात- से भय और चिन्ता ने उसे जकड़ रखा था।

रात्रि के लगभग ग्यारह बज गये थे। बच्चे सो गये थे, किन्तु उसको अब तक नींद नही आ रही थी। इच्छा हो रही थी कि किसी से बातें करे और मन हल्का हो जाये। कोई कुछ ऐसा कहे कि इस समय हृदय में हो रही उथल-पुथल शान्त हो जाये। कोई तो उसे सान्त्वना दे कि आगे सब कुछ अच्छा होगा और वो व्यकुल न हो। राजेश्वर के अतिरिक्त और कौन ऐसा कह सकता है? उसके मन में एक बार राजेश्वर को फोन करने का विचार आया। किन्तु यह सोचकर उसे संकोच हुआ कि राजेश्वर कहीं सो न रहा हो, वह भी तो आज चुनाव में अथक परिश्रम करता रहा।

पूरे दिन के पश्चात् वह भी साँझ ढले घर आया होगा। थक गया होगा। आराम कर रहा होगा। बहुत देर तक उहापोह की स्थिति में शालिनी बैठी रही अन्ततः रहा न गया और राजेश्वर का फोन मिलाया। उसके मन में यह विचार भी उठ रहा था कि इतनी रात को किसी का फोन आने पर उसकी पत्नी क्या सोचेगी? कहीं उसको बुरा न लगे। फोन की घंटी बजते ही राजेश्वर ने तुरन्त फोन उठाया।

" क्या बात है भाभी..? " इन्द्रेश के समय राजेश्वर ने कभी उसे भाभी कह कर सम्बोधित नही किया। बल्कि ऐसा कोई अवसर नही आया कि वह उसे कुछ भी कह कर सम्बोधित करता है। उसके मुँह से शालिनी आज प्रथम बार कोई सम्बोधन सुन रही थी। यह सम्बोधन उसे कुछ क्षण के लिए अटपटा लगा किन्तु यह सोचकर तुरन्त वह सामान्य हो गयी कि यदि राजेश्वर उसे भाभी नही कहेगा तो और क्या कहेगा?

" कोई विशेष बात नही। बस मन थोड़ा घबरा रहा है.......इसीलिए....." कहकर शालिनी चुप हो गयी।

" भाभी घबराईये नही। सब कुछ अच्छा होगा। क्षेत्र की जनता हमारी पार्टी के पक्ष में है। साथ ही आपके परिश्रम का अतिरिक्त लाभ भी हमें मिलेगा। ईश्वर ने चाहा तो सब कुछ ठीक होगा। आपकी घर -गृहस्थी....जीवन....बच्चों का भविष्य.....सब कुछ अच्छा रहेगा। सो जाईये भाभी चिन्ता न कीजिए। " राजेश्वर ने समझाते हुए कहा।

राजेश्वर की बातें सुनकर शालिनी का बोझिल मन का हल्का होता हुआ प्रतीत हुआ। सारी चिन्तायें विस्मृत कर शालिनी निद्रा की गोद में समा गयी। दूसरे दिन राजेश्वर उससे मिलने आया। शालिनी को इस समय सचमुच उसकी कमी महसूस हो रही थी। राजेवर कैसे पढ़ लेता है उसके मन की बातें...? शालिनी समझ न पाती। वह देर तक शालिनी के पास बैठा रहा।

घर में सबको इस बात की जानकारी हो गयी थी कि वो शालिनी के चुनाव के कार्य की देखभाल कर रहा है। उसे शालिनी के पास जाने के लिए किसी के आज्ञा की आवश्यकता नही है। वैसे भी राजेश्वर साहसी व निडर व्यक्तित्व का है, यह सभी जानते हैं। इसलिए घर में राजेश्वर के आने-जाने पर कोई कुछ कह नही पाता। वह बेरोकटोक घर में आता। इतना होने पर भी राजेश्वर ने अपने संस्कार नही छोड़े थे ।

घर में आने पर जब भी कभी इन्दे्रश में माता-पिता से उसका सामना होता, वह उनका यथोचित अभिवादन अवश्य करता। कभी भी उनसे दृष्टि चुराने का प्रयास उसने नही किया। वो जब चाहें जो कुछ चाहें उससे पूछ सकते थे। राजेश्वर उनके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार था। उसने काई ग़लत काम नही किया है। संकट की घड़ी में अपने मित्र के परिवार की सहायता की है। शालिनी को उसके अधिकार दिलाने में उसकी सहायता की है। इसमें कुछ भी ग़लत नही है।

♦ ♦ ♦ ♦

सेवानिवृत्त होकर जीजा कुशीनगर आ गए थे। नौकरी में रहते ही उन्होंने कुशीनगर के मुख्य लोकेशन पर एक बड़ी-सी जमीन ले ली थी। सेवानिवृत्ति के पश्चात् जीजा उस जमीन पर भव्य मकान बनवा रहे थे। मकान बनने का काम जोर-शोर से हो रहा था। उच्च पद पर रहते हुए जीजा के कमाये पैसों का अनुमान मकान की भव्यता देखकर लगाया जा सकता था। एक वर्ष से अधिक होने वाला था, किन्तु दीदी का घर अभी तक बनने की प्रक्रिया में था। कारण घर बड़ा था, और नयी तकनीक द्वारा, नयी चीजों से सुसज्जित हो रहा था। नये व अच्छे पत्थरों, मार्बल्स इत्यादि से दीदी का मकान सजा-सँवार कर बनाया जा रहा था। इसीलिए उसका मकान बनने में समय लग रहा था।

दीदी ने भले ही मुझसे कोई नाता न रखा हो.... न रखना चाहती है, किन्तु मैं कैसे दीदी को विस्मृत कर दूँ....? उससे मिलने की, बातें करने की मेरी इच्छा होती है। मैं उसे स्मरण करती रहती हूँ। एक दिन दीदी से मिलने की मेरी इच्छा अत्यधिक हो रही थी। मैं उनसे मिलने उनके घर चली गयी। आखिर कुशीनगर है कितनी बड़ा कि कहीं जाया न जा सके? बस इच्छा शक्ति होनी चाहिये। कोई भी पूरे कुशीनगर के एक कोने से दूसरे कोने में कहीं भी एक से दो घंटे में पहुँच सकता है। मैं दीदी के घर गयी। मुझे देखते ही दीदी अत्यन्त प्रसन्न हो गयी। दीदी के चेहरे पर आयी प्रसन्नता देखकर मैं अचम्भित थी। मैं अपनी प्रसन्नता की तलाश में दीदी से मिलने आयी थी।

मुझे दीदी से मिलने की इच्छा थी। दीदी से मिलने अपनी प्रसन्नता के लिए आयी थी, प्रसन्न मुझे होना चाहिए था। किन्तु दीदी इतनी अधिक प्रसन्न हो जायेगी ऐसी आशा मुझे न थी। जीजा भी ड्राइंग रूम में मुझसे मिलने आ गए।वो भी मुझे देख कर खुश थे। जीजी को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। उन्हें सेवानिवृत्त हुए अभी एक वर्ष भी ठीक से व्यतीत न हुए थे, जीजा का शरीर पहले की अपेक्षा दुर्बल हो रहा था। वे बीमार प्रतीत हो रह थे। मैं दीदी के घर कुछ देर तक बैठी रही। इधर-उधर के नाते-रिश्तेदारों की बातें होती रहीं। अब मैं घर जाने के लिए तत्पर हुई। अन्ततः मुझसे न रहा गया।

" जीजा आप तो अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। " दीदी के घर से चलने से पूर्व मेरे मुँह से न चाहते हुए भी निकल ही गया।

" अरे, कुछ नही। नये मकान की देखभाल में खाना-पीना सब असमय हो गया है। दिन भर मजदूरों के साथ वहीं लगे रहते हैं। खाने के लिए बुलाओ तो अभी आ रहा हूँ, कहकर देर कर देते हैं। अब सब ठीक हो जायेगा। " दीदी की बात सुनकर मैं मुस्करा पड़ी।

" पुनः आना नीरू। तुम आयी तो अच्छा लगा। " दीदी मुझे छोड़ने गेट तक आयी तथा मेरा हाथ थामते हुए अत्यन्त आग्रह से बोल पड़ी।

" जी, अच्छा दीदी। " मैंने कहा और घर की ओर चल पड़ी।

रास्ते भर मैं सोचती रही कि आज दीदी मुझ पर कितना प्यार लुटा रही थी, किन्तु न जाने क्यों मुझे दीदी का प्यार खोख़ला लग रहा था। अभय से मेरा विवाह हो जाने के कारण आज तक उसने मुझे दोषी बना कर रखा था। उसने कभी भी मुझसे सीधे मुँह बात न की। मैं तरसती रह गयी कि कभी तो दीदी मुझसे अपनी छोटी बहन की भाँति स्नेह से बातें करे, किन्तु उसने मुझसे दूरी बनाये रखी। मेरे प्रति दीदी के शुष्क व्यवहार के पश्चात् भी मुझे जीजा के स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता हो रही थी।

मार्ग में मैंने दीदी के निर्माणाधीन मकान को भी देखा। मकान काफी बड़ा व भव्य था। इतना बड़ा मकान...? दीदी इसका क्या करेगी...? इतनी कठिनाईयाँ उठा कर इस मकान को बनवा रही है। जब कि कुशीगनर में दीदी की ससुराल का अपना घर है। वो भी ठीक-ठाक बड़ा है। सोमेश का एक छोटा भाई और है, जिसके बीवी बच्चे हैंै। दो भाईयों के परिवार के लिए वो मकान छोटा नही है। सोमेश के भाई के बच्चे बड़े हो गये हैं, व्याहने योग्य।

दीदी के कोई बच्चा नही है। वो चाहे तो उस मकान के आधे हिस्से में आराम से रह सकती है। सेवानिवृत्ति के पश्चात् इतना बड़ा मकान बनवाना, जीजा से उसकी देखभाल करवाना, स्वंय भी उसमे जुटे रहना, जीजा स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नही तो और क्या है? माना कि दीदी युवा है....उसके सपने होंगे जिसे वो पूरा करना चाहती है, किन्तु जीजा की उम्र को देखते हुए उनका ध्यान तो उसे रखना ही चाहिए।

शरीर रूपी मोमबत्ती को उतना ही जलाना चाहिए जितने में वो हमारी आवश्यकता पूरी करने भर के लिए प्रकाश देती रहे, न कि अधिक प्रकाश के लिए उसके दोनों सिरों को जला दिया जाये, और कुछ देर तक अधिक प्रकाश देने के पश्चात् उसकी प्रकाश देने की अवधि शीघ्र समाप्त हो जाये। इस समय दीदी कुछ ऐसा ही कर रही थी। जो भी हो वो दीदी की अपनी समस्या है। मैं नाहक परेशान हो रही हूँ। उसकी समस्या के बारे में सोचने की व बिना मांगे सलाह देने की मुझे आवश्यकता नही है। दीदी के बारे में सोचना छोड़ मैं शीघ्र ही अपने घर की ओर बढ़ गयी।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। प्रदेश के सभी विधान सभा क्षेत्रों के सभी चरणों के चुनाव सम्पन्न हो गये थे। चन्द दिनों में चुनाव के परिणाम भी घोषित हो गये। शालिनी अपने क्षेत्र से विजयी घोषित हो गयी। मुझे अनुमान था कि शालिनी अवश्य विजयी होगी। मुझे शालिनी की जीत से नही, बल्कि उसके रिकार्ड वोटों की जीत से आश्चर्य हुआ। सभी का यह कहना था कि शालिनी के अच्छे व्यवहार के कारण उसे वोट मिला। साथ ही साथ उसे सहानुभमति के वोट भी खूब मिले। इन्द्रेश के असामयिक निधन से उपजी सहानुभूति का वोट। जो भी हो शालिनी की इस विजय से हम सब प्रसन्न थे।

शालिनी की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी। अपने क्षेत्र की जनता के प्रति वो उत्तरदायी जो हो गयी थी। क्षेत्र के विकास कार्यों में उसका खूब मन लग रहा था। साथ ही वो जनता की समस्यायें भी सुनती थी तथा उन समस्याओं को दूर करने का प्रयास भी करती। इन कार्यों में पग-पग पर उसके साथ चल रहा था राजेश्वर। तो विधायकों द्वारा मुख्यमन्त्री के चयन से लेकर मन्त्रियों के शपथ ग्रहण समारोह तक राजेश्वर उसके साथ लखनऊ गया। उसके साथ रहा। इन्द्रेश के माता-पिता, शालिनी के पति का भाई चन्द्रेश, उसका परिवार सबने उसका बहिष्कार कर रखा था। कोई उसका हाल नही पूछता, उससे बात नही करता।

शालिनी समझ नही पाती कि उसने किसको कौन-सी हानि पहुँचाई है? किसके अधिकरों को छीना है? उसने अपने बच्चों के भविष्य के लिए सोचा। अपने अधिकरों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया....तो क्या ये अपराध है..? उसने किसी को हानि नही पहुचायी। किसी के हृदय को चोट नही पहुँचाई फिर भी उसका बहिष्कार, उससे बेगानों सा व्यवहार उसकी समझ से परे था। शालिनी का हृदय ससुराल वालों के व्यवहार से व्यथित रहता।

पारिवारिक तनाव से बचने के लिए उसने स्वंय को राजनीति में व्यस्त रखना प्रारम्भ कर दिया। वैसे भी परिस्थतियों ने उसे राजनीति में खींच लिया था। तनाव उसके स्वास्थ्य को हानि पहुँचा रहा था। बच्चों के भविष्य के लिए उसे स्वस्थ और जीवित भी रहना होगा। धीरे-धीरे उसने घर के लोगों की परवाह करना छोड़ दिया तथा बच्चों की देखभाल व राजनीति में स्वंय को व्यस्त रखना प्रारम्भ कर दिया। राजधानी के पार्टी मुख्यालय में मन्त्रियों की चयन प्रक्रिया चल रही थी। इस दौरान उसे पार्टी के बुलावे पर बार-बार लखनऊ जाना पड़ रहा था। लखनऊ कर भाग-दौड़ में एक दिन राजेश्वर ने उसे सलाह दी कि, " शालिनी जी न हो तो लखनऊ में एक जमीन का प्लाट लेकर डाल दीजिए। "