उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 16 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 16

भाग 16

आज सुबह से अभय से कोई बात नही हुई मेरी। उसे चाय देने से लेकर घर के सभी कार्य कर मैं घर से कार्यालय के लिए निकली हूँ। बस की खिडकी के पास बैठी मैं बाहर के दृश्य देेख रही हूँ। बस आगे बढती जा रही है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा है। बस की गति के साथ विचारों का प्रवाह भी तीव्र होता जा रहा है। मैं सोच रही हूँ, उम्र ढ़लने पर मर्द औरत के साथ क्यों इस प्रकार का व्यवहार करता है?

क्यों वह उस समय उसके समक्ष विजेता बनकर खड़ा हो जाता है, जब वह औरत घर गृहस्थी को बनाने, सजाने-सँवारने में अपना सब कुछ खर्च कर चुकी होती है, अपना यौवन, सामथ्र्य.....सब कुछ। उम्र के ढलान पर इनमें से कौन-सी वस्तु वो दुबारा पा सकती है? कुछ भी तो नही। पत्नी पसन्द नही है तो क्यों नही? युवा थी तो पसन्द थी। पौढ होते ही पसन्द नही है। क्यो...? आज के लड़के देख-समझ कर लड़कियों से व्याह करते हैं। फिर भी ये समस्या क्यों उत्पन्न हो रही है? क्यों विवाह के कई वर्षों के पश्चात् पत्नी बुरी लगने लगती है? अब से अच्छा तो वो पहले वाला समय ही था तब लोग बिना लड़की देखे विवाह करते थे और पूरी उम्र उस पत्नी के साथ इमानदारी से व्यतीत कर देते थे ।

पहले मैं ’ लीव इन रिलेशनशिप ’ से बने रिश्तों के मैं विरूद्ध थी। इसको बुरा मानती थी। ऐसे रिश्तों के बारे में सोच कर मुझे घिन आती थी। अब जीवन के इस मोड़ पर आकर स्त्री-पुरूष के बीच बने ऐसे रिश्तों को मैं सही मानने लगी हूँ। कम से कम लड़का-लड़की एक दूसरे को समझते तो हैं। किन्तु नही, कदाचित् मैं ग़लत हूँ। इसमें भी स्त्री के साथ छल और धोखे की संभावनाएँ सभी प्रकार से है।

प्रत्येक परिस्थितियों में औरत के ठगे जाने की सम्भावनायें हैं। अनिमा को भी यही बात समझाना चाह रही थी कि औरतों को ये लड़ाई लड़ने के लिए प्रत्येक परिस्थिति में तैयार रहना होगा। उसे शिक्षित और आत्मनिर्भर होना होगा। किसी भी उम्र में अपने ऊपर उम्र को हावी न होने देने में ही औरत की समझदारी व जीत है। उसे अपने अन्दर की युवती को प्रत्येक उम्र में ज़िन्दा रखना होगा।

हमें उन पुरानी मान्यताओं को तोड़ना होगा, जिसमें औरत युवावस्था में स्वंय का सजाती-सवाँरती है। महज इसलिए कि पति को अच्छी लग सके। मात्र पति के लिए सब कुछ करना ही उनके जीवन का पहला ग़लत कदम होता है। यहीं से हमें उन मान्यताओं को तोडऩा है। सजो-सँवरो, आकर्षक लगो, स्वस्थ रहो पुरूषों के लिए नही, स्वंय के लिए। अपने जीने के लिए.....अपनी खुशी के लिए भी समय निकालो।

आवश्यक तो नही कि अपना सम्पूर्ण जीवन घर-गृहस्थी व बच्चों के बीच खपा दिया जाये। जब सब कुछ सम्पूर्णता की ओर बढ़ चले, बच्चे बड़े हो जायें, उनकी शिक्षा पूरी हो जाये तब अपनी ओर ध्यान दिया जाये। माना कि घर गृहस्थी के उत्तरदायित्व भी आवश्यक हैं। उसे भी पूरा करना है, किन्तु तुम्हारा भी एक सम्पूर्ण जीवन है। जिस पर तुम्हारा अधिकार है। उसे ऐसे कार्यों में मत व्यर्थ करो, जिसका श्रेय तुम्हे नही मिलना है। ये बातें मात्र मैं सोच ही सकती थी। अनिमा से कह नही सकती थी। अनिमा की परिस्थिति ऐसी थी कि उससे इस समय कुछ भी कहना उचित नही था।

कार्यालय में अनिमा अपनी समस्यायें मेरे समक्ष रखती। हम दोनों उस पर विचार करते कि अगला कदम क्या हो ? आगे क्या करना है? कैसे और किस मार्ग का चुनाव करें कि अनिमा के जीवन की कठिनाईयाँ सुलझ जायें। फिलवक्त कोई मार्ग नज़र नही आ रहा था।

♦ ♦ ♦ ♦

दीदी से मेरी मुलाकात बहुम कम हो पाती। प्रांजल अपने बेटे का जन्मदिवस इस बार पडरौना में मनाना चाहता था। उसका आमंत्रण मुझे भी मिला है। मैंने निश्चय कर लिया था कि कार्यालय से अवकाश लेकर इस बार पडरौना अवश्य जाऊँगी।

बाहर नौकरी करने के कारण भाई अवकाश के दिनों में ही पडरौना आ पाता है। माँ-बाबूजी अकले नौकरों-चाकरों के भरोसे रहते हंै। माँ बता रही थी कि ताऊ जी की तरफ से आजकल बड़ी शान्ति रहती है, अतः अकेले रहने मे कोई परेशानी नही है। दुःख-सुख में पास पड़ोस के लोग खड़े हो जाते हैं। छोटे शहरो की ये भी एक विशेषता है। प्रांजल भी तीज-त्योहार में पत्नी, बच्चों के साथ आ ही जाता है। सुनकर मुझे अच्छा लगा कि प्रांजल पुत्र धर्म का पालन कर रहा है।

फिर भी अकेलापन तो अकेलापन होता है, जिसे समय-समय पर दूर न किया जाये तो वो स्थान घेरने लगता है। भाई को फोन कर मैंने अपने आने की स्वाकृति दे दी। उसने बताया कि दीदी भी आ रही है। उसने यह भी बताया कि बच्चे का जन्मदिवस पडरौना में मनाने का एक मुख्य कारण भी है कि यहाँ से दूर पोस्टिंग हो जाने के कारण पास-पड़ोस, मित्र-यार सब दूर होते जा रहे थे, नयी पीढ़ी से परिचय छूटता जा रहा था। सोचा इस अवसर पर उन सबको आमंत्रित कर ठहर चुके मेल-मुलाकातों का दौर पुनः प्ररम्भ करूँ। पहले पढ़ाई फिर कोचिंग तत्पश्चात् पोस्टिंग इत्यादि की व्यस्तता में सब कुछ पीछे छूटता गया। " भाई के ये विचार मुझे अच्छे लगे।

पडरौना में भाई ने अपने बेटे के जन्मदिवस का भव्य आयोजन किया था, इतना भव्य जो मेरे अनुमान से कहीं अधिक था। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा पडरौना ही इस समारोह में शामिल होने आ गया हो। बहुत सारे लोग उपस्थित थे। मेरे कॉलेज के वे सारे लोग भी थे जिन्हें विवाह के पश्चात्् मैं दुबारा देख नही पायी थी, उनसे इस प्रकार पुनः मुलाकात होगी मैंने सोचा भी न था। भाई के वे मित्र जो उस समय नवयुवक थे, वे अब अपनी पत्नी व बच्चों के साथ थे। मेरे व दीदी के साथ पढ़ी अनेक मित्र व सहेलियाँ जो पडरौना में आस-पास व्याही गयीं थीं, उन सबको भाई ने बुलाया था।

कई जान-पहचान वालों लोगों, नाते रिश्तेदारों से मैं व्याह के पश्चात् प्रथम बार मिल रही थी। बिछड़े लोगों से मिलने के कारण इस समारोह का आनन्द दुगना ही नही, कई गुना बढ़ गया था। समारोह में दीदी जब भी मुझेव अभय को देखती, हमसे दूरी बनाने का प्रयत्न करती। कुछ औपचारिक बातों के अतिरिक्त उसने मुझसे कोई बात नही की। मेरे पति अभय से तो उसने औपचारिक बात भी नही की।

जीजा और दीदी की उम्र में असमानता है, ये बात.....ये बात, ये चर्चा पुरानी हो चुकी है। दीदी अपने वैवाहिक जीवन में समायोजित हो चुकी है। ये भी अच्छी बात है। एक बात मेरी समझ से बाहर है कि जीजा की उम्र अधिक है तो है ही, दीदी क्यों जीजा की उम्र को छूने का प्रयास कर रही है? माना की उसकी युवावस्था को भी व्यतीत हुए एक अरसा हो गया है। किन्तु इतना भी नही कि दीदी अपनी हम उम्र महिलाओं से बड़ी लगने लगे। चेहरा नीरस, बाल खिचड़ी, आँखों के चारों ओर बन रहे हल्के स्याह घेरे।

दीदी क्यों नही अपने स्वास्थ्य और आकर्षण का ध्यान रख रही है? सभी के जीवन मंे एक अवस्था ऐसी आती है, जब व्यक्ति सादा जीवन जीने लगता है। किन्तु सादा का अर्थ अस्वस्थ तो नही। दीदी का जीवन के प्रति इतनी शीघ्र विरक्ति या कह सकते हैं वैराग्य उत्पन्न होना मुझे उचित नही लग रहा था। दीदी से कुछ भी कहने या पूछने में मुझे झिझक-सी हो रही थी। इसका कारण यही था कि दीदी ने मुझसे इतनी दूरी जो बना ली थी कि कुछ भी पूछना सम्भव नही लग रहा था।

समारोह के दूसरे दिन दीदी चली गयी। कारण ये था कि जीजा के पास अवकाश न था। दो दिन और रूक कर भाई को भी जाना था। दोनों दिनों भाई व्यस्तत रहा। कैटरर्स, तम्बू-कनात, आदि चाीजों का हिसाब करने से लेकर सभी अतिथियों को कुछ न कुछ उपहार देकर विदा करने इत्यादि में प्राजंल के साथ-साथ माँ-बाबूजी भी लगे रहे। प्रांजल के दोनों दिन व्यस्तता भरे रहे। तीसरे दिन प्रातः आठ बजे प्रांजल की ट्रेन थी। वो परिवार के साथ चला गया। सबसे समीप पडरौना से मात्र कुशीनगर तक ही मुझे जाना था। मैं एक दिन के लिए और रूक गयी। मैं रूक गयी थी अतः माँ मुझसे अपने मन की बातें बताती रहती।

बातों-बातों में माँ ने बताया कि, " अगले वर्ष दामाद की रिटायरमेण्ट है। मन चिन्तित है। कैसे अनु का आगे का जीवन कटेगा? " माँ के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें स्पष्ट थीं। उनकी चिन्ता उचित भी थी।

.......किन्तु माँ बाबू जी ये सब उस समय सोचना चाहिए था, जब विवाह किया था। ये स्थिति तो एक न एक दिन आनी ही थी। दीदी अभी चालीस वर्ष की भी नही है। ये युवावस्था की चरम अवस्था होती है। इस समय इच्छायें, कामनायें सभी अपनी युवावस्था में होती है। इस उम्र में जब सब कुछ पाने की इच्छा होती है, तब दीदी को जीजा के रिटायरमेण्ट के साथ शनैः- शनैः शिथिलता की ओर बढ़ना होगा।

बेमेल विवाह की यही कुछ हानियाँ हैं। मैं भारी मन से कुशीनगर आ गयी। दीदी के बारे में सोच-सोच कर मन व्याकुल होता रहा। इतना व्याकुल कि मेरी इच्छा हो रही थी कि यहाँ से किसी ऐसे स्थान पर चली जाऊँ जहाँ मेरे मन को शान्ति मिल सके। दूसरे दिन शान्ति की तलाश में मेरे कदम महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण स्थल पर बढ़ते गये। कुछ ही देर में मैं उस महान भूमि पर थी। वहाँ की शीतलता, हरियाली व चारों ओर फैली शान्ति मेरे व्याकुल मन को असीम सुख प्रदान कर रही थी।

इच्छा यही हो रही थी कि मैं यहीं बस जाऊँ, तथागत् के चरणों में। इस संसार से, इन नाते -रिश्तेदारों से कोई रिश्ता न रहे। मैं बौद्धकालीन खण्डहरों में देर तक भटकती रही। तथागत् से यही विनती करती रही कि वो अपने चरणों में मुझे स्थान दें। मुझे शान्ति दें। सृष्टि पर शनै- शनै साँझ उतरने लगी थी। मेरा मन वहाँ से आने का नही हो रहा था। किन्तु आना ही था अपनी उसी दुनिया में जो कर्मभूमि है। और कर्म किए बिना मोक्ष सम्भव नही है। मैं अपनी दुनिया में वापस आने के कदम बढ़ाने लगी।

मेरे दोनों बच्चों की इण्टरमीडिट तक की शिक्षा पूरी हो गयी थी। उच्च शिक्षा के लिए वे बाहर जाना चाहते थे। उनके भविष्य के लिए मुझे उन्हें बाहर भेजना पड़ा। अब घर में मैं, अभय व उनके माता-पिता ही रह गये। एक दिन वो भी आ गया जब माँ ने बताया कि जीजा सेवानिवृत्त हो गए हैं।

कुछ देर को मैं परेशान अवश्य हुई, किन्तु मन को समझा ही लिया कि दीदी ने पैसे और पावर के लिए बेमेल विवाह किया था। पावर तो नही रही, अब पर्याप्त पैसा अवश्य उसके पास होगा, जिसके साथ वो प्रसन्न रहेगी। दीदी का यही सब कुछ चाहिए था। जब उसे किसी प्रकार की आपत्ति नही है तो मुझे क्यों हो। या किसी अन्य को क्यो हो? अन्ततः ये निर्णय उसका ही तो था।

इधर विधान सभा चुनावों की तिथियाँ समीप आती जा रही थीं। प्रत्येक प्रत्याशी चुनाव प्रचार के सारे उपाय कर रहा था। पोस्टर, पम्फ्लेट और बैनरों से पूरा कुशीनगर पट गया था। जब कि चुनाव आयोग का स्पष्ट आदेश व दिशानिर्देश था कि घर वालों की अनुमति के बिना किसी के घर के दीवारों, दरवाजांे पर बैनर, पोस्टर न लगाये जायें। प्रतीत होता था कि ये आदेश बड़े शहरों व राजधानी तक ही सीमित रह गया हैं। यहाँ तो पूरा कुशीनगर पोस्टरों- बैनरों से पट गया था। इसका एक कारण यह हो सकता है कि छोटे शहरों व ग्रामीण बाहुल्य क्षेत्रों में सभी एक-दूसरे से परिचित रहते हैं।

चाचा, काका, फूफा आदि स्नेह व अपनापन के मुँहबोले रिश्तों से बँधे रहते है। यही सब चुनाव में प्रतिभाग करते हैं। अतः ऐसे रिश्तों में मना करने का प्रश्न ही नही उठता। जो जिसके दीवारों-दरवाजों पर चाहे पोस्टर, पम्फ्लेट चिपका सकता था। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ के लोगों को चुनाव आयोग के आदेशों की जानकारी न होना व जागरूकता का अभाव होना हो सकता है।

कुशीनगर के कुछ गिनेचुने जो चैराहे थे वो चैराहे भी बड़ी-बड़ी होर्डिगं से पट गये थे। कहीं लाउडस्पीकरों का शोर तो कहीं दरवाजे-दरवाजे प्रत्याशियों का मतदाताओं से मेल-जोल जारी था। चुनाव की गहमा-गहमी से पूरा कुशीनगर भर गया था। कुशीनगर ही क्यों, पूर्वाचंल के सम्पूर्ण क्षेत्र में यही माहौल था। इसमें सबसे अच्छी बात ये थी कि चैराहों, चाय-पान का दुकानों आदि पर सामान्य जन भी चुनाव व प्रत्याशियों की चर्चा-परिचर्चा करता दिखाई देता। जिससे उन्हें सही प्रत्याशियों के चयन में सहायता अवश्य मिलती होगी।

ये हमारे ग्रामीण बाहुल्य क्षेत्र की विशेषता है कि यहाँ सभी पकार की चर्चाये-परिचर्चाएँ जिसे शहरी लोग डिस्कशन कहते हैं ओर ये सब करने के लिए आधुनिक साजसज्जा से पूर्ण वातानुकूलित कक्ष चाहिए होता है, ग्रामीण क्षेत्रों में ये सब खेत-खलिहानों, चैराहों, चाय-पान की दुकानों आदि पर हो जाता है। राजनीति पर चर्चा के साथ-साथ वोट किसे देना है, ये भी उन्हीं स्थानों पर बैठ कर लगभग तय कर लिया जाता है। मुझे ये स्वस्थ परम्परा लगती है। शहरों मे ये निर्णय टेलिविजन पर पार्टी के नेताओं की बहस सुनकर लेते है। कभी-कभी ये वाद-विवाद निरर्थक बहस में तब्दील हो जाती है।